मुल्ला नसरुद्दीन की पूरी दास्तान
मध्यपूर्व के मुस्लिम देशों में 13वीं शताब्दी में हुए मुल्ला नसरुद्दीन, अपने समय का सर्वाधिक बुद्धिमान और खुशमिज़ाज व्यक्ति था। तरह-तरह की तिकड़मबाजियों से वह धन जमा करता और उसे गरीबों, जरूरतमंदों में बांट देता। इसलिए समाज के गरीब और बेसहारा लोगों के बीच वह काफी लोकप्रिय था। उसकी लोकप्रियता से बादशाह और सरदार उससे चिढ़ते थे। वे उसे सदा सजा देने की ताक में रहते, पर हर बार अपनी चालाकियों से वह बच निकलता है।
वतन को लौटता मुल्ला नसरुद्दीन
शाम के सूरज की किरणें बुखारा शरीफ के अमीर के महल के कंगूरों और मस्जिदों की मीनारों को चूमकर अलविदा कह रही थीं। रात के कदमों की धीमी आवाज दूर से आती सुनाई देने लगी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ऊंटों के विशाल कारवाँ के पीछे-पीछे अपने सुख-दुख के एकमात्र साथी गधे की लगाम पकड़े पैदल आ रहा था। उसने हसरत-भरी निगाह बुखारा शहर की विशाल चारदीवारी पर डाली, उसने उस खूबसूरत मकान को देखा, जिसमें उसने होश की आँखें खोली थीं, जिसके आँगन में खेल-कूदकर बड़ा हुआ था। किंतु एक दिन अपनी सच्चाई, न्यायप्रियता, गरीबों तथा पीड़ितों के प्रति उमड़ती बेपनाह मुहब्बत और हमदर्दी के कारण उसे अमीर के शिकारी कुत्तों जैसे खूँखार सिपाहियों की नजरें बचाकर भाग जाना पड़ा था।
जिस दिन से उसने बुखारा छोड़ा था, न जाने वह कहाँ-कहाँ भटकता फिर रहा था- बगदाद, इस्तम्बूल, तेहरान, बख्शी सराय, तिफ़िलस, दमिश्क, तरबेज और अखमेज और इन शहरों के अलावा और भी दूसरे शहरों तथा इलाकों में। कभी उसने अपनी रातें चरवाहों के छोटे से अलाव के सहारे-ऊँघते हुए गुजा़रीं थीं और कभी किसी सराय में, जहाँ दिन भर के थके-हारे ऊँट सारे रात धुँधलके में बैठे, अपने गले में बँधी घंटियों की रुनझुन के बीच जुगाली करने, अपने बदन को खुजाने, अपनी थकान मिटाने की कोशिश किया करते थे। कभी धुएँ और कालिख से भरे कहवाख़ानों में, कभी भिश्तियों, खच्चर और गधे वाले ग़रीब मजदूरों और फकीरों के बीच, जो अधनंगे बदन और अधभरे पेट लिए नई सुबह के आने की उम्मीद से सारी रात सोते-जागते गुजा़रा देते थे और पौ फटते ही जिनकी आवाज़ों से शहर की गलियाँ और बाजा़र फिर से गूँजने लगते थे।
नसरुद्दीन की बहुत-सी रातें ईरानी रईसों के शानदार हरम में नर्म, रेशमी गद्दों पर भी गुज़री थीं उनकी वासना की प्यासी बेगमें किसी भी मर्द की बाहों में रात गुज़ारने के लिए बेबसी से हरम के जालीदार झरोखों में खड़ी किसी अजनबी की तलाश करती रहती थीं।
पिछली रात भी उसने एक अमीर के हरम में ही बिताई थी। अमीर अपने सिपाहियों के साथ दुनिया के सबसे बड़े आवारा, बदनाम और बागी मुल्ला नसरुद्दीन की तलाश में सरायों और कहवाख़ानों की खाक छानता फिर रहा था ताकि उसे पकड़कर सूली पर चढ़ा दे और बादशाह से इनाम और पद प्राप्त कर सके।
जालीदार ख़ूबसूरत झरोखों से आकाश के पूर्वी छोर पर सुबह की लालिमा दिखाई देने लगी थी। सुबह की सूचना देनेवाली हवा धीरे-धीरे ओस से भीगे पेड़-पौधों को सुलाने लगी थी। महल की खिड़िकयों पर चहचहाती हुई चिड़ियाँ चोंच से अपने पंखों को सँवारने लगी थीं।
आँखों की नींद का खुमार लिए अलसायी हुई बेगम का मुँह चूमते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, “वक्त़ हो गया, अब मुझे जाना चाहिए।”
‘अभी रुको।’ अपनी मरमरी बाहें उसकी गर्दन में डालकर बेगम ने आग्रह किया।
‘नहीं दिलरूबा, मुझे अब जाने दो। अलविदा’!
क्या तुम हमेशा के लिए जा रहे हो? सुनो, आज रात को जैसे ही अँधेरा फैलने लगेगा, मैं बूढ़ी नौकरानी को भेंज दूंगी ’
‘नहीं, मेरी मलिका। मुझे अपने रास्ते जाने दो। देर हो रही है।’ नसरुद्दीन ने उसकी कमलनाल जैसी बाहों को अपने गले में से निकालते हुए कहा, एक ही मकान में दो रातें बिताना कैसा होता है, मैं एक अरसे से भूल चुका हूँ। बस मुझे भूल मत जाना। कभी-कभी याद कर लिया करना ”
‘लेकिन तुम जा कहाँ रहे हो? क्या किसी दूसरे शहर में कोई जरूरी काम है?’
‘पता नहीं।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरी मलिका, सुबह का उजाला फैल चुका है। शहर के फाटक खुल चुके हैं। कारवाँ अपने सफ़र पर रवाना हो रहे हैं। उनके ऊँटों के गले में बँधी घंटियों की आवाज तुम्हें सुनाई दे रही है ना? घंटियों की आवाज़ों को सुनते ही जैसे मेरे पैरों में पंख लग गए हैं। अब नहीं रुक सकता। ’
‘तो फिर!’ अपनी लंबी-लंबी पलकों में आँसू छिपाने की कोशिश करते हुए बेगम ने नाराज़गी के साथ कहा, ‘लेकिन जाने से पहले अपना नाम तो बताते जाओ।’
‘मेरा नाम?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उसकी आँसू भरी नजरों में नजरें डालते हुए कहा, ‘सुनो, तुमने यह रात मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बिताई थी। मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ। अमन में खलल डालने वाला, बगावत और झगड़े फैलाने वाला-मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ, जिसका सिर काटकर लाने वाले को भारी इनाम देने की घोषणा की गई है। मेरा जी चाहा था कि इतनी बड़ी क़ीमत पर मैं खुद ही अपना सिर इनके हवाले कर दूँ। ’
मुल्ला नसरुद्दीन की इस बात को सुनते ही बेगम खिल-खिलाकर हंस पड़ी।
‘तुम हंस रही हो मेरी नन्हीं बुलबुल?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने दर्द-भरी आवाज़ में कहा, ‘लाओ, आख़िरी बार अपने इन गुलाबी होठों को चूम लेने दो। जी तो चाहता था कि तुम्हें अपनी कोई निशानी देता जाऊँ-कोई जेवर। लेकिन ज़ेवर मेरे पास है नहीं। निशानी के रूप में पत्थर का यह सफेद टुकड़ा दे रहा हूँ। इसे सँभालकर रखना और इसे देखकर मुझे याद कर लिया करना।’
इसके बाद मुल्ला ने अपनी फटी खलअत पहन ली, जो अलाव की चिंगारियों से कई जगह से जल चुकी थी। उसने एक बार फिर बेगम का चुंबन लिया और चुपचाप दरवाज़े से निकल आया दरवाज़े पर महल के ख़जाने का रखवाला, आलसी और मूर्ख खोजा लंबा पग्गड़ बाँधे, सामने से ऊपर की ओर मुड़ी जूतियाँ पहने खर्राटे भर रहा था। सामने ही ग़लीचों और दरियों पर नंगी तलवारों का तकिया लगाए पहरेदार सोए पड़े थे।
जिस दिन से उसने बुखारा छोड़ा था, न जाने वह कहाँ-कहाँ भटकता फिर रहा था- बगदाद, इस्तम्बूल, तेहरान, बख्शी सराय, तिफ़िलस, दमिश्क, तरबेज और अखमेज और इन शहरों के अलावा और भी दूसरे शहरों तथा इलाकों में। कभी उसने अपनी रातें चरवाहों के छोटे से अलाव के सहारे-ऊँघते हुए गुजा़रीं थीं और कभी किसी सराय में, जहाँ दिन भर के थके-हारे ऊँट सारे रात धुँधलके में बैठे, अपने गले में बँधी घंटियों की रुनझुन के बीच जुगाली करने, अपने बदन को खुजाने, अपनी थकान मिटाने की कोशिश किया करते थे। कभी धुएँ और कालिख से भरे कहवाख़ानों में, कभी भिश्तियों, खच्चर और गधे वाले ग़रीब मजदूरों और फकीरों के बीच, जो अधनंगे बदन और अधभरे पेट लिए नई सुबह के आने की उम्मीद से सारी रात सोते-जागते गुजा़रा देते थे और पौ फटते ही जिनकी आवाज़ों से शहर की गलियाँ और बाजा़र फिर से गूँजने लगते थे।
नसरुद्दीन की बहुत-सी रातें ईरानी रईसों के शानदार हरम में नर्म, रेशमी गद्दों पर भी गुज़री थीं उनकी वासना की प्यासी बेगमें किसी भी मर्द की बाहों में रात गुज़ारने के लिए बेबसी से हरम के जालीदार झरोखों में खड़ी किसी अजनबी की तलाश करती रहती थीं।
पिछली रात भी उसने एक अमीर के हरम में ही बिताई थी। अमीर अपने सिपाहियों के साथ दुनिया के सबसे बड़े आवारा, बदनाम और बागी मुल्ला नसरुद्दीन की तलाश में सरायों और कहवाख़ानों की खाक छानता फिर रहा था ताकि उसे पकड़कर सूली पर चढ़ा दे और बादशाह से इनाम और पद प्राप्त कर सके।
जालीदार ख़ूबसूरत झरोखों से आकाश के पूर्वी छोर पर सुबह की लालिमा दिखाई देने लगी थी। सुबह की सूचना देनेवाली हवा धीरे-धीरे ओस से भीगे पेड़-पौधों को सुलाने लगी थी। महल की खिड़िकयों पर चहचहाती हुई चिड़ियाँ चोंच से अपने पंखों को सँवारने लगी थीं।
आँखों की नींद का खुमार लिए अलसायी हुई बेगम का मुँह चूमते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, “वक्त़ हो गया, अब मुझे जाना चाहिए।”
‘अभी रुको।’ अपनी मरमरी बाहें उसकी गर्दन में डालकर बेगम ने आग्रह किया।
‘नहीं दिलरूबा, मुझे अब जाने दो। अलविदा’!
क्या तुम हमेशा के लिए जा रहे हो? सुनो, आज रात को जैसे ही अँधेरा फैलने लगेगा, मैं बूढ़ी नौकरानी को भेंज दूंगी ’
‘नहीं, मेरी मलिका। मुझे अपने रास्ते जाने दो। देर हो रही है।’ नसरुद्दीन ने उसकी कमलनाल जैसी बाहों को अपने गले में से निकालते हुए कहा, एक ही मकान में दो रातें बिताना कैसा होता है, मैं एक अरसे से भूल चुका हूँ। बस मुझे भूल मत जाना। कभी-कभी याद कर लिया करना ”
‘लेकिन तुम जा कहाँ रहे हो? क्या किसी दूसरे शहर में कोई जरूरी काम है?’
‘पता नहीं।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरी मलिका, सुबह का उजाला फैल चुका है। शहर के फाटक खुल चुके हैं। कारवाँ अपने सफ़र पर रवाना हो रहे हैं। उनके ऊँटों के गले में बँधी घंटियों की आवाज तुम्हें सुनाई दे रही है ना? घंटियों की आवाज़ों को सुनते ही जैसे मेरे पैरों में पंख लग गए हैं। अब नहीं रुक सकता। ’
‘तो फिर!’ अपनी लंबी-लंबी पलकों में आँसू छिपाने की कोशिश करते हुए बेगम ने नाराज़गी के साथ कहा, ‘लेकिन जाने से पहले अपना नाम तो बताते जाओ।’
‘मेरा नाम?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उसकी आँसू भरी नजरों में नजरें डालते हुए कहा, ‘सुनो, तुमने यह रात मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बिताई थी। मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ। अमन में खलल डालने वाला, बगावत और झगड़े फैलाने वाला-मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ, जिसका सिर काटकर लाने वाले को भारी इनाम देने की घोषणा की गई है। मेरा जी चाहा था कि इतनी बड़ी क़ीमत पर मैं खुद ही अपना सिर इनके हवाले कर दूँ। ’
मुल्ला नसरुद्दीन की इस बात को सुनते ही बेगम खिल-खिलाकर हंस पड़ी।
‘तुम हंस रही हो मेरी नन्हीं बुलबुल?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने दर्द-भरी आवाज़ में कहा, ‘लाओ, आख़िरी बार अपने इन गुलाबी होठों को चूम लेने दो। जी तो चाहता था कि तुम्हें अपनी कोई निशानी देता जाऊँ-कोई जेवर। लेकिन ज़ेवर मेरे पास है नहीं। निशानी के रूप में पत्थर का यह सफेद टुकड़ा दे रहा हूँ। इसे सँभालकर रखना और इसे देखकर मुझे याद कर लिया करना।’
इसके बाद मुल्ला ने अपनी फटी खलअत पहन ली, जो अलाव की चिंगारियों से कई जगह से जल चुकी थी। उसने एक बार फिर बेगम का चुंबन लिया और चुपचाप दरवाज़े से निकल आया दरवाज़े पर महल के ख़जाने का रखवाला, आलसी और मूर्ख खोजा लंबा पग्गड़ बाँधे, सामने से ऊपर की ओर मुड़ी जूतियाँ पहने खर्राटे भर रहा था। सामने ही ग़लीचों और दरियों पर नंगी तलवारों का तकिया लगाए पहरेदार सोए पड़े थे।
फिर शुरू हुआ सफर
मुल्ला नसरुद्दीन बिना कोई आवाज किए अमीर के महल से बाहर निकल आया। हमेशा की तरह सकुशल। फिर वह सिपाहियों की नज़रों में छूमंतर हो गया।
एक बार फिर उसके गधे की तेज टापों से सड़क गूँजने लगी थी, धूल उड़ने लगी थी और नीले आकाश पर सूरज चमकने लगा था। मुल्ला नसरुद्दीन बिना पलकें झपकाए उनकी ओर देखता रहा। एक बार भी पीछे मुड़कर देखे बिना, अतीत की यादों की किसी भी कसक के बिना और भविष्य में आने वाले संकटों में निडर वह अपने गधे पर सवार हो आगे बढ़ता चला जाता। लेकिन अभी-अभी वह जिस कस्बे को छोड़कर आया है, वह उसे कभी भूल नहीं पाएगा।
उसका नाम सुनते ही अमीर और मुल्ला क्रोध से लाल-पीले होने लगते थे। भिश्ती, ठठेरे, जुलाहे, गाड़ीवान, जीनसाज़ रात को कहवाखा़नों में इकट्ठे होकर उसकी वीरता की कहानियाँ सुना-सुनाकर अपना मनोरंजन करते और वे कहानियाँ कभी भी समाप्त न होतीं। उसकी प्रसिद्धि और ज्यादा दूर तक फैल जाती।
अमीर के हरम में अलसायी हुई बेगम बार-बार सफे़द पत्थर के उस टुकड़े को देखती और जैसे ही उसके कानों में पति के क़दमों की आवाज़ टकराती, वह उस सीप को पिटारी में छिपा देती। जिरहबख्त़र की खिलअत को उतारता, हाँफता-काँपता मोटा अमीर कहता,"ओह, इस कमबख्त आवारा मुल्ला नसरुद्दीन ने हम सबकी नाकों में दम कर रखा है। पूरे देश को उजाड़कर गड़बड़ फैला दी है। आज मुझे अपने पुराने मित्र खुरासान के सबसे बड़े अधिकारी का पत्र मिला था। तुम समझती हो ना? उसने लिखा है कि जैसे ही यह आवारा उसके शहर में पहुँचा अचानक लुहारों ने टैक्स देना बंद कर दिया और सरायवालों ने बिना कीमत लिए सिपाहियों को खाना खिलाने से इंकार कर दिया। और सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि वह चोर, वह बदमाश हाकिम के हरम में घुसने की गुस्ताखी कर बैठा। उसने हाकिम की सबसे अधिक चहेती बेगम को फुसला लिया। विश्वास करो, दुनिया ने ऐसा बदमाश आज तक नहीं देखा। मुझे इस बात का अफसोस है कि उस दो कौड़ी के आदमी ने मेरे हरम में घुसने की आज तक कोशिश नहीं की। अगर मेरे हरम में घुस आता तो उसका सिर बाज़ार के चौराहे पर सूली पर लटका दिखाई देता।"
एक बार फिर उसके गधे की तेज टापों से सड़क गूँजने लगी थी, धूल उड़ने लगी थी और नीले आकाश पर सूरज चमकने लगा था। मुल्ला नसरुद्दीन बिना पलकें झपकाए उनकी ओर देखता रहा। एक बार भी पीछे मुड़कर देखे बिना, अतीत की यादों की किसी भी कसक के बिना और भविष्य में आने वाले संकटों में निडर वह अपने गधे पर सवार हो आगे बढ़ता चला जाता। लेकिन अभी-अभी वह जिस कस्बे को छोड़कर आया है, वह उसे कभी भूल नहीं पाएगा।
उसका नाम सुनते ही अमीर और मुल्ला क्रोध से लाल-पीले होने लगते थे। भिश्ती, ठठेरे, जुलाहे, गाड़ीवान, जीनसाज़ रात को कहवाखा़नों में इकट्ठे होकर उसकी वीरता की कहानियाँ सुना-सुनाकर अपना मनोरंजन करते और वे कहानियाँ कभी भी समाप्त न होतीं। उसकी प्रसिद्धि और ज्यादा दूर तक फैल जाती।
अमीर के हरम में अलसायी हुई बेगम बार-बार सफे़द पत्थर के उस टुकड़े को देखती और जैसे ही उसके कानों में पति के क़दमों की आवाज़ टकराती, वह उस सीप को पिटारी में छिपा देती। जिरहबख्त़र की खिलअत को उतारता, हाँफता-काँपता मोटा अमीर कहता,"ओह, इस कमबख्त आवारा मुल्ला नसरुद्दीन ने हम सबकी नाकों में दम कर रखा है। पूरे देश को उजाड़कर गड़बड़ फैला दी है। आज मुझे अपने पुराने मित्र खुरासान के सबसे बड़े अधिकारी का पत्र मिला था। तुम समझती हो ना? उसने लिखा है कि जैसे ही यह आवारा उसके शहर में पहुँचा अचानक लुहारों ने टैक्स देना बंद कर दिया और सरायवालों ने बिना कीमत लिए सिपाहियों को खाना खिलाने से इंकार कर दिया। और सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि वह चोर, वह बदमाश हाकिम के हरम में घुसने की गुस्ताखी कर बैठा। उसने हाकिम की सबसे अधिक चहेती बेगम को फुसला लिया। विश्वास करो, दुनिया ने ऐसा बदमाश आज तक नहीं देखा। मुझे इस बात का अफसोस है कि उस दो कौड़ी के आदमी ने मेरे हरम में घुसने की आज तक कोशिश नहीं की। अगर मेरे हरम में घुस आता तो उसका सिर बाज़ार के चौराहे पर सूली पर लटका दिखाई देता।"
खुले आकाश तले कटी रात:
(बुखारा की सरहद पर पहुंचते-पहुंचते शहर का दरवाजा बंद हो जाता है, सभी सरहद पर ही रात बिताने की तैयारी करते हैं....)
मुल्ला नसरुद्दीन ने गधे को सड़क के किनारे एक पेड़ से बाँध दिया और पास ही एक पत्थर का तकिया लगाकर नंगी जमीन पर लेट गया।
ऊपर आकाश में सितारों का चमकता हुआ जाल फैला हुआ था। सितारों के हर झुंड को वह पहचानता था। इन दस सालों में उसने न जाने कितनी बार इसी प्रकार आकाश को देखा था। रात के दुआ के पवित्र घंटे उसे संसार के सबसे बड़े दौलतमंद से भी बड़ा दौलतमंद बना देते थे। धनसंपन्न लोग भले ही सोने के थाल में भोजन करें, लेकिन वे अपनी रातें छत के नीचे बिताने के लिए मजबूर होते हैं और नीले आकाश पर जगमगाते तारों और कुहरे भरी रात के सन्नाटे में संसार के सौंदर्य को देखने से वंचित रह जाते हैं।
इस बीच शहर के उस परकोटे के पीछे, जिस पर तोपें लगी थीं, सराय और कहवाखानों में बड़े-बड़े कड़ाहों के नीचे आग जल चुकी थी। कसाईखाने की ओर ले जानेवाली भेड़ों ने दर्दभरी आवाज़ में मिमियाना शुरू कर दिया था।
अनुभवी मुल्ला नसरुद्दीन ने रात-भर आराम करने के लिए हवा के रुख के विपरीत स्थान खोजा था ताकि खाने की ललचाने वाली महक रात में उसे परेशान न करे और वह निश्चिंतता से सोता रहे। उसे बुखारा के रिवाजों की पूरी-पूरी जानकारी थी। इसलिए उसने शहर के फाटक पर टैक्स चुकाने के लिए अपनी रकम का अंतिम भाग बचा रखा था। बहुत देर तक वह करवटें बदलता रहा, लेकिन नींद नहीं आई।
नींद न आने का कारण भूख नहीं थी, वे कड़वे विचार थे, जो उसे सता रहे थे। छोटी-सी काली दाढ़ी वाले इस चालाक और खुशमिज़ाज आदमी को अपने वतन से सबसे अधिक प्यार था। फटा पैबंद लगा कोट, तेल से भरा कुलाह और फटे जूते पहने वह बुखारा से जितना अधिक दूर होता, उसकी याद उसे उतनी ही अधिक सताया करती थी। परदेस में उसे बुखारा की उन तंग गलियों की याद आती, जो इतनी पतली थीं कि अराबा (एक प्रकार की गाड़ी भी) दोनों और बनी कच्ची दीवारों को रगड़कर ही निकल पाती थी। उसे ऊँची-ऊँची मीनारों की याद आती, जिसके रोग़नदार ईंटों वाले गुंबदों पर सूरज निकलते और डूबते समय लाल रोशनी ठिठककर रुक जाती थी। उन पुराने और पवित्र वृक्षों की याद आती, जिनकी डालियों पर सारस के काले और भारी घोंसले झूलते रहते थे। नहरों के किनारे के कहवाखाने, जिन पर चिनार के पेड़ों की छाया थी, नानबाइयों की भट्टी जैसी तपती दुकानों से निकलता हुआ धुआँ और खाने की खुशबू तथा बाजारों के तरह-तरह के शोर-गुल याद आते, अपने वतन की पहाड़ियाँ याद आतीं, झरने याद आते, खेत, चरागाह, गाँव और रेगिस्तान याद आते।
बगदाद या दमिश्क में वह अपने देशवासियों को उनकी पोशाक और कुलाह देखकर पहचान लेता था। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगता था और गला भर आता था। जाने के समय की तुलना में वापस आते समय से अपना देश और अधिक दुखी दिखाई दिया। पुराने अमीर की मौत बहुत पहले हो चुकी थी। नए अमीर ने पिछले आठ वर्षों में बुखारा को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ने टूटे हुए पुल, नहरों के धूप से चटकते सूख तले, गेहूँ और जौ के धूप जले ऊबड़-खाबड़ खेत देखे। ये खेत घास और कँटीली झाड़ियों के कारण बर्बाद हो रहे थे। बिना पानी के बाग मुरझा रहे थे। किसानों के पास न तो मवेशी थे और न रोटी। सड़कों पर कतार बाँधे फ़कीर उन लोगों से भीख माँगा करते थे, जो खुद भूख थे।
नए अमीर ने हर गाँव में सिपाहियों की टुकड़ियाँ भेज रखी थीं और गाँववालों को हुक्म दे रखा था कि उन सिपाहियों के खाने-पीने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होगी। उसने बहुत-सी मस्जिदों की नींव डाली और फिर गाँववालों से कहा कि वे उन्हें पूरा करें। नया अमीर बहुत ही धार्मिक था। बुखारा के पास ही शेख़ बहाउद्दीन का पवित्र मजार था। नया अमीर साल में दो बार वहाँ जियारत करने जरूर जाता था। पहले से लगे हुए चार टैक्सों में उसने तीन नए टैक्स और बढ़ा दिए थे। व्यापार पर टैक्स बढ़ा दिया था। का़नूनी टैक्सों में भी वृद्धि कर दी थी। इस तरह उसने ढेर सारी नापाक दौलत जमा कर ली थी।
दस्तकारियाँ ख़त्म होती जा रही थीं, व्यापार घटता चला जा रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन की वापसी के समय उसके वतन में बेहद उदासी छाई हुई थी।
मुल्ला नसरुद्दीन ने गधे को सड़क के किनारे एक पेड़ से बाँध दिया और पास ही एक पत्थर का तकिया लगाकर नंगी जमीन पर लेट गया।
ऊपर आकाश में सितारों का चमकता हुआ जाल फैला हुआ था। सितारों के हर झुंड को वह पहचानता था। इन दस सालों में उसने न जाने कितनी बार इसी प्रकार आकाश को देखा था। रात के दुआ के पवित्र घंटे उसे संसार के सबसे बड़े दौलतमंद से भी बड़ा दौलतमंद बना देते थे। धनसंपन्न लोग भले ही सोने के थाल में भोजन करें, लेकिन वे अपनी रातें छत के नीचे बिताने के लिए मजबूर होते हैं और नीले आकाश पर जगमगाते तारों और कुहरे भरी रात के सन्नाटे में संसार के सौंदर्य को देखने से वंचित रह जाते हैं।
इस बीच शहर के उस परकोटे के पीछे, जिस पर तोपें लगी थीं, सराय और कहवाखानों में बड़े-बड़े कड़ाहों के नीचे आग जल चुकी थी। कसाईखाने की ओर ले जानेवाली भेड़ों ने दर्दभरी आवाज़ में मिमियाना शुरू कर दिया था।
अनुभवी मुल्ला नसरुद्दीन ने रात-भर आराम करने के लिए हवा के रुख के विपरीत स्थान खोजा था ताकि खाने की ललचाने वाली महक रात में उसे परेशान न करे और वह निश्चिंतता से सोता रहे। उसे बुखारा के रिवाजों की पूरी-पूरी जानकारी थी। इसलिए उसने शहर के फाटक पर टैक्स चुकाने के लिए अपनी रकम का अंतिम भाग बचा रखा था। बहुत देर तक वह करवटें बदलता रहा, लेकिन नींद नहीं आई।
नींद न आने का कारण भूख नहीं थी, वे कड़वे विचार थे, जो उसे सता रहे थे। छोटी-सी काली दाढ़ी वाले इस चालाक और खुशमिज़ाज आदमी को अपने वतन से सबसे अधिक प्यार था। फटा पैबंद लगा कोट, तेल से भरा कुलाह और फटे जूते पहने वह बुखारा से जितना अधिक दूर होता, उसकी याद उसे उतनी ही अधिक सताया करती थी। परदेस में उसे बुखारा की उन तंग गलियों की याद आती, जो इतनी पतली थीं कि अराबा (एक प्रकार की गाड़ी भी) दोनों और बनी कच्ची दीवारों को रगड़कर ही निकल पाती थी। उसे ऊँची-ऊँची मीनारों की याद आती, जिसके रोग़नदार ईंटों वाले गुंबदों पर सूरज निकलते और डूबते समय लाल रोशनी ठिठककर रुक जाती थी। उन पुराने और पवित्र वृक्षों की याद आती, जिनकी डालियों पर सारस के काले और भारी घोंसले झूलते रहते थे। नहरों के किनारे के कहवाखाने, जिन पर चिनार के पेड़ों की छाया थी, नानबाइयों की भट्टी जैसी तपती दुकानों से निकलता हुआ धुआँ और खाने की खुशबू तथा बाजारों के तरह-तरह के शोर-गुल याद आते, अपने वतन की पहाड़ियाँ याद आतीं, झरने याद आते, खेत, चरागाह, गाँव और रेगिस्तान याद आते।
बगदाद या दमिश्क में वह अपने देशवासियों को उनकी पोशाक और कुलाह देखकर पहचान लेता था। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगता था और गला भर आता था। जाने के समय की तुलना में वापस आते समय से अपना देश और अधिक दुखी दिखाई दिया। पुराने अमीर की मौत बहुत पहले हो चुकी थी। नए अमीर ने पिछले आठ वर्षों में बुखारा को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ने टूटे हुए पुल, नहरों के धूप से चटकते सूख तले, गेहूँ और जौ के धूप जले ऊबड़-खाबड़ खेत देखे। ये खेत घास और कँटीली झाड़ियों के कारण बर्बाद हो रहे थे। बिना पानी के बाग मुरझा रहे थे। किसानों के पास न तो मवेशी थे और न रोटी। सड़कों पर कतार बाँधे फ़कीर उन लोगों से भीख माँगा करते थे, जो खुद भूख थे।
नए अमीर ने हर गाँव में सिपाहियों की टुकड़ियाँ भेज रखी थीं और गाँववालों को हुक्म दे रखा था कि उन सिपाहियों के खाने-पीने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होगी। उसने बहुत-सी मस्जिदों की नींव डाली और फिर गाँववालों से कहा कि वे उन्हें पूरा करें। नया अमीर बहुत ही धार्मिक था। बुखारा के पास ही शेख़ बहाउद्दीन का पवित्र मजार था। नया अमीर साल में दो बार वहाँ जियारत करने जरूर जाता था। पहले से लगे हुए चार टैक्सों में उसने तीन नए टैक्स और बढ़ा दिए थे। व्यापार पर टैक्स बढ़ा दिया था। का़नूनी टैक्सों में भी वृद्धि कर दी थी। इस तरह उसने ढेर सारी नापाक दौलत जमा कर ली थी।
दस्तकारियाँ ख़त्म होती जा रही थीं, व्यापार घटता चला जा रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन की वापसी के समय उसके वतन में बेहद उदासी छाई हुई थी।
शहर के दरवाजे पर टैक्स वसूली
(अपने शहर के सीमा पर मुल्ला ने दूसरे व्यापारियों के साथ खुले आकाश तले रात बिताई, अब उजाला फैलने लगा...)
सवेरे तड़के अजान देने वालों ने मीनारों से फिर अजान दी। फाटक खुल गए और कारवाँ धीरे-धीरे शहर में दाखिल होने लगा। ऊँटों के गले में बँधी घंटियाँ धीरे-धीरे बजने लगीं। लेकिन फाटक में घुसते ही कारवाँ रुक गया।
सामने की सड़क पहरेदारों से घिरी हुई थी। उनकी संख्या बहुत अधिक थी। कुछ पहरेदार ढंग और सलीके से वर्दी पहने हुए थे। लेकिन जिन्हें अमीर की नौकरी में अभी तक पैसा जुटाने का पूरा-पूरा मौक़ा नहीं मिला था, उनके बदन अधनंगे थे। पाँव नंगे थे। वे चीख़-चिल्ला रहे थे और उस लूट के लिए, जो उन्हें अभी-अभी मिलने वाली थी, एक-दूसरे को ठेल रहे थे, आपस में झगड़ रहे थे।
कुछ देर बाद एक कहवाख़ाने से कीच भरी आँखोंवाला एक मोटा-ताजा टैक्स अफसर निकला। उसकी रेशमी खलअत की आस्तीनों में तेल लगा था। पैरों में जूतियाँ थीं। उसके मोटे थुल-थुले चेहरे पर अय्याशी के चिन्ह साफ़-साफ़ दिखाई दे रहे थे। उसने व्यापारियों पर ललचायी हुई नजऱ डाली। फिर कहने लगा- ‘स्वागत है व्यापारियों! अल्लाह तुम्हें अपने काम में सफलता दे। तुम्हें यह मालूम होना चाहिए कि अमीर का हुक्म है कि जो भी व्यापारी अपने माल का छोटे-से छोटा हिस्सा भी छिपाने की कोशिश करेगा, उसे बेंत मार-मारकर मार डाला जाएगा।’
परेशान व्यापारी अपनी रँगी हुई दाढ़ियों को खा़मोश सहलाते रहे। बेताबी से चहलक़दमी करते हुए पहरेदारों की ओर मुड़कर टैक्स अफसर ने अपनी मोटी उगलियाँ नचाईं। इशारा पाते ही वे चीख़ते-चिल्लाते हुए ऊँटों पर टूट पड़े। उन्होंने उतावली में एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते अपनी तलवारों से रस्से काट डाले और सामान की गाँठें खोल दीं। रेशम और मखमल के थान, काली मिर्च, कपूर और गुलाब की क़ीमती इत्र की शीशियाँ, कहवा और तिब्बती दवाओं के डिब्बे सड़क पर बिखर गए।
भय तथा परेशानी ने व्यापारियों की जुबान पर जैसे ताले लगा दिए।
जाँच दो मिनट में पूरी हो गईं। सिपाही अपने अफसर के पीछे क़तार बाँधकर खड़े हो गए। उनके कोटों की जेबें लूट के माल में फटी जा रही थीं। इसके बाद शहर में आने और माल टैक्स की वसूली आरंभ हो गईं।
मुल्ला नसरुद्दीन के पास व्यापार के लिए कोई सामान नहीं था। उसे केवल शहर में घुसने का टैक्स देना था।
अफसर ने पूछा, ‘तुम कहाँ से आ रहे हो? और तुम्हारे आने की वजह क्या है?’
मुहर्रिर ने सींग से भरी स्याही में बाँस की क़लम डुबाई और मोटे रजिस्टर में मुल्ला नसरुद्दीन का बयान लिखने के लिए तैयार हो गया।
‘हुजूर आला, मैं ईरान से आ रहा हूँ। यहाँ बुखारा में मेरे कुछ रिश्तेदार रहते हैं।’
‘अच्छा।’ अफसर ने कहा, तो तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हो? इस हालत में तुम्हें मिलनेवालों का टैक्स अदा करना होगा।’
‘लेकिन मैं उनसे मिलूँगा नहीं। मैं तो एक ज़रूरी काम से आया हूँ।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उत्तर दिया।
‘काम से आए हो?’ अफसर चिल्लाया।
उसकी आँखें चमकने लगीं, ‘तो तुम रिश्तेदारों से भी मिलने आए हो और काम पर लगने वाला टैक्स भी दो। और खुदा की शान में बनी मस्जिदों की सजावट के लिए ख़ैरात दो, जिन्होंने रास्ते में डाकुओं से तुम्हारी हिफाज़त की।’
मुल्ला नसरुद्दीन ने सोचा, मैं तो चाहता था कि खुदा उस समय मेरी हिफाज़त करता। डाकुओं से बचने का इंतजाम तो मैं खुद ही कर लेता। लेकिन वह चुप रहा। उसने हिसाब लगा लिया था कि अगर वह बोला तो हर शब्द की की़मत उसे दस तंके चुकानी पड़ेगी।
उसने अपना बटुवा खोला और पहरेदारों की ललचायी, घूरने वाली नजरों के सामने शहर में दाखिल होने का टैक्स, मेहमान टैक्स, व्यापार टैक्स, मस्जिदों की सजावट के लिए खै़रात दी। अफसर ने सिपाहियों की ओर घूरा तो वे पीछे हट गए। मुहर्रिर रजिस्टर में नाक गड़ाए बाँस की क़लम घसीटता रहा।
टैक्स अदा करने के बाद मुल्ला नसरुद्दीन रवाना होने ही वाला था कि टैक्स अफसर ने देखा, उसके पटके में अब भी कुछ सिक्के बाकी हैं। ‘ठहरो,’ वह चिल्लाया, ‘तुम्हारे इस गधे का टैक्स कौन अदा करेगा? अगर तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हो तो तुम्हारा गधा भी अपने रिश्तेदारों से मिलेगा।’
अपना पटका एक बार फिर खोलते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी नर्मी से उत्तर दिया ‘मेरे अक्लमंद आका, आप सच फरमाते हैं, सचमुच मेरे गधे के रिश्तेदारों की तादाद बुखारा में बहुत बड़ी है। नहीं तो जिस ढंग से यहाँ काम चल रहा है, आप के अमीर बहुत पहले ही तख़्त से धकेल दिए गए होते, और मेरे बहुत ही काबिल हुजूर आप अपने लालच के लिए न जाने कब सूली पर चढ़ा दिए गए होते।’
इससे पहले कि अफसर अपने होशोहवास ठीक कर पाता, मुल्ला नसरुद्दीन कूदकर अपने गधे पर सवार हो गया और उसे सरपट भगा दिया। पलक झपकते ही वह सबसे पास की गली में पहुँचकर आँखों से ओझल हो गया।
सवेरे तड़के अजान देने वालों ने मीनारों से फिर अजान दी। फाटक खुल गए और कारवाँ धीरे-धीरे शहर में दाखिल होने लगा। ऊँटों के गले में बँधी घंटियाँ धीरे-धीरे बजने लगीं। लेकिन फाटक में घुसते ही कारवाँ रुक गया।
सामने की सड़क पहरेदारों से घिरी हुई थी। उनकी संख्या बहुत अधिक थी। कुछ पहरेदार ढंग और सलीके से वर्दी पहने हुए थे। लेकिन जिन्हें अमीर की नौकरी में अभी तक पैसा जुटाने का पूरा-पूरा मौक़ा नहीं मिला था, उनके बदन अधनंगे थे। पाँव नंगे थे। वे चीख़-चिल्ला रहे थे और उस लूट के लिए, जो उन्हें अभी-अभी मिलने वाली थी, एक-दूसरे को ठेल रहे थे, आपस में झगड़ रहे थे।
कुछ देर बाद एक कहवाख़ाने से कीच भरी आँखोंवाला एक मोटा-ताजा टैक्स अफसर निकला। उसकी रेशमी खलअत की आस्तीनों में तेल लगा था। पैरों में जूतियाँ थीं। उसके मोटे थुल-थुले चेहरे पर अय्याशी के चिन्ह साफ़-साफ़ दिखाई दे रहे थे। उसने व्यापारियों पर ललचायी हुई नजऱ डाली। फिर कहने लगा- ‘स्वागत है व्यापारियों! अल्लाह तुम्हें अपने काम में सफलता दे। तुम्हें यह मालूम होना चाहिए कि अमीर का हुक्म है कि जो भी व्यापारी अपने माल का छोटे-से छोटा हिस्सा भी छिपाने की कोशिश करेगा, उसे बेंत मार-मारकर मार डाला जाएगा।’
परेशान व्यापारी अपनी रँगी हुई दाढ़ियों को खा़मोश सहलाते रहे। बेताबी से चहलक़दमी करते हुए पहरेदारों की ओर मुड़कर टैक्स अफसर ने अपनी मोटी उगलियाँ नचाईं। इशारा पाते ही वे चीख़ते-चिल्लाते हुए ऊँटों पर टूट पड़े। उन्होंने उतावली में एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते अपनी तलवारों से रस्से काट डाले और सामान की गाँठें खोल दीं। रेशम और मखमल के थान, काली मिर्च, कपूर और गुलाब की क़ीमती इत्र की शीशियाँ, कहवा और तिब्बती दवाओं के डिब्बे सड़क पर बिखर गए।
भय तथा परेशानी ने व्यापारियों की जुबान पर जैसे ताले लगा दिए।
जाँच दो मिनट में पूरी हो गईं। सिपाही अपने अफसर के पीछे क़तार बाँधकर खड़े हो गए। उनके कोटों की जेबें लूट के माल में फटी जा रही थीं। इसके बाद शहर में आने और माल टैक्स की वसूली आरंभ हो गईं।
मुल्ला नसरुद्दीन के पास व्यापार के लिए कोई सामान नहीं था। उसे केवल शहर में घुसने का टैक्स देना था।
अफसर ने पूछा, ‘तुम कहाँ से आ रहे हो? और तुम्हारे आने की वजह क्या है?’
मुहर्रिर ने सींग से भरी स्याही में बाँस की क़लम डुबाई और मोटे रजिस्टर में मुल्ला नसरुद्दीन का बयान लिखने के लिए तैयार हो गया।
‘हुजूर आला, मैं ईरान से आ रहा हूँ। यहाँ बुखारा में मेरे कुछ रिश्तेदार रहते हैं।’
‘अच्छा।’ अफसर ने कहा, तो तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हो? इस हालत में तुम्हें मिलनेवालों का टैक्स अदा करना होगा।’
‘लेकिन मैं उनसे मिलूँगा नहीं। मैं तो एक ज़रूरी काम से आया हूँ।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उत्तर दिया।
‘काम से आए हो?’ अफसर चिल्लाया।
उसकी आँखें चमकने लगीं, ‘तो तुम रिश्तेदारों से भी मिलने आए हो और काम पर लगने वाला टैक्स भी दो। और खुदा की शान में बनी मस्जिदों की सजावट के लिए ख़ैरात दो, जिन्होंने रास्ते में डाकुओं से तुम्हारी हिफाज़त की।’
मुल्ला नसरुद्दीन ने सोचा, मैं तो चाहता था कि खुदा उस समय मेरी हिफाज़त करता। डाकुओं से बचने का इंतजाम तो मैं खुद ही कर लेता। लेकिन वह चुप रहा। उसने हिसाब लगा लिया था कि अगर वह बोला तो हर शब्द की की़मत उसे दस तंके चुकानी पड़ेगी।
उसने अपना बटुवा खोला और पहरेदारों की ललचायी, घूरने वाली नजरों के सामने शहर में दाखिल होने का टैक्स, मेहमान टैक्स, व्यापार टैक्स, मस्जिदों की सजावट के लिए खै़रात दी। अफसर ने सिपाहियों की ओर घूरा तो वे पीछे हट गए। मुहर्रिर रजिस्टर में नाक गड़ाए बाँस की क़लम घसीटता रहा।
टैक्स अदा करने के बाद मुल्ला नसरुद्दीन रवाना होने ही वाला था कि टैक्स अफसर ने देखा, उसके पटके में अब भी कुछ सिक्के बाकी हैं। ‘ठहरो,’ वह चिल्लाया, ‘तुम्हारे इस गधे का टैक्स कौन अदा करेगा? अगर तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हो तो तुम्हारा गधा भी अपने रिश्तेदारों से मिलेगा।’
अपना पटका एक बार फिर खोलते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी नर्मी से उत्तर दिया ‘मेरे अक्लमंद आका, आप सच फरमाते हैं, सचमुच मेरे गधे के रिश्तेदारों की तादाद बुखारा में बहुत बड़ी है। नहीं तो जिस ढंग से यहाँ काम चल रहा है, आप के अमीर बहुत पहले ही तख़्त से धकेल दिए गए होते, और मेरे बहुत ही काबिल हुजूर आप अपने लालच के लिए न जाने कब सूली पर चढ़ा दिए गए होते।’
इससे पहले कि अफसर अपने होशोहवास ठीक कर पाता, मुल्ला नसरुद्दीन कूदकर अपने गधे पर सवार हो गया और उसे सरपट भगा दिया। पलक झपकते ही वह सबसे पास की गली में पहुँचकर आँखों से ओझल हो गया।
मुल्ला अपने गधे पर
(टैक्स अदा करने के बाद मुल्ला नसरुद्दीन रवाना होने ही वाला था कि टैक्स अफसर ने देखा, उसके पटके में अब भी कुछ सिक्के बाकी हैं। ‘ठहरो,’ वह चिल्लाया, ‘तुम्हारे इस गधे का टैक्स कौन अदा करेगा? अगर तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हो तो तुम्हारा गधा भी अपने रिश्तेदारों से मिलेगा।’ अपना पटका एक बार फिर खोलते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी नर्मी से उत्तर दिया ‘मेरे अक्लमंद आका, आप सच फरमाते हैं, सचमुच मेरे गधे के रिश्तेदारों की तादाद बुखारा में बहुत बड़ी है। नहीं तो जिस ढंग से यहाँ काम चल रहा है, आप के अमीर बहुत पहले ही तख़्त से धकेल दिए गए होते, और मेरे बहुत ही काबिल हुजूर आप अपने लालच के लिए न जाने कब सूली पर चढ़ा दिए गए होते।’ इससे पहले कि अफसर अपने होशोहवास ठीक कर पाता, मुल्ला नसरुद्दीन कूदकर अपने गधे पर सवार हो गया और उसे सरपट भगा दिया। पलक झपकते ही वह सबसे पास की गली में पहुँचकर आँखों से ओझल हो गया।) उसके आगे: मुल्ला अपने गधे पर वह बराबर कहता जा रहा था- ‘और तेज़ और जल्दी मेरे वफ़ादार गधे, जल्दी भाग। नहीं तो तेरे मालिक को एक और टैक्स अपना सिर देकर चुकाना पड़ेगा।’ मुल्ला नसरुद्दीन का गधा बहुत ही होशियार था। हर बात को अच्छी तरह समझता था। उसके कानों में शहर के फाटक से आती हुई पहरेदारों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें पड़ चुकी थीं। वह सड़क की परवाह किए बिना सरपट भागा चला जा रहा था, इतनी तेज़ रफ्तार से कि उसके मालिक को अपने पैर ऊँचे उठाने पड़ रहे थे। उसके हाथ गधे की गर्दन से लिपटे हुए थे। वह जी़न से चिपका हुआ था। भारी आवाज से भौंकते हुए कुत्ते उसके पीछे दौड़ रहे थे। मुर्ग़ियों के चूजे भयभीत होकर तितर-बितर होकर इधर-उधर भागने लगे थे और सड़क पर चलने वाली दीवारों से चिपटे अपने सिर हिलाते हुए उसे देख रहे थे। शहर के फाटकों पर पहरेदार इस साहसी स्वतंत्र विचार वाले व्यक्ति की तलाश में भीड़ छान रहे थे। व्यापारी मुस्कुराते हुए एक-दूसरे से कानाफूसी कर रहे थे। ‘यह उत्तर तो केवल मुल्ला नसरुद्दीन ही दे सकता था।’ दोपहर होते-होते यह समाचार पूरे शहर में फैल चुका था। व्यापारी बाज़ार में यह घटना अपने ग्राहकों को सुना रहे थे और वे दूसरों को। सुनकर हर व्यक्ति हँसकर कहने लगता, ‘ये शब्द तो मुल्ला नसरुद्दीन ही कह सकता था।’
मुल्ला पहुंचा अपने शहरः मिली वालिद के मौत की खबर
मुल्ला नसरुद्दीन का गधा बहुत ही होशियार था। हर बात को अच्छी तरह समझता था। उसके कानों में शहर के फाटक से आती हुई पहरेदारों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें पड़ चुकी थीं। वह सड़क की परवाह किए बिना सरपट भागा चला जा रहा था, इतनी तेज़ रफ्तार से कि उसके मालिक को अपने पैर ऊँचे उठाने पड़ रहे थे। उसके हाथ गधे की गर्दन से लिपटे हुए थे। वह जी़न से चिपका हुआ था। भारी आवाज से भौंकते हुए कुत्ते उसके पीछे दौड़ रहे थे। मुर्ग़ियों के चूजे भयभीत होकर तितर-बितर होकर इधर-उधर भागने लगे थे और सड़क पर चलने वाली दीवारों से चिपटे अपने सिर हिलाते हुए उसे देख रहे थे। ......मुल्ला गधे पर भागता हुआ अपने शहर में दाखिल होता है।) उसके आगे मुल्ला अपने शहर में बुखारा में मुल्ला नसरुद्दीन को न तो अपने रिश्तेदार मिले और न पुराने दोस्त। उसे अपने पिता का मकान भी नहीं मिला। वह मकान, जहाँ उसने जन्म लिया था। न वह छायादार बगीचा ही मिला, जहाँ सर्दी के मौसम में पेड़ों की पीली-पीली पत्तियाँ सरसराती हुई झूलती थीं। जहाँ मक्खियाँ मुरझाते हुए फूलों के रस की अंतिम बूँद चूसती हुई भनभनाया करती थीं और सिंचाई के तालाब में झरना रहस्यपूर्ण अंदाज में बच्चों को कभी ख़त्म न होने वाली अनोखी कहानियाँ सुनाया करता था। वह स्थान अब ऊसर मैदान में बदल गया था। उस पर बीच-बीच में मलबे के ढेर लगे थे। टूटी हुई दीवारें खड़ी थी। वहाँ मुल्ला नसरुद्दीन को न तो एक चिड़ियाँ दिखाई दी और न ही एक मक्खी। केवल पत्थरों के ढेर के नीचे से, जहाँ उसका पैर पड़ गया था, अचानक ही एक लंबी तेल की धार उबल पड़ी थी और धूप में हल्की चमक के साथ पत्थरों के दूसरे ढेर में जा छिपी थी। वह एक साँप था; अतीत में इन्सान के छोड़े हुए वीरान स्थानों का एकमात्र और अकेला निवासी। मुल्ला नसरुद्दीन कुछ देर तक नीची निगाह किए चुपचाप खड़ा रहा। पूरे बदन को कँपा देने वाली खाँसी की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने पीछे मुड़कर देखा। परेशानियों और ग़रीबों से दोहरा एक बूढ़ा उस बंजर धरती को लाँघते हुए उसी ओर आ रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे रोककर कहा, ‘अस्सलाम वालेकुम बुजुर्गवार, क्या आप बता सकते हैं कि इस जमी़न पर किसका मकान था?’ ‘यहाँ जीनसाज़ शेर मुहम्मद का मकान था।’ बूढ़े ने उत्तर दिया, ‘मैं उनसे एक मुद्दत से परिचित था। शेर मुहम्मद सुप्रसिद्ध मुल्ला नसरुद्दीन के पिता थे। और ऐ मुसाफि़र, तुमने मुल्ला नसरुद्दीन के बारे में ज़रूर बहुत कुछ सुना होगा।’ ‘हाँ, कुछ सुना तो है। लेकिन आप यह बताइए कि मुल्ला नसरुद्दीन के पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद और उनके घरवाले कहाँ गए?’ ‘इतने जोर से मत बोलो मेरे बेटे। बुखारा में हजा़रों जासूस हैं। अगर वे हम लोगों की बातचीत सुन लेंगे तो हम परेशानियों में पड़ जाएँगे।...हमारे शहर में मुल्ला नसरुद्दीन का नाम लेने की सख़्त मुमानियत है। उसका नाम लेना ही जेल में ठूँस दिए जाने के लिए काफ़ी है। मैं तुम्हें बताता हूँ कि शेर मुहम्मद का क्या हुआ।’ बूढ़े ने खाँसते हुए कहना शुरू किया,‘यह घटना पुराने अमीर के ज़माने की है। मुल्ला नसरुद्दीन के बुखारा से निकल जाने के लगभग अठारह महीने के बाद बाजा़रों में अफवाह फैली कि वह ग़ैर-क़ानूनी ढंग से चोरी-छिपे फिर बुखारा में लौट आया है और अमीर का मजा़क़ उड़ाने वाले गीत लिख रहा है। यह अफ़वाह अमीर के महल तक भी पहुँच गई। सिपाहियों ने मुल्ला नसरुद्दीन को बहुत खोजा, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। अमीर ने उसके पिता, दोनों भाइयों, चाचा और दूर तक के रिश्तेदारों और दोस्तों की गिरफ्*तारी का हुक्म दे दिया। साथ ही यह भी हुक्म दे दिया कि उन लोगों को तब तक यातानाएँ दी जाएँ जब तक कि वे नसरुद्दीन का पता न बता दें। अल्लाह का शुक्र है कि उसने उन लोगों को खामोश रहने और यातनाओं को सहने की ताक़त दे दी। लेकिन उसका पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद उन यातनाओं को सहन नहीं कर पाया। वह बीमार पड़ गया और कुछ दिनों बाद मर गया। उसके रिश्तेदारों और दोस्त अमीर के गुस्से से बचने के लिए बुखारा छोड़कर भाग गए। किसी को पता नहीं कि वे कहाँ हैं?.... ‘लेकिन उन पर जोर-जुल्म क्यों किए गए?’मुल्ला नसरुद्दीन ने ऊँची आवाज़ में पूछा। उसकी आँखों में आँसू बह रहे थे। लेकिन बूढ़े ने उन्हें नहीं देखा। ‘उन्हें क्यों सताया गया? मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मुल्ला नसरुद्दीन उस समय बुखारा में नहीं था।’‘यह कौन कह सकता है?’ बूढ़े ने कहा, ‘मुल्ला नसरुद्दीन की जब जहाँ मर्जी होती है, पहुँच जाता है। हमारा बेमिसाल मुल्ला नसरुद्दीन हर जगह है, और कहीं भी नहीं है।’ यह कहकर बूढ़ा खाँसते हुए आगे बढ़ गया। नसरुद्दीन ने अपने दोनों हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और गधे की ओर बढ़ने लगा। उसने अपनी बाँहें गधे की गर्दन में डाल दीं और बोला, ‘ऐ मेरे अच्छे और सच्चे दोस्त, तू देख रहा है मेरे प्यारे लोगों में से तेरे सिवा और कोई नहीं बचा। अब तू ही मेरी आवारागर्दी में मेरा एकमात्र साथी है।’गधा जैसे अपने मालिक का दुख समझ रहा था। वह बिल्कुल चुपचाप खड़ा रहा। घंटे भर बाद मुल्ला नसरुद्दीन अपने दुख पर काबू पा चुका था। उसके आँसू सूख चुके थे। ‘कोई बात नहीं,’गधे की पीठ पर धौल लगाते हुए वह चिल्लाया,‘कोई चिंता नहीं। बुखारा के लोग मुझे अब भी याद करते हैं। किसी-न-किसी तरह हम कुछ दोस्तों को खोज ही लेंगे और अमीर के बारे में ऐसा गीत बनाएँगे-ऐसा गीत बनाएँगे कि वह गुस्से से अपने तख्त़ पर ही फट जाएगा और उसकी गंदी आँतें महल की दीवारों पर जा गिरेंगी। चल मेरे वफ़ादार गधे!आगे बढ़।
मुल्ला पहुंचा अपने शहरः मिली वालिद के मौत की खबर
मुल्ला नसरुद्दीन का गधा बहुत ही होशियार था। हर बात को अच्छी तरह समझता था। उसके कानों में शहर के फाटक से आती हुई पहरेदारों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें पड़ चुकी थीं। वह सड़क की परवाह किए बिना सरपट भागा चला जा रहा था, इतनी तेज़ रफ्तार से कि उसके मालिक को अपने पैर ऊँचे उठाने पड़ रहे थे। उसके हाथ गधे की गर्दन से लिपटे हुए थे। वह जी़न से चिपका हुआ था। भारी आवाज से भौंकते हुए कुत्ते उसके पीछे दौड़ रहे थे। मुर्ग़ियों के चूजे भयभीत होकर तितर-बितर होकर इधर-उधर भागने लगे थे और सड़क पर चलने वाली दीवारों से चिपटे अपने सिर हिलाते हुए उसे देख रहे थे। ......मुल्ला गधे पर भागता हुआ अपने शहर में दाखिल होता है।) उसके आगे मुल्ला अपने शहर में बुखारा में मुल्ला नसरुद्दीन को न तो अपने रिश्तेदार मिले और न पुराने दोस्त। उसे अपने पिता का मकान भी नहीं मिला। वह मकान, जहाँ उसने जन्म लिया था। न वह छायादार बगीचा ही मिला, जहाँ सर्दी के मौसम में पेड़ों की पीली-पीली पत्तियाँ सरसराती हुई झूलती थीं। जहाँ मक्खियाँ मुरझाते हुए फूलों के रस की अंतिम बूँद चूसती हुई भनभनाया करती थीं और सिंचाई के तालाब में झरना रहस्यपूर्ण अंदाज में बच्चों को कभी ख़त्म न होने वाली अनोखी कहानियाँ सुनाया करता था। वह स्थान अब ऊसर मैदान में बदल गया था। उस पर बीच-बीच में मलबे के ढेर लगे थे। टूटी हुई दीवारें खड़ी थी। वहाँ मुल्ला नसरुद्दीन को न तो एक चिड़ियाँ दिखाई दी और न ही एक मक्खी। केवल पत्थरों के ढेर के नीचे से, जहाँ उसका पैर पड़ गया था, अचानक ही एक लंबी तेल की धार उबल पड़ी थी और धूप में हल्की चमक के साथ पत्थरों के दूसरे ढेर में जा छिपी थी। वह एक साँप था; अतीत में इन्सान के छोड़े हुए वीरान स्थानों का एकमात्र और अकेला निवासी। मुल्ला नसरुद्दीन कुछ देर तक नीची निगाह किए चुपचाप खड़ा रहा। पूरे बदन को कँपा देने वाली खाँसी की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने पीछे मुड़कर देखा। परेशानियों और ग़रीबों से दोहरा एक बूढ़ा उस बंजर धरती को लाँघते हुए उसी ओर आ रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे रोककर कहा, ‘अस्सलाम वालेकुम बुजुर्गवार, क्या आप बता सकते हैं कि इस जमी़न पर किसका मकान था?’ ‘यहाँ जीनसाज़ शेर मुहम्मद का मकान था।’ बूढ़े ने उत्तर दिया, ‘मैं उनसे एक मुद्दत से परिचित था। शेर मुहम्मद सुप्रसिद्ध मुल्ला नसरुद्दीन के पिता थे। और ऐ मुसाफि़र, तुमने मुल्ला नसरुद्दीन के बारे में ज़रूर बहुत कुछ सुना होगा।’ ‘हाँ, कुछ सुना तो है। लेकिन आप यह बताइए कि मुल्ला नसरुद्दीन के पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद और उनके घरवाले कहाँ गए?’ ‘इतने जोर से मत बोलो मेरे बेटे। बुखारा में हजा़रों जासूस हैं। अगर वे हम लोगों की बातचीत सुन लेंगे तो हम परेशानियों में पड़ जाएँगे।...हमारे शहर में मुल्ला नसरुद्दीन का नाम लेने की सख़्त मुमानियत है। उसका नाम लेना ही जेल में ठूँस दिए जाने के लिए काफ़ी है। मैं तुम्हें बताता हूँ कि शेर मुहम्मद का क्या हुआ।’ बूढ़े ने खाँसते हुए कहना शुरू किया,‘यह घटना पुराने अमीर के ज़माने की है। मुल्ला नसरुद्दीन के बुखारा से निकल जाने के लगभग अठारह महीने के बाद बाजा़रों में अफवाह फैली कि वह ग़ैर-क़ानूनी ढंग से चोरी-छिपे फिर बुखारा में लौट आया है और अमीर का मजा़क़ उड़ाने वाले गीत लिख रहा है। यह अफ़वाह अमीर के महल तक भी पहुँच गई। सिपाहियों ने मुल्ला नसरुद्दीन को बहुत खोजा, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। अमीर ने उसके पिता, दोनों भाइयों, चाचा और दूर तक के रिश्तेदारों और दोस्तों की गिरफ्*तारी का हुक्म दे दिया। साथ ही यह भी हुक्म दे दिया कि उन लोगों को तब तक यातानाएँ दी जाएँ जब तक कि वे नसरुद्दीन का पता न बता दें। अल्लाह का शुक्र है कि उसने उन लोगों को खामोश रहने और यातनाओं को सहने की ताक़त दे दी। लेकिन उसका पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद उन यातनाओं को सहन नहीं कर पाया। वह बीमार पड़ गया और कुछ दिनों बाद मर गया। उसके रिश्तेदारों और दोस्त अमीर के गुस्से से बचने के लिए बुखारा छोड़कर भाग गए। किसी को पता नहीं कि वे कहाँ हैं?.... ‘लेकिन उन पर जोर-जुल्म क्यों किए गए?’मुल्ला नसरुद्दीन ने ऊँची आवाज़ में पूछा। उसकी आँखों में आँसू बह रहे थे। लेकिन बूढ़े ने उन्हें नहीं देखा। ‘उन्हें क्यों सताया गया? मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मुल्ला नसरुद्दीन उस समय बुखारा में नहीं था।’‘यह कौन कह सकता है?’ बूढ़े ने कहा, ‘मुल्ला नसरुद्दीन की जब जहाँ मर्जी होती है, पहुँच जाता है। हमारा बेमिसाल मुल्ला नसरुद्दीन हर जगह है, और कहीं भी नहीं है।’ यह कहकर बूढ़ा खाँसते हुए आगे बढ़ गया। नसरुद्दीन ने अपने दोनों हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और गधे की ओर बढ़ने लगा। उसने अपनी बाँहें गधे की गर्दन में डाल दीं और बोला, ‘ऐ मेरे अच्छे और सच्चे दोस्त, तू देख रहा है मेरे प्यारे लोगों में से तेरे सिवा और कोई नहीं बचा। अब तू ही मेरी आवारागर्दी में मेरा एकमात्र साथी है।’गधा जैसे अपने मालिक का दुख समझ रहा था। वह बिल्कुल चुपचाप खड़ा रहा। घंटे भर बाद मुल्ला नसरुद्दीन अपने दुख पर काबू पा चुका था। उसके आँसू सूख चुके थे। ‘कोई बात नहीं,’गधे की पीठ पर धौल लगाते हुए वह चिल्लाया,‘कोई चिंता नहीं। बुखारा के लोग मुझे अब भी याद करते हैं। किसी-न-किसी तरह हम कुछ दोस्तों को खोज ही लेंगे और अमीर के बारे में ऐसा गीत बनाएँगे-ऐसा गीत बनाएँगे कि वह गुस्से से अपने तख्त़ पर ही फट जाएगा और उसकी गंदी आँतें महल की दीवारों पर जा गिरेंगी। चल मेरे वफ़ादार गधे!आगे बढ़।
मुल्ला के शहर पहुंचा टैक्स अफसर
बुखारा में मुल्ला नसरुद्दीन को न तो अपने रिश्तेदार मिले और न पुराने दोस्त। उसे अपने पिता का मकान भी नहीं मिला।.....मुल्ला नसरुद्दीन कुछ देर तक नीची निगाह किए चुपचाप खड़ा रहा। पूरे बदन को कँपा देने वाली खाँसी की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ा।...मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे रोककर कहा, ‘अस्सलाम वालेकुम बुजुर्गवार, क्या आप बता सकते हैं कि इस जमी़न पर किसका मकान था?’ ‘यहाँ जीनसाज़ शेर मुहम्मद का मकान था।’ बूढ़े ने उत्तर दिया......‘मुल्ला नसरुद्दीन के बुखारा से निकल जाने के लगभग अठारह महीने के बाद बाजा़रों में अफवाह फैली कि वह ग़ैर-क़ानूनी ढंग से चोरी-छिपे फिर बुखारा में लौट आया है और अमीर का मजा़क़ उड़ाने वाले गीत लिख रहा है।....अमीर ने उसके पिता, दोनों भाइयों, चाचा और दूर तक के रिश्तेदारों और दोस्तों की गिरफ्*तारी का हुक्म दे दिया। लेकिन उसका पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद उन यातनाओं को सहन नहीं कर पाया। वह बीमार पड़ गया और कुछ दिनों बाद मर गया।...... .....मुल्ला यह सुनकर रोता है और फिर आगे बढ़ जाता है।) उसके आगे.. मुल्ला के शहर पहुंचा टैक्स अफसर तीसरे पहर का सन्नाटा चारों और फैला हुआ था। धूल से भरी सड़क के दोनों और के मकानों की कच्ची दीवारों और बाड़ों से अलसायी-सी गर्मी उठ रही थी। पोंछने से पहले ही पसीना मुल्ला नसरुद्दीन के चेहरे पर फैल जाता था। बुखारा की चिरपरिचित सड़कों, मस्जिदों की मीनरों और कहवाखानों को उसने बड़े प्यार से पहचाना। पिछले दस वर्षों में बुखारा में रत्ती भर भी फर्क नहीं आया था। रँगे हुए नाख़ूनवाले हाथों से बुर्क़ा उठाए एक औरत बड़े सजीले ढंग से झुककर गहरे रंग के पानी में पतली-सी सुराही डुबो रही थी। मुल्ला के सामने सवाल यह था कि खाना कहाँ से और कैसे मिले? उसने पिछले दिन से तीसरे बार पटका अपने पेट पर कसकर, बाँध लिया था। ‘कोई-न-कोई उपाय तो करना ही पड़ेगा मेरे वफादार गधे।‘ उसने कहा, ‘हम यहीं रुककर कोई उपाय सोचते हैं। सौभाग्य से यहाँ एक कहवाखाना भी है।‘ लगाम ढीली करके उसने गधे को एक खूँटे के आसपास पड़े तिपतिया घास के टुकड़ों को चरने के लिए छोड़ दिया और अपनी खिलअत का दामन सिकोड़कर एक नहर के किनारे बैठ गया। अपने विचारों में डूबा मुल्ला नसुरुद्दीन सोच रहा था- ‘बुखारा क्यों आया? खाना खरीदने के लिए मुझे आधे तंके का सिक्का भी कहाँ से मिलेगा? क्या मैं भूखा ही रहूँगा? उस कमबख्त़ टैक्स वसूल करने वाले अफसर ने मेरी सारी रक़म साफ़ कर दी। डाकुओं के बारे में मुझसे बात करना कितनी बड़ी गुस्ताखी थी।’ तभी उसे वह टैक्स अफसर दिखाई दे गया, जो उसकी बर्बादी का कारण था। वह घोड़े पर सवार कहवाखाने की ओर आ रहा था। दो सिपाही उसके अरबी घोड़े की लगाम थामे आगे-आगे चल रहे थे। उसके पास कत्थई-भूरे रंग का बहुत ही खूबसूरत घोड़ा था। उसकी गहरे रंग की आँखों में बहुत ही शानदार चमक थी। गर्दन सुराहीदार थी। सिपाहियों ने बड़े अदब से अपने मालिक को उतरने में मदद दी। वह घोड़े से उतरकर कहवाखाने में चला गया। कहवाखाने का मालिक उसे देखते ही घबरा उठा। फिर स्वागत करते हुए उसे रेशमी गद्दों की ओर ले गया। उसके बैठ जाने के बाद मालिक ने बेहतरीन कहवे का एक बढ़िया प्याला बनाया और चीनी कारीगिरी के एक नाजुक गिलास में डालकर अपने मेहमान को दे दिया। ‘जरा देखो तो, मेरी कमाई पर इसकी कितनी शानदार खा़तिरदारी हो रही है! मुल्ला नसरुद्दीन सोच रहा था। टैक्स अफ़सर ने डटकर कहवा पिया और वहीं गद्दों पर लुढ़क कर सो गया। उसके ख़र्राटों से कहवाख़ाना भर गया। अफसर की नींद में खलल न पड़े, इस डर से कहवाखाने में बैठ फुस-फुसाकर बातें करने लगे। दोनों सिपाही उसके दोनों और बैठ गए और पत्तियों के चौरों में मक्खियाँ उड़ाने लगे। कुछ देर बाद, जब उन्हें विश्वास हो गया कि उनका मालिक गहरी नींद में सो गया है तो उन्होंने आँखों से इशारा किया। उठकर घोड़े की लगाम खोल दी और उसके सामने घास का एक गट्ठर डाल दिया। वे नारियल का हुक्का लेकर कहवाख़ाने के अँधेरे हिस्से की ओर चले गए। थोड़ी देर बाद मुल्ला नसरुद्दीन की नाक के नथुनों से गाँजे की मीठी-मीठी गंध टकराई। सिपाही गाँजा पीकर मदहोश हो चुके थे।
मुल्ला ने बेचा टैक्स अफसर का घोड़ा
अपने विचारों में डूबा मुल्ला नसुरुद्दीन सोच रहा था- ‘बुखारा क्यों आया? खाना खरीदने के लिए मुझे आधे तंके का सिक्का भी कहाँ से मिलेगा? उस कमबख्त़ टैक्स वसूल करने वाले अफसर ने मेरी सारी रक़म साफ़ कर दी। डाकुओं के बारे में मुझसे बात करना कितनी बड़ी गुस्ताखी थी।’ तभी उसे वह टैक्स अफसर दिखाई दे गया, जो उसकी बर्बादी का कारण था। वह घोड़े पर सवार कहवाखाने की ओर आ रहा था। दो सिपाही उसके अरबी घोड़े की लगाम थामे आगे-आगे चल रहे थे। उसके पास कत्थई-भूरे रंग का बहुत ही खूबसूरत घोड़ा था। उसकी गहरे रंग की आँखों में बहुत ही शानदार चमक थी।.....मुल्ला उसे देखकर फिर अपनी भूख मिटाने की सोचता है) उसके आगे मुल्ला ने बेचा टैक्स अफसर का घोड़ा …..सुबह शहर के फाटक की घटनाओं की याद आते ही वह भयभीत होकर सोचने लगा कि कहीं ये सिपाही उसे पहचान न लें। उसने वहाँ से जाने का इरादा किया, लेकिन भूख से उसका बुरा हाल था। वह मन-ही-मन कहने लगा, ऐ तकदीर लिखने वाले मुल्ला नसुरुद्दीन की मदद करे। किसी तरह आधा तंका दिलवा दे, ताकि वह अपने पेट की आग बुझा सके। तभी किसी ने उसे पुकारा, ‘अरे तुम हाँ, हाँ तुम ही जो वहाँ बैठे हो।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने पलटकर देखा। सड़क पर एक सजी हुई गाड़ी खड़ी थी। बड़ा-सा साफ़ा बाँधे और क़ीमतों खिलअत पहने एक आदमी गाड़ी के पर्दों से बाहर झाँक रहा था। इससे पहले कि वह अजनबी कुछ कहता, मुल्ला नसरुद्दीन समझ गया कि खुदा ने उसकी दुआ सुन ली है और हमेशा की तरह उसे मुसीबत में देखकर उस पर करम की नजर की है। अजनबी ने खूबसूरत अरबी घोड़े को देखते हुए उसकी प्रशंसा करते हुए अकड़कर कहा, ‘मुझे यह घोड़ा पसंद है। बोल, क्या यह घोड़ा बिकाऊ है?’मुल्ला नसरुद्दीन ने बात बनाते हुए कहा, ‘दुनिया में कोई भी ऐसा घोड़ा नहीं, जिसे बेचा न जा सके।’ मुल्ला नसररुद्दीन तुरंत भाँप गया था कि यह रईस क्या कहना चाहता है। वह इससे आगे की बात भी समझ चुका था। अब वह खुदा से यही दुआ कर रहा था कि कोई बेवकूफ़ मक्खी टैक्स अफसर की गर्दन या नाक पर कूदकर उसे जगा न दे। सिपाहियों की उसे अधिक चिंता नहीं थी। कहवाख़ाने के अँधेरे हिस्से से आने वाले गहरे अँधेरे से स्पष्ट था कि वे दोनों नशे में धुत पड़े होंगे। अजनबी रईस ने बुजुर्गों जैसे गंभीर लहजे में कहा, ‘तुम्हें यह पता होना चाहिए कि इस फटी खिलअत को पहनकर ऐसे शानदार घोड़े पर सवार होना तुम्हें शोभा नहीं देता। यह बात तुम्हारे लिए खतरनाक भी साबित हो सकती है, क्योंकि हर कोई यह सोचेगा कि इस भिखमंगे को इतना शानदार घोड़ा कहाँ से मिला? यह भी हो सकता है कि तुम्हें जेल में डाल दिया जाए’। मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘आप सही फरमा रहे हैं, मेरे आका। सचमुच यह घोड़ा मेरे जैसों के लिए जरूरत से ज्यादा बढ़िया है। इस फटी खिलअत में मैं जिंदगी भर गधे पर ही चढ़ता रहा हूँ। मैं शानदार घोड़े पर सवारी करने की हिम्मत ही नहीं कर सकता।’ ‘यह ठीक है कि तुम ग़रीब हो। लेकिन घमंड ने तुम्हें अंधा नहीं बनाया है। नाचीज़ ग़रीब को विनम्रता ही शोभा देता है, क्योंकि खूबसूरत फूल बादाम के शानदार पेड़ों पर ही अच्छे लगते हैं, मैदान की कटीली झाड़ियों पर नहीं। बताओ, क्या तुम्हें यह थैली चाहिए? इसमें चाँदी के पूरे तीन सौ तंके है।’, अजनबी रईस ने कहा। मुल्ला नसरुद्दीन चिल्लाया, ‘चाहिए। जरूर चाहिए। चाँदी के तीन सौ तंके लेने से भला कौन इनकार करेगा? अरे, यह तो ऐसे ही हुआ जैसा किसी को थैली सड़क पर पड़ी मिल गई हो।’ अजनबी ने जानकारों की तरह मुस्काराते हुए कहा, ‘लगता है तुम्हें सड़क पर कोई दूसरी चीज मिली है। मैं यह रक़म उस चीज से बदलने को तैयार हूँ,’ जो तुम्हें सड़क पर मिली है। यह लो तीन सौ तंके।’ उसने थैली मुल्ला नसरुद्दीन को सौंप दी और अपने नौकर को इशारा किया। उसके चेचक के दागों से भरे चेहरे की मुस्कान और आँखों के काइयाँफ को देखते ही मुल्ला नसरुद्दीन समझ गया कि यह नौकर भी उतना ही बड़ा मक्कार है, जितना बड़ा मक्कार इसका मालिक है। एक ही सड़क पर तीन-तीन मक्कारों का एक साथ होना ठीक नहीं है, उसने मन-ही-मन निश्चय किया। इनमें से कम-से-कम एक जरूर ही फालतू है। समय आ गया है कि यहाँ से नौ-दो ग्यारह हो जाऊँ। अजनबी की उदारता की प्रशंसा करते हुए मुल्ला नसरुद्दीन झपटकर अपने गधे पर सवार हो गया और उसनए इतने जोर से एड़ लगाई कि आलसी होते हुए भी गधा ढुलकी मारने लगा। थोड़ी दूर जाकर मुल्ला नसरुद्दीन ने मुड़कर देखा। नौकर अरबी घोड़े को गाड़ी से बाँध रहा था। वह तेजी से आगे बढ़ गया।…
मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान-11
…सुबह शहर के फाटक की घटनाओं की याद आते ही वह भयभीत होकर सोचने लगा कि कहीं ये सिपाही उसे पहचान न लें। ...तभी किसी ने उसे पुकारा...मुल्ला नसरुद्दीन ने पलटकर देखा।...बड़ा-सा साफ़ा बाँधे और क़ीमतों खिलअत पहने एक आदमी गाड़ी के पर्दों से बाहर झाँक रहा था।...अजनबी ने खूबसूरत अरबी घोड़े को देखते हुए उसकी प्रशंसा करते हुए अकड़कर कहा, ‘मुझे यह घोड़ा पसंद है। बोल, क्या यह घोड़ा बिकाऊ है?’मुल्ला नसरुद्दीन ने बात बनाते हुए कहा, ‘दुनिया में कोई भी ऐसा घोड़ा नहीं, जिसे बेचा न जा सके।’ ......मुल्ला उसे टैक्स अफसर का घोड़ा बेचकर निकल जाता है) उसके आगे मुल्ला की मुलाकात रईस के सिपाही से लेकिन थोड़ी दूर जाकर उसने फिर पीछे मुड़कर देखा। वह अजनबी रईस और टैक्स अफसर एक-दूसरे से गुथे हुए थे और एक-दूसरे की दाढ़ियाँ नोच रहे थे। सिपाही उन्हें अलग करने की बेकार कोशिश कर रहे थे। ‘अकलमंद लोग दूसरों के झगड़ों में दिलचस्पी नहीं लेते।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने मन-ही-मन कहा और गली-कूचों में चक्कर काटता हुआ काफ़ी दूर निकल गया। जब उसे विश्वास हो गया कि अब वह पीछा करने वालों से बच गया है, उसने गधे की लगाम खींची, ‘ठहर जा, अब कोई जल्दी नहीं है।’ लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। एक घुड़सवार तेज़ी से सड़क पर आ गया था। यह वही चेचक के दाग़ों से भरे चेहरे वाला नौकर था। वह उसी घोड़े पर सवार था। अपने पैर झुलाते हुए वह तेजी से मुल्ला नसरुद्दीन की बग़ल से गुज़र गया लेकिन अचानक घोड़े को सड़क पर आड़ा खड़ा करके रुक गया। मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘ओ भले मानस, मुझे आगे जान दे। ऐसी तंग सड़कों पर लोगों को सीधे-सीधे सवारी करनी चाहिए। आड़े-आड़े नहीं।’ नौकर ने हँसी के साथ कहा, ‘अब तुम जेल जाने से नहीं बच सकते। तुम्हें मालूम है, घोड़े के मालिक उस अफसर ने मेरे मालिक की आधी दाढ़ी नोच डाली है। मेरे मालिक ने उसकी नाक से खून निकाल दिया है। कुल तुम्हें अमीर की अदालत में पेश किया जाएगा।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने आश्चर्य से पूछा, ‘क्या कह रहे हो तुम? ऐसे इज्ज़तदार लोगों की इस तरह झगड़ने की वजह क्या है? तुमने मुझे रोका क्यों है? मैं तो उनके झगड़े का फैसला कर नहीं सकता। अपने आप करने दो उन्हें फैसला।’ ‘खामोश!’ नौकर चिल्लाया, ‘वापस चल। तुझे घोड़े के लिए जवाब देना होगा।’ ‘कौन-सा घोड़ा? तुम ग़लत कह रहे हो’, मुल्ला नसरुद्दीन बोला, ‘खुदा गवा है, इस मामले का घोड़े से कोई सरोकार नहीं है। तुम्हारे दरियादिल मालिक ने एक गरीब आदमी की मदद करने के इरादे से मुझसे पूछा कि क्या में चाँदी के तीन सौ तंके लेने पसंद करूँगा। मैंने उत्तर दिया, ‘हाँ, मैं यह रकम लेना पसंद करुँगा। तब उसने मुझे तीन सौ तंके दे दिए। अल्लाह उसे लंबी जिदंगी दे। रुपया देने से पहले उसने यह देखने के लिए कि मैं इस इनाम का हकदार हूँ भी या नहीं, मुझ नाचीज़ में विनम्रता है या नहीं, उसने कहा था- ‘मैं नहीं जानना चाहता कि यह घोड़ा किसका है और कहाँ से आया है?’ चाबुक से अपनी पीठ खुजाते हुए नौकर सुनता रहा।‘देखा तुमने, वह यह जानना चाहता था कि कहीं मैं झूठे घमंड में अपने को घोड़े का मालिक तो नहीं बता बैठा। लेकिन मैं चुप रहा। कहने लगा, ‘मेरे जैसों के लिए यह थोड़ा जरूरत से ज्यादा बढ़िया है।’ मैंने उसकी बात मान ली। इससे वह और भी खुश होकर बोला, ‘मैं सड़क पर ऐसी चीज पा गया हूँ, जिसके बदले में मुझे चाँदी के सिक्के मिल सकते हैं।’ इसका इशारा मेरे इस्लाम में मेरे विश्वास की ओर था।...इसके बाद उसने मुझे इनाम दिया। इस नेक काम से वह कुरान शरीफ़ में बताए गए बहिश्त के रास्ते में पड़ने वाले उस पुल पर से अपनी यात्रा और अधिक आसान बनाना चाहता था, जो बाल से भी अधिक बारीक़ है. तलवार की धर से भी ज़्यादा तेज है. इबादत करते समय मैं अल्लाह से तुम्हारे मालिक के इस नेक काम का हवाला देते हुए दुआ करुँगा कि वह उस पुल पर बाड़ लगवा दे।’ मुल्ला नसरुद्दीन के भाषण के समाप्त हो जाने पर परेशान कर डालने वाली काइयाँ हँसी के साथ नौकर ने कहा, ‘तुम ठीक कहते हो। मेरे मालिक के साथ तुम्हारी जो बातचीत हुई थी उसका मतलब इतना नेक है, मैं पहले समझ नहीं पाया था। लेकिन, क्योंकि उस दूसरी दुनिया के रास्ते के पुल को पार करने में तुमने मेरे मालिक की मदद करने का निश्चय कर लिया है तो अधिक हिफाजत तभी होगी जब पुल के दोनों और बाड़ लग जाए। मैं भी बड़ी खुशी से अल्लाह से दुआ करुँगा कि मेरे मालिक के लिए दूसरी ओर की बाड़ लगा दें।’ ‘तो माँगो दुआ। तुम्हें रोकता कौन?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘बल्कि ऐसा करना तो तुम्हारा फर्ज है। क्या कुरान में हिदायत नहीं है कि गुलामों और नौकरों को अपने मालिकों के लिए रोजाना दुआ माँगनी चाहिए और इसके लिए कोई खास इनाम अलग से नहीं माँगना चाहिए?’
मूर्ख सिपाही से मुल्ला ने जान बचाई
घोड़े को एड़ लगाकर मुल्ला नसरुद्दीन को दीवार की ओर दबाते हुए नौकर ने सख़्ती से कहा, ‘अपना गधा वापस लौटा। चल, जल्दी कर। मेरा ज्यादा वक़्त बर्बाद मत कर।’
मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे बीच में ही टोककर कहा, ‘ठहरो, मुझे बात तो ख़त्म कर लेने दो मेरे भाई। मैं तीन सौ तंकों के हिसाब से उतने ही लफ़्जों की दुआ काफ़ी रहेगी। मेरी ओर की बाड़ कुछ छोटी और पतली हो जाएगी। जहाँ तुम्हारा संबंध है तुम पचास लफ़्जों की दुआ माँगना। सब कुछ जानने वाला अल्लाह इतनी ही लकड़ी से तुम्हारी ओर भी बाड़ लगा देगा।’
‘क्यों? मेरी ओर की बाड़ तुम्हारी बाड़ का पाँचवाँ हिस्सा ही क्यों हो?’
‘वह सबसे ज्यादा खतरनाक जगह पर जो बनेगी।’
‘नहीं, मैं ऐसी छोटी बाड़ों के लायक नहीं हूँ। इसका मतलब तो यह हुआ कि पुल का कुछ हिस्सा बिना बाड़ का रह जाएगा। मेरे मालिक के लिए इससे जो खतरा पैदा होगा, मैं तो उसे सोचकर ही काँप जाता हूँ। मेरी राय में तो हम दोनों ही डेढ़-डेढ़ सौ लफ्जों की दुआ माँगे ताकि पुल के दोनों और एक ही लंबाई की बाड़ं हो। अगर तुम राजी नहीं होते तो इसका मतलब यह होगा कि तुम मेरे मालिक का बुरा चाहते हो। यह चाहते हो कि वह पुल पर से गिर जाएँ। तब मैं मदद माँगूँगा और तुम जेलखाने का सबसे पास का रास्ता पकड़ोगे।’
‘तुम जो कुछ कह रहे हो उससे लगता है कि पतली टहनियों की बाड़ लगा देना ही तुम्हारे लिए काफी रहेगा। क्या तुम समझ नहीं रहे कि बाड़ एक ओर मोटी और मजबूत होनी चाहिए, ताकि अगर तुम्हारे मालिक के पैर डगमगाएँ तो पकड़ने के लिए कुछ तो रहे।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने गुस्से से कहा। उसे लग रहा था कि रुपयों की थैली पटके से खिसक रही है।
नौकर ने खुशी से चिल्लाते हुए कहा, ‘सचमुच तुमने ईमान और इंसाफ की बात कही है। बाड़ को मेरी ओर से मजबूत होने दो। मैं दो सौ लफ्जों की दुआ माँगने में आनाकानी नहीं करुँगा।’
‘तुम शायद तीन सौ लफ्जों की दुआ माँगना चाहोगे? मुल्ला नसरुद्दीन ने जहरीली आवाज़ में कहा?’
वे दोनों अलग हुए तो मुल्ला नसरुद्दीन की थ़ैली का आधा वजन कम हो चुका था। उन लोगों ने तय किया था कि मालिक के लिए बहिश्त के रास्ते वाले पुल के दोनों और बराबर-बराबर मजबूत और मोटी बाड़ लगायी जाए।
‘अलविदा, मुसाफिर। हम दोनों ने आज बड़े पुण्य का काम किया है।’ नौकर ने कहा। ‘अलविदा, वफ़दार और भले नौकर। अपने मालिक की बाड़ के लिए तुम्हें कितनी चिंता है! साथ ही मैं यह और कहे देता हूँ कि तुम बहुत जल्द मुल्ला नसरुद्दीन की टक्कर के हो जाओगे।’
नौकर के कान खड़े हो गए, ‘तुमने उसका जिक्र क्यों किया?’‘कुछ नहीं, यों ही। बस मुझे ऐसा लगा, मुल्ला नसरुद्दीन बोला और सोचने लगा, ‘यह आदमी बिल्कुल सीधा-सादा नहीं है।’
‘शायद उससे तुम्हारा कोई दूर का रिश्ता है। शायद तुम उसके खानदान के किसी आदमी को जानते हो?’‘नहीं, मैं उससे कभी नहीं मिला। और न मैं उसके किसी रिश्तेदार को ही जानता हूँ।’
नौकर ने जीऩ पर बैठे-बैठे थोड़ा सा झुककर कहा, ‘सुनो, मैं तुम्हें एक राज़ की बात बताऊँ। मैं उसका रिश्तेदार हूँ। असल में मैं उसका चचेरा भाई हूँ। हम दोनों बचपन में साथ-साथ रहे थे।’
लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन खामोश ही रहा। चालबाज़ नौकर ने कहा, ‘अमीर भी कितना बेरहम है। बुखारा के सब वज़ीर बेवकूफ हैं। और हमारे शहरवाले अमीर भी उल्लू हैं। यह तो पूरे यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता कि अल्लाह है भी या नहीं।’
मुल्ला नसरुद्दीन की जुबान पर एक करारा उत्तर आया, लेकिन उसने मुँह नहीं खोला। नौकर ने अत्याधिक निराश होकर एक गाली दी और घोड़े के एड़ लगाकर दो छलांग में ही गली का मोड़ पार करके गायब हो गया।
‘अच्छा तो मुझे एक रिश्तेदार मिल गया।’ मुल्ला नसरुद्दीन मुस्कुराया। उस बूढ़े ने झूठ नहीं कहा था। बुखारा में जासूस मक्खी-मच्छरों की तरह भरे पड़े हैं। यहाँ चालाकी से काम लेना ही ठीक रहेगा। पुरानी कहावत है- कुसूरवार जबान सिर के साथ काटी जाती है।
मुल्ला ने लगाई पैसों की जुगाड़
शहर के दूसरें छोर पर पहुँचकर मुल्ला नसरुद्दीन रुक गया। अपने गधे को एक कहवाख़ाने के मालिक को सौंपकर खुद नानबाई की दुकान में चला गया। वहाँ बहुत भीड़ थी। धुआँ और खाना पकाने की महक आ रही थी। चूल्हे गर्म थे और कमर तक नंगे बावर्चियों की पसीने से तर पीठों पर चूल्हों की लपटों की चमक पड़ रही थी। पुलाव पक रहा था। सीख़ कबाब भुन रहे थे। बैलों का गोश्त उबल रहा था। प्याज, काली मिर्च, और भेड़ की दुम की चर्बी और गोश्त भरे समोसे तले जा रहे थे।
बड़ी मुश्किल से मुल्ला नसरुद्दीन ने बैठने के लिए जगह तलाश की। दब-पिसकर वह जहाँ बैठा, वह जगह इतनी तंग थी कि जिन लोगों की पीठ को धक्का देकर वह बैठा, वे जोऱ से गुर्रा उठे। लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं। मुल्ला नसरुद्दीन ने तीन प्याले कीमा, तीन प्लेट चावल और दो दर्जन समोसे डकार लिए।
खाना खाकर वह दरवाज़े की ओर बढ़ने लगा। पैर घसीटते हुए वह उस कहवाख़ाने तक पहुँचा, जहाँ अपना गधा छोड़ आया था। उसने कहवा मंगवाया और गद्दों पर आराम से पसर गया। उसकी पलकें झुकने लगीं। उसके दिमाग में धीरे-धीरे खू़बसूरत ख़याल तैरने लगे।
मेरे पास इस वक्त़ अच्छी-खासी रक़म है, घुमक्कड़ी छोड़ने का वक्त आ गया है। क्या मैं एक सुंदर और मेहरबान बीवी हासिल नहीं कर सकता? क्या मेरे भी एक बेटा नहीं हो सकता? पैगंबर की कसम, वह नन्हा और शोर मचानेवाला बच्चा बड़ा होकर मशहूर शैतान निकलेगा। मैं अपनी सारी अकलमंदी और तजुर्बे उसमें उड़ेल दूँगा। मुझे जीनसाज़ या कुम्हार की दुकान खरीद लेनी चाहिए।
वह हिसाब लगाने लगा, अच्छी दुकान की क़ीमत कम-से-कम तीन सौ तंके होगी। लेकिन मेरे पास हैं कुल डेढ़ सौ तंके। अल्लाह उस डाकू को अंधा कर दे। मुझसे वही रकम छीन ले गया, जिसकी किसी काम को शुरू करने के लिए मुझे जरूरत थी।
‘बीस तंके’ अचानक एक आवाज आई। और फिर ताँबे की थाली में पासे गिरने की आवाज सुनाई दी।
बरसाती के किनारे, जानवर बाँधने के खूँटों के बिल्कुल पास कुछ लोग घे़रा बनाए बैठे थे। कहवाख़ाने का मालिक उनके पीछे खड़ा था। जुआ, कुहनियों के सहारे उठते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने भाँप लिया। मैं भी देखूँ। जुआ तो नहीं खेलूँगा। ऐसा बेवकूफ़ नहीं हूँ। लेकिन कोई अकलमंद आदमी बेवकूफों को देखे क्यों नहीं?’ उठकर वह जुआरियों के पास चला गया।
‘बेवकूफ़ लोग,’ कहवाखा़ने के मालिक के कान में उसने फुसफुसाकर कहा-मुनाफे के लालच में अपना आखि़री सिक्का भी गँवा देते हैं। लेकिन उस लाल बालों वाले जुआरी की तकदीर देखो, लगातार चौथी बार जीता है। अरे, यह तो पाँचवीं बार भी जीत गया। इसने दौलत का झूठा सपना जुए की ओर खींच रखा है। फिर छठी बार जीत गया? ऐसी क़िस्मत मैंने कभी नहीं देखी। अगर यह सातवीं बार जीता तो मैं दाँव लगाऊँगा।
काश! मैं अमीर होता तो न जाने कब का जुआ बंद करा चुका होता।’ लाल बालों वाले ने पासा फेंका। वह सातवीं बार फिर जीत गया।
मुल्ला नसरुद्दीन खिलाड़ियों को हटाते हुए घेरे में जा बैठा। उसने भाग्य शाली विजेता के पासे ले लिए। उन्हें उलट पुलटकर अनुभवी आँखों से देखते हुए बोला, ‘मैं तुम्हारे साथ खेलना चाहता हूँ।’
‘कितनी रक़म?’ लाल बालों वाले ने भर्राए गले से पूछा। वह ज़्यादा-से-ज्यादा जीत लेने के लिए उतावला हो रहा था।
मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 14
मुल्ला नसरुद्दीन ने खेला जुआं, पलटी किस्मत मुल्ला नसरुद्दीन ने अपना बटुआ निकाला। जरूरत के लिए पच्चीस तंके छोड़कर बाक़ी निकाल लिए। ताँबे के थाल में चाँदी के सिक्के खनखनाकर गिरे और चमकने लगे। ऊँचे दाँवों का खेल शुरू हो गया। लाल बालों वाले ने पासे उठा लिए। बहुत देर तक उन्हें खनखनाता रहा, जैसे उन्हें फेंकते हुए झिझक रहा हो। सब लोग साँस रोके देख रहे थे। आखि़र लाल बालों वाले ने पासे फेंके। खिलाड़ी गर्दन बढ़ाकर देखने लगे और फिर एक साथ ही पीछे की ओर लुढ़ककर बैठ गए। लाल बालों वाला पीला पड़ गया। उसके भिंचे हुए दाँतों से कराह निकल गई। जुआरी हार गया था। अपने पर भरोसा करने के लिए तकरीद ने मुल्ला नसरुद्दीन को सबक सिखाने का इरादा कर लिया। इसके लिए उसने चुना उसके गधे, या कहो गधे की दुम को। गधा जुआरियों की ओर पल्टा और उसने दुम घुमाई। दुम सीधी उसके मालिक के हाथ से जा टकराई। पासे हाथ से फिसल गए। लाल बालों वाला जुआरी खुशी से भर्रायी चीख़ के साथ जल्दी से थालपर लेट गया और दाँव पर लगी रक़म अपने बदन से ढक ली। मुल्ला नसरुद्दीन की फटी-फटी आँखों के सामने दुनिया ढहती-सी नजर आ रही थी। अचानक वह उछला। उसने एक डंडा उठा लिया और खूँटे के पास खदेड़ते हुए गधे को पीटने लगा। ‘कमबख्त़, बदबूदार जानवर, सभी जिंदा जानवरों के लिए लानत।’ मुल्ला नसरुद्दीन चिल्ला रहा था, क्या यही काफी़ नहीं था कि अपने मालिक के पैसे से जुआ खेले? क्या यह पैसा हारना भी जरूरी था। बदमाश, तेरी खाल खींच ली जाए तेरे रास्ते में अल्लाह गड्डा कर दे, ताकि तू गिरे और तेरे पैर टूट जाएँ। न जाने तू कब मरेगा? मुझे तेरा बदनुमा चेहरा देखने से कब छुट्टी मिलेगी?’ गधा रेंकने लगा। जुआरी खिलखिलाकर हँसने और चिल्लाने लगे। सबसे ज़्यादा जो़र से लाल बालों वाला जुआरी चिल्लाया। उसे अपनी खुशकिस्मती पर पक्का यक़ीन हो गया था। थके हाँफते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने डंडा फेंक दिया तो लाल बालों वाले ने कहा, ‘आओ, फिर खेल लो। दो-चार दाँव और लग जाएँ। तुम्हारे पास अभी पच्चीस तंके तो हैं ही।’ यह कहकर उसने बायाँ पैर फैला दिया और मुल्ला नसरुद्दीन के प्रति उपेक्षा प्रकट करते हुए उसे हिलाने लगा। ‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा। वह सोच रहा था-जब सवा सौ तंके चले गए तो अब बाक़ी पच्चीस का ही क्या होगा? उसने लापरवाही से पासे फेंके और जीत गया। हारी हुई रकम थालपर फेंकते हुए लाल बालों वाले ने कहा, ‘पूरी रकम।’ मुल्ला नसरुद्दीन फिर जीत गया। लाल बालों को विश्वास नहीं हो रहा था कि किस्मत पलट गई। ‘पूरी रक़म,’ उसने फिर कहा। उसने लगातार सात बार यही कहा और हर बार हारता गया। थाल रुपयों से भर चुका था। जुआरी खामोश बैठे थे। लाल बालों वाला चिल्लाया, ‘अगर शैतान ही तुम्हारी मदद कर रहा हो तो बात दूसरी है। वरना तुम हर बार जीत नहीं सकते। कभी तो तुम हारोगे ही। थाल में तुम्हारे सोलह सौ तंके हैं। लगाओगे फिऱ एक बार पूरी रकम? कल मैं इस रकम से अपनी दुकान के लिए माल ख़रीदने वाला था। तो इसे भी दाँव पर लगाता हूँ।’ उसने सोने के सिक्कों, तिल्ले और तुमानों से भरी एक छोटी सी थैली निकाली। मुल्ला नसरुद्दीन उतावली भरी आवाज़ में चिल्लाया, ‘अपना सोना इस थाल में उड़ेल दे।’ इस कहवाखा़ने में ऐसे भारी दाँव देखे नहीं गए थे। मालिक उबलती हुई केतिलयों को भूल गया। जुआरियों की साँसें लंबी-लंबी चलने लगीं। लाल बालों वाले ने पासे फेंके और आँखें मूँद लीं। पास देखने में उसे डर लग रहा था। ‘ग्यारह’ सब एक साथ चिल्ला उठे। मुल्ला नसरुद्दीन अपने-आपको क़रीब-क़रीब हारा हुआ समझने लगा। अब केवल दो छक्के यानी बारह काने ही उसे बचा सकते थे। अपनी खुशी को छिपाए बिना लाल बालों वाला भी दोहराने लगा-ग्यारह-ग्यारह काने। देखो भई, मेरे ग्यारह हैं। तुम हार गए, हार गए-हार गए।’ मुल्ला नसरुद्दीन का जैसे सारा बदन ठंडा पड़ गया। उसने पास उठाए और फेंकने की तैयारी करने लगा। फिर अचानक उसने हाथ रोक लिया। ‘इधर पलट।’ उसने अपने गधे से कहा, ‘तू तीन काने पर हार गया था।’ ले, अब ग्यारह काने पर जीने की कोशिश कर। नहीं तो मैं तुझे इसी वक्त कसाई के यहाँ ले चलूँगा।’ बाएँ हाथ से गधे की दुम पकड़े-पकड़े उसने दाएँ हाथ से गधे को ठोका। लोगों की ऊँची-ऊँची आवाज़ों से कहवाख़ाना हिल उठा। मालिक कलेजा थामकर बैठ गया। यह तनाव उसकी बरदाश्त से बाहर था। ‘यह लो-एक-दो।’ पासों पर दो छक्के थे। लाल बालों वाले जुआरी की जैसे आँखें बाहर निकल पड़ीं और उसके सूखे सफेद चेहरे पर काँच की तरह जड़ी रह गईं। वह हौले से उठा और रोता, डगमगाता चला गया। मुल्ला नसरुद्दीन ने जीती हुई दौलत को थैलों में भर लिया। गधे को गले लगाया, उसका मुँह चूमा और बढ़िया मालपुए खिलाए। वह होशियार जानवर हैरान था कि अभी कुछ मिनट पहले ही उसके साथ बिल्कुल विपरीत व्यवहार हुआ था।
मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 15
मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 15
मुल्ला नसरुद्दीन के ख्याली पुलाव
अक्लमंदी से भरे इस उसूल को याद करके कि उन लोगों से दूर रहना चाहिए, जो यह जानते हैं कि तुम्हारा रुपया कहाँ रखा है, मुल्ला नसरुद्दीन उस कहवाख़ाने पर नहीं रुका और फौरन बाजार की ओर बढ़ गया।
बीच-बीच में वह मुड़कर यह देखता जाता था कि कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा है, क्योंकि जुआरियों और कहवाख़ाने के मालिक के चेहरों पर उन्हें सज्जनता दिखाई नहीं दी थी। अब वह तीन-तीन कारख़ाने ख़रीद सकता था। उसने यही निश्चय कर लिया।
मैं चार दुकानें ख़रीदूँगा। एक कुम्हारा की, एक जीनसाज़, की, एक दर्जी को और एक मोची की। हर दुकान में दो-दो कारीगर रखूँगा। मेरा काम केवल रुपया वसूल करना होगा। दो साल में मैं रईस बन जाऊँगा। ऐसा मकान ख़रीदूँगा, जिसके बाग़ में फव्वारे होंगे। हर जगह सोने के पिंजरे लटकाऊँगा। उनमें गाने वाली चिड़ियाँ रहा करेंगी और दो-शायद तीन बीवियाँ भी रखूँगा। मेरी हर बीवी के तीन-तीन बेटे होंगे।
ऐसे ही सुनहरे विचारों की नदी में डूबता-उतराता वह गधे पर बैठा चला जा रहा था।
अचानक गधे ने लगाम ढोली पाकर मालिक के विचारों में खोये रहने का लाभ उठाया। जैसे ही वह छोटे से पुल के पास पहुँचा, अन्य गधों की तरह सीधे पुल पर चलने की अपेक्षा उसने एक ओर को थोड़ा-सा दौड़कर खाई में पार छलाँग लगा दी।
और जब मेरे बेटे बड़े हो जाएँगे तो मैं उन्हें एक साथ बुलाकर उनसे कहूँगा-मुल्ला नसरुद्दीन के विचार दौड़ रहे थे कि अचानक वह सोचने लगा- मैं हवा में क्यों उड़ रहा हूँ। क्या अल्लाह ने मुझ फ़रिश्ता बनाकर मेरे पंख लगा दिए हैं?
दूसरे ही पल उसे इतने तारे दिखाई दिए कि वह समझ गया कि उसके एक भी पंख नहीं है। गुलेल के ढेले की तरह वह जी़न से लगभग दस हाथ उछला और सड़क पर जा गिरा।
जब वह कराहते हुए उठा तो दोस्ताना ढंग से कान खड़े किए उसका गधा उसके पास आ खड़ा हुआ। उसके चेहरे पर भोलापन था। लगता था जैसे वह फिर से जी़न पर बैठने की दावत दे रहा हो।
क्रोध से काँपती आवाज़ में मुल्ला नसरुद्दीन चिल्लाया, ‘अरे तू, तुझे मेरे ही नहीं, मेरे बाप-दादा के भी गुनाहों की सजा के बदले भेजा गया है। इस्लामी इन्साफ़ के अनुसार किसी भी इन्सान को केवल अपने गुनाहों के लिए इतनी सख्त़ सज़ा नहीं मिल सकती। अबे झींगुर और लकड़बग्घे की औलाद।’
लेकिन एक अधटूटी दीवार के साये में कुछ दूर बैठे लोगों की भीड़ को देखकर वह एकदम चुप हो गया। गालियाँ उसके होंठों में ही रह गईं। उसे ख़याल आया कि जो आदमी ऐसे मजा़किया और बेइज्ज़ती की हालत में जमीन पर जा पड़ा हो और लोग उसे देख रहे हों, उसे खुद हँसना चाहिए। वह उन आदमियों की ओर आँख मारकर अपने सफ़ेद दाँत दिखाते हुए हँसने लगा-
‘वाह, मैंने कितनी बढ़िया उड़ान भरी!’ उसने हँसी की आवाज़ में जोर से कहा, ‘बताओ न, मैंने कितनी कलाबाज़ियाँ खाई?’ मुझे खुद तक को गिनने का वक्त़ मिला नहीं। अरे शैतान-! हँसते हुए उसने गधे को थपथपाया। हालांकि जी चाह रहा था कि उसकी डटकर मरम्मत करे। लेकिन हँसते हुए कहने लगा, ‘यह जानवर ही ऐसा है, इसे ऐसी ही शरारतें सूझती रहती हैं। मेरी नज़रें दूसरी और घूमी नहीं कि इसे कोई-न-कोई शरारत सूझी।’
बीच-बीच में वह मुड़कर यह देखता जाता था कि कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा है, क्योंकि जुआरियों और कहवाख़ाने के मालिक के चेहरों पर उन्हें सज्जनता दिखाई नहीं दी थी। अब वह तीन-तीन कारख़ाने ख़रीद सकता था। उसने यही निश्चय कर लिया।
मैं चार दुकानें ख़रीदूँगा। एक कुम्हारा की, एक जीनसाज़, की, एक दर्जी को और एक मोची की। हर दुकान में दो-दो कारीगर रखूँगा। मेरा काम केवल रुपया वसूल करना होगा। दो साल में मैं रईस बन जाऊँगा। ऐसा मकान ख़रीदूँगा, जिसके बाग़ में फव्वारे होंगे। हर जगह सोने के पिंजरे लटकाऊँगा। उनमें गाने वाली चिड़ियाँ रहा करेंगी और दो-शायद तीन बीवियाँ भी रखूँगा। मेरी हर बीवी के तीन-तीन बेटे होंगे।
ऐसे ही सुनहरे विचारों की नदी में डूबता-उतराता वह गधे पर बैठा चला जा रहा था।
अचानक गधे ने लगाम ढोली पाकर मालिक के विचारों में खोये रहने का लाभ उठाया। जैसे ही वह छोटे से पुल के पास पहुँचा, अन्य गधों की तरह सीधे पुल पर चलने की अपेक्षा उसने एक ओर को थोड़ा-सा दौड़कर खाई में पार छलाँग लगा दी।
और जब मेरे बेटे बड़े हो जाएँगे तो मैं उन्हें एक साथ बुलाकर उनसे कहूँगा-मुल्ला नसरुद्दीन के विचार दौड़ रहे थे कि अचानक वह सोचने लगा- मैं हवा में क्यों उड़ रहा हूँ। क्या अल्लाह ने मुझ फ़रिश्ता बनाकर मेरे पंख लगा दिए हैं?
दूसरे ही पल उसे इतने तारे दिखाई दिए कि वह समझ गया कि उसके एक भी पंख नहीं है। गुलेल के ढेले की तरह वह जी़न से लगभग दस हाथ उछला और सड़क पर जा गिरा।
जब वह कराहते हुए उठा तो दोस्ताना ढंग से कान खड़े किए उसका गधा उसके पास आ खड़ा हुआ। उसके चेहरे पर भोलापन था। लगता था जैसे वह फिर से जी़न पर बैठने की दावत दे रहा हो।
क्रोध से काँपती आवाज़ में मुल्ला नसरुद्दीन चिल्लाया, ‘अरे तू, तुझे मेरे ही नहीं, मेरे बाप-दादा के भी गुनाहों की सजा के बदले भेजा गया है। इस्लामी इन्साफ़ के अनुसार किसी भी इन्सान को केवल अपने गुनाहों के लिए इतनी सख्त़ सज़ा नहीं मिल सकती। अबे झींगुर और लकड़बग्घे की औलाद।’
लेकिन एक अधटूटी दीवार के साये में कुछ दूर बैठे लोगों की भीड़ को देखकर वह एकदम चुप हो गया। गालियाँ उसके होंठों में ही रह गईं। उसे ख़याल आया कि जो आदमी ऐसे मजा़किया और बेइज्ज़ती की हालत में जमीन पर जा पड़ा हो और लोग उसे देख रहे हों, उसे खुद हँसना चाहिए। वह उन आदमियों की ओर आँख मारकर अपने सफ़ेद दाँत दिखाते हुए हँसने लगा-
‘वाह, मैंने कितनी बढ़िया उड़ान भरी!’ उसने हँसी की आवाज़ में जोर से कहा, ‘बताओ न, मैंने कितनी कलाबाज़ियाँ खाई?’ मुझे खुद तक को गिनने का वक्त़ मिला नहीं। अरे शैतान-! हँसते हुए उसने गधे को थपथपाया। हालांकि जी चाह रहा था कि उसकी डटकर मरम्मत करे। लेकिन हँसते हुए कहने लगा, ‘यह जानवर ही ऐसा है, इसे ऐसी ही शरारतें सूझती रहती हैं। मेरी नज़रें दूसरी और घूमी नहीं कि इसे कोई-न-कोई शरारत सूझी।’
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