तेनाली राम ~~~
तेनालीराम की घोषणा~~~
तेनाली राम के बारे में~~~
1520 ई. में दक्षिण भारत के विजयनगर राज्य में राजा कृष्णदेव राय हुआ करते थे। तेनाली राम उनके दरबार में अपने हास-परिहास से लोगों का मनोरंजन किया करते थे। उनकी खासियत थी कि गम्भीर से गम्भीर विषय को भी वह हंसते-हंसते हल कर देते थे।
उनका जन्म गुंटूर जिले के गलीपाडु नामक कस्बे में हुआ था। तेनाली राम के पिता बचपन में ही गुजर गए थे। बचपन में उनका नाम ‘राम लिंग’ था, चूंकि उनकी परवरिश अपने ननिहाल ‘तेनाली’ में हुई थी, इसलिए बाद में लोग उन्हें तेनाली राम के नाम से पुकारने लगे।
विजयनगर के राजा के पास नौकरी पाने के लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। कई बार उन्हें और उनके परिवार को भूखा भी रहना पड़ा, पर उन्होंने हार नहीं मानी और कृष्णदेव राय के पास नौकरी पा ही ली। तेनाली राम की गिनती राजा कृष्णदेव राय के आठ दिग्गजों में होती है।
तेनालीराम के तीर - सबसे कीमती वस्तु
एक युद्ध में विजय प्राप्त करने के उपरांत महाराज के मन में आया कि एक विजय स्तंभ की स्थापना कराई जाए। फौरन एक शिल्पी को यह कार्य सौंपा गया। जब विजय स्तंभ बनकर पूरा हुआ तो उसकी शोभा देखते ही बनती थी। शिल्पकला की वह अनूठी ही मिसाल थी।
महाराज ने शिल्पी को दरबार में बुलाकर पारिश्रमिक देकर कहा, ``इसके अतिरिक्त तुम्हारी कला से प्रसन्न होकर हम तुम्हें और भी कुछ देना चाहते हैं। जो चाहो, सो मांग लो।''
``अन्नदाता।'' सिर झुकाकर, शिल्पी बोला, ``आपने मेरी कला की इतनी अधिक प्रशंसा की है कि अब माँगने को कुछ भी शेष नहीं बचा। बस, आपकी कृपा बनी रहे, मेरी यही अभिलाषा है।''
``नहीं-नहीं, कुछ तो माँगना ही होगा।'' महाराज ने हठ पकड़ ली।
दरबारी शिल्पी को समझाकर बोले, ``अरे भई! जब महाराज अपनी खुशी से तुम्हें पुरस्कार देना चाहते हैं, तो इन्कार क्यों करते हो। जो जी चाहे माँग लो, ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते।'' शिल्पकार बड़ा ही स्वाभिमानी था। पारिश्रमिक के अतिरिक्त और कुछ भी लेना नहीं चाहता था। यह उसके स्वभाव के विपरीत था, किन्तु सम्राट भी जिद पर अड़े थे।
जब शिल्पकार ने देखा कि महाराज मान ही नहीं रहे हैं तो उसने अपने औजारों का थैला खाली करके, महाराज की ओर बढ़ा दिया और बोला, ``महाराज! यदि कुछ देना ही चाहते हैं, तो मेरा यह थैला संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु से भर दें।''
महाराज सोचने लगे,क्या दें इसे? कौन-सी चीज़ दुनिया में सबसे अनमोल है? अचानक उन्होंने पूछा, ``क्या तुम्हारे थैले को हीरे-जवाहरातों से भर दिया जाए?'' ``हीरे-जवाहरातों से बहुमूल्य भी कोई वस्तु हो सकती है महाराज।'' महाराज ने दरबारियों की ओर देखा, दरबारी स्वयं उलझन में थे कि हीरे-जवाहरात से भी कीमती क्या वस्तु हो सकती है।
अचानक महाराज को तेनालीराम की याद आई, जो आज दरबार में उपस्थित नहीं था। उन्होंने तुंत एक सेवक को तेनालीराम को बुलाने भेजा। कुछ देर बाद ही तेनालीराम दरबार में हाजिर था। रास्ते में उसने सेवक से सारी बात मालूम कर ली थी कि क्या समस्या है और महाराज ने क्यों बुलाया है। तेनालीराम के आते ही महाराज ने उसे पूरी बात बताकर पूछा, ``अब तुम्हीं बताओ, संसार में सबसे मूल्यवान वस्तु कौन-सी है, जो इस कलाकार को दी जाए?''
``वह वस्तु भी मिल जायेगी महाराज! मैं अभी इसका झोला भरता हूँ।'' यह कह कर तेनालीराम ने शिल्पी के हाथ से झोला लेकर उसका मुँह खोला और तीन-चार बार तेजी से ऊपर-नीचे किया। फिर उसका मुँह बाँधकर शिल्पकार को देकर बोला, ``लो, मैंने इसमें संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु भर दी है।''
शिल्पकार प्रसन्न हो गया। उसने झोला उठाकर महाराज को प्रणाम किया और दरबार से चला गया। महाराज सहित सभी दरबारी हक्के-बक्के-से थे कि तेनालीराम ने उसे ऐसी क्या चीज़ दी है, जो वह इस कदर खुश होकर गया है। उसके जाते ही महाराज ने तेनालीराम से पूछा, ``तुमने झोले में तो कोई वस्तु भरी ही नहीं थी, फिर शिल्पकार चला कैसे गया?''
``महाराज! आपने देखा नहीं, मैंने उसके झोले में हवा भरी थी। हवा संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु है। उसके बिना संसार में कुछ भी संभव नहीं। उसके बिना प्राणी जीवित नहीं रह सकता। न आग जले, न पानी बहे। किसी कलाकार के लिए तो हवा का महत्व और भी अधिक है। कलाकार की कला को हवा न दी जाए तो कला और कलाकार दोनों ही दम तोड़ दें।''
महाराज ने तेनालीराम की पीठ थपथपाई और अपने गले की बहुमूल्य माला उतार कर तेनालीराम के गले में डाल दी।
गुलाब का फूल
तेनाली राम की पत्नी को गुलाब के फूलों का बहुत शौक था। वह तेनाली राम से चोरी-चोरी अपने बेटे को राजा के बाग में भेजा करती। वह वहां से एक गुलाब का फूल तोड़ लाता, जिसे तेनाली राम की पत्नी अपने बालों में लगा लिया करती।
दरबार में तेनाली राम के कई शत्रु थे। उन्हें किसी तरह यह बात पता चल गई, लेकिन राजा से कहने का साहस उनमें नहीं था। वह जानते थे कि तेनाली राम अपनी सूझबूझ के बल पर अपने बेटे को बचा लेगा और उन्हें बेवकूफ बनना पड़ेगा।
उन्होंने सोचा कि तेनाली राम के बेटे को रंगे हाथों पकड़ना चाहिए। एक दिन उन्हें अपने जासूसों से पता चला कि तेनाली राम का बेटा फूल तोड़ने के लिए बगीचे में आया हुआ है। फिर क्या था, उन्होंने राजा से शिकायत की ओर कहा, “महाराज, हम अभी उस चोर को आपके सामने उपस्थित करेंगे।”
वे लोग बगीचे के मुख्य द्वार पर जाकर खड़े हो गए। बाग के दूसरे सभी द्वारों पर भी आदमी खड़े कर दिए गए। उन्हें तेनाली राम के बेटे के पकड़े जाने का इतना यकीन था कि वे तेनाली राम को भी अपने साथ ले गए थे। उन्होंने बड़ा रस ले लेकर तेनाली राम को बताया कि अभी उसका बेटा रंगे हाथों पकड़ा जाएगा और उसे राजा के सामने पेश किया जाएगा। उनमें से एक बोला, “कहो तेनाली राम अब तुम्हें क्या कहना है?”
“मुझे क्या कहना है?” तेनाली राम ने चिल्लाते हुए कहा, “मेरे बेटे के पास अपनी बात कहने के लिए जबान है। वह स्वयं ही जो कहना होगा, कह लेगा। मेरा अपना विचार तो यह है कि वह अवश्य मेरी पत्नी की दवा के लिए जड़ें लेने गया होगा, गुलाब का फूल लेने नहीं।”
तेनाली राम के बेटे ने बगीचे के अंदर ये शब्द सुन लिए, जिन्हें तेनाली राम ने उसे सुनाने के लिए ही ऊंची आवाज में कहा था। वह अपने पिता की बात का मतलब समझ गया। उसने झट से गुलाब का फूल मुंह में डाल लिया और उसे खा गया। फिर उसने बाग में से कुछ जड़ें इकट्ठी की ओर उन्हें झोली में डालकर बाग के द्वार तक पहुंचा। तेनाली राम के शत्रु दरबारियों ने उसे एकदम पकड़ लिया और उसे राजा के पास ले गए।
“महाराज, इसने अपनी झोली में आपके बाग से चुराए गए गुलाब के फूल छिपा रखे हैं।” दरबारियों ने कहा। “गुलाब के फूल, कैसे गुलाब के फूल?” तेनालीराम के बेटे ने कहा, “ये तो मेरी मां की दवा के लिए जड़ें हैं।” उसने झोली खोलकर जड़ें दिखा दीं। दरबारियों के सिर शर्म से झुक गए। राजा ने तेनाली राम से क्षमा मांगी और उसके बेटे को बहुत-सी भेंट देकर घर भेज दिया।
तेनालीराम की घोषणा~~~
एक बार राजा कृष्णदेव राय से पुरोहित ने कहा, ‘महाराज, हमें अपनी प्रजा के साथ सीधे जुड़ना चाहिए।’ पुरोहित की बात सुनकर सभी दरबारी चौंक पड़े। वे पुरोहित की बात समझ न पाए।
तब पुरोहित ने अपनी बात को समझाते हुए उन्हें बताया, ‘दरबार में जो भी चर्चा होती है, हर सप्ताह उस चर्चा की प्रमुख बातें जनता तक पहुँचाई जाएँ। प्रजा भी उन बातों को जानें।’ मंत्री ने कहा, ‘महाराज, विचार तो वास्तव में बहुत उत्तम है। तेनालीराम जैसे अकलमंद और चतुर व्यक्ति ही इस कार्य को सुचारु रूप से कर सकते हैं। साथ ही तेनालीराम पर दरबार की विशेष जिम्मेदारी भी नहीं है।’
राजा ने मंत्री की बात मान ली और तेनालीराम को यह काम सौंप दिया। तय किया गया-तेनालीराम जनहित और प्रजा-हित की सारी बातें, जो राजदरबार में होंगी, लिखित रूप से दरोगा को देंगे। दरोगा नगर के चौराहों पर मुनादी कराकर जनता और प्रजा को उन बातों की सूचनाएँ देगा।
तेनालीराम सारी बात समझ गया था। वह यह भी समझ गया था कि मंत्री ने उसे जबरदस्ती फँसाया है। तेनालीराम ने भी अपने मन में एक योजना बनाई। सप्ताह के अंत में उसने मुनादी करने के लिए दरोगा को एक पर्चा थमा दिया। दरोगा ने पर्चा मुनादी वाले को पकड़ाकर कहा, ‘जाओ और मुनादी करा दो।’
मुनादी वाला सीधा चौराहे पर पहुँचा और ढोल पीट-पीटकर मुनादी करते हुए बोला, ‘सुनो-सुनो, नगर के सारे नागरिकों सुनो।’ महाराज चाहते हैं कि दरबार में जनहित के लिए जो फैसले किए गए हैं, उन्हें सारे नगरवासी जानें। उन्होंने श्रीमान तेनालीराम को यह कठिन काम सौंपा है। हम उन्हीं की आज्ञा से आपको यह समाचार सुना रहे हैं। ध्यान देकर सुनो।
महाराज चाहते हैं कि प्रज्ञा और जनता के साथ पूरा न्याय हो। अपराधी को दंड मिले। इस मंगलवार को राजदरबार में इसी बात को लेकर काफी गंभीर चर्चा हुई। महाराज चाहते थे कि पुरानी न्याय-व्यवस्था की अच्छी और साफ-सुथरी बातें भी इस न्याय प्रणाली में शामिल की जाएँ।
इस विषय में उन्होंने पुरोहित जी से पौराणिक न्याय-व्यवस्था के बारे में जानना चाहा किंतु पुरोहित जी इस बारे में कुछ न बता सके, क्योंकि वह दरबार में बैठे ऊँघ रहे थे। उन्हें इस दशा में देखकर राजा कृष्णदेव राय को गुस्सा आ गया। उन्होंने भरे दरबार में पुरोहित जी को फटकारा।
गुरुवार को सीमाओं की सुरक्षा पर राजदरबार में चर्चा हुईं किंतु सेनापति उपस्थित न थे, इस कारण सीमाओं की सुरक्षा की चर्चा आगे न हो सकी। राजा ने मंत्री को कड़े आदेश दिए हैं कि राजदरबार में सारे सभासद ठीक समय पर आएँ।’
यह कहकर मुनादी वाले ने ढोल बजा दिया। इस प्रकार हर सप्ताह नगर में जगह-जगह मुनादी होने लगी। हर मुनादी में तेनालीराम की चर्चा हर जगह होती थी। तेनालीराम की चर्चा की बात मंत्री,सेनापति और पुरोहित के कानों में भी पहुँची। वे तीनों बड़े चिंतित हो गए,कहने लगे,‘तेनालीराम ने सारी बाजी ही उलटकर रख दी। जनता समझ रही है कि वह दरबार में सबसे प्रमुख हैं। वह जानबूझकर हमें बदनाम कर रहा है।’
दूसरे ही दिन जब राजा दरबार में थे तो मंत्री ने कहा, ‘महाराज, हमारा संविधान कहता है कि राजकाज की समस्त बातें गोपनीय होती हैं। उन बातों को जनता या प्रजा को बताना ठीक नहीं।’
तभी तेनालीराम बोल पड़ा, ‘बहुत अच्छे मंत्री जी, आपको शायद उस दिन यह बात याद नहीं थी। आपको भी तभी याद आया, जब आपके नाम का ढोल पिट गया।’
यह सुनकर सारे दरबारी हँस पड़े। बेचारे मंत्री जी की शक्ल देखने लायक थी। राजा कृष्णदेव राय भी सारी बात समझ गए। वह मन ही मन तेनालीराम की सराहना कर रहे थे।
तेनालीराम और बहुरूपिया~~~
तेनालीराम के कारनामों से राजगुरु बहुत परेशान थे। हर दूसरे-तीसरे दिन उन्हें तेनालीराम के कारण नीचा देखना पड़ता था। वह सारे दरबार में हँसी का पात्र बनता था। उन्होंने सोचा कि यह दुष्ट कई बार महाराज के मृत्युदंड से भी बच निकला है। इससे छुटकारा पाने का केवल एक ही रास्ता है कि मैं स्वयं इसको किसी तरह मार दूँ।
उन्होंने मन ही मन एक योजना बनाई। राजगुरु कुछ दिनों के लिए तीर्थयात्रा के बहाने नगर छोड़कर चले गए और एक जाने-माने बहुरुपिए के यहाँ जाकर उससे प्रशिक्षण लेने लगे। कुछ समय में वे बहुरुपिए के सारे करतब दिखाने में कुशल हो गए।
वे बहुरुपिए के वेश में ही वापस नगर चले आए और दरबार में पहुँचे। उन्होंने राजा से कहा कि वे तरह-तरह के करतब दिखा सकते है। राजा बोले, ‘तुम्हारा सबसे अच्छा स्वांग कौन-सा है?’
बहुरुपिए ने कहा, ‘मैं शेर का स्वांग बहुत अच्छा करता हूँ, महाराज। लेकिन उसमें खतरा है। उसमें कोई घायल भी हो सकता है और मर भी सकता है। इस स्वांग के लिए आपको मुझे एक खून माफ करना पड़ेगा।’
महाराज ने उनकी शर्त मान ली। ‘एक शर्त और है महाराज। मेरे स्वांग के समय तेनालीराम भी दरबार में अवश्य उपस्थित रहे,’ बहुरुपिया बोला। ‘ठीक है, हमें यह शर्त भी स्वीकार है,’ महाराज ने सोचकर उत्तर दिया।
इस शर्त को सुनकर तेनालीराम का माथा ठनका। उसे लगा कि यह अवश्य कोई शत्रु है, जो स्वांग के बहाने मेरी हत्या करना चाहता है। अगले दिन स्वांग होना था। तेनालीराम अपने कपड़ों के नीचे कवच पहनकर आया ताकि अगर कुछ गड़बड़ हो तो वह अपनी रक्षा कर सके। स्वांग शुरू हुआ।
बहुरुपिए की कला का प्रदर्शन देखकर सभी दंग थे। कुछ देर तक उछलकूद करने के बाद अचानक बहुरुपिया तेनालीराम के पास पहुँचा और उस पर झपट पड़ा। तेनालीराम तो पहले से ही तैयार था। उसने धीरे से अपने हथनखे से उस पर वार किया। तिलमिलाता हुआ बहुरुपिया उछलकर जमीन पर गिर पड़ा।
तेनालीराम पर हुए आक्रमण से राजा भी एकदम घबरा गए थे। कहीं तेनालीराम को कुछ हो जाता तो? उन्हें बहुरुपिए की शर्तों का ध्यान आया। एक खून की माफी और तेनालीराम के दरबार में उपस्थित रहने की शर्त। अवश्य दाल में कुछ काला है।
उन्होंने तेनालीराम को अपने पास बुलाकर पूछा, ‘तुम ठीक हो ना? घाव तो नहीं हुआ?’ तेनालीराम ने महाराज को कवच दिखा दिया। उसे एक खरोंच भी न आई थी। महाराज ने पूछा, ‘क्या तुम्हें इस व्यक्ति पर संदेह था, जो तुम कवच पहनकर आए हो?’
‘महाराज, अगर इसकी नीयत साफ होती तो यह दरबार में मेरे उपस्थित रहने की शर्त न रखता,’ तेनालीराम ने कहा। महाराज बोले, ‘इस दुष्ट को मैं दंड देना चाहता हूँ। इसने तुम्हारे प्राण लेने का प्रयत्न किया है। मैं इसे अभी फाँसी का दंड दे सकता हूँ लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम स्वयं इससे बदला लो।’
‘जी हाँ, मैं स्वयं ही इसको मजा चखाऊँगा।’ तेनालीराम गंभीरता से बोला।‘वह कैसे?’ महाराज ने पूछा। ‘बस आप देखते जाइए’, तेनालीराम ने उत्तर दिया।
फिर तेनालीराम ने बहुरुपिए से कहा, ‘महाराज, तुम्हारी कला से बहुत प्रसन्न हैं। वह चाहते हैं कि कल तुम सती स्त्री का स्वांग दिखाओ। अगर उसमें तुम सफल हो गए तो महाराज की ओर से तुम्हें पुरस्कार के रूप में पाँच हजार स्वर्णमुद्राएँ भेंट की जाएँगी।’
बहुरुपिए के वेश में छिपे राजगुरु ने मन ही मन कहा कि इस बार तो बुरे फँसे, लेकिन अब स्वांग दिखाए बिना चारा भी क्या था? तेनालीराम ने एक कुंड बनवाया। उसमें बहुत-सी लकड़ियाँ जलवा दी गईं। वैद्य भी बुलवा लिए गए कि शायद तुरंत उपचार की आवश्यकता पड़े।
बहुरुपिया सती का वेश बनाकर पहुँचा। उसका पहनावा इतना सुंदर था कि कोई कह नहीं सकता था कि वह असली स्त्री नहीं है। आखिर उसे जलते कुंड में बैठना ही पड़ा। कुछ पलों में ही लपटों में उसका सारा शरीर झुलसने लगा। तेनालीराम से यह देखा न गया। उसे दया आ गई। उसने बहुरुपिए को कुंड से बाहर निकलवाया। राजगुरु ने एकदम अपना असली रूप प्रकट कर दिया और तेनालीराम से क्षमा माँगने लगे।
तेनालीराम ने हँसते हुए उसे क्षमा कर दिया और उपचार के लिए वैद्यों को सौंप दिया। कुछ ही दिनों में राजगुरु स्वस्थ हो गया। उसने तेनालीराम से कहा, ‘आज के बाद मैं कभी तुम्हारे लिए मन में शत्रुता नहीं लाऊँगा। तुम्हारी उदारता ने मुझे जीत लिया है। आज से हमें दोनों अच्छे मित्र की तरह रहेंगे।’
तेनालीराम ने राजगुरु को गले लगा लिया। उसके बाद तेनालीराम और राजगुरु में कभी मनमुटाव नहीं हुआ।
(साभार: तेनालीराम का हास-परिहास, डायमंड प्रकाशन, सर्वाधिकार सुरक्षित।)
सीमा की चौकसी~~~
विजयनगर में पिछले कई दिनों से तोड़-फोड़ की घटनाएँ बढ़ती जा रही थीं। राजा कृष्णदेव राय इन घटनाओं से काफी चिंतित हो उठे। उन्होंने मंत्रिपरिषद की बैठक बुलाई और इन घटनाओं को रोकने का उपाय पूछा।
‘पड़ोसी दुश्मन देश के गुप्तचर ही यह काम कर रहे हैं। हमें उनसे नर्मी से नहीं, सख्ती से निबटना चाहिए।’ सेनापति का सुझाव था। ‘सीमा पर सैनिक बढ़ा दिए जाने चाहिए ताकि सीमा की सुरक्षा ठीक प्रकार से हो सके।’ मंत्री जी ने सुझाया।
राजा कृष्णदेव राय ने अब तेनालीराम की ओर देखा। ‘मेरे विचार में तो सबसे अच्छा यही होगा कि समूची सीमा पर एक मजबूत दीवार बना दी जाए और वहां हर समय सेना के सिपाही गश्त करें।’ तेनालीराम ने अपना सुझाव दिया। मंत्री जी के विरोध के बावजूद राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम का यह सुझाव सहर्ष मान लिया।
सीमा पर दीवार बनवाने का काम भी उन्होंने तेनालीराम को ही सौंप दिया और कहा दिया कि छह महीने के अंदर पूरी दीवार बन जानी चाहिए। इसी तरह दो महीने बीत गए लेकिन दीवार का काम कुछ आगे नहीं बढ़ सका। राजा कृष्णदेव राय के पास भी यह खबर पहुँची। उन्होंने तेनालीराम को बुलवाया और पूछताछ की।
मंत्री भी वहाँ उपस्थित था। ‘तेनालीराम, दीवार का काम आगे क्यों नहीं बढ़ा?’ ‘क्षमा करें महाराज, बीच में एक पहाड़ आ गया है, पहले उसे हटवा रहा हूँ।’ ‘पहाड़...पहाड़ तो हमारी सीमा पर है ही नहीं।’ राजा बोले। तभी बीच में मंत्री जी बोल उठे-‘महाराज, तेनालीराम पगला गया है।’
तेनालीराम मंत्री की फब्ती सुनकर चुप ही रहे। उन्होंने मुस्कुराकर ताली बजाई। ताली बजाते ही सैनिकों से घिरे बीस व्यक्ति राजा के सामने लाए गए। ‘ये लोग कौन है?’ राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम ने पूछा।
‘पहाड़! तेनालीराम बोला-‘ये दुश्मन देश के घुसपैठिए हैं महाराज। दिन में जितनी दीवार बनती थी, रात में ये लोग उसे तोड़ डालते थे। बड़ी मुश्किल से ये लोग पकड़ में आए हैं। काफी तादाद में इनसे हथियार भी मिले हैं। पिछले एक महीने में इनमें से आधे पाँच-पाँच बार पकड़े भी गए थे, मगर...।’
‘इसका कारण मंत्री जी बताएँगे इन्हें दंड क्यों नहीं दिया गया?’ क्योंकि इन्हीं की सिफारिश पर इन लोगों को हर बार छोड़ा गया था।’ तेनालीराम ने कहा। यह सुनकर मंत्री के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। राजा कृष्णदेव राय सारी बात समझ गए। उन्होंने सीमा की चौकसी का सारा काम मंत्री से ले लिया और तेनालीराम को सौंप दिया।
मनहूस कौन~~~
रामैया नाम के आदमी के विषय में नगर-भर में यह प्रसिद्ध था कि जो कोई प्रातः उसकी सूरत देख लेता था, उसे दिन-भर खाने को नहीं मिलता था। इसलिए सुबह-सुबह कोई उसके सामने आना पसंद नहीं करता था।
किसी तरह यह बात राजा कृष्णदेव राय तक पहुँच गई। उन्होंने सोचा, ‘इस बात की परीक्षा करनी चाहिए।’ उन्होंने रामैया को बुलवाकर रात को अपने साथ के कक्ष में सुला दिया और दूसरे दिन प्रातः उठने पर सबसे पहले उसकी सूरत देखी।
दरबार के आवश्यक काम निबटाने के बाद राजा जब भोजन के लिए अपने भोजन कक्ष में गए तो भोजन परोसा गया। अभी राजा ने पहला कौर ही उठाया था कि खाने में मक्खी दिखाई दी। देखते-ही-देखते उनका मन खराब होने लगा और वह भोजन छोड़कर उठ गए। दोबारा भोजन तैयार होते-होते इतना समय बीत गया कि राजा की भूख ही मिट गई।
राजा ने सोचा-‘अवश्य यह रामैया मनहूस है, तभी तो आज सारा दिन भोजन नसीब नहीं हुआ।’ क्रोध में आकर राजा ने आज्ञा दी कि इस मनहूस को फाँसी दे दी जाए। राज्य के प्रहरी उसे फाँसी देने के लिए ले चले। रास्ते में उन्हें तेनालीराम मिला। उसने पूछा तो रामैया ने उसे सारी बात कह सुनाई।
तेनालीराम ने उसे धीरज बँधाया और उसके कान में कहा, ‘तुम्हें फाँसी देने से पहले ये तुम्हारी अंतिम इच्छा पूछेंगे। तुम कहना, ‘मैं चाहता हूँ कि मैं जनता के सामने जाकर कहूँ कि मेरी सूरत देखकर तो खाना नहीं मिलता, पर जो सवेरे-सवेरे महाराज की सूरत देख लेता है, उसे तो अपने प्राण गँवाने पड़ते हैं।’
यह समझाकर तेनालीराम चला गया। फाँसी देने से पहले प्रहरियों ने रामैया से पूछा, ‘तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है?’ रामैया ने वही कह दिया, जो तेनालीराम ने समझाया था। प्रहरी उसकी अनोखी इच्छा सुनकर चकित रह गए। उन्होंने रामैया की अंतिम इच्छा राजा को बताई।
सुनकर राजा सन्न रह गए। अगर रामैया ने लोगों के बीच यह बात कह दी तो अनर्थ हो जाएगा। उन्होंने रामैया को बुलवाकर बहुत-सा पुरस्कार दिया और कहा-‘यह बात किसी से मत कहना।’
तेनालीराम और राजा का तोता~~~
किसी ने महाराज कृष्णदेव राय को एक तोता भेंट किया। वह तोता बड़ी भली और सुंदर-सुंदर बातें करता था। वह लोगों के प्रश्नों के उत्तर भी देता था। राजा को वह तोता बहुत पसंद था।
उन्होंने उसे पालने और उसकी रक्षा का भार अपनी एक विश्वासी नौकर को सौंपते हुए कहा-‘इस तोते की सारी जिम्मेदारी अब तुम्हारी है। इसका पूरा ध्यान रखना। तोता मुझे बहुत प्यारा है। इसे कुछ हो गया तो याद रखो, तुम्हारे हक में वह ठीक नहीं होगा। अगर तुमने या किसी और ने कभी आकर मुझे यह समाचार दिया कि यह तोता मर गया है, तो तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोने पड़ेंगे।’
उस नौकर ने तोते की खूब देखभाल की। हर तरह से उसकी सुख-सुविधा का ध्यान रखा, पर तोता बेचारा एक दिन चल बसा। बेचारा नौकर थर-थर काँपने लगा। सोचने लगा कि अब मेरी जान की खैर नहीं। वह जानता था कि तोते की मौत का समाचार सुनते ही क्रोध में महाराज उसे मृत्युदंड दे देंगे।
बहुत दिन सोचने पर उसे एक ही रास्ता सुझाई दिया। तेनालीराम के अलावा कोई उसकी रक्षा नहीं कर सकता था। वह दौड़ा-दौड़ा तेनालीराम के पास पहुँचा और उन्हें सारी बात कह सुनाई।
तेनालीराम ने कहा-‘बात सचमुच बहुत ही गंभीर है। वह तोता महाराज को बहुत प्यारा था, पर तुम चिंता मत करो। मैं कुछ उपाय निकाल ही लूँगा। तुम शांत रहो। तोते के बारे में तुम्हें महाराज से कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं सँभाल लूँगा।’
तेनालीराम महाराज के पास पहुँचा और घबराया हुआ बोला, ‘महाराज आपका वह तोता....!’ ‘क्या हुआ तोते को?तुम इतने घबराए हुए क्यों हो तेनालीराम? बात क्या है?’ महाराज ने पूछा।
‘महाराज, आपका वह तोता तो अब बोलता ही नहीं। बिलकुल चुप हो गया है। न कुछ खाता है, न पीता है, न पंख हिलाता है। बस सूनी-सूनी आँखों से ऊपर की ओर देखता रहता है। उसकी आँखें तक झपकती नहीं।’ तेनालीराम ने कहा।
महाराज तेनालीराम की बात सुनकर बहुत हैरान हुआ। वह स्वयं तोते के पिंजरे के पास पहुँचे। उन्होंने देखा कि तोते के प्राण निकल चुके हैं। झुँझलाते हुए वे तेनालीराम से बोले-‘तुमने सीधी तरह से यह क्यों नहीं कह दिया कि तोता मर गया है। तुमने सारी महाभारत सुना दी, पर असली बात नहीं कही।’
‘महाराज, आप ही ने तो कहा था कि अगर तोते के मरने का समाचार आपको दिया गया तो तोते के रखवाले को मृत्युदंड दे दिया जाएगा। अगर मैंने आपको यह समाचार दे दिया होता, तो वह बेचारा नौकर अब तक मौत के घाट उतार दिया गया होता।’ तेनालीराम ने कहा।
राजा इस बात से बहुत प्रसन्न थे कि तेनालीराम ने उन्हें एक निर्दोष व्यक्ति को मृत्युदंड देने से बचा लिया था।
तेनालीराम और लाल मोर~~~
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय को अनोखी चीजों को जमा करने का बहुत शौक था। हर दरबारी उन्हें खुश करने के लिए ऐसी ही चीजों की खोज में लगे रहते थे, ताकि राजा को खुश कर उनसे मोटी रकम वसूल सके।
एक बार कृष्णदेव राय के दरबार में एक दरबारी ने एक मोर को लाल रंग में रंग कर पेश किया और कहा, “महाराज इस लाल मोर को मैंने बहुत मुश्किल से मध्य प्रदेश के घने जंगलों से आपके लिए पकड़ा है।” राजा ने बहुत गौर से मोर को देखा। उन्होंने लाल मोर कहीं नहीं देखा था।
राजा बहुत खुश हुए...उन्होंने कहा, “वास्तव में आपने अद्भुत चीज लाई है। आप बताएं इस मोर को लाने में कितना खर्च पड़ा।” दरबारी अपनी प्रशंसा सुनकर आगे की चाल के बारे में सोचने लगा।
उसने कहा, “मुझे इस मोर को खोजने में करीब पच्चीस हजार रुपए खर्च करने पड़े।”
राजा ने तीस हजार रुपए के साथ पांच हजार पुरस्कार राशि की भी घोषणा की। राजा की घोषणा सुनकर एक दरबारी तेनालीराम की तरफ देखकर मुस्कराने लगा।
तेनालीराम उसकी कुटिल मुस्कराहट देखकर समझ गए कि यह जरूर उस दरबारी की चाल है। वह जानते थे कि लाल रंग का मोर कहीं नहीं होता। बस फिर क्या था, तेनालीराम उस रंग विशेषज्ञ की तलाश में जुट गए।
दूसरे ही दिन उन्होंने उस चित्रकार को खोज निकाला। वे उसके पास चार मोर लेकर गए और उन्हें रंगवाकर राजा के सामने पेश किया।
“महाराज हमारे दरबारी मित्र, पच्चीस हजार में केवल एक मोर लेकर आए थे, पर मैं उतने में चार लेकर आया हूं।”
वाकई मोर बहुत खूबसूरत थे। राजा ने तेनालीराम को पच्चीस हजार रुपए देने की घोषणा की। तेनाली राम ने यह सुनकर एक व्यक्ति की तरफ इशारा किया, “महाराज अगर कुछ देना ही है तो इस चित्रकार को दें। इसी ने इन नीले मोरों को इतनी खूबसूरती से रंगा है।”
राजा को सारा गोरखधंधा समझते देर नहीं लगी। वह समझ गए कि पहले दिन दरबारी ने उन्हें मूर्ख बनाया था।
राजा ने उस दरबारी को पच्चीस हजार रुपए लौटाने के साथ पांच हजार रुपए जुर्माने का आदेश दिया। चित्रकार को उचित पुरस्कार दिया गया। दरबारी बेचारा क्या करता, वह बेचारा सा मुंह लेकर रह गया।
तेनालीराम को मौत की सजा~~~
बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिलशाह को डर था कि राजा कृष्णदेव राय अपने प्रदेश रायचूर और मदकल को वापस लेने के लिए हम पर हमला करेंगे। उसने सुन रखा था कि वैसे राजा ने अपनी वीरता से कोडीवडु, कोंडपल्ली, उदयगिरि, श्रीरंगपत्तिनम, उमत्तूर, और शिवसमुद्रम को जीत लिया था।
सुलतान ने सोचा कि इन दो नगरों को बचाने का एक ही उपाय है कि राजा कृष्णदेव राय की हत्या करवा दी जाए। उसने बड़े इनाम का लालच देकर तेनालीराम के पुराने सहपाठी और उसके मामा के संबंधी कनकराजू को इस काम के लिए राजी कर लिया।
कनकराजू तेनालीराम के घर पहुँचा। तेनालीराम ने अपने मित्र का खुले दिल से स्वागत किया। उसकी खूब आवभगत की और अपने घर में उसे ठहराया। एक दिन जब तेनालीराम काम से कहीं बाहर गया हुआ था, कनकराजू ने राजा को तेनालीराम की तरफ से संदेश भेजा-‘आप इसी समय मेरे घर आएँ तो आपको ऐसी अनोखी बात दिखाऊँ, जो आपने जीवनभर न देखी हो।
राजा बिना किसी हथियार के तेनालीराम के घर पहुँचे। अचानक कनकराजू ने छुरे से उन पर वार कर दिया। इससे पहले कि छुरे का वार राजा को लगता, उन्होंने कसकर उसकी कलाई पकड़ ली। उसी समय राजा के अंगरक्षकों के सरदार ने कनकराजू को पकड़ लिया और वहीं उसे ढेर कर दिया।
कानून के अनुसार, राजा को मारने की कोशिश करने वाले को जो व्यक्ति आश्रय देता था, उसे मृत्युदंड दिया जाता था। तेनालीराम को भी मृत्युदंड सुनाया गया। उसने राजा से दया की प्रार्थना की।
राजा ने कहा, ‘मैं राज्य के नियम के विरुद्ध जाकर तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता। तुमने उस दुष्ट को अपने यहाँ आश्रय दिया। तुम कैसे मुझसे क्षमा की आशा कर सकते हो? हाँ, यह हो सकता है कि तुम स्वयं फैसला कर लो, तुम्हें किस प्रकार की मृत्यु चाहिए?’
‘मुझे बुढ़ापे की मृत्यु चाहिए, महाराज।’ तेनालीराम ने कहा। सभी आश्चर्यचकित थे। राजा हँसकर बोले, ‘इस बार भी बच निकले तेनालीराम।’
मकान का दान
एक बार राजा कृष्णदेव राय ने तेनाली राम से कहा, “धनी आदमी को चाहिए कि वह दान करता रहे। जो दूसरों के लिए कुछ नहीं करता, वह भी कोई मनुष्य है? इतने धनवान हो, किसी ब्राह्मण को एक मकान ही दे डालो।” “जैसा महाराज चाहें।” तेनाली राम ने कहा।
उसने एक सुन्दर-सा, छोटा-सा मकान बनवाया, जिसके चारों ओर फूलों का बाग था। उसके मुख्य द्वार पर उसने यह घोषणा लिखवा दी। “यह मकान उस ब्राह्मण को दिया जाएगा, जिसे अपने हाल पर संतोष होगा।” बहुत दिनों तक मकान का दान पाने कोई नहीं आया।
अंत में एक ब्राह्मण ने आकर तेनाली राम से कहा, “मैं अपने हाल पर बिल्कुल संतुष्ट हूं, इसलिए यह मकान मुझे दान दे दीजिए।” “तुम केवल लालची ही नहीं, झूठे और मूर्ख भी हो। तुम्हें सीधे-सादे शब्दों का अर्थ भी नहीं मालूम।
अगर तुम्हें अपने हाल पर संतोष होता, तो तुम यह मकान मांगने आते ही क्यों? तुम्हें मकान दान करके अपने वचनों से फिरना पड़ेगा और फिर यह दुख भी बना रहेगा कि मैंने मकान का दान एक मूर्ख व्यक्ति को दे दिया। तुम यहां से जा सकते हो।”
इस तरह तेनाली राम का मकान कभी दान नहीं दिया जा सका। तेनाली राम ही उसका मालिक बना रहा।
सुनहरा हिरन
ढलती हुई ठंड का सुहाना मौसम था। राजा कृष्णदेव राय वन-विहार के लिए चल पड़े। साथ में कुछ दरबारी और सैनिक भी चल पड़े। शहर से दूर जंगल में डेरा डाला गया। कभी गीत-संगीत की महफिल जमती तो कभी किस्से-कहानियों का दौर चल पड़ता। इसी तरह मौज-मस्ती में कई दिन गुजर गए।
एक दिन राजा कृष्णदेव राय अपने दरबारियों से बोले, ‘जंगल में आए हैं तो शिकार जरूर करेंगे।’ तुरंत शिकार की तैयारियां हो गईं। राजा कृष्णदेव राय तलवार और तीर-कमान लेकर घोड़े पर बैठकर शिकार के लिए निकल पड़े। मंत्री और दरबारी अपने घोड़ों पर उनके साथ थे।
तेनालीराम भी जब उन सबके साथ चलने लगा तो मंत्री बोला, ‘महाराज, तेनालीराम को अपने साथ ले जाकर क्या करेंगे। यह तो अब बूढ़े हो गए हैं, इन्हें यहीं रहने दिया जाए। हमारे साथ चलेंगे तो बेचारे थक जाएंगे।’
इस बात पर सारे दरबारी हंस पड़े लेकिन तेनालीराम क्योंकि राजा को बड़े प्रिय थे, इसलिए तेनालीराम को भी अपने साथ ले लिया। थोड़ी देर का सफर तय करके सब लोग जंगल में पहुंच गए। तभी राजा कृष्णदेव राय को एक सुनहरा हिरन दिखाई दिया। राजा ने उसका पीछा किया और पीछा करते-करते वह घने जंगल में पहुंच गए, राजा घनी झाड़ियों के बीच बढ़ते जा रहे थे।
एक जगह पर आकर उन्हें सुनहरा हिरन अपने बहुत ही पास दिखाई दिया तो उन्होंने निशाना साधा। घोड़ा अभी भी दौड़ता जा रहा था। राजा कृष्णदेव राय तीर चलाने ही वाले थे कि अचानक तेनालीराम जोर से चिल्लाया-‘रुक जाइए, महाराज, इसके आगे जाना ठीक नहीं।’ राजा कृष्णदेव राय ने फौरन घोड़ा रोका।
इतने में हिरन निकल गया। राजा को बहुत गुस्सा आया। वह तेनालीराम पर बरस पड़े-‘तेनालीराम, तुम्हारी वजह से हाथ में आया शिकार निकल गया। तुमने हमें क्यों रोका?’ मंत्री और अन्य दरबारियों ने भी फबती कसी, ‘महाराज, तेनालीराम डरते हैं। वह डरपोक हैं, इसीलिए तो हम उन्हें अपने साथ न लाने के लिए कह रहे थे।’
तभी तेनालीराम को न जाने क्या सूझा। बोले, ‘महाराज, जरा मंत्री जी इस पेड़ पर चढ़कर हिरन को देखें तभी कुछ कहूंगा या बताऊंगा।’ राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री जी को पेड़ पर चढ़कर हिरन को देखने का आदेश दिया। मंत्री जी पेड़ पर चढ़े तो उन्होंने एक विचित्र दृश्य देखा।
हिरन जंगली झाड़ियों के बीच फंसा जोर-जोर से उछल रहा था। उसका सारा शरीर लहूलुहान हो गया था। ऐसा लगता था जैसे जंगली झाड़ियों ने उसे अपने पास खींच लिया हो। वह हिरन अपना भरपूर जोर लगाकर झाड़ियों से छूटने की कोशिश कर रहा था। आखिरकार बड़ी मुश्किल से वह अपने आपको उन झाड़ियों से छुड़ा पाया था, या यूं कह लीजिए कि बड़ी मुश्किल से अपनी जान छुड़ा पाया था।
मंत्री ने यह सारी बात राजा को बताई। राजा यह सब सुनकर हैरान रह गए और बोले, ‘तेनालीराम, यह सब क्या है?’ ‘महाराज, यहां से आगे खतरनाक झाड़ियां हैं। इनके कांटे शरीर में चुभकर प्राणियों का खून पीने लगते हैं। जो जीव इनकी पकड़ में आया-वह अधमरा होकर ही इनसे छूटा।
पेड़ से मंत्री जी ने स्वयं लहूलुहान हिरन को देख लिया। इसीलिए महाराज, मैं आपको रोक रहा था।’ राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री और दरबारियों की ओर आश्चर्य से देखा और कहा, ‘देखा, तुम लोगों ने, तेनालीराम को साथ लाना क्यों जरूरी था?’ मंत्री और सारे दरबारी अपना-सा मुंह लेकर रह गए और एक-दूसरे की ओर ताकने लगे।
संन्यासी का बूढ़ा खजूर
एक बार तेनाली राम के गांव में भयंकर सूखा पड़ा। पीने के लिए पानी मिलना मुश्किल हो गया। लोग बेहद दुखी थे। जब सूखा पूरे जोरों पर था तो एक दिन एक संन्यासी कहीं से गांव आ पहुंचा। अभी उस संन्यासी ने गांव में प्रवेश किया ही था कि एकाएक मूसलाधार वर्षा होने लगी। अंधविश्वासी भक्तों ने समझा कि यह सब संन्यासी के आने का ही प्रभाव है।
बस फिर क्या था! लोग संन्यासी के पास आने लगे। वे लोग उसे चढ़ावा चढ़ाने लगे, उसके गुण गाने लगे। तेनाली राम ने संन्यासी के पास जाकर पूछा, “कहिए महात्माजी, उस बूढ़े खजूर का क्या हाल है?” संन्यासी बात को समझकर धीरे से मुस्करा दिया।
कोई भी आसानी से बेवकूफ बन सकता है?
नगर के जो लोग वहां जमा थे, वे हक्के-बक्के होकर तेनाली राम और संन्यासी का मुंह ताकने लगे। उनमें से एक ने कहा, “भाई तेनाली राम, तुम्हारी बात का भेद हमारी समझ में बिल्कुल नहीं आया।”
तेनाली राम ने हंसकर कहा, “एक बार एक कौआ खजूर के पेड़ पर जा बैठा। उसके बैठते ही एक खजूर का फल नीचे आ गिरा। जिसने देखा, उसने यही कहा कि यह खजूर कौए ने गिराई है।
इसी तरह जब संन्यासी गांव में पहुंचा तो एकाएक वर्षा होने लगी, तो सब ने यही कहा कि वर्षा इनके आने से हुई है। इसलिए मैंने इनसे पूछा-‘उस बूढ़े खजूर का क्या हाल है?’ तेनाली राम की बात सुनकर लोग हंस पड़े।
संन्यासी से तेनाली राम से कहा, “तुम बहुत बुद्धिमान हो और योग्य भी। साहस से काम लोगे तो एक दिन ऐसी जगह जा पहुंचोगे, जहां तुम्हें न सुख की कमी होगी, न पैसे की।
मखमल की जूती
एक दिन कृष्णदेव राय और तेनाली राम में इस बात को लेकर बहस छिड़ गई कि आमतौर पर लोग किसी भी बात पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं या नहीं। राजा का कहना था कि लोगों को आसानी से बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। तेनाली राम का विचार था कि लोग किसी भी बात पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं। हां, उन्हें विश्वास करवाने वाला व्यक्ति समझदार होना चाहिए।
राजा ने कहा-“तुम किसी से भी जो चाहो, नहीं करवा सकते।” “महाराज, क्षमा करें, लेकिन मैं असंभव से असंभव काम करवा सकता हूं और तो और, मैं किसी व्यक्ति से आप पर जूता फिंकवा सकता हूं।” “क्या?” राजा ने कहा-“मेरी चुनौती है कि तुम ऐसा करके दिखाओ।” “मुझे आप की चुनौती स्वीकार है। हां, इसके लिए आपको मुझे समय देना होगा।” तेनाली राम बोला। “तुम जितना समय चाहो ले सकते हो।” राजा ने कहा। बात आई गई हो गई। राजा भी इस घटना को भूल गए।
एक मास बाद राजा कृष्णदेव राय ने कुर्ग प्रदेश के एक पहाड़ी सरदार की सुन्दर बेटी से विवाह तय किया। पहाड़ी इलाके के सरदार को विजयनगर के राजाओं के रीति-रिवाजों का कोई ज्ञान नहीं था। राजा ने तो उससे कहा था-“मुझे केवल तुम्हारी बेटी विवाह में चाहिए। रीति-रिवाज तो हर प्रदेश के अलग-अलग होते हैं, उनके बारे में चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है।” पर सरदार फिर भी चाहता था कि राजाओं के विवाह की सारी रस्में पूरी की जाएं। एक दिन चुपके से तेनाली राम उसके यहां विवाह की रस्में समझाने पहुंच गए। सरदार को बेहद प्रसन्नता हुई। उसने तेनाली राम से वादा किया कि तेनाली राम की बताई बातें किसी से नहीं कहेगा।
तेनाली राम ने कहा, “राजा कृष्णदेव राय के वंश में एक पुराना रिवाज है कि विवाह की शेष रस्में पूरी हो जाने पर दुल्हन अपने पांव से मखमल की जूती उतार कर राजा पर फेंकती है। उसके बाद दूल्हा-दुल्हन को अपने घर ले जाता है। मैं चाहता था कि यह रस्म भी पूरी अवश्य की जानी चाहिए। इसलिए मैं गोवा के पुर्तगालियों से एक जोड़ी मखमली जूती ले भी आया हूं।
पुर्तगालियों ने भी मुझे बताया कि दुल्हा-दुल्हन पर जूते फेंकने का रिवाज यूरोप में भी है, हालांकि वहां चमड़े के जूते फेंके जाते हैं। हमारे यहां तो चमड़े के जूतों की बात सोची भी नहीं जा सकती। हां, मखमल की जूती की और बात है।” “कुछ भी हो, तेनाली राम जी, मखमल की ही सही, है तो जूती ही। पति पर जूता फेंकना क्या अनुचित नहीं होगा?” सरदार ने कहा। “वैसे तो विजयनगर के विवाह में यह रस्म होती आई है, पर आप अगर इस रिवाज से झिझकते हैं, तो रहने दीजिए।”
सरदार एकदम बोला-“नहीं, नहीं लाइए, यह जूती मुझे दीजिए। मैं अपनी बेटी के विवाह में किसी प्रकार की कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता।” विवाह की रस्में पूरी हो चुकी थीं। राजा खुशी-खुशी अपनी दुल्हन को घर ले जाने की तैयारी कर रहे थे। अचानक दुल्हन ने पांव से मखमल की जूती उतारी और मुस्कराते हुए राजा पर फेंकी। तेनाली राम राजा के पास ही था। उसने धीरे से राजा के कान में कहा-“महाराज, इन्हें क्षमा कर दीजिए, यह सब मेरा किया धरा है।”
अपने महल पर पहुंचने पर राजा कृष्णदेव राय को तेनाली राम से सारी कहानी मालूम हो गई। वह बोले-“तुम्हारा कहना ही ठीक था। लोग किसी भी बात पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं।”
तेनालीराम और कुबड़ा धोबी
तेनालीराम ने कहीं सुना था कि एक दृष्ट आदमी साधु का भेष बनाकर लोगों को अपने जाल में फंसा लेता है। उन्हें प्रसाद में धतूरा खिला देता है। यह काम वह उनके शत्रुओं के कहने पर धन के लालच में करता था। धतूरा खाककर कोई तो मर जाता और कोई पागल हो जाता।
उन दिनों भी उसके धतूरे के प्रभाव से एक व्यक्ति पागल होकर नगर की सड़कों पर घूमा रहा था। लेकिन धतूरा खिलाने वाले व्यक्ति के खिलाफ उसके पास कोई प्रमाण नहीं था। इसलिए वह खुलेआम सीना तानकर चला करता। तेनालीराम ने सोचा कि ऐसे व्यक्ति को अवश्य दंड मिलना चाहिए।
एक दिन जब वह दृष्ट व्यक्ति शहर की सड़कों पर आवारागर्दी कर रहा था, तो तेनालीराम उसके पास गया और उसे बातों में उलझाए रखकर उस पागल के पास ले गया, जिसे धतूरा खिलाया गया था। वहां जाकर चुपके से तेनालीराम ने उसका हाथ पागल के सिर पर दे मारा।
उस पागल ने आव देखा न ताव, उस आदमी के बाल पकड़कर उसका सिर पत्थर पर टकराना शुरू कर दिया। पागल तो था ही, उसने उसे इतना मारा कि वह पाखंडी साधु मर गया। मामला राजा तक पहुंचा। राजा ने पागल को तो छोड़ दिया, लेकिन क्रोध में तेनालीराम को यह सजा दी कि इसे हाथी के पांवों से कुचलवाया जाए, क्योंकि इसी ने इस पागल का सहारा लेकर साधु के प्राण ले लिए।
दो सिपाही तेनालीराम को शाम के समय एक सुनसान एकांत स्थान पर ले गए और उसे गर्दन तक जमीन में गाड़ दिया। इसके बाद वे हाथी लेने चले गए। सिपाहियों ने सोचा कि अब यह बच भी कैसे सकता है! कुछ देर बाद वहां से एक कुबड़ा धोबी निकला। उसने तेनालीराम से पूछा, ‘क्यों भाई यह क्या तमाशा है? तुम इस तरह जमीन में क्यों गड़े हो?’
तेनालीराम ने कहा-‘कभी मैं भी तुम्हारी तरह कुबड़ा था, पूरे दस साल मैं इस कष्ट से दुखी रहा। जो देखता वही मुझ पर हंसता। यहां तक कि मेरी पत्नी भी। आखिर एक दिन अचानक मुझे एक महात्मा मिल गए। वह मुझसे बोले, ‘इस पवित्र स्थान पर पूरा एक दिन आंख बंद किए और बिना एक शब्द भी बोले गर्दन तक खड़े रहोगे तो तुम्हारा कष्ट दूर हो जाएगा। मिट्टी खोदकर मुझे बाहर निकालकर तो जरा देखो कि मेरा कूबड़ दूर हो गया है कि नहीं?’ धोबी ने उसके चारों ओर की मिट्टी खोदी।
जब तेनालीराम बाहर निकला तो धोबी बहुत हैरान हुआ। सचमुच कूबड़ का कहीं नाम निशान तक नहीं था। वह तेनालीराम से बोला, ‘सालों हो गए इस कूबड़ के बोझ को पीठ पर लादे हुए। मैं क्या जानता था कि इसका इलाज इतना आसान है। मुझ पर इतनी कृपा करो, मुझे यहीं गाड़ दो। मेरे ये कपड़े धोबी मुहल्ले में जाकर मेरी पत्नी को दे देना और उससे कहना कि वह सवेरे मेरा नाश्ता ले आए। मैं तुम्हारा यह अहसान जीवन-भर नहीं भूलूंगा. और, हां मेरी पत्नी को यह मत बताना कि कल तक मेरा कूबड़ ठीक हो जाएगा। मैं कल उसे हैरान करना चाहता हूं।’
‘बहुत अच्छा।’ तेनालीराम ने धोबी से कहा और उसे गर्दन तक गाड़ दिया। फिर उसके कपड़े बगल में दबाकर बोला,‘अच्छा, तो मैं चलता हूं। अपनी आंखें बंद रखना और मुंह भी, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए, नहीं तो सारी मेहनत बेकार हो जाएगी और यह कूबड़ बढ़कर दो गुना हो जाएगा।’
धोबी बोला ‘चिंता मत करो, मैंने कूबड़ के कारण बड़े दुख उठाए हैं। इसे दूर करने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं।’ धोबी ने कहा। तेनालीराम वहां से चलता बना। कुछ देर बाद राजा के सिपाही एक हाथी लेकर पहुंचे और धोबी का सिर उसके पांवों तले कुचलवा दिया। सिपाहियों को पता नहीं चला कि यह कोई और व्यक्ति है।
सिपाही तेनालीराम की मृत्यु का समाचार लेकर राजा के पास पहुंचे। तब तक उनका क्रोध शांत हो गया था और वे दुखी थे, क्योंकि उन्होंने तेनालीराम को मृत्युदंड दिया। तब तक उस पाखंडी साधु के बारे में भी उन्हें काफी कुछ पता चल चुका था। वह सोच रहे थे, ‘बेचारे तेनालीराम को बेकार ही अपनी जान गंवानी पड़ी। उसने तो एक ऐसे अपराधी को दंड दिया था, जिसे मेरे पुलिस अफसर भी नहीं पकड़ सके थे।’
अभी राजा सोच में ही डूबे थे कि तेनालीराम दरबार में आ पहुंचा और बोला,‘महाराज की जय हो!’ राजा सहित सभी आश्चर्य से उसके चेहरे की ओर देख रहे थे।
तेनालीराम ने राजा कृष्णदेव राय को सारी कहानी कह सुनाई। राजा ने उसे क्षमा कर दिया।
ज्योतिषी की भविष्यवाणी
बीजापुर के सुल्तान को पता चला कि उसका भेजा हुआ जासूस ‘राजा साहब’ तेनाली राम की सूझबूझ के कारण पकड़ लिया गया और उसे मार दिया गया है। उसे यह भी पता चला कि विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय बीजापुर पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे हैं। सुल्तान घबरा गया। वह जानता था कि इतने कुशल सेनापति के नेतृत्व में विजयनगर की सेना अवश्य जीत जाएगी।
उसने एक चाल चली। उसने विजयनगर के राज- ज्योतिषी को एक लाख रुपए की रिश्वत देकर अपने साथ मिला लिया और कहा कि वह यह भविष्यवाणी करे कि राजा ने अगर तुंगभद्रा नदी एक वर्ष के समाप्त होने से पहले पार की तो उसकी मृत्यु हो जाएगी।
ज्योतिषी ने एक लाख रुपए लेकर यह भविष्यवाणी कर दी। राजा ने सुना तो हंस दिए, “मैं नहीं मानता कि इस समय आक्रमण करने में कोई खतरा है।” दरबारियों और सेनापतियों को अवश्य राजा के प्राणों की चिन्ता थी।
उन्होंने राजा से कहा, “महाराज, करोड़ों की सुरक्षा आप पर निर्भर है। कम-से-कम उनका ध्यान रखकर ही आप अपने प्राणों को खतरे में न डालें। आप अगर एक साल प्रतीक्षा कर भी लें तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। आपकी शक्ति के आगे बीजापुर कहां टिक पाएगा लेकिन भाग्य के साथ लड़ाई मुश्किल है। आप अभी आक्रमण न करें तो अच्छा है।”
इधर रानियों ने भी राजा से मिन्नत की कि बीजापुर पर आक्रमण के लिए वे एक वर्ष रुक जाएं। राजा ने तेनाली राम से कहा, “मैं बीजापुर पर अभी आक्रमण करना चाहता हूं, लेकिन रानियों और दरबारियों को भी नाराज नहीं करना चाहता।”
तेनाली राम भी राजा से सहमत था। उसने कहा, “हर भविष्यवाणी पर विश्वास नहीं करना चाहिए।” “मैं चाहता हूं कि कोई इस ज्योतिषी की भविष्यवाणी को गलत सिद्ध कर दे। अगर कोई ऐसा कर दे तो मैं उसे दस हजार स्वर्ण मुद्राएं दूंगा।” राजा ने कहा।
तेनालीराम ने कहा “यह काम आप मुझे सौंप दीजिए, लेकिन एक शर्त है। ज्योतिषी को झूठ सिद्ध करने पर अगर उसे कोई दंड देना पड़ा, तो मुझे इसके लिए महाराज क्षमा करेंगे।” तेनाली राम बोला।
“अगर वह झूठ बोल रहा है तो तुम्हें उसे मृत्युदंड तक देने का अधिकार मैं देता हूं। राजा ने कहा।” तेनाली राम ने अपने मित्र सेनापति से मिलकर एक योजना बनाई। अगले दिन तेनाली राम ने राजा के सामने ज्योतिषी से पूछा, “ज्योतिषी जी, क्या आपकी सभी भविष्यवाणियां सदा सच होती हैं?”
“इसमें क्या संदेह है?” ज्योतिषी ने कहा, “अगर मेरी एक भी भविष्यवाणी कोई झूठी साबित कर दे तो मैं उसे अपने प्राणों पर अधिकार देने को तैयार हूं।” “तब तो आप जैसे महान ज्योतिषी को पाकर हमारा देश धन्य है। क्या मैं जान सकता हूं कि इस समय आपकी आयु क्या है और आप कितनी आयु तक जिएंगे?” तेनाली राम ने कहा। “इस समय मेरी आयु 44 वर्ष है। अभी मुझे 30 वर्ष और जीना है। भाग्य के अनुसार मेरी मृत्यु 74 वर्ष की आयु में होगी। इसमें एक पल का भी हेर-फेर नहीं हो सकता।” ज्योतिषी बोला।
एकाएक सेनापति की तलवार चमकी और ज्योतिषी का सिर धड़ से अलग होकर पृथ्वी पर आ गिरा। तेनाली राम ने कहा, “आखिर ज्योतिषी जी की भविष्यवाणी गलत सिद्ध हो गई। बुरा सोचने वाले का बुरा ही होता है। मैं जानता था कि यह आदमी बेईमान है। दूसरों का भाग्य बताने चले थे महाशय, किन्तु अपनी किस्मत न पढ़ सके।”
बाद में ज्योतिषी के घर की तलाशी ली गई तो शत्रु के कई पत्र उसके यहां मिले, जिनसे उसकी देश के प्रति गद्दारी साबित हो गई। सभी ने तेनाली राम की प्रशंसा की। राजा ने उसे दस हजार स्वर्ण मुद्राएं दीं और बीजापुर पर आक्रमण करके उसे जीत लिया।
विजय के बाद जब राजा वापस लौटे तो बोले, “यह सब तेनाली राम की बुद्धि का परिणाम है।” उन्होंने तेनाली राम को स्वर्ण मुद्राओं की एक और बड़ी थैली भेंट में दी।
कुबड़ा धोबी:
तेनालीराम ने कहीं सुना था कि एक दृष्ट आदमी साधु का भेष बनाकर लोगों को अपने जाल में फँसा लेता है। उन्हें प्रसाद में धतूरा खिला देता है। यह काम वह उनके शत्रुओं के कहने पर धन के लालच में करता था। धतूरा खाककर कोई तो मर जाता और कोई पागल हो जाता।
उन दिनों भी उसके धतूरे के प्रभाव से एक व्यक्ति पागल होकर नगर की सड़कों पर घूमा करता था। लेकिन धतूरा खिलाने वाले व्यक्ति के खिलाफ कोई प्रमाण नहीं था। इसलिए वह खुलेआम सीना तानकर चला करता। तेनालीराम ने सोचा कि ऐसे व्यक्ति को अवश्य दंड मिलना चाहिए।
एक दिन जब वह दृष्ट व्यक्ति शहर की सड़कों पर आवारागर्दी कर रहा था, तो तेनालीराम उसके पास गया और उसे बातों में उलझाए रखकर उस पागल के पास ले गया, जिसे धतूरा खिलाया गया था। वहाँ जाकर चुपके से तेनालीराम ने उसका हाथ पागल के सिर पर दे मारा। उस पागल ने आव देखा न ताव, उस आदमी के बाल पकड़कर उसका सिर पत्थर पर टकराना शुरू कर दिया। पागल तो था ही, उसने उसे इतना मारा कि वह पाखंडी साधु मर गया। मामला राजा तक पहुँचा। राजा ने पागल को तो छोड़ दिया, लेकिन क्रोध में तेनालीराम को यह सजा दी कि इसे हाथी के पाँवों से कुचलवाया जाए, क्योंकि इसी ने इस पागल का सहारा लेकर साधु के प्राण ले लिए।
दो सिपाही तेनालीराम को शाम के समय एक सुनसान एकांत स्थान पर ले गए और उसे गरदन तक जमीन में गाड़ दिया। इसके बाद वे हाथी लेने चले गए। उन्होंने सोचा कि अब यह बच भी कैसे सकता है!
कुछ देर बाद वहाँ से एक कुबड़ा धोबी निकला। उसने तेनालीराम से पूछा, ‘क्यों भाई यह क्या तमाशा है? तुम इस तरह जमीन में क्यों गड़े हो?’
तेनालीराम ने कहा-‘कभी मैं भी तुम्हारी तरह कुबड़ा था, पूरे दस साल मैं इस कष्ट से दुखी रहा। जो देखता वही मुझ पर हँसता। यहाँ तक कि मेरी पत्नी भी। आखिर एक दिन अचानक मुझे एक महात्मा मिल गए। वह मुझसे बोले, ‘इस पवित्र स्थान पर पूरा एक दिन आँख बंद किए और बिना एक शब्द भी बोले गरदन तक खड़े रहोगे तो तुम्हारा कष्ट दूर हो जाएगा। मिट्टी खोदकर मुझे बाहर निकालकर तो जरा देखो कि मेरा कूबड़ दूर हो गया है कि नहीं?’
धोबी ने उसके चारों ओर की मिट्टी खोदी। जब तेनालीराम बाहर निकला तो धोबी बहुत हैरान हुआ। सचमुच कूबड़ का कहीं नाम निशान तक नहीं था।
वह तेनालीराम से बोला, ‘सालों हो गए इस कूबड़ के बोझ को पीठ पर लादे हुए। मैं क्या जानता था कि इसका इलाज इतना आसान है। मुझ पर इतनी कृपा करो, मुझे यहीं गाड़ दो। मेरे ये कपड़े धोबी मुहल्ले में जाकर मेरी पत्नी को दे देना और उससे कहना कि वह सवेरे मेरा नाश्ता ले आए। मैं तुम्हारा यह अहसान जीवन-भर नहीं भूलूँगा. और, हाँ मेरी पत्नी को यह मत बताना कि कल तक मेरा कूबड़ ठीक हो जाएगा। मैं कल उसे हैरान करना चाहता हूँ।’
‘बहुत अच्छा।’ तेनालीराम ने धोबी से कहा और उसे गरदन तक गाड़ दिया। फिर उसके कपड़े बगल में दबाकर बोला,‘अच्छा, तो मैं चलता हूँ। अपनी आँखें बंद रखना और मुँह भी, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए, नहीं तो सारी मेहनत बेकार हो जाएगी और यह कूबड़ बढ़कर दो गुना हो जाएगा।’
‘चिंता मत करो, मैंने कूबड़ के कारण बड़े दुख उठाए हैं। इसे दूर करने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।’ धोबी ने कहा। तेनालीराम वहाँ से चलता बना।
कुछ देर बाद राजा के सिपाही एक हाथी लेकर पहुँचे और धोबी का सिर उसके पाँवों तले कुचलवा दिया। सिपाहियों को पता नहीं चला कि यह कोई और व्यक्ति है। सिपाही तेनालीराम की मृत्यु का समाचार लेकर राजा के पास पहुँचे। तब तक उनका क्रोध शांत हो गया था और वे दुखी थे, क्योंकि उन्होंने तेनालीराम को मृत्युदंड दिया. तब तक उस पाखंडी साधु के बारे में भी उन्हें काफी कुछ पता चल चुका था।
वह सोच रहे थे, ‘बेचारे तेनालीराम को बेकार ही अपनी जान गँवानी पड़ी। उसने तो एक ऐसे अपराधी को दंड दिया था, जिसे मेरे पुलिस अफसर भी नहीं पकड़ सके थे।’ अभी राजा सोच में ही डूबे थे कि तेनालीराम दरबार में आ पहुँचा और बोला,‘महाराज की जय हो!’ राजा सहित सभी आश्चर्य से उसके चेहरे की ओर देख रहे थे। तेनालीराम ने राजा कृष्णदेव राय को सारी कहानी कह सुनाई। राजा ने उसे क्षमा कर दिया।
मकान का दान
एक बार राजा कृष्णदेव राय ने तेनाली राम से कहा, “धनी आदमी को चाहिए कि वह दान करता रहे। जो दूसरों के लिए कुछ नहीं करता, वह भी कोई मनुष्य है? इतने धनवान हो, किसी ब्राह्मण को एक मकान ही दे डालो।” “जैसा महाराज चाहें।” तेनाली राम ने कहा।
उसने एक सुन्दर-सा, छोटा-सा मकान बनवाया, जिसके चारों ओर फूलों का बाग था। उसके मुख्य द्वार पर उसने यह घोषणा लिखवा दी। “यह मकान उस ब्राह्मण को दिया जाएगा, जिसे अपने हाल पर संतोष होगा।” बहुत दिनों तक मकान का दान पाने कोई नहीं आया।
अंत में एक ब्राह्मण ने आकर तेनाली राम से कहा, “मैं अपने हाल पर बिल्कुल संतुष्ट हूं, इसलिए यह मकान मुझे दान दे दीजिए।” “तुम केवल लालची ही नहीं, झूठे और मूर्ख भी हो। तुम्हें सीधे-सादे शब्दों का अर्थ भी नहीं मालूम।
अगर तुम्हें अपने हाल पर संतोष होता, तो तुम यह मकान मांगने आते ही क्यों? तुम्हें मकान दान करके अपने वचनों से फिरना पड़ेगा और फिर यह दुख भी बना रहेगा कि मैंने मकान का दान एक मूर्ख व्यक्ति को दे दिया। तुम यहां से जा सकते हो।”
इस तरह तेनाली राम का मकान कभी दान नहीं दिया जा सका। तेनाली राम ही उसका मालिक बना रहा।
सांप भी मर गया लाठी भी नहीं टूटी
राजा कृष्णदेव राय का दरबारी गुणसुन्दर तेनाली राम से बहुत नाराज था। हंसी-हंसी में तेनाली राम ने कुछ ऐसी बात कह दी थी, जो उसे बुरी लग गई थी। मन-ही-मन वह तेनाली राम से बदला लेने की योजनाएं बनाया करता था। राजगुरु से तो तेनालीराम की कभी पटती ही नहीं थी।
गुणसुन्दर और राजगुरु में दोस्ती हो गई। दोस्ती का कारण एक ही था कि उन दोनों का एक ही दुश्मन था तेनाली राम। गुणसुन्दर को यह बात बहुत बुरी लगती थी कि राजा भी हर समय तेनाली राम की प्रशंसा किया करते थे। वह राजा को भी भला-बुरा कहा करता। तेनाली राम को इस बात का पता था।
एक बार गुणसुन्दर और राजगुरु दोनों ने मिलकर राजा से तेनाली राम की बहुत बुराई की और कहा-“महाराज, तेनाली राम पीठ पीछे आपकी बुराई करने से नहीं चूकता।” महाराज को विश्वास तो नहीं हुआ लेकिन फिर भी उन्होंने तेनाली राम से पूछा-“क्या तुम सचमुच मेरे लिए गलत शब्द कहा करते हो?” तेनाली राम सारी बात समझ गया।
उसने कहा-“महाराज, इस सवाल का उत्तर मैं आपको आज रात दूंगा, पर आपको मेरे साथ चलना होगा।” अंधेरा होने पर तेनाली राम राजा को लेकर राजगुरु के घर के पिछवाड़े पहुंचा और दोनों खिड़की के पास खड़े हो गए। अन्दर राजगुरु और गुणसुन्दर बातें कर रहे थे।
“हमारे महाराज भी बस कान के कच्चे हैं। अब तक तेनाली राम जो कहता रहा, उसे ही वह सच मानते रहे, और आज हम दोनों की बातें सच मान लीं।” कह कर गुणसुन्दर हंस पड़ा। उसने राजा को लेकर और भी कुछ उलटी-सीधी बातें कहीं। राजगुरु कुछ नहीं बोला, लेकिन अपने दोस्त की बात को काटा भी नहीं।
राजा कृष्णदेव राय ने अपने कानों से सब कुछ सुना। तेनाली राम बोला-“महाराज, अब तो आपको अपने सवाल का जवाब मिल गया?” “हां, तेनाली राम, पर राजगुरु के लिए हमारे मन में अब भी सम्मान है। लगता है तुमसे ईर्ष्या के कारण राजगुरु भटक गए हैं और गलत आदमी की दोस्ती में फंस गए हैं। जैसे भी हो, इस दुष्ट गुणसुन्दर के जाल से राजगुरु को निकालना तुम्हारा काम है।” राजा बोले।
“आप चिन्ता मत कीजिए। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। बस, कुछ दिनों तक इन्तजार करना पड़ेगा।” तेनाली राम ने कहा। कुछ दिन बाद तेनाली राम ने एक दावत दी। उसमें राजा कृष्णदेव राय भी पधारे। सभी दरबारी भी थे। राजगुरु भी, गुणसुन्दर भी। तेनाली राम ने राजगुरु और गुणसुन्दर की विशेष आवभगत की। बड़ी देर तक गपशप चलती रही।
एकाएक तेनाली राम ने अपना मुंह गुणसुन्दर के कान के पास ले जाकर कुछ कहा। उस समय तेनाली राम की निगाह राजगुरु पर टिकी थी। तेनाली राम ने क्या कहा, यह गुणसुन्दर की कुछ समझ में नहीं आया, क्योंकि असल में तेनाली राम ने यों ही उसे कान में कुछ ऊटपटांग शब्द कह डाले थे। फिर जोर से तेनाली राम ने कहा-“मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, किसी को बताना नहीं।”
गुणसुन्दर भौचक्का-सा तेनाली राम की ओर देख रहा था। इधर राजगुरु के मन में खटका हुआ। तेनाली राम जब गुणसुन्दर के कान में कुछ कह रहा था, तो उसकी निगाह राजगुरु पर ही थी। उसने सोचा-“अवश्य कोई बात मेरे विषय में कही गई है।” राजगुरु ने गुणसुन्दर से पूछा-“क्या कह रहा था तेनाली राम?”
“कुछ नहीं। मेरे कान में कुछ बोला तो सही वह, पर मुझे कुछ समझ में नहीं आया बस, यों ही कुछ कह गया बेकार से शब्द।” गुणसुन्दर ने कहा। राजगुरु ने सोचा-“गुणसुन्दर मुझसे असली बात छिपा रहा है। दोस्त होकर भी अगर यह ऐसा करता है, तो ऐसी दोस्ती किस काम की? अवश्य तेनाली राम और यह दोनों मिलकर मेरा मजाक उड़ाते होंगे। मैं समझता था कि गुणसुन्दर मेरा सच्चा दोस्त है।”
उसके बाद राजगुरु ने गुणसुन्दर से बात करना और मिलना-जुलना बन्द कर दिया। दोनों की दोस्ती कुछ ही दिनों में बीती हुई कहानी बन कर रह गई।
राजा ने तेनाली राम से कहा-“सचमुच, मुश्किलों को सुलझाने में तुम्हारा कोई जोड़ नहीं। ऐसा काम किया है तुमने कि सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।”
बैल की झूल
एक बार एक आदमी तांत्रिक का वेश धर कर विजयनगर में घुस आया। उसके पास धातु से बना एक बैल था, कौड़ियों से सजा। धातु का बैल पहियों पर चलता था। उस बैल को देखने के लिए आदमियों का मजमा लग गया। तांत्रिक कहता, “बैल के कान में चुपके से मन की बात कहो। आपके प्रश्न का जवाब मिलेगा।” लोग बात पूछते। वह तांत्रिक तीन बार बैल के सिर पर थपकी देकर कहता, “बोलो।”
बस, बैल आदमी की वाणी में बोलने लगता। दरबार में भी उस अदभुत बैल की चर्चा होने लगी। राजा कृष्णदेव राय ने तांत्रिक को दरबार में बुलवाया। सबसे पहले सेनापति ने बैल के कान में पूछा, “क्या हम पड़ोसी राजा से जीत जाएंगे?”
तांत्रिक ने बैल के सिर पर तीन बार थपकी दी। आवाज आई, “जीत तो हो सकती है, मगर महाराज अपने कृपापात्र से सावधान रहें।” यह सुन, सभी की निगाहें तेनाली राम की ओर उठ गईं। तेनाली राम भांप गया, दाल में कुछ काला है। वह बोला, “महाराज, मैं भी कुछ पूछना चाहता हूं, पर तांत्रिक को एक तरफ बैठा दिया जाए।”
तेनाली राम ने बैल के कान में पूछा, “आप उस धोखेबाज देशद्रोही का नाम बताएं।” काफी देर हो गई, कोई जवाब नहीं मिला। तेनाली राम कौड़ियों से बनी झूल उठाने लगा। तांत्रिक चिल्लाया, “मुझे मत छेड़ो। मेरा तंत्र इसी में छिपा है। तुम्हें भस्म कर देगा।” मगर तेनाली राम ने झूल उतार ली।
देखा, बैल के सिर के बीच में एक पेंच है। उसे दबाने पर बैल चलने लगता था। फिर उसने देखा, बैल के पेट में एक दरवाजा भी था। उसे खोला गया। एक आदमी अंदर बैठा था। वही प्रश्नों के उत्तर दे रहा था। उसे बाहर निकाला गया।
तांत्रिक को भी सिपाहियों ने पकड़ लिया। अंदर कुछ कागज मिले। उनमें विजयनगर और राजमहल के नक्शे थे। मार पड़ी, तो सारा राज खुल गया।
वे दोनों शत्रु राजा के जासूस थे। तेनाली राम से उन्हें खतरा था, इसीलिए उसे रास्ते से हटाना चाहते थे। राजा ने सूझबूझ के लिए तेनाली राम की पीठ थपथपाई।
चूहों की समस्या
चूहों ने तेनाली राम के घर में बड़ा उत्पात मचा रखा था। एक दिन चूहों ने तेनालीराम की पत्नी की एक सुंदर साड़ी में काटकर एक छेद बना दिया। तेनाली राम और उनकी पत्नी को बहुत क्रोध आया। उन्होंने सोचा-“इन्हें पकड़कर मारना ही पड़ेगा। नहीं तो न जाने ओर कितना नुकसान कर दें।”
बहुत कोशिश करने पर भी चूहे उनके हाथ नहीं लग रहे थे। वे संदूकों और दूसरे सामान के पीछे जाकर छिप जाते। भागते-दौड़ते, घंटों की कोशिश के बाद कहीं एक चूहा पकड़कर मार पाए। तेनाली राम बड़ा परेशान था।
आखिर वह अपने एक मित्र के पास गया, जिसने उसे सलाह दी कि चूहों से छुटकारा पाने के लिए एक बिल्ली पाल लो। वही इस मुसीबत का इलाज है। तेनाली राम ने बिल्ली पाल ली और सचमुच उसके यहां चूहों का उत्पात कम होने लगा। उसने चैन की सांस ली।
अचानक एक दिन उसकी बिल्ली ने पड़ोसियों के पालतू तोते को पकड़ लिया और मार डाला। घर की मालकिन ने अपने पति से शिकायत की और कहा कि इस दुष्ट बिल्ली को मार डालो। उसने तेनाली राम की बिल्ली का पीछा किया और उसे जा पकड़ा। वह उसको मारने ही वाला था कि तेनाली राम वहां आ गया।
तेनाली ने कहा-“भाई, मैंने यह बिल्ली चूहों से छुटाकारा पाने के लिए पाली है। हमें क्षमा कर दीजिए और बिल्ली मुझे वापस कर दीजिए। मुझ पर आपका बड़ा एहसान होगा।” पड़ौसी नहीं माना, बोला-“चूहे पकड़ने के लिए तुम्हें बिल्ली की क्या आवश्यकता है? मैं तो बिना बिल्ली के भी चूहे पकड़ सकता हूं।” और उसने बिल्ली को मार दिया।
कुछ दिनों बाद पड़ोसी को किसी ने एक सुन्दर संदूक उपहार भेजा। उसने अपने शयनकक्ष में जाकर संदूक खोला। उसी कमरे में उसकी पत्नी की कीमती साड़ियां रखी थीं। संदूक खोलते ही चूहों की सेना उसमें से उछलकर बाहर निकल आई। चूहे कमरे के चारों और दौड़ने लगे। वह उन्हें पकड़ने के लिए कभी बाएं तो कभी दाएं उछ्लता पर असफल रहा। उसके साथ उसके नौकर भी थे।
कई घंटों की उछलकूद के बाद कहीं जाकर उन्हें चूहों से छुटकारा मिला। पर इस दौरान उनका काफी नुकसान भी उठाना पड़ा। उनके कीमती गलीचों पर चूहों के खून के निशान पड़ चुके थे। ठोकर खाकर एक कीमती फूलदान भी टूट गया गया।
थके हारे पड़ोसी ने जब संदूक में यह देखने का प्रयास किया कि आखिर किसने यह संदूक भेजी है, तो एक पर्ची पाई। उस पर लिखा था, “आपने कहा था कि आप बिना बिल्ली के ही चूहों पर काबू पा जाएंगे।
मैं परीक्षा के लिए कुछ चूहों को आपके यहां भेज रहा हूं। आपका तेनालीराम।” तेनालीराम का नाम पढ़ते ही पड़ोसी को सारी बात समझ में आ गई। उसने फौरन अपनी भूल के लिए तेनालीराम से माफी मांग ली।
हीरों के चोर
एक बार विजयनगर में सूखा पड़ा। नगर के अंदर और आस-पास के सभी बाग सूख गए। उन्हें पानी की सख्त जरूरत थी। तेनाली राम का घर तुंगभद्रा नदी के किनारे पर था। उसका बाग भी बिल्कुल सूख चला था। बाग के बींचोबीच एक कुआं था। उसमें पानी था, लेकिन इतना नीचे कि उससे सिंचाई करने में बहुत खर्च हो जाता। सच बात तो यह थी कि यह खर्च बाग में होने वाले फलों आदि के मूल्य से कहीं ज्यादा पड़ जाता।
तेनाली राम एक दिन शाम को कुएं के पास बैठा सोच रहा था कि सिंचाई के लिए मजदूर लगवाए या नहीं। उसका बेटा उसके पास बैठा था। तभी उसने देखा कि तीन व्यक्ति बड़े ध्यान से उसके मकान की ओर देख रहे हैं। उसने सोचा कि अवश्य ये लोग चोर हैं, जो चोरी करने से पहले मकान के सारे रास्ते आदि देखने की कोशिश में हैं।
तेनाली राम ने ऊंचे स्वर में अपने पुत्र से कहा-“बेटा, सूखे के दिन हैं। चोर- डाकू बहुत घूम रहे हैं। अब रत्नों का वह कीमती संदूक मकान में रखना ठीक नहीं है। चलो, उस संदूक को उठाकर इस कुएं में डाल दें ताकि उसे कोई चुरा न सके। किसे पता चलेगा कि रत्नों का सन्दूक कुएं में है?”
यह कहकर वह अपने बेटे के साथ मकान के अंदर चला गया और हंसकर बोला-“आज इन चोरों का कुछ ठीक ढंग से मेहनत करने का अवसर मिलेगा।” बाप बेटे ने मिलकर सन्दूक में बहुत सारे पत्थर भरे। फिर उसे उठाकर कुएं में फेंक दिया। सन्दूक के कुएं के तल पर लगने से काफी जोर की आवाज हुई।
तेनाली राम ऊंचे स्वर में अपने पुत्र से बोला-“अब हमारे हीरे सुरक्षित है।” चोर मन ही मन मुस्कराए। जैसे ही तेनाली राम और उसका पुत्र मकान में गए, दोनों पीछे के दरवाजे के बाग में पहुंचे और कुएं से निकले पानी को बगीचे की नालियों में बहाने लगे।
रात-भर की मेहनत से बाग के लगभग हर पेड़ को पानी मिल गया। जब कुएं में से इतना पानी निकल गया कि सन्दूक उठाकर बाहर निकाला जा सके, तब तक प्रातः के पांच बज चुके थे। सन्दूक खोलकर जब चोरों ने देखा कि उसमें हीरे नहीं बल्कि पत्थर हैं, तो सिर पर पांव रखकर भागे कि मूर्ख तो बन ही गए, अब कहीं पकड़े न जाएं।
जब तेनाली राम ने यह बात राजा को बताई तो बहुत हंसे और बोले-“कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मेहनत तो बेचारा कोई करता है और लाभ किसी और को पहुंचता है।”
दान का लालच
एक दिन राजा कृष्णदेव राय के दरबार में इस विषय पर बहस हो रही थी कि राज्य की समृद्धि के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति कौन होता है? एक दरबारी बोला, “राज्य की समृद्धि वहां के राजा पर निर्भर करती है। दुष्टों को दंड देकर, सबके अधिकारों की रक्षा करके, अंदरूनी अशांति और बाहरी आक्रमणों से राज्य की स्वतंत्रता बचाकर राजा ही अपने राज्य में खुशहाली ले आता है।”
“मेरे विचार में राजा की समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण तो है पर अकेला नहीं, और फिर इस बात का क्या भरोसा कि राजा दुष्ट अत्याचारी नहीं होगा।” राजा ने कहा।
राजकुमारी मोहनांगी ने कहा, “राजा की रीढ़ की हड्डी हैं साधारण लोग, किसान, लुहार, बढ़ई, सुनार, कुम्हार, नाई, जुलाहे, मजदूर, चित्रकार आदि। यही लोग अपने परिश्रम और लगन से अपनी और राज्य की समृद्धि में चार चांद लगाते हैं।”
राजा बोले, “लेकिन यह कैसे संभव है? पढ़े-लिखे न होने के कारण उन्हें राजा, मंत्रियों और ब्राह्मणों पर निर्भर रहना पड़ता है।” “राज्य की समृद्धि के लिए मंत्री सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।” प्रधानमंत्री ने कहा। “यह कैसे हो सकता है? मंत्रियों को भी राजा पर निर्भर रहना पड़ता है, और फिर योग्य मंत्री भी कई बार ऐसे काम कर देते हैं जिनसे राज्य को हानि पहुंचती है।”
राजा ने कहा। तभी सेनापति ने कहा, “मेरे विचार में सेनापति राज्य की खुशहाली के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।” “अगर राजा उन पर नियंत्रण न रखे तो सेनापति कभी शांति ही न होने दे। बस, युद्ध ही चलते रहें।”
राजा बोले।
एक दरबारी बोला, “सबसे महत्वपूर्ण वस्तु राज्य के किले हैं।” “नहीं, नहीं।” राजा ने कहा, “बहादुर जनता किलों से अधिक महत्वपूर्ण है।” “इस बारे में तुम्हारा क्या विचार है?”
राजा ने तेनाली राम से पूछा। “जी, मेरे विचार में अच्छा और बुरा होने से कोई सम्बन्ध नहीं। अच्छा व्यक्ति चाहे ब्राह्मण हो या न हो, राज्य को लाभ ही पहुंचाएगा, और ब्राह्मण होकर भी कोई व्यक्ति राज्य को बेहद नुकसान भी पहुंचा सकता है।” तेनाली राम ने कहा। यह सुनकर राजगुरु ने कहा, “तुम ब्राह्मणों पर आरोप लगा रहे हो। राज्य का कोई भी ब्राह्मण कभी अपने राजा या राज्य को हानि नहीं पहुंचा सकता, यह मेरा दावा है।”
“मैं आपके दावे को झूठा साबित कर दूंगा, राजगुरु जी। जो व्यक्ति मूल रूप में अच्छा नहीं है, वह ब्राह्मण होकर भी धन के लोभ में सब कुछ कर सकता है।” तेनाली राम ने कहा। राजा ने यह देखकर सभा भंग कर दी कि बहस में जरूरत से अधिक गरमी आ गई है। एक मास बीत गया। इस बात को सभी भूल गए।
तेनाली राम ने अपनी योजना राजा को बताई और नगर के आठ प्रमुख ब्राह्मणों के पास गया। उसने उन्हें बताया कि राजा कृष्णदेव राय इसी समय चुने हुए ब्राह्मणों को चांदी की थालियां और स्वर्णमुद्राएं देना चाहते हैं।
ब्राह्मण बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कृतज्ञता जताई कि तेनाली राम ने उन्हें इस अवसर के लिए चुना है। वे बोले, “हम अभी स्नान करके आते हैं।” “स्नान के लिए समय नहीं है। राजा तैयार बैठे हैं। ऐसा न हो कि दान का मुहूर्त निकल जाए और आप लोग स्नान करते ही रह जाएं।”
तेनाली राम ने कहा, “इसलिए मैं जाकर दूसरे ब्राह्मणों को बुला लाता हूं।” “ठहरिए, ठहरिए, तेनाली राम जी, हम अपने-अपने बालों पर थोड़ा सा पानी छिड़कर लेते हैं। धर्म के सिद्धांत के अनुसार इसे स्नान के बराबर ही माना जाएगा।” उन ब्राह्मणों में से एक ने कहा।
तेनाली राम कुछ न बोला। चुपचाप प्रतीक्षा करता रहा। ब्राह्मणों ने अपने-अपने सिरों पर पानी छिड़का, तिलक लगाया और तेनाली राम के पीछे-पीछे दरबार में जा पहुंचे। दरबार में राजा द्वारा रखी गई चांदी की आठ बड़ी-बड़ी थालियां और उनमें स्वर्णमुद्राएं देखकर तो ब्राह्मणों की बांछें खिल गई।
राजा जब दान करने लगे तो एकाएक तेनाली राम बोला, “महाराज, मेरे विचार में आपको इस बात पर कोई आपत्ति नहीं होगी कि इन ब्राह्मणों ने स्नान नहीं किया। बेचारे जल्दी-जल्दी यहां पहुंच कर दान लेना चाहते थे, इसलिए इन्होंने अपने सिरों पर पानी छिड़का है।”
राजा ने क्रोध में भरकर पूछा, “क्या यह सच है?” ब्राह्मणों को काटो तो खून नहीं। उन्होंने धीरे से स्वीकार कर लिया कि उन्होंने स्नान नहीं किया है और चुपके से खिसकने लगे। तेनाली राम ने राजगुरु से कहा, “कहिए राजगुरु, उस दिन जो बहस छिड़ी थी, उसके बारे में आपको क्या कहना है?
देखा, धन के लालच में ये लोग वह सब भी भूल गए, जिसे ये सब अपना धर्म-कर्म मानते है। ब्राह्मण होने भर से किसी का दर्जा ऊंचा नहीं हो जाता।”
यह बात सिद्ध हो गई थी कि राज्य को सबसे महत्वपूर्ण अंग ब्राह्मण नहीं है, बल्कि साधारण परिश्रमी जनता है, जिन्हें यदि अच्छा राजा और समझदार मंत्री मिले तो राज्य के समृद्ध होने में कोई दर नहीं लगती।
सुनहरा हिरन
ढलती हुई ठंड का सुहाना मौसम था। राजा कृष्णदेव राय वन-विहार के लिए चल पड़े। साथ में कुछ दरबारी और सैनिक भी चल पड़े। शहर से दूर जंगल में डेरा डाला गया। कभी गीत-संगीत की महफिल जमती तो कभी किस्से-कहानियों का दौर चल पड़ता। इसी तरह मौज-मस्ती में कई दिन गुजर गए।
एक दिन राजा कृष्णदेव राय अपने दरबारियों से बोले, ‘जंगल में आए हैं तो शिकार जरूर करेंगे।’ तुरंत शिकार की तैयारियां हो गईं। राजा कृष्णदेव राय तलवार और तीर-कमान लेकर घोड़े पर बैठकर शिकार के लिए निकल पड़े। मंत्री और दरबारी अपने घोड़ों पर उनके साथ थे।
तेनालीराम भी जब उन सबके साथ चलने लगा तो मंत्री बोला, ‘महाराज, तेनालीराम को अपने साथ ले जाकर क्या करेंगे। यह तो अब बूढ़े हो गए हैं, इन्हें यहीं रहने दिया जाए। हमारे साथ चलेंगे तो बेचारे थक जाएंगे।’
इस बात पर सारे दरबारी हंस पड़े लेकिन तेनालीराम क्योंकि राजा को बड़े प्रिय थे, इसलिए तेनालीराम को भी अपने साथ ले लिया। थोड़ी देर का सफर तय करके सब लोग जंगल में पहुंच गए। तभी राजा कृष्णदेव राय को एक सुनहरा हिरन दिखाई दिया। राजा ने उसका पीछा किया और पीछा करते-करते वह घने जंगल में पहुंच गए, राजा घनी झाड़ियों के बीच बढ़ते जा रहे थे।
एक जगह पर आकर उन्हें सुनहरा हिरन अपने बहुत ही पास दिखाई दिया तो उन्होंने निशाना साधा। घोड़ा अभी भी दौड़ता जा रहा था। राजा कृष्णदेव राय तीर चलाने ही वाले थे कि अचानक तेनालीराम जोर से चिल्लाया-‘रुक जाइए, महाराज, इसके आगे जाना ठीक नहीं।’ राजा कृष्णदेव राय ने फौरन घोड़ा रोका।
इतने में हिरन निकल गया। राजा को बहुत गुस्सा आया। वह तेनालीराम पर बरस पड़े-‘तेनालीराम, तुम्हारी वजह से हाथ में आया शिकार निकल गया। तुमने हमें क्यों रोका?’ मंत्री और अन्य दरबारियों ने भी फबती कसी, ‘महाराज, तेनालीराम डरते हैं। वह डरपोक हैं, इसीलिए तो हम उन्हें अपने साथ न लाने के लिए कह रहे थे।’
तभी तेनालीराम को न जाने क्या सूझा। बोले, ‘महाराज, जरा मंत्री जी इस पेड़ पर चढ़कर हिरन को देखें तभी कुछ कहूंगा या बताऊंगा।’ राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री जी को पेड़ पर चढ़कर हिरन को देखने का आदेश दिया। मंत्री जी पेड़ पर चढ़े तो उन्होंने एक विचित्र दृश्य देखा।
हिरन जंगली झाड़ियों के बीच फंसा जोर-जोर से उछल रहा था। उसका सारा शरीर लहूलुहान हो गया था। ऐसा लगता था जैसे जंगली झाड़ियों ने उसे अपने पास खींच लिया हो। वह हिरन अपना भरपूर जोर लगाकर झाड़ियों से छूटने की कोशिश कर रहा था। आखिरकार बड़ी मुश्किल से वह अपने आपको उन झाड़ियों से छुड़ा पाया था, या यूं कह लीजिए कि बड़ी मुश्किल से अपनी जान छुड़ा पाया था।
मंत्री ने यह सारी बात राजा को बताई। राजा यह सब सुनकर हैरान रह गए और बोले, ‘तेनालीराम, यह सब क्या है?’ ‘महाराज, यहां से आगे खतरनाक झाड़ियां हैं। इनके कांटे शरीर में चुभकर प्राणियों का खून पीने लगते हैं। जो जीव इनकी पकड़ में आया-वह अधमरा होकर ही इनसे छूटा।
पेड़ से मंत्री जी ने स्वयं लहूलुहान हिरन को देख लिया। इसीलिए महाराज, मैं आपको रोक रहा था।’ राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री और दरबारियों की ओर आश्चर्य से देखा और कहा, ‘देखा, तुम लोगों ने, तेनालीराम को साथ लाना क्यों जरूरी था?’ मंत्री और सारे दरबारी अपना-सा मुंह लेकर रह गए और एक-दूसरे की ओर ताकने लगे।
बंद आंख और खुली आंख
दिल्ली का एक प्रसिद्ध व्यक्ति, जो हाथ की सफाई से तरह-तरह के जादू के खेल दिखाया करता था, एक बार विजयनगर गया और उसने तरह-तरह के खेल दिखाए। उसने पत्थरों को स्वर्ण मुद्राओं में बदल दिया। उसने अपना सिर काटकर अपने हाथ से पकड़कर राजा को दिखाया। वह राजा से बोला-“महाराज, आपके राज्य में कोई मेरा मुकाबला नहीं कर सकता।
मेरी चुनौती है कि जो कोई भी आकर मुझे इस कला से हराएगा, मेरा सिर उसके सामने हाजिर है।” राजा को उसकी शेखी बहुत बुरी लगी। उसने तेनाली राम से कहा-“अगर तुम इस व्यक्ति का अभिमान तोड़ दो तो तुम्हें एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दी जाएंगी।” “मुझे स्वीकार है, महाराज।” तेनाली राम ने कहा।
तेनाली राम उस जादूगर के पास पहुंचा और बोला-“क्यों इतनी शेखी बघार रहे हो?” मेरा दावा है कि जो मैं अपनी बंद आंखों के साथ कर सकता हूं, वह तुम अपनी खुली आंखों से नहीं कर सकते। “क्यों बेकार की बात करते हो?” जादूगर बोला-“अगर तुम बंद आंखों के साथ एक भी ऐसा काम कर सकते हो जो मैं खुली आंखों के साथ नहीं कर सकता तो मैं अपना सिर तुम्हारे हवाले कर दूंगा।” “ठीक है।”
तेनाली राम ने कहा और उसने पिसी हुई मिर्च मंगवाई और आंखें बंद करके एक-एक मुट्ठी मिर्च दोनों आंखों के ऊपर डाल ली। एक मिनट तक उसने आंखें बंद ही रखीं और मुस्कराता रहा। उसके बाद मिर्च हटाकर उसने अपने पलकें धो डालीं और जादूगर से कहा-“जो मैं बंद आंखों के साथ किया है, वह अब तुम अपनी खुली आंखों के साथ करो।”
जादूगर ने हार मान ली, बोला, “मेरा सिर आपके आगे हाजिर है।” “मुझे तुम्हारे सिर की जरूरत नहीं है। मैं महाराज से मिलने वाले पुरस्कार से ही संतुष्ट हूं।” तेनाली राम ने कहा। इस तरह राजा कृष्णदेव राय का मस्तक गर्व से ऊंचा हो गया।
सबसे बड़ा बच्चा
दीवाली निकट आ रही थी। राजा कृष्णदेव राय ने राज दरबार में कहा-“क्यों न इस बार दीवाली कुछ अलग ढंग से मनाई जाए? ऐसा आयोजन किया जाए कि उसमें बच्चे-बड़े सभी मिलकर भाग लें।” “विचार तो बहुत उत्तम है महाराज।” मंत्री ने प्रसन्न होकर कहा।
सबने अपने-अपने सुझाव दिए। पुरोहित जी ने एक विशाल यज्ञ के आयोजन का सुझाव दिया तो मंत्री जी ने दूर देश से जादूगरों को बुलाने की बात कही। और भी दरबारियों ने अपने सुझाव दिए। लेकिन कृष्णदेव राय को किसी का सुझाव नहीं जंचा, उन्होंने सुझाव हेतु तेनालीराम की ओर देखा।
तेनाली राम मुस्कराया। फिर बोला-“क्षमा करें महाराज, दीपावली तो दीपों का पर्व है। यदि अलग ढंग का ही आयोजन चाहते हैं तो ऐसा करें-रात में तो हर वर्ष दीये जलाए ही जाते हैं। इस बार दिन में भी जलाएं।” यह सुनकर सारे दरबारी ठठाकर हंस पड़े।
मंत्री फब्ती कसते हुए बोला-“शायद बुढ़ापे की वजह से तेनाली राम को कम दिखाई देने लगा है, इसलिए इन्हें दिन में भी दीये चाहिए।” राजा कृष्णदेव राय भी तेनाली राम के इस सुझाव पर खीझे हुए थे, बोले-“तेनाली राम, हमारी समझ में तुम्हारी बात नहीं आई।” “महाराज मैं मिट्टी के दीये नहीं जीते-जागते दीपों की बात कर रहा हूं। और वे हैं हमारे नन्हें-मुन्ने बच्चे! जिनकी हंसी दीपों की लौ से भी ज्यादा उज्जवल है।” तेनाली राम ने कहा।
“तुम्हारी बात तो बहुत अच्छी है! लेकिन कार्यक्रम क्या हो?” राजा ने पूछा। “महाराज, इस बार दीवाली पर बच्चों के लिए एक मेले का आयोजन हो। बच्चे दिन भर उछलें-कूदें, हंसें-खिलखिलाएं, प्रतियोगिताओं में भाग लें। इस मेले का इंतजाम करने वाले भी बच्चे ही हों। बड़े भी उस मेले में जाएं लेकिन बच्चों के रूप में।
वे कहीं भी किसी भी बात में दखल न दें। जो बच्चा सर्वप्रथम आएगा, उसे राज्य का सबसे बड़ा बच्चा पुरस्कार दें...!” तेनाली राम ने अपनी बात पूरी की। “लेकिन राज्य का सबसे बड़ा बच्चा कौन है?” राजा ने पूछा। “वह तो आप ही हैं महाराज। आपसे बढ़कर बच्चों जैसा, निर्मल स्वभाव और किसा होगा?” तेनाली राम मुस्कराया।
यह सुनकर राजा कृष्णदेव राय की हंसी छूट गई। दरबारी भी मंद-मंद मुस्कराने लगे। दीवाली का दिन आया। बच्चों के मेले की बड़ी धूम रही। राजा कृष्णदेव राय बहुत खुश थे, बोले-“कमाल कर दिया बच्चों ने। सचमुच, इन नन्हें-मुन्ने दीपों का प्रकाश तो अदभुत है, अनोखा है, सबसे प्यारा है।”
बैंगन की चोरी
राजा कृष्णदेव राय के निजी बाग में बढ़िया किस्म के बैंगन के कुछ पौधे थे। एक बार राजा ने दरबारियों को दावत दी, जिसमें बैंगन की सब्जी भी परोसी गई। तेनाली राम को बैंगन बड़े स्वादिष्ट लगे। घर आकर उसने अपनी पत्नी से बैंगनों की प्रशंसा की।
पत्नी ने तेनाली राम से कहा-“इतने स्वादिष्ट बैंगन कम से कम एक बार तो मुझे भी खिलाओ।” “राजा अपने बाग के पौधों के बारे में बड़े सावधान रहते हैं। उनके बाग में चोरी करने वालों का सिर काट लिया जाता है। न बाबा न, मैं बैंगन चोरी करके नहीं ला सकता।” तेनाली राम ने कहा। “देखो, मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं मांगा। कम से कम एक बार तो मेरी इच्छा पूरी कर दो।” पत्नी बोली।
तेनाली राम को अपनी पत्नी के आगे हार माननी पड़ी। एक रात वह चुपके से राजा के बाग में कूद गया और दस-बारह बढ़िया बैंगन तोड़कर ले आया। उसकी पत्नी ने बड़े परिश्रम और लगन से उन्हें बनाया।
“वाह, वाह, क्या बढ़िया बैंगन है!” तेनाली राम की पत्नी ने चखते हुए कहा-“अपने बेटे को भी कम से कम चखा तो देने चाहिए।” “ऐसा गजब न कर देना। छः साल का बच्चा है। अचानक कभी मुंह से बात निकल गई तो लेने के देने पड़ जाएंगे।”
तेनाली राम बोला। “यह कैसे हो सकता है? ये बढ़िया बैंगन हम दोनों अकेले बैठकर खा लें और बेटे को चखाएं भी नहीं? कुछ ऐसा सोचो कि वह बैंगन खा भी ले और चोरी भी साबित न हो।” तेनाली राम की पत्नी बोली। “बहुत अच्छा।” तेनाली राम ने कहा।
उसने एक बाल्टी में पानी भरा और खुली छत पर, जहां बच्चा सोया हुआ था, खूब सारा पानी उस पर छिड़क दिया। फिर उसे उठाकर कहा-“वर्षा हो रही है। चलो, अंदर चलो।” अंदर ले जाकर उसने बच्चे के कपड़े बदलवाए। उसके बाद उसे बैंगन की तरकारी खाने को दी। फिर यह कह कर कि वर्षा हो रही है, उसे अंदर ही सुला दिया। अगले दिन राजा को बैंगनों की चोरी का पता चला गया।
नगर में इस बात को लेकर बड़ा शोर मचा। राजा ने चोर पकड़ने वाले को काफी बड़ा पुरस्कार देने की घोषणा की। प्रधानमंत्री अप्पाजी को तेनाली राम पर शक था। उसने राजा को अपना विचार बताया। “मैं जानता हूं कि वह बहुत चतुर है। वह किसी-न-किसी बहाने बच निकलेगा। उसके बेटे को बुलवाओ। अभी सच्चाई पता चल जाएगी।
राजा ने कहा।” तेनाली राम के बेटे को बुलवाया गया। उससे पूछा गया-“कल रात को तुमने कौन सी सब्जी खाई थी?” “बैंगन की सब्जी बहुत ही स्वादिष्ट थी।” बच्चे ने कहा। प्रधानमंत्री अप्पाजी ने तेनाली राम से कहा-“अब तो तुम्हें अपना अपराध स्वीकार करना ही पड़ेगा।”
“बिल्कुल नहीं।” तेनाली राम ने कहा-“यह तो कल रात बहुत ही जल्दी सो गया था। यों ही ऊटपटांग बातें कर रहा है। अवश्य इसने सपना देखा होगा। मैं अभी सारी बात साफ किए देता हूं।
इससे पूछिए कि कल रात मौसम कैसा था?” अप्पाजी ने बच्चे से पूछा-“कल रात कैसा मौसम था, आकाश साफ था या बारिश हुई थी?” “कल रात को बड़ी मूसलधार वर्षा हुई थी, प्रधानमंत्रीजी मेरे सारे कपड़े भीग गए थे।” बच्चे ने कहा।
रात को एक बूंद भी पानी नहीं पड़ा था। अप्पाजी ने सोचा-“यह बच्चा यों ही कल्पनाएं कर रहा है, जैसे वर्षा की कल्पना है, वैसे ही बैंगन की सब्जी की बात भी सोच ली होगी।” अप्पाजी ने तेनाली राम से अपने शक के लिए क्षमा मांग ली। एक बार फिर तेनालीराम अपनी चालाकियों से बच गया।
तेनालीराम की गायें
राजा कृष्णदेव राय सवेरे-सवेरे बगीचे में घूमने जाया करते थे, साथ में तेनालीराम भी होते थे। इस बात से दरबार के अन्य लोग जलते थे। वे इसी ताक में रहते थे कि कैसे तेनालीराम को नीचा दिखाया जाए।
एक दिन तेनालीराम बीमार पड़ गए। राजा अकेले ही घूमने गए। जब वे बगीचे में गए तो यह देखकर हैरान रह गए कि वहां के फूल-पौधे कुचले पड़े हैं और कुछ गायें चर रही हैं। दुखी राजा ने माली को बुलवाया।
राजा ने पूछा, “यह गायें कहां से आईं?”
माली को सभी दरबारियों ने तेनालीराम का नाम बताने को कहा था। उसने कहा, “महाराज यह गायें तेनालीराम ने बगीचे में चराने के लिए मंगवाई हैं।”
तब तक दूसरे दरबारी भी आ गए। उन्होंने भी राजा से चुगली की। राजा कृष्ण देव राय तेनालीराम पर बहुत गुस्सा हुए। उन्होंने तेनालीराम पर पांच हजार स्वर्णमुद्राओं का जुर्माना लगा दिया।
इस बीच तेनालीराम को भी इस बात का पता चल गया। उन्होंने मामले की छानबीन की। घटना के तीसरे दिन वह दरबार में आए। उनके साथ में कुछ गांव वाले भी थे। महाराज को प्रणाम कर तेनालीराम ने कहा, “महाराज मुझे सजा देने पहले इन गांव वालों की शिकायत सुन लें।”
गांव वालों ने कहा, “महाराज आपके कुछ दरबारियों ने हमसे कुछ गायें खरीद कर लाईं थीं। उनके पैसे हमें अब तक नहीं मिले हैं। आप ही न्याय करें महाराज।”
राजा ने जब पूछताछ की तो सच्चाई का पता लग गया। गायें तेनालीराम को नींचा दिखाने के लिए लाई गई थीं। राजा ने उन षड्यंत्रकारियों को वही जुर्माना लगाकर तेनालीराम को बरी कर दिया। साथ-साथ दरबारियों को उन गायों की कीमत भी अदा करने को कहा गया। इस बार भी दुष्ट दरबारी तेनालीराम की बुद्धि के आगे मात खा गए।
महाराज का आतिथ्य
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय जहाँ कहीं भी जाते, जब भी जाते, अपने साथ हमेशा तेनालीराम को जरूर ले जाते थे। इस बात से अन्य दरबारियों को बड़ी चिढ़ होती थी।
एक दिन तीन-चार दरबारियों ने मिलकर एकांत में महाराज से प्रार्थना की, ‘महाराज, कभी अपने साथ किसी अन्य व्यक्ति को भी बाहर चलने का अवसर दें।’ राजा को यह बात उचित लगी। उन्होंने उन दरबारियों को विश्वास दिलाया कि वे भविष्य में अन्य दरबारियों को भी अपने साथ घूमने-फिरने का अवसर अवश्य देंगे।
एक बार जब राजा कृष्णदेव राय वेष बदलकर कुछ गाँवों के भ्रमण को जाने लगे तो अपने साथ उन्होंने इस बार तेनालीराम को नहीं लिया बल्कि उसकी जगह दो अन्य दरबारियों को साथ ले लिया। घूमते-घूमते वे एक गाँव के खेतों में पहुँच गए। खेत से हटकर एक झोपड़ी थी, जहाँ कुछ किसान बैठे गपशप कर रहे थे।
राजा और अन्य लोग उन किसानों के पास पहुँचे और उनसे पानी माँगकर पिया। फिर राजा ने किसानों से पूछा, ‘कहो भाई लोगों, तुम्हारे गाँव में कोई व्यक्ति कष्ट में तो नहीं है? अपने राजा से कोई असंतुष्ट तो नहीं है?’
इन प्रश्नों को सुनकर गाँववालों को लगा कि वे लोग अवश्य ही राज्य के कोई अधिकारीगण हैं। वे बोले, ‘महाशय, हमारे गाँव में खूब शांति है, चैन है। सब लोग सुखी हैं। दिन-भर कडी़ मेहनत करके अपना काम-काज करते हैं और रात को सुख की नींद सोते हैं। किसी को कोई दुख नहीं है। राजा कृष्णदेव राय अपनी प्रजा को अपनी संतान की तरह प्यार करते हैं, इसलिए राजा से असंतुष्ट होने का सवाल ही नहीं पैदा होता।’
‘इस गाँव के लोग राजा को कैसा समझते हैं?’ राजा ने एक और प्रश्न किया।
राजा के इस सवाल पर एक बूढ़ा किसान उठा और ईख के खेत में से एक मोटा-सा गन्ना तोड़ लाया। उस गन्ने को राजा को दिखाता हुआ वह बूढ़ा किसान बोला, ‘श्रीमान जी, हमारे राजा कृष्णदेव राय बिल्कुल इस गन्ने जैसे हैं।’ अपनी तुलना एक गन्ने से होती देख राजा कृष्णदेव राय सकपका गए। उनकी समझ में यह बात बिल्कुल भी न आई कि इस बूढ़े किसान की बात का अर्थ क्या है?
उनकी यह भी समझ में न आया कि इस गाँव के रहने वाले अपने राजा के प्रति क्या विचार रखते हैं? राजा कृष्णदेव राय के साथ जो अन्य साथी थे, राजा ने उन साथियों से पूछा, ‘इस बूढ़े किसान के कहने का क्या अर्थ है?’ साथी राजा का यह सवाल सुनकर एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
फिर एक साथी ने हिम्मत की और बोला, ‘महाराज, इस बूढ़े किसान के कहने का साफ मतलब यही है कि हमारे राजा इस मोटे गन्ने की तरह कमजोर हैं। उसे जब भी कोई चाहे, एक झटके में उखाड़ सकता है। जैसे कि मैंने यह गन्ना उखाड़ लिया है।’
राजा ने अपने साथी की इस बात पर विचार किया तो राजा को यह बात सही मालूम हुई। वह गुस्से से भर गए और इस बूढ़े किसान से बोले, ‘तुम शायद मुझे नहीं जानते कि मैं कौन हूँ?’
राजा की क्रोध से भरी वाणी सुनकर वह बूढ़ा किसान डर के मारे थर-थर काँपने लगा। तभी झोंपड़ी में से एक अन्य बूढ़ा उठ खड़ा हुआ और बड़े नम्र स्वर में बोला-‘महाराज, हम आपको अच्छी तरह जान गए हैं, पहचान गए हैं, लेकिन हमें दुख इस बात का है कि आपके साथी ही आपके असली रूप को नहीं जानते। मेरे साथी किसान के कहने का मतलब यह है कि हमारे महाराज अपनी प्रजा के लिए तो गन्ने के समान कोमल और रसीले हैं किंतु दुष्टों और अपने दुश्मनों के लिए महानतम कठोर भी।’ उस बूढ़े ने एक कुत्ते पर गन्ने का प्रहार करते हुए अपनी बात पूरी की।
इतना कहने के साथ ही उस बूढ़े ने अपना लबादा उतार फेंका और अपनी नकली दाढ़ी-मूँछें उतारने लगा। उसे देखते ही राजा चौंक पड़े। ‘हैं-हैं तेनालीराम, तुमने यहाँ भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा।’ ‘तुम लोगों का पीछा कैसे छोड़ता भाई? अगर मैं पीछा न करता तो तुम इन सरल हृदय किसानों को मौत के घाट ही उतरवा देते। महाराज के दिल में क्रोध का ज्वार पैदा करते, सो अलग।’ ‘तुम ठीक ही कह रहे हो, तेनालीराम। मूर्खों का साथ हमेशा दुखदायी होता है। भविष्य में मैं कभी तुम्हारे अलावा किसी और को साथ नहीं रखा करूँगा।’
उन सबकी आपस की बातचीत से गाँववालों को पता चल ही गया था कि उनकी झोंपड़ी पर स्वयं महाराज पधारे हैं और भेष बदलकर पहले से उनके बीच बैठा हुआ आदमी ही तेनालीराम है तो वे उनके स्वागत के लिए दौड़ पड़े। कोई चारपाई उठवाकर लाया तो कोई गन्ने का ताजा रस निकालकर ले आया।
गाँववालों ने बड़े ही मन से अपने मेहमानों का स्वागत किया। उनकी आवभगत की। राजा कृष्णदेव राय उन ग्रामवासियों का प्यार देखकर आत्मविभोर हो गए। तेनालीराम की चोट से आहत हुए दरबारी मुँह लटकाए हुए जमीन कुरेदते रहे। तेनालीराम एक ओर बैठा मंद-मंद मुस्करा रहा था।
कला का चमत्कार
राजा ने एक नया महल बनवाया। उसमें एक प्रसिद्ध कलाकार से दीवारों पर बड़े सुंदर चित्र बनवाए। राजा अपने दरबारियों को वे चित्र दिखाने नए महल में ले गया। सबने उन चित्रों की जी भरकर प्रशंसा की, पर तेनालीराम चुप था।
अचानक उसने एक चित्र देखा, जिसमें एक व्यक्ति का एक ओर का चेहरा ही दिखाई देता था। उसने राजा से पूछा, ‘महाराज, इस व्यक्ति के चेहरे का दूसरा आधा भाग कहाँ है?’ ‘तुम भी अजीब मूर्ख हो!’ राजा ने हँसते हुए कहा, ‘दूसरे आधे भाग की कल्पना करनी पड़ती है।’ तेनालीराम चुप हो गया। कोई एक महीने बाद तेनालीराम ने राजा से कहा, ‘महाराज, मैं कई दिनों से बड़े परिश्रम से चित्र बनाना सीख रहा हूँ। मैंने कई अच्छे-अच्छे चित्रकारों को पीछे छोड़ दिया है।’ राजा बोले, ‘ऐसी बात है तो ठीक है। तुम मेरे भवन के दीवारों पर अपनी कला का चमत्कार दिखाओ।’ तेनालीराम ने बड़ी लगन के साथ यह काम किया। एक महीने के बाद उसने राजा से कहा कि वह दरबारियों के साथ आकर उसके चित्र देखें।
सब महल में पहुँचे। सब दीवारों पर शरीर के अलग-अलग अंगों के चित्र बने थे। कहीं हाथ, कहीं घुटने, कहीं कुहनी, जगह-जगह नाम, कान, आँखें, दाँत और मुँह बने थे। क्रोध में चिल्लाते हुए राजा ने पूछा, ‘यह सब क्या है? शरीर के दूसरे भाग साथ क्यों नहीं हैं?’ ‘उनकी कल्पना करनी पड़ती है महाराज!’गंभीर-सा मुँह बनाकर तेनालीराम ने कहा। राजा ने दो सिपाही बुलवाए। ये वही सिपाही थे, जिन्हें तेनालीराम ने कोड़ों का उपहार दिलवाया था। राजा ने हुक्म दिया, ‘ले जाओ इसे और इसका सिर धड़ से अलग कर दो। मैं तंग आ गया हूँ इस आदमी से। मेरा महल इसने बरबाद कर दिया है।’
सिपाही तेनालीराम को ले जाते हुए बहुत खुश थे। आज उससे बदला लेने का अवसर मिला था। तेनालीराम ने कहा, ‘मुझे मरना तो है ही, लेकिन आप लोगों की बड़ी कृपा होगी अगर आप मुझे मरने से पहले किसी तालाब में कमर तक पानी में खड़े होकर प्रार्थना करने दें, जिससे मैं स्वर्ग जा सकूँ।’ दोनों सिपाहियों ने सोचा, क्या हर्ज है। उन्होंने कहा, ‘ठीक है, पर कोई चालाकी करने की कोशिश मत करना।’ ‘आप मेरे दोनों ओर तलवार लेकर खड़े हो जाइए। मैं बचने की कोशिश करूँ तो बेशक मुझ पर वार कर दीजिए।’
सिपाहियों ने सोचा कि यह तो बहुत अच्छी योजना है। वे एक तालाब में तेनालीराम के दोनों ओर तलवारें निकालकर खड़े हो गए। कोई पौने घंटे के बाद तेनालीराम अचानक चिल्लाया-‘तलवार चलाओ।’ और झट से पानी में डुबकी लगा दी। घबराहट और जल्दी में सिपाहियों ने तलवारें चला दीं और एक-दूसरे के वार खाकर जान से हाथ धो बैठे। तेनालीराम राजा के पास पहुँचा। राजा का क्रोध तब तक ठंडा हो चुका था। हैरान होते हुए, पूछा, ‘तुम बच कैसे गए?’ ‘महाराज, उन मूर्खों ने मुझे मारने की बजाए एक-दूसरे को मार दिया।’ और तेनालीराम ने सारी कहानी कह सुनाई। ‘इस बार तो मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ पर आगे से इस तरह की शरारतें नहीं होनी चाहिए।’
कुत्ते की दुम
एक दिन राजा कृष्णदेव राय के दरबार में इस बात पर गरमागरम बहस हो रही थी कि मनुष्य का स्वभाव बदला जा सकता है या नहीं। कुछ का कहना था कि मनुष्य का स्वभाव बदला जा सकता है। कुछ का विचार था कि ऐसा नहीं हो सकता, जैसे कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं हो सकती।
राजा को एक विनोद सूझा। उन्होंने कहा, ‘बात यहाँ पहुँची कि अगर कुत्ते की दुम सीधी की जा सकती है, तो मनुष्य का स्वभाव भी बदला जा सकता है, नहीं तो नहीं बदला जा सकता।’ राजा ने फिर विनोद को आगे बढ़ाने की सोची, बोले, ‘ठीक है, आप लोग यह प्रयत्न करके देखिए।’
राजा ने दस चुने हुए व्यक्तियों को कुत्ते का एक-एक पिल्ला दिलवाया और छह मास के लिए हर मास दस स्वर्णमुद्राएँ देना निश्चित किया। इन सभी लोगों को कुत्तों की दुम सीधी करने का प्रयत्न करना था। इन व्यक्तियों में एक तेनालीराम भी था। शेष नौ लोगों ने इन छह महीनों में पिल्लों की दुम सीधी करने की बड़ी कोशिश कीं।
एक ने पिल्ले की पूँछ के छोर को भारी वजन से दबा दिया ताकि इससे दुम सीधी हो जाए। दूसरे ने पिल्ले की दुम को पीतल की एक सीधी नली में डाले रखा। तीसरे ने अपने पिल्ले की पूँछ सीधी करने के लिए हर रोज पूँछ की मालिश करवाई। छठे सज्जन कहीं से किसी तांत्रिक को पकड़ लाए, जो कई तरह से उटपटाँग वाक्य बोलकर और मंत्र पढ़कर इस काम को करने के प्रयत्न में जुटा रहा। सातवें सज्जन ने अपने पिल्ले की शल्य चिकित्सा यानी ऑपरेशन करवाया। आठवाँ व्यक्ति पिल्ले को सामने बिठाकर छह मास तक प्रतिदिन उसे भाषण देता रहा कि पूँछ सीधी रखो भाई, सीधी रखो।
नवाँ व्यक्ति पिल्ले को मिठाइयाँ खिलाता रहा कि शायद इससे यह मान जाए और अपनी पूँछ सीधी कर ले। पर तेनालीराम पिल्ले को इतना ही खिलाता, जितने से वह जीवित रहे। उसकी पूँछ भी बेजान सी लटक गई, जो देखने में सीधी ही जान पड़ती थी।
छह मास बीत जाने पर राजा ने दसों पिल्लों को दरबार में उपस्थित करने का आदेश दिया। नौ व्यक्तियों ने हट्टे-कट्टे और स्वस्थ पिल्ले पेश किए। जब पहले पिल्ले की पूँछ से वजन हटाया गया तो वह एकदम टेढ़ी होकर ऊपर उठ गई। दूसरी की दुम जब नली में से निकाली गई वह भी उसी समय टेढ़ी हो गई। शेष सातों पिल्लों की पूँछे भी टेढ़ी ही थीं।
तेनालीराम ने अपने अधमरा-सा पिल्ला राजा के सामने कर दिया। उसके सारे अंग ढलक रहे थे। तेनालीराम बोला, ‘महाराज, मैंने कुत्ते की दुम सीधी कर दी है।’ ‘दुष्ट कहीं के!’ राजा ने कहा, ‘बेचारे निरीह पशु पर तुम्हें दया भी नहीं आई? तुमने तो इसे भूखा ही मार डाला। इसमें तो पूँछ हिलाने जितनी शक्ति भी नहीं है।’
‘महाराज, अगर आपने कहा होता कि इसे अच्छी तरह खिलाया-पिलाया जाए तो मैं कोई कसर नहीं छोड़ता। पर आपका आदेश तो इसकी पूँछ को स्वभाव के विरुद्ध सीधा करने का था, जो इसे भूखा रखने से ही पूरा हो सकता था। बिल्कुल ऐसे ही मनुष्य का स्वभाव भी असल में बदलता नहीं है। हाँ, आप उसे काल कोठरी में बंद करके, उसे भूखा रखकर उसका स्वभाव मुर्दा बना सकते हैं।’
कंजूस सेठ
राजा कृष्णदेव राय के राज्य में एक कंजूस सेठ रहता था। उसके पास धन की कोई कमी न थी, पर एक पैसा भी जेब से निकालते समय उसकी नानी मर जाती थी। एक बार उसके कुछ मित्रों ने हँसी-हँसी में एक कलाकार से अपना चित्र बनवाने के लिए उसे राजी कर लिया, उसके सामने वह मान तो गया, पर जब चित्रकार उसका चित्र बनाकर लाया, तो सेठ की हिम्मत न पड़ी कि चित्र के मूल्य के रूप में चित्रकार को सौ स्वर्णमुद्राएँ दे दे।
यों वह सेठ भी एक तरह का कलाकार ही था। चित्रकार को आया देखकर सेठ अंदर गया और कुछ ही क्षणों में अपना चेहरा बदलकर बाहर आया। उसने चित्रकार से कहा, ‘तुम्हारा चित्र जरा भी ठीक नहीं बन पड़ा। तुम्हीं बताओ, क्या यह चेहरा मेरे चेहरे से जरा भी मिलता है?’ चित्रकार ने देखा, सचमुच चित्र सेठ के चेहरे से जरा भी नहीं मिलता था।
तभी सेठ बोला, ‘जब तुम ऐसा चित्र बनाकर लाओगे, जो ठीक मेरी शक्ल से मिलेगा, तभी मैं उसे खरीदूँगा।’ दूसरे दिन चित्रकार एक और चित्र बनाकर लाया, जो हूबहू सेठ के उस चेहरे से मिलता था, जो सेठ ने पहले दिन बना रखा था। इस बार फिर सेठ ने अपना चेहरा बदल लिया और चित्रकार के चित्र में कमी निकालने लगा। चित्रकार बड़ा लज्जित हुआ। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस तरह की गलती उसके चित्र में क्यों होती है?
अगले दिन वह फिर एक नया चित्र बनाकर ले गया, पर उसके साथ फिर वही हुआ। अब तक उसकी समझ में सेठ की चाल आ चुकी थी। वह जानता था कि यह मक्खीचूस सेठ असल में पैसे नहीं देना चाहता, पर चित्रकार अपनी कई दिनों की मेहनत भी बेकार नहीं जाने देना चाहता था। बहुत सोच-विचारकर चित्रकार तेनालीराम के पास पहुँचा और अपनी समस्या उनसे कह सुनाई। कुछ समय सोचने के बाद तेनालीराम ने कहा-‘कल तुम उसके पास एक शीशा लेकर जाओ और कहो कि आपकी बिलकुल असली तस्वीर लेकर आया हूँ। अच्छी तरह मिलाकर देख लीजिए। कहीं कोई अंतर आपको नहीं मिलेगा। बस, फिर अपना काम हुआ ही समझो।’ अगले दिन चित्रकार ने ऐसा ही किया।
वह शीशा लेकर सेठ के यहाँ पहुँचा और उसके सामने रख दिया। ‘लीजिए, सेठ जी, आपका बिलकुल सही चित्र। गलती की इसमें जरा भी गुंजाइश नहीं है।’ चित्रकार ने अपनी मुस्कराहट पर काबू पाते हुए कहा। ‘लेकिन यह तो शीशा है।’सेठ ने झुँझलाते हुए कहा। ‘आपकी असली सूरत शीशे के अलावा बना भी कौन सकता है? जल्दी से मेरे चित्रों का मूल्य एक हजार स्वर्णमुद्राएँ निकालिए।’ चित्रकार बोला। सेठ समझ गया कि यह सब तेनालीराम की सूझबूझ का परिणाम है। उसने तुरंत एक हजार स्वर्णमुद्राएँ चित्रकार को दे दीं। तेनालीराम ने जब यह घटना महाराज कृष्णदेव राय को बताई तो वह खूब हँसे।
चोटी की कीमत
एक दिन बातों-बातों में राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से पूछा, ‘अच्छा, यह बताओ कि किस प्रकार के लोग सबसे अधिक मूर्ख होते हैं और किस प्रकार के सबसे अधिक सयाने?’तेनालीराम ने तुरंत उत्तर दिया, ‘महाराज! ब्राह्मण सबसे अधिक मूर्ख और व्यापारी सबसे अधिक सयाने होते हैं।’ ‘ऐसा कैसे हो सकता है?’राजा ने कहा।‘मैं यह बात साबित कर सकता हूँ’, तेनालीराम ने कहा। ‘कैसे?’राजा ने पूछा।’
‘अभी जान जाएँगे आप। जरा,राजगुरु को बुलवाइए।’राजगुरु को बुलवाया गया। तेनालीराम ने कहा,‘महाराज, अब मैं अपनी बात साबित करूँगा, लेकिन इस काम में आप दखल नहीं देंगे। आप यह वचन दें, तभी मैं काम आरंभ करूँगा।’ राजा ने तेनालीराम की बात मान ली। तेनालीराम ने आदरपूर्वक राजगुरु से कहा,‘राजगुरु जी,महाराज को आपकी चोटी की आवश्यकता है। इसके बदले आपको मुँहमांगा इनाम दिया जाएगा।’
राजगुरु को काटो तो खून नहीं। वर्षों से पाली गई प्यारी चोटी को कैसे कटवा दें? लेकिन राजा की आज्ञा कैसे टाली जा सकती थी। उसने कहा, ‘तेनालीराम जी, मैं इसे कैसे दे सकता हूँ।’‘राजगुरु जी, आपने जीवन-भर महाराज का नमक खाया है। चोटी कोई ऐसी वस्तु तो है नहीं, जो फिर न आ सके। फिर महाराज मुँहमाँगा इनाम भी दे रहे हैं।...’
राजगुरु मन ही मन समझ गया कि यह तेनालीराम की चाल है। तेनालीराम ने पूछा,‘राजगुरु जी, आपको चोटी के बदले क्या इनाम चाहिए?’ राजगुरु ने कहा, ‘पाँच स्वर्णमुद्राएँ बहुत होंगी।’पाँच स्वर्णमुद्राएँ राजगुरु को दे दी गई और नाई को बुलावाकर राजगुरु की चोटी कटवा दी गई। अब तेनालीराम ने नगर के सबसे प्रसिद्ध व्यापारी को बुलवाया। तेनालीराम ने व्यापारी से कहा, ‘महाराज को तुम्हारी चोटी की आवश्यकता है।’ ‘सब कुछ महाराज का ही तो है, जब चाहें ले लें, लेकिन बस इतना ध्यान रखें कि मैं एक गरीब आदमी हूँ।’ व्यापारी ने कहा। ‘तुम्हें तुम्हारी चोटी का मुँहमाँगा दाम दिया जाएगा।’ तेनालीराम ने कहा। ‘सब आपकी कृपा है लेकिन...।’व्यापारी ने कहा। ‘क्या कहना चाहते हो तुम।’-तेनालीराम ने पूछा। ‘जी बात यह है कि जब मैंने अपनी बेटी का विवाह किया था, तो अपनी चोटी की लाज रखने के लिए मैंने पूरी पाँच हजार स्वर्णमुद्राएँ खर्च की थीं। पिछले साल मेरे पिता की मौत हुई। तब भी इसी कारण पाँच हजार स्वर्णमुद्राओं का खर्च हुआ और अपनी इसी प्यारी-दुलारी चोटी के कारण बाजार से कम-से-कम पाँच हजार स्वर्णमुद्राओं का उधार मिल जाता है।’ अपनी चोटी पर हाथ फेरते हुए व्यापारी ने कहा।
‘इस तरह तुम्हारी चोटी का मूल्य पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ हुआ। ठीक है,यह मूल्य तुम्हें दे दिया जाएगा।’ पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ व्यापारी को दे दी गईं। व्यापारी चोटी मुँड़वाने बैठा। जैसे ही नाई ने चोटी पर उस्तरा रखा,व्यापारी कड़ककर बोला, ‘सँभलकर, नाई के बच्चे। जानता नहीं, यह महाराज कृष्णदेव राय की चोटी है।’ राजा ने सुना तो आगबबूला हो गया। इस व्यापारी की यह मजाल कि हमारा अपमान करे? उन्होंने कहा, ‘धक्के मारकर निकाल दो इस सिरफिरे को।’ व्यापारी पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राओं की थैली को लेकर वहाँ से भाग निकला। कुछ देर बाद तेनालीराम ने कहा, ‘आपने देखा महाराज, राजगुरु ने तो पाँच स्वर्णमुद्राएँ लेकर अपनी चोटी मुँड़वा ली। व्यापारी पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ भी ले गया और चोटी भी बचा ली। आप ही कहिए, ब्राह्मण सयाना हुआ कि व्यापारी?’राजा ने कहा, ‘सचमुच तुम्हारी बात ठीक निकली।’
तेनालीराम और महाराज का आतिथ्य
महाराज का आतिथ्य
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय जहाँ कहीं भी जाते, जब भी जाते, अपने साथ हमेशा तेनालीराम को जरूर ले जाते थे। इस बात से अन्य दरबारियों को बड़ी चिढ़ होती थी।
एक दिन तीन-चार दरबारियों ने मिलकर एकांत में महाराज से प्रार्थना की, ‘महाराज, कभी अपने साथ किसी अन्य व्यक्ति को भी बाहर चलने का अवसर दें।’ राजा को यह बात उचित लगी। उन्होंने उन दरबारियों को विश्वास दिलाया कि वे भविष्य में अन्य दरबारियों को भी अपने साथ घूमने-फिरने का अवसर अवश्य देंगे।
एक बार जब राजा कृष्णदेव राय वेष बदलकर कुछ गाँवों के भ्रमण को जाने लगे तो अपने साथ उन्होंने इस बार तेनालीराम को नहीं लिया बल्कि उसकी जगह दो अन्य दरबारियों को साथ ले लिया। घूमते-घूमते वे एक गाँव के खेतों में पहुँच गए। खेत से हटकर एक झोपड़ी थी, जहाँ कुछ किसान बैठे गपशप कर रहे थे।
राजा और अन्य लोग उन किसानों के पास पहुँचे और उनसे पानी माँगकर पिया। फिर राजा ने किसानों से पूछा, ‘कहो भाई लोगों, तुम्हारे गाँव में कोई व्यक्ति कष्ट में तो नहीं है? अपने राजा से कोई असंतुष्ट तो नहीं है?’
इन प्रश्नों को सुनकर गाँववालों को लगा कि वे लोग अवश्य ही राज्य के कोई अधिकारीगण हैं। वे बोले, ‘महाशय, हमारे गाँव में खूब शांति है, चैन है। सब लोग सुखी हैं। दिन-भर कडी़ मेहनत करके अपना काम-काज करते हैं और रात को सुख की नींद सोते हैं। किसी को कोई दुख नहीं है। राजा कृष्णदेव राय अपनी प्रजा को अपनी संतान की तरह प्यार करते हैं, इसलिए राजा से असंतुष्ट होने का सवाल ही नहीं पैदा होता।’
‘इस गाँव के लोग राजा को कैसा समझते हैं?’ राजा ने एक और प्रश्न किया।
राजा के इस सवाल पर एक बूढ़ा किसान उठा और ईख के खेत में से एक मोटा-सा गन्ना तोड़ लाया। उस गन्ने को राजा को दिखाता हुआ वह बूढ़ा किसान बोला, ‘श्रीमान जी, हमारे राजा कृष्णदेव राय बिल्कुल इस गन्ने जैसे हैं।’ अपनी तुलना एक गन्ने से होती देख राजा कृष्णदेव राय सकपका गए। उनकी समझ में यह बात बिल्कुल भी न आई कि इस बूढ़े किसान की बात का अर्थ क्या है?
उनकी यह भी समझ में न आया कि इस गाँव के रहने वाले अपने राजा के प्रति क्या विचार रखते हैं? राजा कृष्णदेव राय के साथ जो अन्य साथी थे, राजा ने उन साथियों से पूछा, ‘इस बूढ़े किसान के कहने का क्या अर्थ है?’ साथी राजा का यह सवाल सुनकर एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
फिर एक साथी ने हिम्मत की और बोला, ‘महाराज, इस बूढ़े किसान के कहने का साफ मतलब यही है कि हमारे राजा इस मोटे गन्ने की तरह कमजोर हैं। उसे जब भी कोई चाहे, एक झटके में उखाड़ सकता है। जैसे कि मैंने यह गन्ना उखाड़ लिया है।’
राजा ने अपने साथी की इस बात पर विचार किया तो राजा को यह बात सही मालूम हुई। वह गुस्से से भर गए और इस बूढ़े किसान से बोले, ‘तुम शायद मुझे नहीं जानते कि मैं कौन हूँ?’
राजा की क्रोध से भरी वाणी सुनकर वह बूढ़ा किसान डर के मारे थर-थर काँपने लगा। तभी झोंपड़ी में से एक अन्य बूढ़ा उठ खड़ा हुआ और बड़े नम्र स्वर में बोला-‘महाराज, हम आपको अच्छी तरह जान गए हैं, पहचान गए हैं, लेकिन हमें दुख इस बात का है कि आपके साथी ही आपके असली रूप को नहीं जानते। मेरे साथी किसान के कहने का मतलब यह है कि हमारे महाराज अपनी प्रजा के लिए तो गन्ने के समान कोमल और रसीले हैं किंतु दुष्टों और अपने दुश्मनों के लिए महानतम कठोर भी।’ उस बूढ़े ने एक कुत्ते पर गन्ने का प्रहार करते हुए अपनी बात पूरी की।
इतना कहने के साथ ही उस बूढ़े ने अपना लबादा उतार फेंका और अपनी नकली दाढ़ी-मूँछें उतारने लगा। उसे देखते ही राजा चौंक पड़े। ‘हैं-हैं तेनालीराम, तुमने यहाँ भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा।’ ‘तुम लोगों का पीछा कैसे छोड़ता भाई? अगर मैं पीछा न करता तो तुम इन सरल हृदय किसानों को मौत के घाट ही उतरवा देते। महाराज के दिल में क्रोध का ज्वार पैदा करते, सो अलग।’ ‘तुम ठीक ही कह रहे हो, तेनालीराम। मूर्खों का साथ हमेशा दुखदायी होता है। भविष्य में मैं कभी तुम्हारे अलावा किसी और को साथ नहीं रखा करूँगा।’
उन सबकी आपस की बातचीत से गाँववालों को पता चल ही गया था कि उनकी झोंपड़ी पर स्वयं महाराज पधारे हैं और भेष बदलकर पहले से उनके बीच बैठा हुआ आदमी ही तेनालीराम है तो वे उनके स्वागत के लिए दौड़ पड़े। कोई चारपाई उठवाकर लाया तो कोई गन्ने का ताजा रस निकालकर ले आया।
गाँववालों ने बड़े ही मन से अपने मेहमानों का स्वागत किया। उनकी आवभगत की। राजा कृष्णदेव राय उन ग्रामवासियों का प्यार देखकर आत्मविभोर हो गए। तेनालीराम की चोट से आहत हुए दरबारी मुँह लटकाए हुए जमीन कुरेदते रहे। तेनालीराम एक ओर बैठा मंद-मंद मुस्करा रहा था।
तेनालीराम और उपहार
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक दिन पड़ोसी देश का दूत आया। यह राजा कृष्णदेव राय के लिए अनेक उपहार भी लाया था। विजयनगर के राजदरबारियों ने दूत का खूब स्वागत-सत्कार किया। तीसरे दिन जब दूत अपने देश जाने लगा तो राजा कृष्णदेव राय ने भी अपने पड़ोसी देश के राजा के लिए कुछ बहुमूल्य उपहार दिए।
राजा कृष्णदेव राय उस दूत को भी उपहार देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने दूत से कहा-‘हम तुम्हें भी कुछ उपहार देना चाहते हैं। सोना-चाँदी, हीरे,रत्न, जो भी तुम्हारी इच्छा हो, माँग लो।’ ‘महाराज, मुझे यह सब कुछ नहीं चाहिए। यदि देना चाहते हैं तो कुछ और दीजिए।’ दूत बोला। ‘महाराज, मुझे ऐसा उपहार दीजिए, जो सुख में दुख, में सदा मेरे साथ रहे और जिसे मुझसे कोई छीन न पाए।’ यह सुनकर राजा कृष्णदेव राय चकरा गए।
उन्होंने उत्सुक नजरों से दरबारियों की ओर देखा। सबके चेहरों पर परेशानी के भाव दिखाई दे रहे थे। किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कौन-सा उपहार हो सकता है। तभी राजा कृष्णदेव राय को तेनालीराम की याद आई। वह दरबार में ही मौजूद था। राजा ने तेनालीराम को संबोधित करते हुए पूछा-‘क्या तुम ला सकते हो ऐसा उपहार जैसा दूत ने माँगा है?’ ‘अवश्य महाराज, दोपहर को जब यह महाशय यहाँ से प्रस्थान करेंगे, वह उपहार इनके साथ ही होगा।’ नियत समय पर दूत अपने देश को जाने के लिए तैयार हुआ। सारे उपहार उसके रथ में रखवा दिए गए।
जब राजा कृष्णदेव राय उसे विदा करने लगे तो दूत बोला-‘महाराज, मुझे वह उपहार तो मिला ही नहीं, जिसका आपने मुझसे वायदा किया था।’ राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा और बोले-‘तेनालीराम, तुम लाए नहीं वह उपहार?’ इस पर तेनालीराम हँसकर बोला, ‘महाराज, वह उपहार तो इस समय भी इनके साथ ही है। लेकिन यह उसे देख नहीं पा रहे हैं। इनसे कहिए कि जरा पीछे पलटकर देखें।’
दूत ने पीछे मुड़कर देखा, मगर उसे कुछ भी नजर न आया। वह बोला-‘कहाँ है वह उपहार? मुझे तो नहीं दिखाई दे रहा।’ तेनालीराम मुस्कुराए और बोले-‘जरा ध्यान से देखिए दूत महाशय, वह उपहार आपके पीछे ही है-आपका साया अर्थात आपकी परछाई। सुख में, दुख में, जीवन-भर यह आपके साथ रहेगा और इसे कोई भी आपसे नहीं छीन सकेगा।’ यह बात सुनते ही राजा कृष्णदेव राय की हँसी छूट गई। दूत भी मुस्कुरा पड़ा और बोला-‘महाराज, मैंने तेनालीराम की बुद्धिमता की काफी तारीफ सुनी थीं, आज प्रमाण भी मिल गया।’ तेनालीराम मुस्कराकर रह गया।
तेनालीराम ने बनाया बोलने वाला बुत
दशहरे का त्यौहार निकट था। राजा कृष्णदेव राय के दरबारियों ने भी जब दशहरा मनाने की बात उठाई तो राजा कृष्णदेव राय बोले, ‘मेरी हार्दिक इच्छा है कि इस बार दशहरा खूब धूमधाम से मनाया जाए। मैं चाहता हूँ कि इस अवसर पर सभी दरबारी, मंत्रीगण, सेनापति और पुरोहित अपनी-अपनी झाँकियाँ सजाएँ। जिसकी झाँकी सबसे अच्छी होगी, हम उसे पुरस्कार देंगे।’
यह सुनकर सभी दूसरे दिन से ही झाँकियाँ बनाने में जुट गए। सभी एक से एक बढ़कर झाँकी बनाने की होड़ में लगे थे। झाँकियाँ एक से बढ़कर एक थीं। राजा को सभी की झाँकियाँ नजर आईं मगर तेनालीराम की झाँकी उन्हें कहीं दिखाई नहीं दी।
वह सोच में पड़ गए और फिर उन्होंने अपने दरबारियों से पूछा, ‘तेनालीराम कहीं नजर नहीं आ रहा है। उसकी झाँकी भी दिखाई नहीं दे रही है। आखिर तेनालीराम है कहाँ?’
‘महाराज, तेनालीराम को झाँकी बनानी आती ही कहाँ है? वह देखिए, उधर उस टीले पर काले रंग से रंगी एक झोंपड़ी और उसके आगे खड़ा है एक बदसूरत बुत। यही है उसकी झाँकी तेनालीराम की झाँकी।’ मंत्री ने व्यंग्यपू्र्ण स्वर में कहा।
राजा उस ऊँचे टीले पर गए और तेनालीराम से पूछा, ‘तेनालीराम, यह तुमने क्या बनाया है? क्या यही है तुम्हारी झाँकी?’ ‘जी महाराज, यही मेरी झाँकी है और मैंने यह क्या बनाया है इसका उत्तर मैं इसी से पूछकर बताता हूँ, कौन है यह?’ कहते हुए तेनालीराम ने बुत से पूछा, ‘बोलता क्यों नहीं? महाराज के सवाल का उत्तर दें।’
‘मैं उस पापी रावण की छाया हूँ जिसके मरने की खुशी में तुम दशहरे का त्यौहार मना रहे हो। मगर मैं मरा नहीं। एक बार मरा, फिर पैदा हो गया। आज जो आप अपने आसपास भुखमरी, गरीबी, अत्याचार, उत्पीड़न आदि देख रहे हैं न...। ये सब मेरा ही किया-धरा है। अब मुझे मारने वाला है ही कौन?’ कहकर बुत ने एक जोरदार कहकहा लगाया।
राजा कृष्णदेव राय को उसकी बात सुनकर क्रोध आ गया। वे गुस्से में भरकर बोले, ‘मैं अभी अपनी तलवार से इस बुत के टुकड़े-टुकड़े कर देता हूँ।’ ‘बुत के टुकड़े कर देने से क्या मैं मर जाऊँगा? क्या बुत के नष्ट हो जाने से प्रजा के दुख दूर हो जाएँगे?’ इतना कहकर बुत के अंदर से एक आदमी बाहर आया और बोला, ‘महाराज, क्षमा करें। यह सच्चाई नहीं, झांकी का नाटक था।’
‘नहीं, यह नाटक नहीं था, सत्य था। यही सच्ची झाँकी है। मुझे मेरे कर्तव्य की याद दिलाने वाली यह झाँकी सबसे अच्छी है। प्रथम पुरस्कार तेनालीराम को दिया जाता है।’राजा कृष्णदेव राय ने कहा। राजा की इस बात पर सभी दरबारी आश्चर्य से एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे।
तेनालीराम बने ‘महामूर्ख’
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय होली का त्योहार बड़ी धूम-धाम से मनाते थे। इस अवसर पर हास्य-मनोरंजन के कई कार्यक्रम होते थे। हर कार्यक्रम के सफल कलाकार को पुरस्कार भी दिया जाता था। सबसे बड़ा पुरस्कार ‘महामूर्ख’ की उपाधि पाने वाले को दिया जाता था।
कृष्णदेव राय के दरबार में तेनालीराम सब का मनोरंजन करते थे। वह बहुत तेज दिमाग के थे। उन्हें हर साल का सर्वश्रेष्ठ हास्य-कलाकर का पुरस्कार तो मिलता ही था, ‘महामूर्ख’ का खिताब भी हर साल वही जीत ले जाते। दरबारी इस कारण से उनसे जलते थे। उन्होंने एक बार मिलकर तेनालीराम को हराने की युक्ति निकाली।
इस बार होली के दिन उन्होंने तेनालीराम को खूब छककर भंग पिलवा दी। होली के दिन तेनालीराम भंग के नशे में देर तक सोते रहे। उनकी नींद खुली तो उन्होंने देखा दोपहर हो रही थी। वह भागते हुए दरबार पहुंचे। आधे कार्यक्रम खत्म हो चुके थे।
कृष्णदेव राय उन्हें देखते ही डपटकर पूछ बैठे, “अरे मूर्ख तेनालीराम जी, आज के दिन भी भंग पीकर सो गए?”
राजा ने तेनालीराम को मूर्ख कहा, यह सुनकर सारे दरबारी खुश हो गए। उन्होंने भी राजा की हां में हां मिलाई और कहा, “आपने बिल्कुल ठीक कहा, तेनालीराम मूर्ख ही नहीं महामूर्ख है।”
जब तेनालीराम ने सब के मुंह से यह बात सुनी तो वे मुस्कराते हुए राजा से बोले, “धन्यवाद महाराज, आपने अपने मुंह से मुझे महामूर्ख घोषित कर आज के दिन का सबसे बड़ा पुरस्कार दे दिया।”
तेनालीराम की यह बात सुनकर दरबारियों को अपनी भूल का पता चल गया, पर अब वे कर भी क्या सकते थे? क्योंकि वे खुद ही अपने मुंह से तेनालीराम को महामूर्ख ठहरा चुके थे। हर साल की तरह इस साल भी तेनालीराम ‘महामूर्ख’ का पुरस्कार जीत ले गए।
दरबार में ठंडी बयार
गर्मी का मौसम था। राजा कृष्णदेव राय के महल में भी काफी गर्मी थी। दरबारी भी बहुत परेशान थे। जब उनकी सहनशीलता जवाब दे गई तो उन्होंने दरबार में भी, सवेरे की ठंडी हवा लाने की इच्छा जाहिर की।
दरबारियों की यह बात सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने उनसे पूछा, “आप में से जो कोई दरबार में ठंडी हवा ला देंगे उन्हें पुरस्कार मिलेगा।”
राजा की बात सुनकर सभी दरबारी चुप गए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि दरबार में ठंडी हवा लाई कैसे लाई जाए।
दूसरे दिन जब सभी दरबारी, दरबार में आए तो राजा ने उनसे कल के काम के बारे में पूछा। सभी दरबारियों का चेहरा उतरा हुआ था। तभी तेनाली राम ने कहा कि वह दरबार में ठंडी बयार लाने की व्यवस्था कर देगा।
तेनालीराम की जवाब सुनकर सभी दरबारी हैरान रह गए। राजा की आज्ञा होने पर, तेनाली राम ने बाहर खड़े लोगों को बुलवाया। सभी के हाथ में खसखस के भींगे हुए पंखे थे। तेनाली राम का इशारा पाते ही सभी खसखस के पंखों से दरबार में हवा झेलने लगे। थोड़ी ही देर में सारा दरबार ठंडी हवा और खुशबू से महक उठा।
राजा और दरबारी बड़े प्रसन्न हुए। राजा मन ही मन तेनाली राम की बुद्धिमत्ता से बड़े प्रभावित हुए। महाराज ने तेनाली राम को पुरस्कार में एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दीं। सभी दरबारी इस बार भी देखते रह गए।
तेनालीराम ने चोरी पकड़ी
एक बार राजा कृष्णदेव राय के राज्य विजयनगर में लगातार चोरी होनी शुरू हुई। सेठों ने आकर राजा के दरबार में दुहाई दी, “महाराज हम लुट गए बरबाद हो गए। रात को ताला तोड़कर चोर हमारी तिजोरी का सारा धन उड़ा ले गए।”
राजा कृष्णदेव राय ने इन घटनाओं की जांच कोतवाल से करवाई, पर कुछ भी हाथ नहीं लगा। वह बहुत चिंतित हुए। चोरी की घटनाएं होती रही। चोरों की हिम्मत बढ़ती जा रही थी।
अंत में राजा ने दरबारियों को लताड़ते हुए कहा, “क्या आप में से कोई भी ऐसा नहीं जो चोरों को पकड़वाने की जिम्मेदारी ले सके?” सारे दरबारी एक दूसरे का मुंह देखने लगे। तेनालीराम ने उठ कर कहा, “महाराज यह जिम्मेदारी मैं लूंगा।”
वहां से उठकर तेनालीराम नगर के एक प्रमुख जौहरी के यहां गया। उसने अपनी योजना उसे बताई और घर लौट गया। उस जौहरी ने अगले दिन अपने यहां आभूषणों की एक बड़ी प्रदर्शनी लगवाई। रात होने पर उसने सारे आभूषणों को एक तिजोरी में रख कर ताला लगा दिया।
आधी रात को चोर आ धमके। ताला तोड़कर तिजोरी में रखे सारे आभूषण थैले में डालकर वे बाहर आए। जैसे ही वे सेठ की हवेली से बाहर जाने लगे सेठ को पता चल गया, उसने शोर मचा दिया।
आस-पास के लोग भी आ जुटे। तेनालीराम भी अपने सिपाहियों के साथ वहां आ धमके और बोले, “जिनके हाथों में रंग लगा हुआ है, उन्हें पकड़ लो।” जल्द ही सारे चोर पकड़े गए। अगले दिन चोरों को दरबार में पेश किया गया। सभी के हाथों पर लगे रंग देखकर राजा ने पूछा, “तेनालीराम जी यह क्या है?”
“महाराज हमने तिजोरी पर गीला रंग लगा दिया था, ताकि चोरी के इरादे से आए चोरों के शरीर पर रंग चढ़ जाए और हम उन्हें आसानी से पकड़ सकें।”
राजा ने पूछा, “पर आप वहां सिपाहियों को तैनात कर सकते थे।”
“महाराज इसमें उनके चोरों से मिल जाने की सम्भावना थी।”
राजा कृष्णदेव राय ने तेनाली राम की खूब प्रशंसा की।
तेनालीराम के पाप का प्रायश्चित
पाप का प्रायश्चित
तेनाली राम ने जिस कुत्ते की दुम सीधी कर दी थी, वह बेचारा कमजोरी की वजह से एक-दो दिन में मर गया। उसके बाद अचानक तेनाली राम को जोरों का बुखार आ गया।
एक पंडित ने घोषणा कर दी कि तेनाली राम को अपने पाप का प्रायश्चित करना पड़ेगा नहीं तो उन्हें इस रोग से छुटकारा नहीं मिल पाएगा।
तेनाली राम ने पंडित से इस पूजा में आने वाले खर्च के बारे में पूछा। पंडित जी ने उन्हें सौ स्वर्ण मुद्राओं का खर्च बताया।
“लेकिन इतनी स्वर्ण मुद्राएं मैं कहां से लाऊंगा?”, तेनाली राम ने पंडित जी से पूछा।
पंडित जी ने कहा, “तुम्हारे पास जो घोड़ा है, उसे बेचने से जो रकम मिले वह तुम मुझे दे देना।”
तेनाली राम ने शर्त स्वीकार कर ली। पंडित जी ने पूजा पाठ करके तेनाली राम के ठीक होने की प्रार्थना की। कुछ दिनों में तेनाली राम बिल्कुल स्वस्थ हो गए।
लेकिन वह जानते था कि वह प्रार्थना के असर से ठीक नहीं हुए हैं, बल्कि दवा के असर से ठीक हुए हैं।
तेनाली राम पंडित जी को साथ लेकर बाजार गए। उनके एक हाथ में घोड़े की लगाम थी और दूसरे में एक टोकरी।
उन्होंने बाजार में घोड़े की कीमत एक आना बताई और कहा, “जो भी इस घोड़े को खरीदना चाहता है, उसे यह टोकरी भी लेनी पड़ेगी, जिसका मूल्य है एक सौ स्वर्ण मुद्राएं।”
इस कीमत पर वे दोनों चीजें एक आदमी ने झट से खरीद लीं। तेनाली राम ने पंडित जी की हथेली पर एक आना रख दिया, जो घोड़े की कीमत के रूप में उसे मिला था। एक सौ स्वर्ण मुद्राएं उन्होंने अपनी जेब में डाल ली और चलते बने।
पंडित जी कभी अपनी हथेली पर पड़े सिक्के को तो कभी जाते हुए तेनाली राम को देख रहे थे।
तेनालीराम और स्वप्न महल
एक रात राजा कृष्णदेव राय ने सपने में एक बहुत ही सुंदर महल देखा, जो अधर में लटक रहा था। उसके अंदर के कमरे रंग-बिरंगे पत्थर से बने थे। उसमें रोशनी के लिए दीपक या मशालों की जरूरत नहीं थी। बस जब मन में सोचा, अपने आप प्रकाश हो जाता था और जब चाहे अँधेरा।
उस महल में सुख और ऐश्वर्य के अनोखे सामान भी मौजूद थे। धरती से महल में पहुँचने के लिए बस इच्छा करना ही आवश्यक था। आँखें बंद करो और महल के अंदर। दूसरे दिन राजा ने अपने राज्य में घोषणा करवा दी कि जो भी ऐसा महल राजा को बनाकर देगा, उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का पुरस्कार दिया जाएगा।
सारे राज्य में राजा के सपने की चर्चा होने लगी। सभी सोचते कि राजा कृष्णदेव राय को न जाने क्या हो गया है। कभी सपने भी सच होते हैं? पर राजा से यह बात कौन कहे?
राजा ने अपने राज्य के सभी कारीगरों को बुलवाया। सबको उन्होंने अपना सपना सुना दिया। कुशल व अनुभवी कारीगरों ने राजा को बहुत समझाया कि महाराज, यह तो कल्पना की बातें हैं। इस तरह का महल नहीं बनाया जा सकता। लेकिन राजा के सिर पर तो वह सपना भूत की तरह सवार था।
कुछ धूर्तों ने इस बात का लाभ उठाया। उन्होंने राजा से इस तरह का महल बना देने का वादा करके काफी धन लूटा। इधर सभी मंत्री बेहद परेशान थे। राजा को समझाना कोई आसान काम नहीं था। अगर उनके मुँह पर सीधे-सीधे कहा जाता कि वह बेकार के सपने में उलझे हैं तो महाराज के क्रोधित हो जाने का भय था।
मंत्रियों ने आपस में सलाह की। अंत में फैसला किया गया कि इस समस्या को तेनालीराम के सिवा और कोई नहीं सुलझा सकता। तेनालीराम कुछ दिनों की छुट्टी लेकर नगर से बाहर कहीं चला गया। एक दिन एक बूढ़ा व्यक्ति राजा कृष्णदेव राय के दरबार में रोता-चिल्लाता हुआ आ पहुँचा।
राजा ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, ‘तुम्हें क्या कष्ट है? चिंता की कोई बात नहीं। अब तुम राजा कृष्णदेव राय के दरबार में हो। तुम्हारे साथ पूरा न्याय किया जाएगा।’ ‘मैं लुट गया, महाराज। आपने मेरे सारे जीवन की कमाई हड़प ली। मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं, महाराज। आप ही बताइए, मैं कैसे उनका पेट भरूँ?’ वह व्यक्ति बोला।
‘क्या हमारे किसी कर्मचारी ने तुम पर अत्याचार किया है? हमें उसका नाम बताओ।’ राजा ने क्रोध में कहा। ‘नहीं, महाराज, मैं झूठ ही किसी कर्मचारी को क्यों बदनाम करूँ?’ बूढ़ा बोला। ‘तो फिर साफ क्यों नहीं कहते, यह सब क्या गोलमाल है? जल्दी बताओ, तुम चाहते क्या हो?’ ‘महाराज अभयदान पाऊँ तो कहूँ।’ ‘हम तुम्हें अभयदान देते हैं।’ राजा ने विश्वास दिलाया।
‘महाराज, कल रात मैंने सपने में देखा कि आप स्वयं अपने कई मंत्रियों और कर्मचारियों के साथ मेरे घर पधारे और मेरा संदूक उठवाकर आपने अपने खजाने में रखवा दिया। उस संदूक में मेरे सारे जीवन की कमाई थी। पाँच हजार स्वर्ण मुद्राएँ।’ उस बूढ़े व्यक्ति ने सिर झुकाकर कहा।
‘विचित्र मूर्ख हो तुम! कहीं सपने भी सच हुआ करते हैं?’ राजा ने क्रोधित होते हुए कहा। ‘ठीक कहा आपने, महाराज! सपने सच नहीं हुआ करते। सपना चाहे अधर में लटके अनोखे महल का ही क्यों न हो और चाहे उसे महाराज ने ही क्यों न देखा हो, सच नहीं हो सकता। ’
राजा कृष्णदेव राय हैरान होकर उस बूढ़े की ओर देख रहे थे। देखते-ही-देखते उस बूढ़े ने अपनी नकली दाढ़ी, मूँछ और पगड़ी उतार दी। राजा के सामने बूढ़े के स्थान पर तेनालीराम खड़ा था। इससे पहले कि राजा क्रोध में कुछ कहते, तेनालीराम ने कहा- ‘महाराज, आप मुझे अभयदान दे चुके हैं।’ महाराज हँस पड़े। उसके बाद उन्होंने अपने सपने के महल के बारे में कभी बात नहीं की।
तेनालीराम और तपस्या का सच
विजयनगर राज्य में बड़ी जोरदार ठंड पड़ रही थी। राजा कृष्णदेव राय के दरबार में इस ठंड की बहुत चर्चा हुई। पुरोहित ने महाराज को सुझाया। ‘महाराज, यदि इन दिनों यज्ञ किया जाए तो उसका फल उत्तम होगा। दूर-दूर तक उठता यज्ञ का धुआँ सारे वातावरण को स्वच्छ और पवित्र कर देगा।’
दरबारियों ने एक स्वर में कहा, ‘बहुत उत्तम सुझाव है पुरोहित जी का। महाराज को यह सुझाव अवश्य पसंद आया होगा।’ दरबारियों ने एक स्वर में कहा, ‘बहुत उत्तम सुझाव है पुरोहित जी का। महाराज को यह सुझाव अवश्य पसंद आया होगा।’ महाराज कृष्णदेव राय ने कहा-‘ठीक है। आप आवश्यकता के अनुसार हमारे कोष से धन प्राप्त कर सकते हैं।’
‘महाराज, यह महान यज्ञ सात दिन तक चलेगा। कम-से-कम एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तो खर्च हो ही जाएँगी।’ प्रतिदिन सवेरे सूर्योदय से पहले मैं नदी के ठंडे जल में खड़े होकर तपस्या करुँगा और देवी-देवताओं को प्रसन्न करुँगा। और अगले ही दिन से यज्ञ शुरू हो गया। इस यज्ञ में दूर-दूर से हजारों लोग आते और ढेरों प्रसाद बँटता है।
पुरोहित जी यज्ञ से पहले सुबह-सवेरे कड़कड़ाती ठंड में नदी के ठंडे जल में खड़े होकर तपस्या करते, देवी-देवताओं को प्रसन्न करते। लोग यह सब देखते और आश्चर्यचकित होते। एक दिन राजा कृष्णदेव राय भी सुबह-सवेरे पुरोहित जी को तपस्या करते देखने के लिए गए। उनके साथ तेनालीराम भी था।
ठंड इतनी थी कि दाँत किटकिटा रहे थे। ऐसे में पुरोहित जी को नदी के ठंडे पानी में खड़े होकर तपस्या करते देख राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से कहा, ‘आश्चर्य! अदभुत करिश्मा है! कितनी कठिन तपस्या कर रहे हैं हमारे पुरोहित जी। राज्य की भलाई की उन्हें कितनी चिंता है!’
‘वह तो है ही। आइए महाराज...जरा पास चलकर देखें पुरोहित जी की तपस्या को।’ तेनालीराम ने कहा। ‘लेकिन पुरोहित जी ने तो यह कहा है कि तपस्या करते समय कोई पास न आए। इससे उनकी तपस्या में विघ्न पैदा होगा।’ राजा ने कहा।
‘तो महाराज, हम दोनों ही कुछ देर तक उनकी प्रतीक्षा कर लें। जब पुरोहित जी तपस्या समाप्त करके ठंडे पानी से बाहर आएँ, तो फल-फूल देकर उनका सम्मान करें।’ राजा कृष्णदेव राय को तेनालीराम की यह बात जँच गई। वह एक ओर बैठकर पुरोहित को तपस्या करते देखते रहे।
काफी समय गुजर गया लेकिन पुरोहित जी ने ठंडे पानी से बाहर निकलने का नाम तक न लिया। तभी तेनालीराम बोल उठा- ‘अब समझ में आया। लगता है ठंड की वजह से पुरोहित जी का शरीर अकड़ गया है। इसीलिए शायद इन्हें पानी से बाहर आने में कष्ट हो रहा है। मैं इनकी सहायता करता हूँ।’
तेनालीराम नदी की ओर गया और पुरोहित जी का हाथ पकड़कर उन्हें बाहर खींच लाया। पुरोहित जी के पानी से बाहर आते ही राजा हैरान रह गए। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वे बोले, ‘अरे, पुरोहित जी की तपस्या का चमत्कार तो देखो! इनकी कमर से नीचे का सारा शरीर नीला हो गया।’
तेनालीराम हँसकर बोला, ‘यह कोई चमत्कार नहीं है, महाराज। यह देखिए...सर्दी से बचाव के लिए पुरोहित जी ने धोती के नीचे नीले रंग का जलरोधक पाजामा पहन रखा है।’ राजा कृष्णदेव राय हँस पड़े और तेनालीराम को साथ लेकर अपने महल की ओर चल दिए। पुरोहित दोनों को जाते हुए देखता रहा।
अपमान का बदला
तेनालीराम ने सुना था कि राजा कृष्णदेव राय बुद्धिमानों व गुणवानों का बड़ा आदर करते हैं। उसने सोचा, क्यों न उनके यहाँ जाकर भाग्य आजमाया जाए। लेकिन बिना किसी सिफारिश के राजा के पास जाना टेढ़ी खीर थी। वह किसी ऐसे अवसर की ताक में रहने लगा। जब उसकी भेंट किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से हो सके।
इसी बीच तेनालीराम का विवाह दूर के नाते की एक लड़की मगम्मा से हो गया। एक वर्ष बाद उसके घर बेटा हुआ। इन्हीं दिनों राजा कृष्णदेव राय का राजगुरु मंगलगिरि नामक स्थान गया। वहाँ जाकर रामलिंग ने उसकी बड़ी सेवा की और अपनी समस्या कह सुनाई।
राजगुरु बहुत चालाक था। उसने रामलिंग से खूब सेवा करवाई और लंबे-चौड़े वायदे करता रहा। रामलिंग अर्थात तेनालीराम ने उसकी बातों पर विश्वास कर लिया और राजगुरु को प्रसन्न रखने के लिए दिन-रात एक कर दिया। राजगुरु ऊपर से तो चिकनी-चुपड़ी बातें करता रहा, लेकिन मन-ही-मन तेनालीराम से जलने लगा।
उसने सोचा कि इतना बुद्धिमान और विद्वान व्यक्ति राजा के दरबार में आ गया तो उसकी अपनी कीमत गिर जाएगी। पर जाते समय उसने वायदा किया-‘जब भी मुझे लगा कि अवसर उचित है, मैं राजा से तुम्हारा परिचय करवाने के लिए बुलवा लूँगा।’ तेनालीराम राजगुरु के बुलावे की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगा, लेकिन बुलावा न आना था और न ही आया।
लोग उससे हँसकर पूछते, ‘क्यों भाई रामलिंग, जाने के लिए सामान बाँध लिया ना?’ कोई कहता, ‘मैंने सुना है कि तुम्हें विजयनगर जाने के लिए राजा ने विशेष दूत भेजा है।’ तेनालीराम उत्तर देता-‘समय आने पर सब कुछ होगा।’ लेकिन मन-ही-मन उसका विश्वास राजगुरु से उठ गया।
तेनालीराम ने बहुत दिन तक इस आशा में प्रतीक्षा की कि राजगुरु उसे विजयनगर बुलवा लेगा। अंत में निराश होकर उसने फैसला किया कि वह स्वयं ही विजयनगर जाएगा। उसने अपना घर और घर का सारा सामान बेचकर यात्रा का खर्च जुटाया और माँ, पत्नी तथा बच्चे को लेकर विजयनगर के लिए रवाना हो गया।
यात्रा में जहाँ कोई रुकावट आती, तेनालीराम राजगुरु का नाम ले देता, कहा, ‘मैं उनका शिष्य हूँ।’ उसने माँ से कहा, ‘देखा? जहाँ राजगुरु का नाम लिया, मुश्किल हल हो गई। व्यक्ति स्वयं चाहे जैसा भी हो, उसका नाम ऊँचा हो तो सारी बाधाएँ अपने आप दूर होने लगती हैं। मुझे भी अपना नाम बदलना ही पड़ेगा।
राजा कृष्णदेव राय के प्रति सम्मान जताने के लिए मुझे भी अपने नाम में उनके नाम का कृष्ण शब्द जोड़ लेना चाहिए। आज से मेरा नाम रामलिंग की जगह रामकृष्ण हुआ।’
‘बेटा, मेरे लिए तो दोनों नाम बराबर हैं। मैं तो अब भी तुझे राम पुकारती हूँ, आगे भी यही पुकारूँगी।’ माँ बोली।
कोडवीड़ नामक स्थान पर तेनालीराम की भेंट वहाँ के राज्य प्रमुख से हुई, जो विजयनगर के प्रधानमंत्री का संबंधी था। उसने बताया कि महाराज बहुत गुणवान, विद्वान और उदार हैं, लेकिन उन्हें कभी-कभी जब क्रोध आता है तो देखते ही देखते सिर धड़ से अलग कर दिए जाते हैं। ‘जब तक मनुष्य खतरा मोल न ले, वह सफल नहीं हो सकता। मैं अपना सिर बचा सकता हूँ।
तेनालीराम के स्वर में आत्मविश्वास था। राज्य प्रमुख ने उसे यह भी बताया कि प्रधानमंत्री भी गुणी व्यक्ति का आदर करते हैं, पर ऐसे लोगों के लिए उनके यहाँ स्थान नहीं है, जो अपनी सहायता आप नहीं कर सकते। चार महीने की लंबी यात्रा के बाद तेनालीराम अपने परिवार के साथ विजयनगर पहुँचा। वहाँ की चमक-दमक देखकर तो वह दंग ही रह गया।
अपमान का बदला
तेनालीराम ने सुना था कि राजा कृष्णदेव राय बुद्धिमानों व गुणवानों का बड़ा आदर करते हैं। उसने सोचा, क्यों न उनके यहाँ जाकर भाग्य आजमाया जाए। लेकिन बिना किसी सिफारिश के राजा के पास जाना टेढ़ी खीर थी। वह किसी ऐसे अवसर की ताक में रहने लगा। जब उसकी भेंट किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से हो सके।
इसी बीच तेनालीराम का विवाह दूर के नाते की एक लड़की मगम्मा से हो गया। एक वर्ष बाद उसके घर बेटा हुआ। इन्हीं दिनों राजा कृष्णदेव राय का राजगुरु मंगलगिरि नामक स्थान गया। वहाँ जाकर रामलिंग ने उसकी बड़ी सेवा की और अपनी समस्या कह सुनाई।
राजगुरु बहुत चालाक था। उसने रामलिंग से खूब सेवा करवाई और लंबे-चौड़े वायदे करता रहा। रामलिंग अर्थात तेनालीराम ने उसकी बातों पर विश्वास कर लिया और राजगुरु को प्रसन्न रखने के लिए दिन-रात एक कर दिया। राजगुरु ऊपर से तो चिकनी-चुपड़ी बातें करता रहा, लेकिन मन-ही-मन तेनालीराम से जलने लगा।
उसने सोचा कि इतना बुद्धिमान और विद्वान व्यक्ति राजा के दरबार में आ गया तो उसकी अपनी कीमत गिर जाएगी। पर जाते समय उसने वायदा किया-‘जब भी मुझे लगा कि अवसर उचित है, मैं राजा से तुम्हारा परिचय करवाने के लिए बुलवा लूँगा।’ तेनालीराम राजगुरु के बुलावे की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगा, लेकिन बुलावा न आना था और न ही आया।
लोग उससे हँसकर पूछते, ‘क्यों भाई रामलिंग, जाने के लिए सामान बाँध लिया ना?’ कोई कहता, ‘मैंने सुना है कि तुम्हें विजयनगर जाने के लिए राजा ने विशेष दूत भेजा है।’ तेनालीराम उत्तर देता-‘समय आने पर सब कुछ होगा।’ लेकिन मन-ही-मन उसका विश्वास राजगुरु से उठ गया।
तेनालीराम ने बहुत दिन तक इस आशा में प्रतीक्षा की कि राजगुरु उसे विजयनगर बुलवा लेगा। अंत में निराश होकर उसने फैसला किया कि वह स्वयं ही विजयनगर जाएगा। उसने अपना घर और घर का सारा सामान बेचकर यात्रा का खर्च जुटाया और माँ, पत्नी तथा बच्चे को लेकर विजयनगर के लिए रवाना हो गया।
यात्रा में जहाँ कोई रुकावट आती, तेनालीराम राजगुरु का नाम ले देता, कहा, ‘मैं उनका शिष्य हूँ।’ उसने माँ से कहा, ‘देखा? जहाँ राजगुरु का नाम लिया, मुश्किल हल हो गई। व्यक्ति स्वयं चाहे जैसा भी हो, उसका नाम ऊँचा हो तो सारी बाधाएँ अपने आप दूर होने लगती हैं। मुझे भी अपना नाम बदलना ही पड़ेगा।
राजा कृष्णदेव राय के प्रति सम्मान जताने के लिए मुझे भी अपने नाम में उनके नाम का कृष्ण शब्द जोड़ लेना चाहिए। आज से मेरा नाम रामलिंग की जगह रामकृष्ण हुआ।’
‘बेटा, मेरे लिए तो दोनों नाम बराबर हैं। मैं तो अब भी तुझे राम पुकारती हूँ, आगे भी यही पुकारूँगी।’ माँ बोली।
कोडवीड़ नामक स्थान पर तेनालीराम की भेंट वहाँ के राज्य प्रमुख से हुई, जो विजयनगर के प्रधानमंत्री का संबंधी था। उसने बताया कि महाराज बहुत गुणवान, विद्वान और उदार हैं, लेकिन उन्हें कभी-कभी जब क्रोध आता है तो देखते ही देखते सिर धड़ से अलग कर दिए जाते हैं। ‘जब तक मनुष्य खतरा मोल न ले, वह सफल नहीं हो सकता। मैं अपना सिर बचा सकता हूँ।
तेनालीराम के स्वर में आत्मविश्वास था। राज्य प्रमुख ने उसे यह भी बताया कि प्रधानमंत्री भी गुणी व्यक्ति का आदर करते हैं, पर ऐसे लोगों के लिए उनके यहाँ स्थान नहीं है, जो अपनी सहायता आप नहीं कर सकते। चार महीने की लंबी यात्रा के बाद तेनालीराम अपने परिवार के साथ विजयनगर पहुँचा। वहाँ की चमक-दमक देखकर तो वह दंग ही रह गया।
तेनालीराम और जाड़े की मिठाई
एक बार राजमहल में राजा कृष्णदेव राय के साथ तेनालीराम और राजपुरोहित बैठे थे। जाड़े के दिन थे। सुबह की धूप सेंकते हुए तीनों बातचीत में व्यस्त थे। तभी एकाएक राजा ने कहा-‘जाड़े का मौसम सबसे अच्छा मौसम होता है। खूब खाओ और सेहत बनाओ।’
खाने की बात सुनकर पुरोहित के मुँह में पानी आ गया। बोला-‘महाराज, जाड़े में तो मेवा और मिठाई खाने का अपना ही मजा है-अपना ही आनंद है।’ ‘अच्छा बताओ, जाड़े की सबसे अच्छी मिठाई कौन-सी है?’ राजा कृष्णदेव राय ने पूछा। पुरोहित ने हलवा, मालपुए, पिस्ते की बर्फी आदि कई मिठाइयाँ गिना दीं।
राजा कृष्णदेव राय ने सभी मिठाइयाँ मँगवाईं और पुरोहित से कहा-‘जरा खाकर बताइए, इनमें सबसे अच्छी कौन सी है?’ पुरोहित को सभी मिठाइयाँ अच्छी लगती थीं। किस मिठाई को सबसे अच्छा बताता।
तेनालीराम ने कहा, ‘सब अच्छी हैं, मगर वह मिठाई यहाँ नहीं मिलेगी।’ ‘कौन सी मिठाई?’ राजा कृष्णदेव राय ने उत्सुकता से पूछा- ‘और उस मिठाई का नाम क्या है?’ ‘नाम पूछकर क्या करेंगे महाराज। आप आज रात को मेरे साथ चलें, तो मैं वह मिठाई आपको खिलवा भी दूँगा।’
पढ़ें: तेनालीराम और जनता की अदालत
राजा कृष्णदेव राय मान गए। रात को साधारण वेश में वह पुरोहित और तेनालीराम के साथ चल पड़े। चलते-चलते तीनों काफी दूर निकल गए। एक जगह दो-तीन आदमी अलावा के सामने बैठे बातों में खोए हुए थे। ये तीनों भी वहाँ रुक गए। इस वेश में लोग राजा को पहचान भी न पाए। पास ही कोल्हू चल रहा था।
तेनालीराम उधर गए और कुछ पैसे देकर गरम-गरम गुड़ ले लिया। गुड़ लेकर वह पुरोहित और राजा के पास आ गए। अँधेरे में राजा और पुरोहित को थोड़ा-थोड़ा गरम-गरम गुड़ देकर बोले-‘लीजिए, खाइए, जाड़े की असली मिठाई।’ राजा ने गरम-गरम गुड़ खाया तो बड़ा स्वादिष्ट लगा।
राजा बोले, ‘वाह, इतनी बढ़िया मिठाई, यहाँ अँधेरे में कहाँ से आई?’ तभी तेनालीराम को एक कोने में पड़ी पत्तियाँ दिखाई दीं। वह अपनी जगह से उठा और कुछ पत्तियाँ इकट्ठी कर आग लगा दी। फिर बोला, ‘महाराज, यह गुड़ है।’
‘गुड़...और इतना स्वादिष्ट! ’ ‘महाराज, जाड़ों में असली स्वाद गरम चीज में रहता है। यह गुड़ गरम है, इसलिए स्वादिष्ट है।’ यह सुनकर राजा कृष्णदेव राय मुस्कुरा दिए। पुरोहित अब भी चुप था।
तेनालीराम और जनता की अदालत
एक दिन राजा कृष्णदेव राय शिकार के लिए गए। वह जंगल में भटक गए। दरबारी पीछे छूट गए। शाम होने को थी। उन्होंने घोड़ा एक पेड़ से बांधा। रात पास के एक गांव में बिताने का निश्चय किया। राहगीर के वेश में किसान के पास गए। कहा, “दूर से आया हूं। रात को आश्रय मिल सकता है?”
किसान बोला, “आओ, जो रूखा-सूखा हम खाते हैं, आप भी खाइएगा। मेरे पास एक पुराना कम्बल ही है, क्या उसमें जाड़े की रात काट सकेंगे?” राजा ने ‘हां’ में सिर हिलाया।
रात को राजा गांव में घूमे। भयानक गरीबी थी। उन्होंने पूछा, “दरबार में जाकर फरियाद क्यों नहीं करते?” कैसे जाएं? राजा तो चापलूसों से घिरे रहते हैं। कोई हमें दरबार में जाने ही नहीं देता।” किसान बोला।
सुबह राजधानी लौटते ही राजा ने मंत्री और दूसरे अधिकारियों को बुलाया। कहा, “हमें पता चला है, हमारे राज्य के गांवों की हालत ठीक नहीं है। तुम गांवों की भलाई के काम करने के लिए खज़ाने से काफी रुपया ले चुके हो। क्या हुआ उसका?”
पढ़ें: तेनालीराम का खूंखार घोड़ा
मंत्री बोला, “महाराज, सारा रुपया गांवों की भलाई में खर्च हुआ है। आपसे किसी ने गलत कहा।” मंत्री के जाने के बाद उन्होंने तेनाली राम को बुलवा भेजा। कल की पूरी घटना कह सुनाई। तेनाली राम ने कहा, “महाराज, प्रजा दरबार में नहीं आएगी। अब आपको ही उनके दरबार में जाना चाहिए। उनके साथ जो अन्याय हुआ है, उसका फैसला उन्हीं के बीच जाकर कीजिए।”
अगले दिन राजा ने दरबार में घोषणा की-“कल से हम गांव-गांव में जाएंगे, यह देखने के लिए कि प्रजा किस हाल में जी रही है!” सुनकर मंत्री बोला, “महाराज, लोग खुशहाल हैं। आप चिन्ता न करें। जाड़े में बेकार परेशान होंगे।”
तेनाली राम बोला, “मंत्रीजी से ज्यादा प्रजा का भला चाहने वाला और कौन होगा? यह जो कह रहे हैं, ठीक ही होगा। मगर आप भी तो प्रजा की खुशहाली देखिए।” मंत्री ने राजा को आसपास के गांव दिखाने चाहे। पर राजा ने दूर-दराज के गावों की ओर घोड़ा मोड़ दिया। राजा को सामने पाकर लोग खुल कर अपने समस्याएं बताने लगे।
मंत्री के कारनामे का सारा भेद खुल चुका था। वह सिर झुकाए खड़ा था। राजा कृष्णदेव राय ने घोषणा करवा दी- अब हर महीने कम से कम एक बार वे खुद जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं का समाधान करेंगे।
तेनालीराम और खूँखार घोड़ा
विजयनगर के पड़ोसी मुसलमान राज्यों के पास बड़ी मजबूत सेनाएँ थीं। राजा कृष्णदेव राय चाहते थे कि विजयनगर की घुड़सवार फौज भी मजबूत हो ताकि हमला होने पर दुश्मनों का सामना कुशलता से किया जा सके।
उन्होंने बहुत से अरबी घोड़े खरीदने का विचार किया। मंत्रियों ने सलाह दी कि घोड़ों को पालने का एक आसान तरीका यह है कि शांति के समय ये घोड़े नागरिकों को रखने के लिए दिए जाएँ और जब युद्ध हो तो उन्हें इकट्ठा कर लिया जाए।
राजा को यह सलाह पसंद आ गई। उन्होंने एक हजार बढ़िया अरबी घोड़े खरीदे और नागरिकों को बाँट दिए। हर घोड़े के साथ घास, चने और दवाइयों के लिए खर्चा आदि दिया जाना भी तय हुआ। यह फैसला किया गया कि हर तीन महीनों के बाद घोड़ों की जाँच की जाएगी।
तेनालीराम ने एक घोड़ा माँगा तो उसको भी एक घोड़ा मिल गया। तेनालीराम घोड़े को मिलने वाला सारा खर्च हजम कर जाता। घोड़े को उसने एक छोटी-सी अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया, जिसकी एक दीवार में जमीन से चार फुट की ऊँचाई पर एक छेद था। उसमें से मुट्ठी-भर चारा तेनालीराम अपने हाथों से ही घोड़े को खिला देता।
पढ़ें: तेनालीराम की भटकती आत्मा
भूखा घोड़ा उसके हाथ में मुँह मार कर पल-भर में चारा चट कर जाता। तीन महीने बीतने पर सभी से कहा गया कि वे अपने घोड़ों की जाँच करवाएँ। तेनालीराम के अतिरिक्त सभी ने अपने घोड़ों की जाँच करवा ली।
राजा ने तेनालीराम से पूछा, ‘तुम्हारा घोड़ा कहाँ है।’ ‘महाराज, मेरा घोड़ा इतना खूँखार हो गया है कि मैं उसे नहीं ला सकता। आप घोड़ों के प्रबंधक को मेरे साथ भेज दीजिए। वही इस घोड़े को ला सकते हैं।’ तेनालीराम ने कहा। घोड़ों का प्रबंधक, जिसकी दाढ़ी भूसे के रंग की थी, तेनालीराम के साथ चल पड़ा।
कोठरी के पास पहुँचकर तेनालीराम बोला, ‘प्रबंधक, आप स्वयं देख लीजिए कि यह घोड़ा कितना खूँखार है। इसीलिए मैंने इसे कोठरी में बंद कर रखा है।’‘कायर कहीं के तुम क्या जानो घोड़े कैसे काबू में किए जाते हैं? यह तो हम सैनिकों का काम है।’ कहकर प्रबंधक ने दीवार के छेद में से झाँकने की कोशिश की।
सबसे पहले उसकी दाढ़ी छेद में पहुँची। इधर भूखे घोड़े ने समझा कि उसका चारा आ गया और उसने झपटकर दाढ़ी मुँह में ले ली। प्रबंधक का बुरा हाल था। वह दाढ़ी बाहर खींच रहा था लेकिन घोड़ा था कि छोड़ता ही न था। प्रबंधक दर्द के मारे जोर से चिल्लाया। बात राजा तक जा पहुँची। वह अपने कर्मचारियों के साथ दौड़े-दौड़े वहाँ पहुँचे। तब एक कर्मचारी ने कैंची से प्रबंधक की दाढ़ी काटकर जान छुड़ाई।
जब सबने कोठरी में जाकर घोड़े को देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह तो हड्डियों का केवल ढाँचा-भर रह गया था।
क्रोध से उबलते हुए राजा ने पूछा, ‘तुम इतने दिन तक इस बेचारे पशु को भूखा मारते रहे?’
‘महाराज, भूखा रहकर इसका यह हाल है कि इसने प्रबंधक की कीमती दाढ़ी नोंच ली। उन्हें इस घोड़े के चंगुल से छुड़ाने के लिए स्वयं महाराज को यहाँ आना पड़ा। अगर बाकी घोड़ों की तरह इसे भी जी-भरकर खाने को मिलता तो न जाने यह क्या कर डालता?’ राजा हँस पड़े और उन्होंने हमेशा की तरह तेनालीराम का यह अपराध भी क्षमा कर दिया।
तेनालीराम की भटकती आत्मा
तेनालीराम को मृत्युदंड दे दिया गया। यह समाचार आग की तरह शहर में फैल गया। कोई नहीं जानता था कि तेनालीराम जीवित है और अपने घर में छिपा हुआ है। लोगों में खुसर-फुसर होने लगी। छोटे से अपराध की इतनी बड़ी सजा?
अंधविश्वासियों ने यह प्रचार करना भी शुरू कर दिया कि ब्राह्मण की आत्मा भटकती रहती है। इस पाप का प्रायश्चित होना चाहिए। राजा की दोनों रानियों ने जब यह सुना तो वे भी डर गईं। उन्होंने राजा से कहा कि इस पाप से मुक्ति के लिए कुछ उपाय कीजिए। लाचार होकर राजा ने अपने राजगुरु और राज्य के चुने हुए एक सौ साठ ब्राह्मण को विशेष पूजा करने का आदेश दिया ताकि तेनालीराम की आत्मा को शांति मिले।
पूजा का कार्य नगर के बाहर बरगद के उस पेड़ के नीचे किया जाना था, जहाँ अपराधियों को मृत्युदंड दिया जाता था। यह खबर तेनालीराम तक पहुँच गई। रात होने से पहले ही वह उस बरगद के पेड़ पर जा बैठा। उसने सारा शरीर लाल मिट्टी से रंग लिया और चेहरे पर धुएँ की कालिख पोत ली।
इस तरह उसने भटकती आत्मा का रूप बना लिया। रात में ब्राह्मणों ने छोटी-छोटी लकड़ियों से आग जलाई। उसके सामने बैठकर न जाने वे कौन-कौन से मंत्र पढ़ने लगे। वे जल्दी से पूजा समाप्त करके घर जाकर अपने आरामदेह बिस्तरों पर सोना चाहते थे।
पढ़ें: तेनालीराम को बुढ़ापे में मौत की सजा
जल्दी-जल्दी मंत्र पढ़कर उन्होंने तेनालीराम की भटकती आत्मा को पुकारा, ‘तेनालीराम की भटकती आत्मा! ‘आहा!’ उन्हें उत्तर मिला। ब्राह्मणों की सिट्टी-पिट्टी गुम, उनके पाँव डर के मारे जैसे जमीन से ही चिपक गए थे। उनमें खुसर-फुसर होने लगी-‘भटकती आत्मा ने सचमुच उत्तर दिया है। हमें तो इस बात की आशा बिल्कुल नहीं थी।’
असल में तो वे लोग पूजा की खानापूरी करके राजा से कुछ रुपया ऐंठने के चक्कर में थे। उन्होंने सोचा भी न था कि तेनालीराम सचमुच भटकती आत्मा बन गया। एकाएक अजीब-सी गुर्राहट के साथ तेनालीराम पेड़ से कूदा। ब्राह्मणों ने उसकी भयानक सूरत देखी तो डर के मारे चीखते-चिल्लाते सिर पर पाँव रखकर भागे।
राजा ने उन सबसे जब यह कहानी सुनी तो बहुत हँसे-‘तुम लोग तो बड़ी-बड़ी बातें बनाना ही जानते हो। जिस भटकती आत्मा को शांत करने के लिए तुम्हें भेजा था, उसी से डरकर भाग आए?’ ब्राह्मण सिर झुकाए खड़े रहे। ‘विचित्र बात तो यह है कि इस भटकती आत्मा ने मुझे दर्शन नहीं दिए। तुम लोगों को ही दिखाई दिया।’
राजा ने कहा-‘जो हुआ सो हुआ। अब जो इस भटकती आत्मा से मुक्ति दिलवाएगा, उसे एक हजार स्वर्णमुद्राएँ दी जाएँगी।’ राजा की घोषणा के तीन दिन बाद एक बूढ़ा संन्यासी राजदरबार में उपस्थित हुआ। उसकी दाढ़ी बगुले के पंख की तरह सफेद थी।
उसने कहा, ‘महाराज, मैं इस भटकती आत्मा से आपको मुक्ति दिला सकता हूँ। शर्त यह है कि जब आपको संतोष हो जाए कि भटकती आत्मा नहीं रही, तो आपको मुझे मुँहमाँगी चीज देनी होगी।’ ‘ठीक है, इस भटकती आत्मा से तो मुक्ति दिलवाइए ही, साथ ही उस ब्राह्मण की हत्या के पाप से भी मुझे छुटकारा दिलाइए, जो बेचारा मेरे क्रोध के कारण मारा गया।’ राजा ने कहा।
‘आप चिंता न करें, मेरे उपाय के बाद आपको ऐसा लगेगा जैसे ब्राह्मण मरा ही नहीं।’ संन्यासी बोला। ‘क्या?’ राजा ने हैरान होकर पूछा, ‘क्या आप उस विदूषक को दोबारा जीवित कर सकते हैं?’ ‘आप चाहें तो ऐसा कर सकता हूँ। संन्यासी ने उत्तर दिया।
‘ऐसा हो सके तो और क्या चाहिए। राजा ने कहा। राजगुरु पास ही बैठा था, बोला, ‘लेकिन महाराज, कभी मुर्दे भी जीवित हुए हैं? और फिर उस मसखरे को जीवित करने से लाभ ही क्या है? वह फिर अपनी शरारतों पर उतर आएगा और आपसे दोबारा मौत की सजा पाएगा।’
‘कुछ भी हो, हम यह चमत्कार अवश्य देखना चाहते हैं और फिर हमारे मन पर जो बोझ है, वह भी तो उतर जाएगा। संन्यासी जी, आप यह उपाय कब करना चाहेंगे?’ राजा ने कहा। ‘अभी और यहीं।’ संन्यासी ने उत्तर दिया।
‘लेकिन भटकती आत्मा यहाँ नहीं, बरगद के उस पेड़ के ऊपर है, महाराज, मुझे तो लगता है कि संन्यासी कोरी बातें ही करना जानता है, इसके बस का कुछ नहीं है।’ राजगुरु ने राजा से कहा। ‘राजगुरु जी, जो मैं कह रहा हूँ वह करके दिखा सकता हूँ। आप ही कहिए, यदि मैं उस ब्राह्मण को ही आपके सामने जीवित करके दिखा दूँ तो क्या भटकती आत्मा शेष रहेगी?’ संन्यासी बोला।
‘बिलकुल नहीं।’ राजगुरु ने उत्तर दिया। ‘तो फिर लीजिए, देखिए चमत्कार।’ संन्यासी ने अपने गेरुए वस्त्र और नकली दाढ़ी उतार दी। अपनी सदा की पोशाक में तेनालीराम राजा और राजगुरु के सामने खड़ा था। दोनों हैरान थे। उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
तेनालीराम ने तब राजा को पूरी कहानी सुनाई। उसने राजा को याद दिलाया, ‘आपने मुझे मुँहमाँगा इनाम देने का वायदा किया है। आप उन अंगरक्षकों को क्षमा कर दीजिए, जिन्हें आपने मुझे मारने के लिए भेजा था।’
राजा ने हँसते हुए कहा, ‘ठीक है, साथ ही तुम्हें एक हजार स्वर्णमुद्राओं की थैली भी भेंट की जाती है। और हाँ, वह जो दस स्वर्णमुद्राएँ तुम्हारी माँ और पत्नी को देने का मैंने आदेश दिया था, उसे वापस लेता हूँ, नहीं तो कोषाध्यक्ष मेरी नाक में दम कर देगा।’ यह कहकर राजा कृष्णदेव राय ने एक जोर का ठहाका लगाया।
तेनालीराम को बुढ़ापे में मौत की सजा
बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिलशाह को डर था कि राजा कृष्णदेव राय अपने प्रदेश रायचूर और मदकल को वापस लेने के लिए हम पर हमला करेंगे। उसने सुन रखा था कि वैसे राजा ने अपनी वीरता से कोडीवडु, कोंडपल्ली, उदयगिरि, श्रीरंगपत्तिनम, उमत्तूर, और शिवसमुद्रम को जीत लिया था।
सुलतान ने सोचा कि इन दो नगरों को बचाने का एक ही उपाय है कि राजा कृष्णदेव राय की हत्या करवा दी जाए। उसने बड़े इनाम का लालच देकर तेनालीराम के पुराने सहपाठी और उसके मामा के संबंधी कनकराजू को इस काम के लिए राजी कर लिया।
कनकराजू तेनालीराम के घर पहुँचा। तेनालीराम ने अपने मित्र का खुले दिल से स्वागत किया। उसकी खूब आवभगत की और अपने घर में उसे ठहराया। एक दिन जब तेनालीराम काम से कहीं बाहर गया हुआ था, कनकराजू ने राजा को तेनालीराम की तरफ से संदेश भेजा-‘आप इसी समय मेरे घर आएँ तो आपको ऐसी अनोखी बात दिखाऊँ, जो आपने जीवनभर न देखी हो।
राजा बिना किसी हथियार के तेनालीराम के घर पहुँचे। अचानक कनकराजू ने छुरे से उन पर वार कर दिया। इससे पहले कि छुरे का वार राजा को लगता, उन्होंने कसकर उसकी कलाई पकड़ ली। उसी समय राजा के अंगरक्षकों के सरदार ने कनकराजू को पकड़ लिया और वहीं उसे ढेर कर दिया।
कानून के अनुसार, राजा को मारने की कोशिश करने वाले को जो व्यक्ति आश्रय देता था, उसे मृत्युदंड दिया जाता था। तेनालीराम को भी मृत्युदंड सुनाया गया। उसने राजा से दया की प्रार्थना की।
राजा ने कहा, ‘मैं राज्य के नियम के विरुद्ध जाकर तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता। तुमने उस दुष्ट को अपने यहाँ आश्रय दिया। तुम कैसे मुझसे क्षमा की आशा कर सकते हो? हाँ, यह हो सकता है कि तुम स्वयं फैसला कर लो, तुम्हें किस प्रकार की मृत्यु चाहिए?’
‘मुझे बुढ़ापे की मृत्यु चाहिए, महाराज।’ तेनालीराम ने कहा। सभी आश्चर्यचकित थे। राजा हँसकर बोले, ‘इस बार भी बच निकले तेनालीराम।’
तेनालीराम की बिल्ली दूध की जली
एक बार राजा ने सुना नगर में चूहे बढ़ गए हैं। उन्होंने चूहों की मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए एक हजार बिल्लियाँ पालने का फैसला किया। बिल्लियाँ मँगवाई गईं और उन्हें नगर के लोगों में बाँट दिया। जिसे बिल्ली दी गई, उसे साथ में एक गाय भी दी गई ताकि उसका दूध पिलाकर बिल्ली को पाला जा सके।
तेनालीराम भी इस अवसर पर राजा के सामने खड़ा हुआ। उसे भी एक बिल्ली और गाय दे दी गई। उसने पहले दिन बिल्ली के सामने उबलते हुए दूध का कटोरा रख दिया। बिल्ली भूखी थी। बेचारी ने जल्दी से कटोरे में मुँह मारा।
उसका मुँह इतनी बुरी तरह जला कि उसके बाद जब उसके सामने ठंडा दूध भी रखा जाता, तो वह भाग खड़ी होती। तेनालीराम गाय का सारा दूध अपने लिए और अपनी माँ, पत्नी और बच्चों के लिए प्रयोग में लाता। तीन महीने बाद सभी बिल्लियों की जाँच की गई।
गाय का दूध पी-पीकर सभी बिल्लियाँ मोटी-ताजी हो गई थीं, लेकिन तेनालीराम की बिल्ली तो सूखकर काँटा हो चुकी थी और सब बिल्लियों के बीच अलग ही दिखाई दे रही थी। राजा ने क्रोध से पूछा, ‘तुमने इसे गाय का दूध नहीं पिलाया?’ ‘महाराज, यह तो दूध को छूती भी नहीं।’ भोलेपन से तेनालीराम ने कहा।
‘क्या कहते हो? बिल्ली दूध नहीं पीती? तुम समझते हो, मैं तुम्हारी इन झूठी बातों में आ जाऊँगा?’ ‘मैं बिलकुल सच कह रहा हूँ, महाराज। यह बिल्ली दूध नहीं पीती।’‘अगर तुम्हारी बात सच निकली तो तुम्हें सौ स्वर्णमुद्राएँ दूँगा। लेकिन अगर बिल्ली ने दूध पी लिया, तो तुम्हें सौ कोड़े लगाए जाएँगे।’ राजा ने कहा।
तेनालीराम ने राजा की यह शर्त मान ली। दूध का बड़ा कटोरा मँगवाया गया। राजा ने बिल्ली को अपने हाथ में लेकर कहा, ‘पियो बिल्ली रानी, दूध पियो।’ बिल्ली ने जैसे ही दूध देखा, डर के मारे राजा के हाथ से निकलकर म्याऊँ-म्याऊँ करती भाग खड़ी हुई। ‘सौ स्वर्णमुद्राएँ मेरी हुईं।’ तेनालीराम बोला।
‘वह तो ठीक है, लेकिन मैं इस बिल्ली को अच्छी तरह देखना चाहता हूँ।’ राजा ने कहा। बिल्ली को अच्छी तरह देखने पर राजा ने पाया कि उसके मुँह पर जले का एक बड़ा निशान है। राजा ने कहा, ‘दुष्ट कहीं के? जान-बूझकर इस बेचारी को तुमने गरम दूध पिलाया ताकि यह हमेशा के लिए दूध से डर जाए। क्या ऐसा करते हुए तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आई?’
‘महाराज, यह देखना राजा का कर्त्तव्य है कि उसके राज्य में मनुष्य के बच्चों को बिल्लियों से पहले दूध मिलना चाहिए।’ राजा कृष्णदेव राय अपनी हँसी न रोक सके और उन्होंने एक सौ स्वर्णमुद्राएँ देते हुए कहा, ‘शायद आगे से तुम्हें यह सुबुद्धि आ जाए कि बेचारे मासूम जानवरों के साथ दुष्टता का व्यवहार नहीं करना चाहिए।
तेनालीराम और कीमती उपहार
लड़ाई जीतकर राजा कृष्णदेव राय ने विजय उत्सव मनाया। उत्सव की समाप्ति पर राजा ने कहा- ‘लड़ाई की जीत अकेले मेरी जीत नहीं है-मेरे सभी साथियों और सहयोगियों की जीत है। मैं चाहता हूँ कि मेरे मंत्रिमंडल के सभी सदस्य इस अवसर पर पुरस्कार प्राप्त करें। आप सभी लोग अपनी-अपनी पसंद का पुरस्कार लें। परंतु एक शर्त है कि सभी को अलग-अलग पुरस्कार लेने होंगे। एक ही चीज दो आदमी नहीं ले सकेंगे।’
यह घोषणा करने के बाद राजा ने उस मंडप का पर्दा खिंचवा दिया, जिस मंडप में सारे पुरस्कार सजाकर रखे गए थे। फिर क्या था! सभी लोग अच्छे-से-अच्छा पुरस्कार पाने के लिए पहल करने लगे। पुरस्कार सभी लोगों की गिनती के हिसाब से रखे गए थे।
अतः थोड़ी देर की धक्का-मुक्की और छीना-झपटी के बाद सबको एक-एक पुरस्कार मिल गया। सभी पुरस्कार कीमती थे। अपना-अपना पुरस्कार पाकर सभी संतुष्ट हो गए।अंत में बचा सबसे कम मूल्य का पुरस्कार-एक चाँदी की थाली थी।
यह पुरस्कार उस आदमी को मिलना था, जो दरबार में सबके बाद पहुँचे यानी देर से पहुँचने का दंड। सब लोगों ने जब हिसाब लगाया तो पता चला कि श्रीमान तेनालीराम अभी तक नहीं पहुँचे हैं। यह जानकर सभी खुश थे।
पढ़ें: तेनालीराम और राजा का तोता
सभी ने सोचा कि इस बेतुके, बेढंगे व सस्ते पुरस्कार को पाते हुए हम सब तेनालीराम को खूब चिढ़ाएँगे। बड़ा मजा आएगा। तभी श्रीमान तेनालीराम आ गए। सारे लोग एक स्वर में चिल्ला पड़े, ‘आइए, तेनालीराम जी! एक अनोखा पुरस्कार आपका इंतजार कर रहा है।’ तेनालीराम ने सभी दरबारियों पर दृष्टि डाली।
सभी के हाथों में अपने-अपने पुरस्कार थे। किसी के गले में सोने की माला थी, तो किसी के हाथ में सोने का भाला। किसी के सिर पर सुनहरे काम की रेशम की पगड़ी थी, तो किसी के हाथ में हीरे की अँगूठी। तेनालीराम उन सब चीजों को देखकर सारी बात समझ गया। उसने चुपचाप चाँदी की थाली उठा ली। उसने चाँदी की उस थाली को मस्तक से लगाया और उस पर दुपट्टा ढंक दिया, ऐसे कि जैसे थाली में कुछ रखा हुआ हो।
राजा कृष्णदेव राय ने थाली को दुपट्टे से ढंकते हुए तेनालीराम को देख लिया। वे बोले, ‘तेनालीराम, थाली को दुपट्टे से इस तरह क्यों ढंक रहे हो?’
‘क्या करुँ महाराज, अब तक तो मुझे आपके दरबार से हमेशा अशर्फियों से भरे थाल मिलते रहे हैं। यह पहला मौका है कि मुझे चाँदी की थाली मिली है। मैं इस थाल को इसलिए दुपट्टे से ढंक रहा हूँ ताकि आपकी बात कायम रहे। सब यही समझे कि तेनालीराम को इस बार भी महाराज ने थाली भरकर अशर्फियाँ पुरस्कार में दी हैं।’
महाराज तेनालीराम की चतुराई-भरी बातों से प्रसन्न हो गए। उन्होंने गले से अपना बहुमूल्य हार उतारा और कहा, ‘तेनालीराम, तुम्हारी आज भी खाली नहीं रहेगी। आज उसमें सबसे बहुमूल्य पुरस्कार होगा। थाली आगे बढ़ाओ तेनालीराम!’
तेनालीराम ने थाली राजा कृष्णदेव राय के आगे कर दी। राजा ने उसमें अपना बहुमूल्य हार डाल दिया। सभी लोग तेनालीराम की बुद्धि का लोहा मान गए। थोड़ी देर पहले जो दरबारी उसका मजाक उड़ा रहे थे, वे सब भीगी बिल्ली बने एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे, क्योंकि सबसे कीमती पुरस्कार इस बार भी तेनालीराम को ही मिला था।
परियों से भेंट - तेनाली राम की कहानियॉ
परियों से भेंट - तेनाली राम की कहानियॉ
एक बार विजयनगर के राज दरबार में एक यात्री राजा कॄष्णदेव राय से मिलने के लिए आया। पहरेदारों ने राजा को उसके आने की सूचना दी। राजा ने यात्री को उनसे मिलने की आज्ञा दे दी।
यात्री बहुत ही लम्बा व पतला था। उसका सारा शरीर नीला था। वह राजा के सामने सीधा खडा होकर बोला, “महाराज, मैं नीलदेश का नीलकेतु हूँ और इस समय मैं विश्व-भ्रमण पर निकला हुआ हूँ। अनेक देशों की यात्रा करते हुए मैं यहॉ पहुँचा हूँ। घूमते हुए मैंने अनेक देशों में विजय नगर और आपके न्यायपूर्ण शासन व उदार स्वाभाव के बारे मैं बहुत कुछ सुना। अतः मेरे मन मैं विजय नगर और आपको देखने व जानने की उत्सुकता और भी बढ गई। इसीलिए मैं आपसे मिलने व विजय नगर साम्राज्य को देखने की अभिलाषा से यहॉ आया हूँ।”
राजा ने यात्री का स्वागत किया और उसे शाही अतिथि घोषित किया। राजा द्वारा मिले आदर व सत्कार से गदगद होकर यात्री बोला, “महाराज, मैं उस स्थान के विषय में जानता हूँ, जहॉ परियॉ रहती हैं। मैं आपके सामने अपनी जादुई शक्ति से उन्हें बुला सकता हूँ।”
यह सुनकर राजा बहुत उत्सुक हो गए और बोले, “इसके लिए मुझे क्या करना होगा, नीलकेतु?”
“महाराज, इसके लिए आपको नगर के बाहर स्थित तालाब के किनारे मध्यरात्री को अकेले आना होगा। तब मैं वहॉ परियों को नॄत्य के लिए बुला सकता हूँ।” नीलकेतु ने उत्तर दिया।
राजा उसकी बात मान गए। उसी रात मध्यरात्रि में राजा अपने घोडे पर सवार होकर तालाब की ओर चल दिए। वहॉ पुराने किले से घिरा हुआ एक बहुत बडा तालाब था ।
राजा के वहॉ पहुँचने पर नीलकेतु पुराने किले से बाहर निकला और बोला, “स्वागत है महाराज, आपका स्वागत है। मैंने सारी व्यवस्था कर दी है और पहले से ही परियों को यहॉ बुला लिया है। वे सभी किले के अन्दर हैं और शीघ्र ही आपके लिए नॄत्य करेंगी।”
यह सुनकर राजा चकित हो गए। उन्होंने कहा था कि मेरी उपस्थिति में परियों को बुलाओगे?”
“यदि महाराज की यही इच्छा है तो मैं फिर से कुछ परियों को बुला दूँगा। अब अन्दर चला जाए ।” नीलकेतु बोला। राजा, नीलकेतु के साथ जाने के लिए घोडे से उतर गए। जैसे ही वह आगे बढे, उन्होने ताली की आवाज सुनी। शीघ्र ही उन्हे विजयनगर की सेना ने नीलकेतु को भी पकडकर बेडियों से बॉध दिया।
“यह सब क्या है और यह हो क्या रहा है?” राजा ने आश्चर्य से पूछा।
तभी तेनाली राम पेड के पीछे से निकला और बोला, “महाराज, मैं आपको बताता हूँ कि यह सब क्या हो रहा है? यह नीलकेतु हमारे पडोसी देश् का रक्षा मंत्री हैं । किले के अन्दर कोई परियॉ नहीं हैं। वास्तव में, इसके देश के सिपाही ही वहॉ परियों के रूप में छिपे हुए हैं अपने नकली परों में उन्होंने अपने हथियार छिपाए हुए हैं। यह सब आपको घेरकर मारने की योजना है।”
“तेनाली राम, एक बार फिर मेरे प्राणो की रक्षा के लिए तुम्हें धन्यवाद। परन्तु, यह बतओ कि तुम्हें यह सब पता कैसे चला?” राजा बोले। \ तेनाली राम ने उत्तर दिया, “महाराज जब यह नीलकेतु दरबार में आया था, तो इसने अपने शरीर को नीले रंग से रंगा हुआ था । परन्तु यह जानकर कि विजयनगर का दरबार बुद्धिमान दरबारियों से भरा हुआ है, यह घबरा गया तथा पसीने-पसीने हो गया। पसीने के कारण इसके शरीर के कई अगो पर से नीला रंग हट गया तथा इसके शरीर का वास्तविक रंग दिखाई देने लगा। मैंने अपने सेवकों को इसका पीचा करने के लिए कहा । उन्होंने पाया कि ये सब यहॉ आपको मारने की योजना बना रहे हैं।”
राजा तेनाली राम की सतर्कता से प्रभावित हुए और उसे पुनः धन्यवाद दिया ।
अंतिम इच्छा
विजयनगर के ब्राह्मण बड़े लालची थे। वे हमेशा किसी न किसी बहाने राजा कृष्णदेव राय से धन ऐंठ लेते थे। राजा की उदारता का वे अनुचित फायदा उठाते। एक दिन राजा ने उनसे कहा, “मरते समय मेरी मां ने आम खाने की इच्छा जताई थी, जो उस समय पूरी नहीं हो सकी थी। क्या अब कोई उपाय हो सकता है, जिससे उनकी आत्मा को शांति मिले।”
ब्राह्मणों ने कहा, “महाराज, यदि आप एक सौ आठ ब्राह्मणों को सोने का एक-एक आम भेंट करें तो आपकी मां की अधूरी इच्छा पूरी हो जाएगी। ब्राह्मणों को दिया दान मृतात्मा के पास अपने आप पहुंच जाता है।”
राजा कृष्णदेव राय ने ब्राह्मणों को सोने के एक-एक आम दान कर दिए। तेनालीराम को ब्राह्मणों के इस लालच पर बहुत गुस्सा आया। वह उन्हें सबक सिखाने की ताक में रहने लगा।
और किस्से: तेनाली राम और कुबड़ा धोबी
जब उनकी मां की मृत्यु हुई तो उन्होंने भी ब्राह्मणों को अपने घर बुलाया। जब सारे ब्राह्मण आसनों पर बैठ गए तो तेनालीराम ने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया और अपने नौकरों से कहा, “जाओ, लोहे की गर्म सलाखें लेकर आओ और इन ब्राह्मणों के शरीर पर दागो।”
ब्राह्मणों ने जब यह सुना तो चीख-पुकार मच गई। सब उठ कर दरवाजे की ओर भागे। पर नौकर उन्हें पकड़ कर एक-एक बार दागने लगे। बात राजा तक पहुंच गई। वह खुद आए और ब्राह्मणों को बचाया।
गुस्से में उन्होंने पूछा, “यह क्या हरकत है तेनालीराम?”
तेनालीराम ने कहा, “महाराज, मेरी मां को जोड़ों के दर्द की बीमारी थी। मरते समय उनको बहुत तेज दर्द था। अंतिम समय उन्होंने यह इच्छा प्रकट की थी कि दर्द की जगह पर लोहे की गर्म सलाखें दागी जाएं ताकि दर्द से आराम पाकर उनके प्राण चैन से निकल सकें। उस समय उनकी यह इच्छा पूरी नहीं की जा सकी थी। इसलिए ब्राह्मणों को सलाखें दागनी पड़ीं।
राजा हंस पड़े। ब्राह्मणों के सिर शर्म से झुक गए।
तेनालीराम का जवाब
एक बार तेनालीराम से राजा कृष्णदेव ने पूछा,
‘तेनालीराम बताओ! सबसे अधिक मूर्ख कौन होते हैं?
तेनालीराम कहाँ कम पड़ते थे जवाब देने में, उन्होंने फुर्ती से जवाब दे डाला...
‘महाराज! सबसे अधिक मूर्ख ब्राह्मण ही होते हैं।'
नाई की उच्च नियुक्ति - तेलानीराम की कहानियॉ
नाई की उच्च नियुक्ति - तेलानीराम की कहानियॉ
शाही नाई का कार्य प्रतिदिन राजा कॄष्णदेव राय की दाढी बनाना था। एक दिन, जब वह दाढी बनाने के लिए आया तो राजा कॄष्णदेव राय सोए हुए थे। नाई ने सोते हुए ही उनकी दाढी बना दी। उठने पर राजा ने सोते हुए दाढी बनाने पर नाई की बहुत प्रशंसा की। राजा उससे बहुत प्रसन्न हुए और उसे इच्छानुसार कुछ भी मॉगने को कहा। इस पर नाई बोला, “महाराज, मैं आपके शाही दरबार का दरबारी बनना चाहता हूँ।”
राजा नाई की इच्छा पूरी करने के लिए तैयार हो गए। नाई की उच्च नियुक्ति का समाचार जैसे ही चारों ओर फैला, अन्य दरबारी यह सुनकर व्याकुल हो गए। सभी ने सोचा कि अज्ञानी व्यक्ति दरबारी बनकर अपने पद का दुरुपयोग कर सकता है। सभी दरबारी समस्या के समाधान के लिए तेनाली राम के पास पहूँचे। तेनाली राम ने उन्हें सहायता का आश्वासन दिया।
अगली सुबह राजा नदी किनारे सैर के लिए गए। वहॉ उन्होंने तेनाली राम को एक काले कुत्ते को जोर से रगड-रगड कर नहलाते हुए देखा तो हैरान हो गए। राजा द्वारा कारण पूछने पर तेनाली राम ने बताया, “महाराज, मैं इसे गोरा बनाना चाहता हूँ।”
राजा ने हँसते हुए पूछा, “क्या नहलाने से काला कुत्ता गोरा हो जाएगा?”
“महाराज, जब एक अज्ञानी व्यक्ति दरबारी बन सकता है तो यह भी गोरा हो सकता है।” तेनाली राम ने उत्तर दिया।
यह सुनकर राजा तुरन्त समझ गए कि तेनाली राम क्या कहना चाहता है। उसी दिन राजा ने दरबार में नाई को पुनः उसका वही स्थान दिया, जिसके लिए वह उपयुक्त था।
महान पुस्तक - तेनालीराम की कहानियॉ
महान पुस्तक - तेनालीराम की कहानियॉ
एक बार राजा कॄष्णदेव राय के दरबार में एक महान विद्वान आया। उसने वहॉ दरबार में उपस्थित सभी विद्वानो को चुनौती दी कि पूरे विश्व में उसके समान कोई बुध्दिमान व विद्वान नहीं है। उसने दरबार में उपस्थित सभी दरबारियों से कहा कि यदि उनमें से कोई चाहे तो उसके साथ किसी भी विषय पर वाद-विवाद कर सकता है। परन्तु कोई भी दरबारी उससे वाद-विवाद करने का साहस न कर सका। अन्त में सभी दरबारी सहायता के लिए तेनाली राम के पास गए । तेनाली राम ने उन्हें सहायता का आश्वासन दिया और दरबार में जाकर तेनाली ने विद्वान की चुनौती स्वीकार कर ली। दोनों के बीच वाद-विवाद का दिन भी निश्चित कर दिया गया।
निश्चित दिन तेनाली राम एक विद्वान पण्डित के रुप में दरबार पँहुचा। उसने अपने एक हाथ में एक बडा सा गट्ठर ले रखा था, जो देखने में भारी पुस्तकों के गट्ठर के समान लग रहा था। शीघ्र ही वह महान विद्वान भी दरबार में आकर तेनाली राम के सामने बैठ गया। पण्डित रुपी तेनाली राम ने राजा को सिर झुकाकर प्रणाम किया और गट्ठर को अपने और विद्वान के बीच में रख दिया, तत्पश्चात दोनों वाद-विवाद के लिए बैठ गए।
राजा जानते थे कि पण्डित का रुप धरे तेनाली राम के मस्तिष्क में अवश्य ही कोई योजना चल रही होगी इसलिए वह पूरी तरह आश्वस्त थे। अब राजा ने वाद-विवाद आरम्भ करने का आदेश दिया।
पण्डित के रुप में तेनाली राम पहले अपने स्थान पर खडा होकर बोला, “विद्वान महाशय! मैंने आपके विषय मैं बहुत कुछ सुना है। आप जैसे महान विद्वान के लिए मैं एक महान तथा महत्वपूर्ण पुस्तक लाया हूँ, जिस पर हम लोग वाद-विवाद करेंगे।”
“महाशय! कॄपया मुझे इस पुस्तक का नाम बताइए।” विद्वान ने कहा।
तेनाली राम बोले, “विद्वान महाशय, पुस्तक का नाम है, ‘तिलक्षता महिषा बन्धन’
विद्वान हैरान हो गया। अपने पूरे जीवन में उसने इस नाम की कोई पुस्तक न तो सुनी थी न ही पढी थी। वह घबरा गया कि बिना पढीव सुनी हुई पुस्तक के विषय में वह कैसे वाद्-विवाद करेगा। फिर भी वह बोला, “अरे, यह तो बहुत ही उच्च कोटि की पुस्तक है। इस पर वाद-विवाद करने में बहुत ही आनन्द आएगा । परन्तु आज यह वाद-विवाद रहने दिया जाए। मेरा मन भी कुछ उद्विनहै और इसके कुछ महत्वपूर्ण तथ्यूं को मैं भूल भी गया हूँ। कल प्रातः स्वस्थ व स्वच्छ मस्तिष्क के साथ हम वाद-विवाद करेगें।”
तेनाली राम के अनुसार, वह विद्वान तो आज के वाद-विवाद के लिए पिछले कई दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था परन्तु अतिथि की इच्छा का ध्यान रखना तेनाली का कर्तव्य था। इसलिए वह सरलता से मान गया। परन्तु वाद-विवाद में हारने के भय से वह विद्वान नगर छोडकर भाग गया। अगले दिन प्रातः जब विद्वान शाही दरबार में उपस्थित नहीं हुआ, तो तेनाली राम बोला, “महाराज, वह विद्वान अब नहीं आएगा। वाद-विवाद में हार जाने के भय से लगता है, वह नगर छोडकर चला गया है।”
“तेनाली, वाद-विवाद के लिय लाई गई उस अनोखी पुस्तक के विषय में कुछ बताओ जिससे कि डर कर वह विद्वान भाग गया ?” राजा ने पूछा ।
“महाराज, वास्तव में, ऐसी कोई भी पुस्तक नहीं है। मैंने ही उसका यह नाम रखा था। ‘तिलक्षता महिशा बन्धन ‘, इसमें ‘तिलक्षता का अर्थ है, ‘शीशम की सूखी लकडियॉ’ और ‘महिषा बन्धन का अर्थ है, ‘वह रस्सी जिससे भैसों को बॉधा जाता है।’ मेरे हाथ में वह गट्ठर वास्तव में शीशम की सूखी लकडिओं का था, जो कि भैंस को बॉधने वाली रस्सी से बन्धी थीं। उसे मैंने मलमल के कपडे में इस तरह लपेट दिया था ताकी वह देखने में पुस्तक जैसी लगे।”
तेनाली राम की बुद्धिमता देखकर राजा व दरबारी अपनी हँसी नहीं रोक पाए। राजा ने प्रसन्न होकर तेनाली राम को ढेर सारे पुरस्कार दिया।
कौन बडा - तेनालीराम
एक बार राजा कृष्णदेव राय महल में अपनी रानी के पास विराजमान थे। तेनालीराम की बात चली, तो बोले-सचमुच हमारे दरबार में उस जैसा चतुर कोई नहीं है। इसीलिए अभी तक तो कोई उसे हरा नही पाया है।
सुनकर रानी बोली-आप कल तेनालीराम को भोजन के लिए महल में आमंत्रित करें। मैं उसे जरूर हरा दूंगी। राजा ने मुस्कुराकर हामी भर ली। अगले दिन रानी ने अपने हाथों से स्वादिष्ट पकवान बनाए। राजा के साथ बैठा। तेनालीराम उन पकवानों की जी भर प्रशंसा करता हुआ, खाता जा रहा था। खानें के बाद रानी ने उसे बढया पान का बीडा भी खाने को दिया। तेनालीराम मुस्कुराकर बोला-’सचमुच, आज जैसा खाने का आनंद तो मुझे कभी नहीं आया!‘ तभी रानी ने अचानक पूछ लिया-अच्छा, तेनालीराम, एक बात बताओ। राजा ज्यादा बडे है या मैं? अब तो तेनालीराम चकराया। राजा-रानी दोनों ही उत्सुकता से देख रहे थे कि भला तेनालीराम क्या जवाब देता है।
अचानक तेनालीराम को जाने क्या सुझा, उसने दोनों हाथ जोडकर पहले धरती को प्रणाम किया, फिर आसमान को। फिर एकाएक जमीन पर गिर पडा। रानी घबराकर बोली- अरे-अरे, यह क्या तेनालीराम? तेनालीराम उठकर खडा हुआ, बोला- महारानी जी, मेरे लिए तो आप धरती है, राजा आसमान! दोनों में से किसे छोटा, किसे बडा कहूं, समझ में नही आ रहा! वैसे आज महारानी के हाथों का बना भोजन इतना स्वादिष्ट था कि उन्ही को बडा कहना होगा। इसलिए मैं धरती को ही दंडवत प्रणाम कर रहा था। सुनकर राजा और रानी दोनों की हंसी छुट गई। रानी बोली- सचमुच तुम चतुर हो, तेनालीराम। मुझे जिता दिया, पर हारकर भी खुद जीत गए। इस पर महारानी और राजा कृष्णदेव राय के साथ तेनालीराम भी खिल-खिलाकर हंस दिए।
कुएं का विवाह
एक बार राजा कॄष्णदेव राय और तेनालीराम के बीच किसी बात को लेकर विवाद हो गया। तेनालीराम रुठकर चले गए। आठ-दस दिन बीते, तो राजा का मन उदास हो गया। राजा ने तुरन्त सेवको को तेनालीराम को खोजने भेजा। आसपास का पूरा क्षेत्र छान लिया पर तेनालीराम का कहीं अता-पता नहीं चला। अचानक राजा को एक तरकीब सूझी। उसने सभी गांवों में मुनादी कराई राजा अपने राजकीय कुएं का विवाह रचा रहे हैं, इसलिए गांव के सभी मुखिया अपने-अपने गांव के कुओं को लेकर राजधानी पहुंचे। जो आदमी इस आज्ञा का पालन नहीं करेगा, उसे जुर्माने में एक हजार स्वर्ण मुद्राएं देनी होंगी। मुनादी सुनकर सभी परेशान हो गए। भला कुएं भी कहीं लाए-ले जाए जा सकते हैं। जिस गांव में तेनालीराम भेष बदलकर रहता था, वहां भी यह मुनादी सुनाई दी। गांव का मुखिया परेशान था। तेनालीराम समझ गए कि उसे खोजने के लिए ही महाराज ने यह चाल चली हैं। तेनालीराम ने मुखिया को बुलाकर कहा “मुखियाजी, आप चिंता न करें, आपने मुझे गांव में आश्रय दिया हैं, इसलिए आपके उपकार का बदला में चुकाऊंगा। मैं एक तरकीब बताता हूं आप आसपास के मुखियाओं को इकट्ठा करके राजधानी की ओर प्रस्थान करें”। सलाह के अनुसार सभी राजधानीकी ओर चल दिए। तेनालीराम भी उनके साथ थे।
राजधानी के बाहर पहुंचकर वे एक जगह पर रुक गए। एक आदमी को मुखिया का संदेश देकर राजदरबार में भेजा। वह आदमी दरबार में पहुंचा और तेनालीराम की राय के अनुसार बोला “महाराज! हमारे गांव के कुएं विवाह में शामिल होने के लिए राजधानी के बाहर डेरा डाले हैं। आप मेहरबानी करके राजकीय कुएं को उनकी अगवानी के लिए भेजें, ताकि हमारे गांव के कुएं ससम्मान दरबार के सामने हाजिर हो सकें।
राजा को उनकी बात समझते देर नहीं लगी कि ये तेनालीराम की तरकीब हैं। राजा ने पूछा सच-सच बताओ कि तुम्हें यहाक्ल किसने दी हैं? राजन! थोडे दिन पहले हमारे गांव में एक परदेशी आकर रुका था। उसी ने हमें यह तरकीब बताई हैं आगंतुक ने जवाब दिया। सारी बात सुनकर राजा स्वयं रथ पर बैठकर राजधानी से बाहर आए और ससम्मान तेनालीराम को दरबार में वापस लाए। गांव वालो को भी पुरस्कार देकर विदा किया।
कितने कौवे
महाराज कॄष्णदेव राय तेनालीराम का मखौल उडाने के लिए उल्टे-पुल्टे सवाल करते थे। तेनालीराम हर बार ऐसा उत्तर देते कि राजा की बोलती बन्द हो जाती। एक दिन राजा ने तेनालीराम से पूछा “तेनालीराम! क्या तुम बता सकते हो कि हमारी राजधानी में कुल कितने कौवे निवास करते है?” हां बता सकता हूं महाराज! तेनालीराम तपाक से बोले। महाराज बोले बिल्कुल सही गिनती बताना। जी हां महाराज, बिल्कुल सही बताऊंगा। तेनालीराम ने जवाब दिया। दरबारियों ने अंदाज लगा लिया कि आज तेनालीराम जरुर फंसेगा। भला परिंदो की गिनती संभव हैं? “तुम्हें दो दिन का समय देते हैं। तीसरे दिन तुम्हें बताना हैं कि हमारी राजधानी में कितने कौवे हैं।” महाराज ने आदेश की भाषा में कहा।
तीसरे दिन फिर दरबार जुडा। तेनालीराम अपने स्थान से उठकर बोला “महाराज, महाराज हमारी राजधानी में कुल एक लाख पचास हजार नौ सौ निन्यानवे कौवे हैं। महाराज कोई शक हो तो गिनती करा लो।
राजा ने कहा गिनती होने पर संख्या ज्यादा-कम निकली तो? महाराज ऐसा, नहीं होगा, बडे विश्वास से तेनालीराम ने कहा अगर गिनती गलत निकली तो इसका भी कारण होगा। राजा ने पूछा “क्या कारण हो सकता हैं?”
तेनालीराम ने जवाब दिया “यदि! राजधानी में कौवों की संख्या बढती हैं तो इसका मतलब हैं कि हमारी राजधानी में कौवों के कुछ रिश्तेदार और इष्ट मित्र उनसे मिलने आए हुए हैं। संख्या घट गई हैं तो इसका मतलब हैं कि हमारे कुछ कौवे राजधानी से बाहर अपने रिश्तेदारों से मिलने गए हैं। वरना कौवों की संख्या एक लाख पचास हजार नौ सौ निन्यानवे ही होगी तेनालीराम से जलने वाले दरबारी अंदर ही अंदर कुढ कर रह गए कि हमेशा की तरह यह चालबाज फिर अपनी चालाकी से पतली गली से बच निकला।
मूर्खों का साथ हमेशा दुखदायी
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय जहाँ कहीं भी जाते, जब भी जाते, अपने साथ हमेशा तेनालीराम को जरूर ले जाते थे। इस बात से अन्य दरबारियों को बड़ी चिढ़ होती थी। एक दिन तीन-चार दरबारियों ने मिलकर एकांत में महाराज से प्रार्थना की, ‘महाराज, कभी अपने साथ किसी अन्य व्यक्ति को भी बाहर चलने का अवसर दें।’ राजा को यह बात उचित लगी। उन्होंने उन दरबारियों को विश्वास दिलाया कि वे भविष्य में अन्य दरबारियों को भी अपने साथ घूमने-फिरने का अवसर अवश्य देंगे। एक बार जब राजा कृष्णदेव राय वेष बदलकर कुछ गाँवों के भ्रमण को जाने लगे तो अपने साथ उन्होंने इस बार तेनालीराम को नहीं लिया बल्कि उसकी जगह दो अन्य दरबारियों को साथ ले लिया। घूमते-घूमते वे एक गाँव के खेतों में पहुँच गए। खेत से हटकर एक झोपड़ी थी, जहाँ कुछ किसान बैठे गपशप कर रहे थे। राजा और अन्य लोग उन किसानों के पास पहुँचे और उनसे पानी माँगकर पिया। फिर राजा ने किसानों से पूछा, ‘कहो भाई लोगों, तुम्हारे गाँव में कोई व्यक्ति कष्ट में तो नहीं है? अपने राजा से कोई असंतुष्ट तो नहीं है?’ इन प्रश्नों को सुनकर गाँववालों को लगा कि वे लोग अवश्य ही राज्य के कोई अधिकारीगण हैं। वे बोले, ‘महाशय, हमारे गाँव में खूब शांति है, चैन है। सब लोग सुखी हैं। दिन-भर कडी़ मेहनत करके अपना काम-काज करते हैं और रात को सुख की नींद सोते हैं। किसी को कोई दुख नहीं है। राजा कृष्णदेव राय अपनी प्रजा को अपनी संतान की तरह प्यार करते हैं, इसलिए राजा से असंतुष्ट होने का सवाल ही नहीं पैदा होता।
‘इस गाँव के लोग राजा को कैसा समझते हैं?’ राजा ने एक और प्रश्न किया। राजा के इस सवाल पर एक बूढ़ा किसान उठा और ईख के खेत में से एक मोटा-सा गन्ना तोड़ लाया। उस गन्ने को राजा को दिखाता हुआ वह बूढ़ा किसान बोला, ‘श्रीमान जी, हमारे राजा कृष्णदेव राय बिल्कुल इस गन्ने जैसे हैं।’ अपनी तुलना एक गन्ने से होती देख राजा कृष्णदेव राय सकपका गए। उनकी समझ में यह बात बिल्कुल भी न आई कि इस बूढ़े किसान की बात का अर्थ क्या है? उनकी यह भी समझ में न आया कि इस गाँव के रहने वाले अपने राजा के प्रति क्या विचार रखते हैं? राजा कृष्णदेव राय के साथ जो अन्य साथी थे, राजा ने उन साथियों से पूछा, ‘इस बूढ़े किसान के कहने का क्या अर्थ है?’ साथी राजा का यह सवाल सुनकर एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। फिर एक साथी ने हिम्मत की और बोला, ‘महाराज, इस बूढ़े किसान के कहने का साफ मतलब यही है कि हमारे राजा इस मोटे गन्ने की तरह कमजोर हैं। उसे जब भी कोई चाहे, एक झटके में उखाड़ सकता है। जैसे कि मैंने यह गन्ना उखाड़ लिया है।’ राजा ने अपने साथी की इस बात पर विचार किया तो राजा को यह बात सही मालूम हुई। वह गुस्से से भर गए और इस बूढ़े किसान से बोले, ‘तुम शायद मुझे नहीं जानते कि मैं कौन हूँ?’ राजा की क्रोध से भरी वाणी सुनकर वह बूढ़ा किसान डर के मारे थर-थर काँपने लगा। तभी झोंपड़ी में से एक अन्य बूढ़ा उठ खड़ा हुआ और बड़े नम्र स्वर में बोला-‘महाराज, हम आपको अच्छी तरह जान गए हैं, पहचान गए हैं, लेकिन हमें दुख इस बात का है कि आपके साथी ही आपके असली रूप को नहीं जानते। मेरे साथी किसान के कहने का मतलब यह है कि हमारे महाराज अपनी प्रजा के लिए तो गन्ने के समान कोमल और रसीले हैं किंतु दुष्टों और अपने दुश्मनों के लिए महानतम कठोर भी।’ उस बूढ़े ने एक कुत्ते पर गन्ने का प्रहार करते हुए अपनी बात पूरी की। इतना कहने के साथ ही उस बूढ़े ने अपना लबादा उतार फेंका और अपनी नकली दाढ़ी-मूँछें उतारने लगा। उसे देखते ही राजा चौंक पड़े। ‘तेनालीराम, तुमने यहाँ भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा।’ ‘तुम लोगों का पीछा कैसे छोड़ता भाई? अगर मैं पीछा न करता तो तुम इन सरल हृदय किसानों को मौत के घाट ही उतरवा देते। महाराज के दिल में क्रोध का ज्वार पैदा करते, सो अलग।’
‘तुम ठीक ही कह रहे हो, तेनालीराम। मूर्खों का साथ हमेशा दुखदायी होता है। भविष्य में मैं कभी तुम्हारे अलावा किसी और को साथ नहीं रखा करूँगा।’ उन सबकी आपस की बातचीत से गाँववालों को पता चल ही गया था कि उनकी झोंपड़ी पर स्वयं महाराज पधारे हैं और
भेष बदलकर पहले से उनके बीच बैठा हुआ आदमी ही तेनालीराम है तो वे उनके स्वागत के लिए दौड़ पड़े। कोई चारपाई उठवाकर लाया तो कोई गन्ने का ताजा रस निकालकर ले आया। गाँववालों ने बड़े ही मन से अपने मेहमानों का स्वागत किया। उनकी आवभगत की। राजा कृष्णदेव राय उन ग्रामवासियों का प्यार देखकर आत्मविभोर हो गए। तेनालीराम की चोट से आहत हुए दरबारी मुँह लटकाए हुए जमीन कुरेदते रहे और तेनालीराम मंद-मंद मुस्करा रहे थे।
जादुई कुएँ
एक बार राजा कॄष्णदेव राय ने अपने गॄहमंत्री को राज्य में अनेक कुएँ बनाने क आदेश दिया। गर्मियॉ पास आ रही थीं, इसलिए राजा चाहते थे कि कुएँ शीघ्र तैयार हो जाएँ, ताकि लोगो को गर्मियों में थोडी राहत मिल सके। गॄहमंत्री ने इस कार्य के लिए शाही कोष से बहुत-सा धन लिया। शीघ्र ही राजा के आदेशानुसार नगर में अनेक कुएँ तैयार हो गए। इसके बाद एक दिन राजा ने नगर भ्रमण किया और कुछ कुँओं का स्वयं निरीक्षण किया। अपने आदेश को पूरा होते देख वह संतुष्ट हो गए। गर्मियों में एक दिन नगर के बाहर से कुछ गॉव वाले तेनाली राम के पास् पहुँचे, वे सभी गॄहमंत्री के विरुध्द शिकायत लेकर आए थे। तेनाली राम ने उनकी शिकायत सुनी और् उन्हें न्याय प्राप्त करने का रास्ता बताया। तेनाली राम अगले दिन राजा से मिले और बोले, “महाराज! मुझे विजय नगर में कुछ चोरों के होने की सूचना मिली है। वे हमारे कुएँ चुरा रहे हैं।”
इस पर राजा बोले, “क्या बात करते हो, तेनाली! कोई चोर कुएँ को कैसे चुरा सकता है?” “महाराज! यह बात आश्चर्यजनक जरुर है, परन्तु सच है, वे चोर अब तक कई कुएँ चुरा चुके हैं।” तैनाली राम ने बहुत ही भोलेपन से कहा।
उसकी बात को सुनकर दरबार में उपस्थित सभी दरबारी हँसने लगे।
महाराज ने कहा’ “तेनाली राम, तुम्हारी तबियत तो ठीक है। आज कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो? तुम्हारी बातों पर कोई भी व्यक्ति विश्वास नहीं कर सकता।”
“महाराज! मैं जानता था कि आप मेरी बात पर विश्वास नही करंगे, इसलिए मैं कुछ गॉव वालों को साथ साथ लाया हूँ।वे सभी बाहर खडे हैं। यदि आपको मुझ पर विश्वास नहीं है, तो आप उन्हें दरबार में बुलाकर पूछ लीजिए। वह आपको सारी बात विस्तारपूर्वक बता दंगे।”
राजा ने बाहर खडे गॉव वालों को दरबार में बुलवाया। एक गॉव वाला बोला, “महाराज! गॄहमंत्री द्वारा बनाए गए सभी कुएँ समाप्त हो गए हैं। आप स्वयं देख सकते हैं।”
राजा ने उनकी बात मान ली और गॄहमंत्री, तेनाली राम, कुछ दरबारियों तथा गॉव वालो के साथ कुओं का निरीक्षण करने के लिए चल दिए। पूरे नगर का निरीक्षण करने के पश्चात उन्होंने पाया कि राजधानी के आस-पास के अन्य स्थानो तथा गॉवों में कोई कुऑ नहीं है। राजा को यह पता लगते देख गॄहमंत्री घबरा गया। वास्तव में उसने कुछ कुओ को ही बनाने का आदेश दिया था। बचा हुआ धन उसने अपनी सुख-सुविधओं पर व्यय कर दिया।
अब तक राजा भी तेनाली राम की बात का अर्थ समझ चुके थे। वे गॄहमंत्री पर क्रोधित होने लगे, तभी तेनाली राम बीच में बोल पडा “महाराज! इसमें इनका कोई दोष नहीं है। वास्तव में वे जादुई कुएँ थे, जो बनने के कुछ दिन बाद ही हवा में समाप्त हो गए।”
अपनी बात स्माप्त कर तेनाली राम गॄहमंत्री की ओर देखने लगा। गॄहमंत्री ने अपना सिर शर्म से झुका लिया। राजा ने गॄहमंत्री को बहुत डॉटा तथा उसे सौ और कुएँ बनवाने का आदेश दिया। इस कार्य की सारी जिम्मेदारी तेनाली राम को सौंपी गई।
अपराधी
एक दिन राजा कॄष्णदेव राय व उनके दरबारी, दरबार में बैठे थे। तेनाली राम भी वहीं थे । अचानक एक चरवाहा वहॉ आया और बोला, ” महाराज, मेरी सहायता कीजिए। मेरे साथ न्याय कीजिए।” “बताओ, तुम्हारे साथ क्या हुआ है?” राजा ने पूछा।
“महाराज, मेरे पडोस मे एक कंजूस आदमी रहता है। उसका घर बहुत पुराना हो गया है, परन्तु वह उसकी मरम्मत नहीं करवाता। कल उसके घर की एक दीवार गिर गई और मेरी बकरी उसके नीचे दबकर मर गई। कॄपया मेरे पडोसी से मेरी बकरी का हर्जाना दिलवाने में मेरी सहायता कीजिए।”
महाराज के कुछ कहने के पहले ही तेनाली राम अपने स्थान से उठा और बोला, “महाराज, मेरे विचार से दीवार टूटने के लिए केवल इसके पडोसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।”
“तो फिर तुम्हारे विचार में दोषी कौन है?” राजा ने पूछा।
“महाराज, यदि आप मुझे अभी थोडा समय दें, तो मैं इस बात की गहराई तक जाकर असली अपराधी को आपके सामने प्रस्तुत कर दूंगा।” तेनाली राम ने कहा।
राजा ने तेनाली राम के अनुरोध को मान कर उसे समय प्रदान कर दिया। तेनाली राम ने चरवाहे के पडोसी को बुलाया और उसे मरी बकरी का हर्जाना देने के लिए कहा। पडोसी बोला, “महोदय, इसके लिए मैं दोषी नहीं हूँ। यह दीवार तो मैंने मिस्त्री से बनवाई थी, अतः असली अपराधी तो वह मिस्त्री है, जिसने वह दीवार बनाई। उसने इसे मजबूती से नहीं बनाया। अतः वह गिर गई।”
तेनाली राम ने मिस्त्री को बुलवाया। मिस्त्री ने भी अपने को दोषी मानने से इनकार कर दिया और बोला, “अन्नदाता, मुझे व्यर्थ ही दोषी करार दिया जा रहा है जबकि मेरा इसमें कोई दोष नहीं है। असली दोष तो उन मजदूरों का है, जिन्होंने गारे में अधिक पानी मिलाकर मिश्रण को खराब बनाया, जिससे ईंटें अच्छी तरह से चिपक नहीं सकीं और दीवार गिर गई। आपको हर्जाने के लिए उन्हें बुलाना चाहिए।”
राजा ने मजदूरों को बुलाने के लिए अपने सैनिकों को भेजा। राजा के सामने आते ही मजदूर बोले, “महाराज, इसके लिए हमें दोषी तो वह पानी वाला व्यक्ति है, जिसने गारे चूने में अधिक पानी मिलाया।”
अब की बार गारे में पानी मिलाने वाले व्यक्ति को बुलाया गया। अपराध सुनते ही वह बोला, “इसमें मेरा कोई दोष नहीं है महाराज, वह बर्तन जिसमें पानी हुआ था, वह बहुत बडा था। जिस कारण उसमें आवश्यकता से अधिक पानी भर गया। अतः पानी मिलाते वक्त मिश्रण में पानी की मात्रा अधिक हो गई। मेरे विचार से आपको उस व्यक्ति को पकडना चाहिए, जिसने पानी भरने के लिए मुझे इतना बडा बर्तन दिया।
तेनाली राम के पूछने पर कि वह बडा बर्तन उसे कहॉ से मिला, उसने बताया कि पानी वाला बडा बर्तन उसे चरवाहे ने दिया था, जिसमें आवश्यकता से अधिक पानी भर गया था|
तब तेनाली राम ने चरवाहे से कहा, “देखो, यह सब तुम्हारा ही दोष है। तुम्हारी एक गलती ने तुम्हारी ही बकरी की जान ले ली।”
चरवाहा लज्जित होकर दरबार से चला गया। परन्तु सभी तेनाली राम के बुद्धिमतापूर्ण न्याय की भूरी-भूरी प्रशंसा कर रहे थे।
तेनालीराम की कला
विजय नगर के राजा अपने महल में चित्रकारी करवाना चाहते थे। इस काम के लिए उन्होंने एक चित्रकार को नियुक्त किया। चित्रों को जिसने देखा सबने बहुत सराहा। पर तेनालीराम को कुछ शंका थी। एक चित्र की पूष्ठभूमि में एक प्राकृतिक दृश्य था। उसके सामने खडे होकर बडे भोलेपन से पूछा,इसका दूसरा पक्ष कहां है? इसके दूसरे अंग कहां है? राजा ने हंसकर कहां कि तुम इतना भी नही समझते कि उनकी कल्पना करनी होती है। तेनाली ने मुहं बिचकाते हुये कहां अच्छा तो चित्र ऐसे बनते है! ठीक है मैं समझ गया। कुछ महीने बाद तेनालीराम ने राजा से कहां, मै कई महीनो से चित्रकारी सीख रहा हूं आपकी आज्ञा हो तो मै राजमहल की दीवारो पर चित्र बनाना चाहता हूं।
तेनालीराम ने पुराने चित्रो पर सफेदी पोती और उनकी जगह अपने चित्र बना दिए उसने अलग-अलग शरीर के अगों को अलग-अलग भागो में भर दिया और राजा को अपनी कला को देखने के लिये बुलाया पर दिवारो पर अलग-अलग शरीर के अंगो को देख कर राजा बहुत निराश हुआ और पूछा,यह तुमने क्या किया?तस्वीरे कहां है?
तेनालीराम ने कहा, चित्रो मे बाकि चीजो की कल्पना करनी होती है फिर उसने एक चित्र दिखाया राजा ने पूछा यह आडी-टेढी लकीरे क्या है? तेनाली बोला यह घास खाती गाय का चित्र है।
राजा ने पूछा-गाय कहां है? गाय घास खाकर बाडे में चली गई है ये कल्पना कर लीजिए हो गया न चित्र पूरा। राजा उसकी पूरी बात समझ गया कि तेनाली ने उस दिन की बात का जवाब दिया है।
टिक्कड चटनी का भोग
एक गांव में एक पंडित जी भागवत कथा सुनाने आए। पूरे सप्ताह कथा वाचन चला। पूर्णाहुति पर दान दक्षिणा की सामग्री इक्ट्ठा कर घोडे पर बैठकर पंडितजी रवाना होने लगे। गांव के धन्ना जाट ने उनके पांव पकड लिए। वह बोला- पंडितजी महाराज ! आपने कहा था कि जो ठाकुरजी की सेवा करता है उसका बेडा पार हो जाता है। आप तो जा रहे है। मेरे पास न तो ठाकुरजी है, न ही मैं उनकी सेवापूजा की विधि जानता हूं। इसलिए आप मुझे ठाकुरजी देकर पधारें। पंडित जी ने कहा- चौधरी, तुम्हीं ले आना। धन्ना जाट ने कहा - मैंने तो कभी ठाकुर जी देखे नहीं, लाऊंगा कैसे ? पंडित जी को घर जाने की जल्दी थी। उन्होंने पिण्ड छुडाने को अपना भंग घोटने का सिलबट्टा उसे दिय और बोले - ये ठाकुरजी है। इनकी सेवापूजा करना। धन्ना जाट ने कहा - महाराज में सेवापूजा का तरीका भी नहीं जानता। आप ही बताएं। पंडित जी ने कहा - पहले खुद नहाना फिर ठाकुर जी को नहलाना। इन्हें भोग चढाकर फिर खाना। इतना कहकर पंडित जी ने घोडे के एड लगाई व चल दिए। धन्ना सीधा एवं सरल आदमी था। पंडितजी के कहे अनुसार सिलबट्टे को बतौर ठाकुरजी अपने घर में स्थापित कर दिया। दूसरे दिन स्वयं स्नानकर सिलबट्टे रूप ठाकुरजी को नहलाया। विधवा मां का बेटा था। खेती भी ज्यादा नहीं थी। इसलिए भोग मैं अपने हिस्से का बाजरी का टिक्कड एवं मिर्च की चटनी रख दी। ठाकुरजी से धन्ना ने कहा-पहले आप भोग लगाओ फिर मैं खाऊंगा। जब ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो बोला-पंडित जी तो धनवान थे। खीर-पूडी एवं मोहन भोग लगाते थे। मैं तो जाट का बेटा हूं, इसलिए मेरी रोटी चटनी का भोग आप कैसे लगाएंगे ? पर साफ-साफ सुन लो मेरे पास तो यही भोग है। खीर पूडी मेरे बस की नहीं है। ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो धन्ना भी छह दिन भुखा रहा। इसी तरह वह रोज का एक बाजरे का ताजा टिक्कड एवं मिर्च की चटनी रख देता एवं भोग लगाने की अरजी करता। ठाकुरजी तो पसीज ही नहीं रहे थे। छठे दिन बोला-ठाकुरजी, चटनी रोटी खाते क्यों शर्माते हो ? आप कहो तो मैं आंखें मूंद लू फिर खा लो। ठाकुरजी ने फिर भी भोग नहीं लगाया तो नहीं लगाया। धन्ना भी भूखा प्यासा था। सातवें दिन धन्ना जट बुद्धि पर उतर आया। फूट-फूट कर रोने लगा एवं कहने लगा कि सुना था आप दीन-दयालु हो, पर आप भी गरीब की कहां सुनते हो, मेरा रखा यह टिककड एवं चटनी आकर नहीं खाते हो तो मत खाओ। अब मुझे भी नहीं जीना है, इतना कह उसने सिलबट्टा उठाया और सिर फोडने को तैयार हुआ, अचानक सिलबट्टे से एक प्रकाश पुंज प्रकट हुआ एवं धन्ना का हाथ पकड कहा- देख धन्ना मैं तेरा चटनी टिकडा खा रहा हूं। ठाकुरजी बाजरे का टिक्कड एवं मिर्च की चटनी मजे से खा रहे थे। जब आधा टिक्कड खा लिया तो धन्ना बोला-क्या ठाकुरजी मेरा पूरा टिक्कड खा जाओगे ? मैं भी छह दिन से भूखा प्यासा हूं। आधा टिक्कड तो मेरे लिए भी रखो। ठाकुरजी ने कहा - तुम्हारी चटनी रोटी बडी मीठी लग रही है तू दूसरी खा लेना। धन्ना ने कहा - प्रभु ! मां मुझे एक ही रोटी देती है। यदि मैं दूसरी लूंगा तो मां भूखी रह जाएगी। प्रभु ने कहा-फिर ज्यादा क्यों नहीं बनाता। धन्ना ने कहा - खेत छोटा सा है और मैं अकेला। ठाकुरजी ने कहा - नौकर रख ले। धन्ना बोला-प्रभु, मेरे पास बैल थोडे ही हैं मैं तो खुद जुतता हूं। ठाकुरजी ने कहा-और खेत जोत ले। धन्ना ने कहा-प्रभु, आप तो मेरी मजाक उडा रहे हो। नौकर रखने की हैसियत हो तो दो वक्त रोटी ही न खा लें मां-बेटे। इस पर ठाकुरजी ने कहा - चिन्ता मत कर मैं तेरी मदद करूंगा। कहते है तबसे ठाकुरजी ने धन्ना का साथी बनकर उसकी मदद करनी शुरू की। धन्ना के साथ खेत में कामकाज कर उसे अच्छी जमीन एवं बैलों की जोडी दिलवा दी। कुछे अर्से बाद घर में भैंस भी आ गई। मकान भी पक्का बन गया। सवारी के लिए घोडा आ गया। धन्ना एक अच्छा खासा जमींदार बन गया। कई साल बाद पंडितजी पुनः धन्ना के गांव भागवत कथा करने आए। धन्ना भी उनके दर्शन को गया। प्रणाम कर बोला-पंडितजी, आप जो ठाकुरजी देकर गए थे वे छह दिन तो भूखे प्यासे रहे एवं मुझे भी भूखा प्यासा रखा। सातवें दिन उन्होंने भूख के मारे परेशान होकर मुझ गरीब की रोटी खा ही ली। उनकी इतनी कृपा है कि खेत में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर काम में मदद करते है। अब तो घर में भैंस भी है। आफ सात दिन का घी-दूध का ‘सीधा‘ यानी बंदी का घी-दूध मैं ही भेजूंगा। पंडितजी ने सोचा मूर्ख आदमी है। मैं तो भांग घोटने का सिलबट्टा देकर गया था। गांव में पूछने पर लोगों ने बताया कि चमत्कार तो हुआ है। धन्ना अब वह गरीब नहीं रहा। जमींदार बन गया है। दूसरे दिन पंडितजी ने कहा-कल कथा में तेरे खेत में काम वाले साथी को साथ लाना। घर आकर प्रभु से निवेदन किया कि कथा में चलो तो प्रभु ने कहा - मैं नहीं चलता तुम जाओ। धन्ना बोला - तब क्या उन पंडितजी को आपसे मिलाने घर ले आऊ। प्रभु ने कहा - हरगिज नहीं। मैं झूठी कथा कहने वालों से नहीं मिलता। जो अपना काम मेरी पूजा समझ करता है मैं उसी के साथ रहता हूं।
सच्ची लगन
एक फकीर बगदाद शहर में इकतारा बजाते हुए घूम रहा थां अचानक उसके पांव में एक कील चुभ गई। कील चुभने से एक लंबी आह के साथ फकीर अपना पांव पकड कर रास्ते में ही बैठ गया। उसके पांव से लगातार खून बह रहा था। भक्तों की भीड फकीर के पास इक्ट्ठी हो गई। देखते ही देखते एक भक्त हकीम को बुला लाया। हकीम ने कील निकालने के लिए ज्योंही अपना हाथ बढाया, पांव छूते ही फकीर दर्द के मारे चीख पडा। हकीम कहने लगा - अभी तो मैंने कील के हाथ भी नहीं लगाया है। कील निकाले बिना मैं पट्टी करूंगा भी कैसे ? आप थोड-सा मन को मजबूत कर लीजिए। मैं अभी कील निकाल देता हूं। फकीर ने कहा- इस समय मन को मजबूत रखना मेरे वश की बात नहीं है। हकीम ने कहा - कील निकाले बिना कोई रास्ता भी नहीं है।
पास खडे एक भक्त ने हकीम से कहा - आप एक काम करें, चार बजे ये नमाज पढेंगे, उस समय कील निकाल देना। हकीम ने आश्चर्य से पूछा - जो आदमी हाथ नहीं लगाने दे रहा है वह नमाज भी पढ पाएगा या नहीं। भक्त ने कहा - मैं जानता हूं कि जब उस्ताद खुदा की इबादत में रहेंगे उस समय आप इनकी कील निकाल देना। वैसा ही किय गया। फकीर ने उफ तक नहीं किया। बस नमाज के बाद इतना सा पूछा- क्या कील निकल गई ? जो फकीर कील के छूने मात्र से चीख पडा था। उसे पता नहीं चला कि कील कब निकल गई। हकीम ने इसका राज जानना चाहा, फकीर ने कहा - पहले मैं अपने शरीर में था इसलिए मुझे दुखी कर रहा था। नमाज के वक्त मैं खुदा की इबादत में था। शरीर के बारे में मुझे कोई भान नहीं था। मेरी लगन तो नमाज में लगी थी। हकीम ने सलाम करते हुए कहा - सच्ची लगन से की गई प्रार्थना ही सच्ची प्रार्थना है।
तीर बने तुक्के
एक गांव में चार मूर्ख रहते थे। एक दिन चारों परदेस के लिए रवाना हुए। रास्ते में भुख लगी। एक वट वृक्ष के नीचे विश्राम किया। भोजन के लिए अलग-अलग काम बांटा गया। रोटियां तैयार हुई। घी लाने का काम किसी को नहीं सौंपा। परस्पर तनातनी बढी। घी कौन लाए ? आखिर फैसला हुआ कि जो पहले बोलेगा उसे घी लाना पडेगा। चारों पालथी मार बैठ गए। इतने में दो कुत्ते आए। सारी रोटियां खा गए। कोई भी नहीं बोला। रात हो गई। दो चोर चोरी करने आए। वृक्ष के नीचे अपने थैलों को ठीक करने लगे। इतने में ही चोरों को सिपाही दिख गए। चोर दौड गए पर धन के थैले छोड गए। सिपाहियों ने धन देख उनसे पूछा- क्या तुम चोर हो ? घी लाने के डर से चारों मौन रहे। चारों को हथकडया डाल राजदरबार लाया गया। राजा ने चारों को चोर समझकर जेल भेज दिया। इतने में ही छोटे मूर्ख से रहा नहीं गया और वह जोर से बोला - हम चोर नहीं है। यह सुनते ही तीनों हल्ला करने लगे - घी तुम्हें लाना है, घी तुम्हें लाना है।
जेल वाले दंग रह गए। यह क्या बला है ? वे राजदरबार में आए। उन्होंने राजा को अवगत कराया। राजा के आदेश से चारों ही मूर्ख राजदरबार में हाजिर हुए। उन चारों की शक्ल देखकर राजा ने सोचा - ये लोग होने तो मूर्ख चाहिए, किंतु है किस्मत वाले। राजा ने किस्मत की परीक्षा करने के लिए चारों से प्रश्न किया- बोलो भाई ! मेरी बंद मुट्ठी में क्या है ? पहले मूर्ख को राजा की बात ही समझ में नहीं आई इसलिए उसने तुक्का लगाया और कहा - सब गोलमाल है। दूसरे ने तुक्के का अर्थ अनारदाना समझते हुए कहा - रंग लाल-लाल है। तीसरे ने कहा - और दानेदार है। चौथा समझ गया कि ये किसी फल की बात कर रहे है इसलिए उसने तुक्का लगाया- खोल मुट्ठी राजा हाथ में अनार है। चारों के तुक्के सच्चे निकलें। राजा खुश हुआ और उसने कहा - तुमने यह सब अंदाज कैसे लगाया ? चारों ने कहा - हमने सोचा कि एक तुक्के से दूसरा तुक्का जोडते जाएंगे और जोडने के काम में कभी किसी को नुकसान नहीं हुआ है। तोडने वाले काम से नुकसान होता है। राजा ने कहा -भाई, तुम्हारें तुक्के तो तीर बनकर सीधे निशाने पर लगे है। राजा ने चारों को इनाम दिया और वे चारों इनाम राशि लेकर उसी वृक्ष के नीचे जा पहुंचे। रातभर विश्राम किया। राजा से भेंट में मिले रूपयों को वृक्ष की जड में खुले ही रखकर सो गए। थोडी देर में नींद आ गई।
इधर कोतवाल चलता फिरता वहां पहुंच गया। दो हजार रूपयों को देखकर उसका जी ललचाया। रूपयों को लेकर वह अपने घर आ गया। सुबह चारों उठे। रूपए नहीं मिलने से चारों राजा के पास वापस आए। राजा ने कहा- तुम ही तुक्के लगाकर बताओ कि रूपए किसने लिए है ?
पहला बोला- आयो फिरतो फिरतो। दूसरा बोला- आयो घोडा चढतो। तीसरा बोला- हाथ में तलवार और चौथा बोला - चोर कोतवाल। कोतवाल ही हमारे रूपयों का चोर है। कोतवाल को दरबार में बुलाया गया। राजा ने सब बात पूछी। चारों के तुक्के सच थे। राजा फिर चारों के सही तुक्कों पर बडा खुश था। कोतवाल को सजा मिली और राजा ने चारों को एक-एक हजार रूपये का इनाम दिया।
व्यापारी की पत्नी
एक नगर में एक व्यापारी रहता था। उसकी पत्नी बहुत संदर थी। एक दिन पति-पत्नी अपने रिश्तेदारों से मिलने दूसरे गांव जा रहे थे। सफर की दूरी कम होने से वे दोनों पैदल ही चल दिए। मार्ग में एक गाडीवान किसान ने व्यापारी की पत्नी को देखा। उसके मन में पास का सांप जग गया। वह व्यापारी से बोला - महाशय ! आप कहां जाएंगे ? व्यापारी ने गांव का नाम बता दिया।
किसान गांव का नाम सुनकर बोला - मैं भी उसी गांव में जा रहा हूं। आप अपनी पत्नी को मेरी गाडी में बिठाना चाहे तो बिठा दे। व्यापारी ने अपनी पत्नी को गाडी में बिठा दिया। खुद पैदल चल दिया। किसान ने गाडी में जुते बैलों को तेज-तेज दौडाना शुरू किया। व्यापारी गाडी के पीछे-पीछे भागने लगा। मार्ग में किसान ने उसकी पत्नी को अपनी बातों के जाल फंसाकर वश में कर लिया। जब वे उस गांव के निकट पहुंचे, तो व्यापारी ने किसान को आवाज दी - भाई ! ठहर जाओ, हमारा गांव आ गया है, पत्नी को उतार दो।
भाई! हमारा गांव तो आगे है और यह स्त्री मेरी पत्नी है। यह सुनकर व्यापारी दौडकर गाडीवान के पास पहुंचा और चिल्लाने लगा कि यह गाडी वाला मेरी पत्नी को नहीं उतार रहा है। व्यापारी की बात सुनकर आसपास के राहगीर खडे हो गए लेकिन कोई फैसला नहीं कर सका कि वह स्त्री किसकी पत्नी है। इसलिए वे दोनों राजा के दरबार में पहुंचे।
राजा ने उन दोनेां की बातें सुनकर मंत्री से इस बात का निर्णय करने के लिए कहा। मंत्री ने उस स्त्री को अपने पास बुलाया और उससे पूछा - क्या बात है ? औरत चुप रही, वह कुछ नहीं बोली। मंत्री उलझन में फंस गया। थोडी देर सोचने के बाद उसने उस औरत को स्याही की दवात देकर कहा-इसमें पानी डालकर ले आओ। मंत्री की यह बात सुनकर औरत खडी हुई और दवात में पानी डालकर ले आई। मंत्री ने दवात से स्याही लेकर एक कागज पर दो-चार शब्द लिखकर देखें। स्याही में पानी सही अनुपात में डाला गया था। मंत्री ने व्यापारी से कहा-तुम अपनी पत्नी को ले जाओ, यह स्त्री तुम्हारी है।
उसके बाद किसान को झूठ बोलने और गलत आचरण करने पर सजा दी। यह देखकर राजा ने मंत्री से पूछा-तुम्हें यह कैसे पता चला कि वह औरत व्यापारी की है ? मंत्री बोला - राजन् ! मैंने उस औरत से दवात में पानी डालने को कहा। उसने उतना ही पानी डाला, जितनी स्याही के लिए जरूरी था। इससे मुझे पता चल गया कि वह औरत किसान की नहीं है। व्यापारी स्याही में पानी अवश्य डलवाता होगा। उसे स्याही में पानी डालने की आदत थी, अतः स्याही में जितने पानी की जरूरत थी वह उतना ही पानी डालकर ही लाई। यदि वह किसान की स्त्री होती, तो अनाडीपन से कम या अधिक मात्रा में पानी भर लाती। राजा ने मंत्री की चतुराई की तारीफ की और सही सही न्याय करने के लिए उसे पुरस्कृत किया।
बीरबल की बुद्धिमानी
अकबर बादशाह का दरबार सजा हुआ था। बीरबल दरबार में अनुपस्थित थे। तभी एक दरबारी ने खडे होकर कहा- जहांपनाह् ! आप हर काम के लिए बीरबल की सहायता लेते है। इसलिए हमें अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देने का अवसर नहीं मिलता। वैसे भी बीरबल हमसे आयु में छोटे है। फिर भी आप उसे हमसे अधिक सम्मान देते है, जबकि उस सम्मान के हकदार हम है।
बादशाह बोले - तुम लोगों की सोच गलत है। बीरबल बहुत बुद्धिमान है, बुद्धिमत्ता में उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। इसी वजह से मैं हर बात उससे ही पूछता हूं। दरबारियों को बदशाह की यह बात अच्छी नहीं लगी, पर वे चुपचाप बैठ गए। सबको चुप बैठा देखकर बादशाह बोले - अगर तुम लोगों को इस बात का घमंड है कि तुम लोग ज्यादा चतुर हो, तो आज तुम सभी की चतुराई की परीक्षा होगी, जो पास हो जाएगा उसे बीरबल की जगह मिल जाएगी। अक्ल की परीक्षा के लिए बादशाह ने दो हाथ लंबी एक चादर मंगाई। बादशाह ने दरबारियों से कहा- देखों मैं लेट जाता हूं और तुम लोग बारी-बारी से इस चादर से मेरा जिस्म ढंकने की कोशिश करना। ध्यान रहे कि जिस्म का कोई भी हिस्सा खुला नहीं रहने पाए। यह काम जो कोई कर लेगा, उसे बीरबल का स्थान मिल जाएगा। बादशाह लेट गए। सभी दरबारी बारी-बारी से चादर ओढाने की कोशिश करने लगे। कोई भी दरबारी यह काम नहीं कर सका।
जब कोई भी दरबारी बादशाह को नहीं ढक सका तो वे उठ खडे हुए और बोले - अगर इस वक्त यहां बीरबल होते तो वह अवश्य ही अच्छी तरह से मेरा जिस्म ढंक देते। जब आप यह मामूली सा काम ही नहीं कर पाए, तो बडा काम कैसे कर पाएंगे ? अब बादशाह ने बीरबल को बुलाने का हुक्म दिया।
बीरबल आकर अपनी जगह पर अदब से बैठ गए। बादशाह ने उन्हें अपने पास बुलाया। चादर उनके हाथ में देकर सारी बात बताई। बादशाह लेट गए। बीरबल ने जब देखा कि चादर बहुत छोटी है, तो उसने बादशाह से कहा- समझदार आदमी वह है जो उतने ही पांव लंबे करता है जितनी लंबी चादर होती है। इसीलिए कहा गया है - तेते पांव पसारिए, जेती लांबी सोर। यानी उतने ही पैर फैलाएं जितनी बडी चादर हो। यह सुनकर बादशाह ने समझदार दिखने के लिए पांव समेट लिए। बीरबल ने बादशाह के पूरे शरीर को चादर से ढंक दिया। बादशाह ने दरबारियों से कहा-देखी आपने बीरबल की चतुराई, चुगलखोर दरबारियों का सिर शर्म से झुक गया।
और मनुष्य बुद्धिमान हो गए
बहुत पुरानी बात है। अफ्रीका के किसी गांव में अनानसी नाम का एक व्यक्ति रहता था। पूरी दुनिया में वही सबसे बुद्धिमान था। सभी लोग उससे सलाह और मदद मांगने आते थे।एक दिन अनानसी किसी बात पर दूसरे मनुष्यों से नाराज हो गया। उसने उन्हें दण्ड देने की सोची। उसने यह तय किया कि वह अपना सारा ज्ञान उनसे हमेशा के लिए छुपा देगा ताकि कोई और मनुष्य ज्ञानी न बन सक। उसी दिन से उसने अपना सारा ज्ञान बटोरना शुरू कर दिया। जब उसे लगा कि उसने सारा ज्ञान बंटोर लिया है तो मिट्टी के एक मटके में सारे ज्ञान को बंद कर दिया और अच्छी तरह से सीलबंद कर दिया। उसने यह निश्चय किया कि उस मटके को वह ऐसी जगह रखेगा जहां से कोई और मनुष्य उसे प्राप्त न कर सके।अनानसी के एक बेटा था जिसका नाम कवेकू था। कवेकू को धीरे-धीरे यह अनुभव होने लगा कि उसका पिता किसी संदिग्ध कार्य में लिप्त है इसलिए उसने अनानसी पर नजर रखनी शुरू कर दी। एक दिन उसने अपने पिता को एक मटका लेकर दबे पांव झोंपडी से बाहर जाते देखा। कवेकू ने अनानसी का पीछा किया। अनानसी गांव से बहुत दूर एक जंगल में गया और उसने मटके को सुरक्षित रखने के लिए एक बहुत ऊंचा पेड खोज लिया। अपना ज्ञान दूसरों में बंट जाने की आशंका से भयभीत अनानसी मटके को अपनी आंखों के सामने ही रखना चाहता था इसलिए वह अपनी छाती पर मटके को टांगकर पेड पर चढने लगा। उसने कई बार पेड पर चढने की कोशिश की लेकिन वह जरा सा भी नहीं चढ पाया। सामने की और मटका टंगा होने के कारण वह पेड को पकड नहीं पा रहा था। कुछ देर तक तो कवेकू अपने पिता को पेड पर चढने का अनथक प्रयास करते देखता रहा। उससे जब रहा न गया तो वह चिल्लाकर बोला-पिताजी, आप मटके को अपनी पीठ पर क्यों नहीं टांगते ? तब आप पेड पर आसानी से चढ जाएंगे। अनानसी मुडा और बोला-मुझे तो लगता था कि मैंने दुनिया सारा ज्ञान इस मटके में बंद कर लिया है। लेकिन तुम तो मुझसे भी ज्यादा ज्ञानी हो। मेरी सारी बुद्धि वह नहीं समझ पा रही थी जो तुम दूर बैठे ही जान रहे थे। उसे कवेकू पर बहुत गुस्सा आया और क्रोध में उसने मटका जमीन पर पटक दिया। जमीन पर गिरते ही मटका टूट गया और उसमें बंद सारा ज्ञान उसमें से निकलकर पूरी दुनिया में फैल गया और सारे मनुष्य बुद्धिमान हो गए।
बादशाह की ईमानदारी
बादशाह नासिरूद्दीन बहुत सच्चरित्र और ईमानदार था। उसन आजीवन राजकोष से एक भी पैसा नहीं लेकर अपनी हस्तलिखित पुस्तकों से जीवन निर्वाह किया। इतना बडा बादशाह होने पर भी उनके एक पत्नी थी। घरेलू कार्यों के अलावा रसोई में भी स्वयं बेगम ही काम करती थी। एक बार रसोई में काम करते समय बेगम का हाथ जल गया। बेगम ने बादशाह से कुछ दिनों के लिए रसोई के लिए एक नौकरानी रख देने की प्रार्थना की। बादशाह ने अस्वीकार करते हुए कहा-राजकोष पर मेरा कोई अधिकार नहीं है, वह तो प्रजा की ओर से मेरे पास धरोहर मात्र है और धरोहर से अपने कार्यों के लिए खर्च करना अमानत में खयानत है। बादशाह को ही नहीं हर नागरिक को स्वावलम्बी होना चाहिए। अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण के लिए स्वयं की कमाना चाहिए। जब बेगम की तबियत ज्यादा बिगड गई तो एक दिन बादशाह स्वयं रसोईखाने में भोजन बनाने लगे। बेगम रो पडी तो बादशाह बोले- जो राजा स्वावलम्बी नहीं होगा, उसकी प्रजा भी अकर्मण्य हो जाएगी, इसलिए मैं अपने हाथ से काम करना बुरा नहीं मानता। राजकोष से मैं एक पैसा भी नहीं ले सकता। इसीलिए तुम्ही बताओं कि अपने हाथ से काम करना पसंद है या हराम का खाना। बेगम भी अपने पति की ही तरह थी। उसे बात जंच गई और उसने फिर स्वस्थ होने के बाद नौकरानी रखने की जिद नहीं की।
सही नजरिया
एक गुरू ने बारह साल तक गुरूकुल में अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान की। दीक्षा के समय उनकी परीक्षा लेने के लिए गुरू ने निर्देश दिया कि आश्रम के आसपास जो पौधे है, इनमें से बेकार पौधों की सूची बनाकर लाओ। सभी शिष्य प्रसन्न मन से चले गए। सभी शिष्य अपने-अपने नजरिए से बेकार पौधों की सूची बना लाए। एक शिष्य ने खाली कागज गुरू के सामने रख दिया। गुरू ने पूछा-क्या बात है, तुमने बेकार और फालतू पौधों की सूची नहीं बनाई । शिष्य ने कहा - गुरूदेव ! हर पौधा किसी न किसी गुण से युक्त है। प्रकृति ने उसे यूं ही पैदा नहीं किया है। प्रकृति के हर उत्पाद का अपना महत्व है। जिस घास और चारे को हम फालतू समझते है वे भी पशुओं और वैद्य हकीमों के लिए महत्वपूर्ण है। अनजान और बेकार दिखाई देने वाली खरपतवार भी कई औषधीय गुण रखती है। गुरू ने अन्य शिष्यों से कहा - तुम्हारी शिक्षा अभी अधूरी है। दीक्षा केवल इसे ही प्रदान की जाएगी। क्योंकि इसका नजरिया सकारात्मक है। पौधों की तरह प्राणियों में भी अपने-अपने गुण-स्वभाव विद्यमान है। इसलिए हर चीज को नकारात्मक नजरिए से नहीं देखना चाहिए। गुरू ने सभी शिष्यों को यह नसीहत देते हुए उस एक शिष्य को दीक्षा के योग्य माना। सभी शिष्यों ने नकारात्मक सोच छोडकर सकारात्मक नजरिया अपनाने की प्रतिज्ञा की।
शाह की समझ
नादिरशाह ईरानक का बादशाह था। वह ईरान से अपनी सेवा सहित भारत आ पहुंचा। करनाल में नादिरशाह से हार कर दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह ने उससे संधि कर ली। संधि प्रस्ताव की बैठक में नादिरशाह को प्यास लगी। उसने पानी मांगा। मुहम्मद शाह ने अपने मंत्री को पानी लाने का इशारा किया। मंत्री ने पहले नगाडा बजवाया। कुछ ही पलों बाद सात-आठ सेवक एक झारे में जल लेकर आते दिखे। एक सेवक झारे को थामे हुए था। दूसरा उस पर छत्र ताने था। तीसरा मखमली कपडा ढक कर धीरे धीरे चल रहा था। चौथा चंवर ढुला रहा था। एक दासी सिंहासन के समीप खडी थी उसने जल के झारे को हाथ में लिया और नादिरशाह के सामने बाअदब पेश किया। नादिरशाह ने यह देखकर पूछा-यह क्या नाटक हो रहा है ? मुहम्मद शाह ने कहा- हजूरे आला आपने पानी की फरमाइश की है, वही लाया जा रहा है। नादिरशाह ने कहा-इस तरह से पानी पीता तो ईरान से भारत भी नहीं पहुंच पाता। लडाई जीतना तो बहुत दूर की बात है। यह कहकर उसने अपने भिश्ती को बुलाया और अपने लोहे के कनटोप में पानी भरकर भर पेट पानी पीया। सारे दरबारी देखते रहे। मुहम्मदशाह को समझ में आ गया कि विजेता वही होता है जो वक्त की कद्र करना जानाता है।
लम्बी जबान
अंग्रेजों ने हिन्दूस्तान पर सैकडों साल तक राज किया। हिन्दूस्तान स्वतंत्र हुआ। जब अंगेज हिन्दूस्तान से अपने देश इंग्लैण्ड की ओर प्रस्थान करने लगे तो किसी भारतीय ने अंग्रेज से पूछा- भैया ! आप लोग वर्षों तक भारत में रहे है, आप एक बात बताएं, भारत के लोगों के बारे में आपकी क्या राय है ? अंग्रेज ने कहा - भारत निश्चित रूप से महान है। इसमें सुई भर भी संशय की बात नहीं है। पर भारत के लोगों की जबान बहुत लम्बी है और हाथ-पांव एकदम छोटे। उस भारतीय ने कहा - कहां है हमारे हाथ-पांव एकदम छोटे। हमार तो जबान भी लम्बी नही है। समझाते हुए अंग्रेज ने कहा - आप लोग ज्ञान विज्ञान की बातें करते हुए कहते हैं कि सब कुछ हमारे शास्त्रों में लिखा है। यह सच भी है पर आप लोगों ने खोज के लि हाथ पांव नहीं चलाए इसलिए दुनिया के सभी आविष्कारों का श्रेय दूसरे लोग ले गए। भारतीय ने माना कि अब वह बातें कम और काम ज्यादा करेगा।
सूई-डोरे की बात
बगीचे के माली के हाथों पडकर सुई मन ही मन फूल उठी। बहुत उत्साहित होकर उसने सैकडों फूलों के दिल बींध दिए। अपनी इस जीत के घमंड में चूर होकर उसने यह भी नहीं देखा कि सैकडों फूलों के दिल बिंधने से बनी मालाओं से उसे कुछ भी नहीं मिला। माली ने सूई को अपनी पगडी के अंतिम सिरे में खोंस दिया। सूई अलग-थलग पड गई। अपनी उपेक्षा पर दुःखी सूई ने धागे को ललकारा- ‘दुष्ट ! इन सुन्दर फूलों पर मेरा अधिकार है। मैंने इनका शिकार किया है, तू क्यों इन्हें बटोरता है ?“डोरे ने उत्तर दिया - तू अपने घमंड की वजह से चूर होकर छली गई। जबकि मैं अपने लचीलेपन की वजह से फूलों के दिल में बैठा हूं। सूई समझ गई, उसने डोरे से कहा- भाई अब मैं कभी घमंड नहीं करूंगी। दूसरे दिन माली ने भी उसे पगडी के ऊपरी सिरे लगाना शुरू किया। डोरे ने सुई से कहा- तुम्हारे घमंड छोडते ही माली ने तुम्हें सिर पर बिठा लिया है।
बडा हुआ तो क्या हुआ
नानपोह का निवासी संत त्सुचि एक बार शाड पर्वत पर आराम कर रहे थे। सामने एक बडा वृक्ष दिखाई दिया। त्सुचि के मुख से आश्चर्य मिश्रित उद्गार निकल पडे कि इतना विशाल भी कोई वृक्ष हो सकता है, जिसकी छांह में राहगीर अपनी थकान मिटा सकते है। यह किस प्रजाति का पेड होगा ? त्सुचि सोचने लगे। निश्चय ही इसकी लकडी बहुत उम्दा होगी। जब उन्होंने वृक्ष का निरीक्षण करना शुरू किया तो उन्हें दिखा कि वृक्ष की शाखाएं इतनी टेढी मेढी हैं कि उससे एक जहाजी बेडा बनाया नहीं जा सकता । उसके तने में गांठे भी इतनी है उससे ताबूत के लिए तख्त बनाना भी संभव नहीं है। जब त्सुचि ने उसका एक पत्ता तोडकर चखा, तो उनकी जीभ और होंठ छिल गए। उन्होंने महसूस किया कि पत्तों में ऐसी तेज गंध है कि यदि इसे कोई भूल से भी खा लें, तो तीन दिन तक उसकी सुध-बुध जाती रहे। वे आप ही आप बोल उठे- ओह, अब पता चला कि यह वृक्ष इतना विशाल क्यों है ? बुद्धिमानों को इससे नसीहत लेनी चाहिए कि यदि वे किसी के काम नहीं आते है, तो उनके बडे होने का क्या लाभ ?
धनवान का जूता
जापान के एक नगर में धनी आदमी रहता था। एक दिन उसने अपने नौकर को जूता लेने के लिए बाजार भेजा। नौकर जूता खरीद कर वापस लौट रहा था कि रास्ते में वर्षा शुरू हो गई। बरसात में भीगकर जूते खराब नहीं हो जायें, इस विचार से उसने जूतों को कसकर बगल में दबा लिया। जोर से, दबाने की वजह से जूतों का आकार-प्रकार बिगड गया। सिकुडे जूते देखकर धनवान को आवेश आ गया और वह होश खो बैठा। नौकर से बिना कुछ पूछताछ किए उसने जूते से नौकर के सिर पर हमला कर दिया। सिर पर इतने जोर से जूते मारे कि बेचारा नौकर बेहोश होकर जमीन पर गिर पडा। जब होश आया तो देखा कि उसके सिवा कमरे मे कोई नहीं है। वह मनहूस जूता पास में पडा था। साधारण सी गलती पर इतने बडे दंड से नौकर के मन में धनवान के प्रति गुस्सा उभर आया। प्रतिशोध लेने का निश्चय करके वह वहां से भाग खडा हुआ। साथ में वह जूता भी ले गया। धनवान बुद्ध का उपासक था। वह प्रायः बौद्ध भिक्षुओं के पास जाता रहता था। इसलिए नौकर ने सोचा कि मैं भी बौद्ध भिक्षु बन जाऊं तो प्रतिशोध लेने का अवसर सहज ही मिल जाएगा। यह सोच वह बौद्ध भिक्षु बन गया। थोडे ही समय में वह विद्वान एवं श्रेष्ठ भिक्षु के रूप में प्रसिद्ध हो गया। उसे आचार्य पद पर भी प्रतिष्ठित कर दिया। धनवान ने अपनी ढलती उम्र में एक विशाल बौद्ध मंदिर का निर्माण किया। मंदिर की प्रतिष्ठा-विधि सम्पन्न करने के लिए धनवान ने उन सुप्रसिद्ध आचार्य को आमंत्रित किया। निमंत्रण पाकर आचार्य प्रसन्न थे। उन्हें लगा कि आज धनवान से प्रतिशोध लेने का अच्छा अवसर मिल जाएगा। रात्रि के समय धनवान सो रहा था। तब आचार्य के मन में बदला लेने की भावना जगी। आचार्य धनवान की हत्या करने के लिए उठे। तुरंत उनके मन में बुद्ध का उपदेश ज्योतिर्मय हो उठा कि वैर से वैर कभी समाप्त नहीं होता। खून का कपडा खून से नहीं शांति के पानी से साफ होगा। आचार्य ने तुरंत शस्त्र फेंके और सो गए। दूसरे दिन प्रवचन सभा में आचार्य आए तो उनके हाथ में जूता था। धनवान ने आचार्य के हाथ में जूता देखकर साश्चर्य पूछा -भंते! इस पावन-प्रसंग पर आफ हाथ में जूता ? आचार्य ने कहा - हां, यह जूता अपावन नहीं, परम पावन है। इस जूते ने ही मुझे भिक्षु एवं आचार्य तक की यात्रा कराई है। मेरी साधना का पथ प्रशस्त किया है। धनवान इस गूढ पहेली को समझ नहीं सका। वह जिज्ञासु भावे से आचार्य की ओर देखने लगा। आचार्य ने सभा में ही धनवान का नाम लिए बिना ही पुरानी घटना को सुना दिया। प्रवचन समाप्त होते ही सजल नेत्रों से भिक्षु के चरणों में गिरकर धनवान कहने लगा - भंते! वह दुष्ट अपराधी में ही हूं। आचार्य ने कहा कि आप ऐसा नहीं कहें। आप तो मेरे उपकारी है। एक जोडी जूतों ने मेरी जिन्दगी बदल दी। जीवन यात्रा का सही मार्ग दिखा दिया। पूरी सभा आचार्य की महानता से जय-जयकार कर उठी।
शराबी का सच
एक प्रसिद्ध सेठ दुनिया की निगाहों से छिपकर शराब पीता था। घरवाली के बार-बार मना करने पर भी वह शराब की लत नहीं छोड सका। एक दिन अपने मकान पर काम कराने के लिए उसने एक कारीगर को बुलाया। बातचीत होने के बाद कारीगर ने कहा - कल ठीक समय पर काम पर आ जाऊंगा। सेठ का काम बहुत जरूरी था, इसलिए उसने उसे दो-तीन बार जोर देकर आने के लिए कहा। सहज भाव से कारीगर ने कहा - सेठजी, मैं कोई शराबी नहीं हूं। मेरी एक बार कही हुई बात पक्की होती है, आप निश्चिंत रहे।
शराबी के बारे में कारीगर के मुंह से इस तरह की टिप्पणी सुनकर व्यापारी के मन में चोट लगी। उसने पूछा - कारीगर ! क्या शराबी हमेशा झूठ बोलते है ? कारीगर बोला - शराबी के विचार स्थिर नहीं होते है, इसलिए उसकी कही बात का उसे ध्यान नहीं रहता है। सेठ को इस बात से बडा धक्का लगा क्योंकि बाजार में सब लोग उसकी बात मानते थे। सेठ ने मन में सोचा - यदि मैं नशे में कभी बाजार चला गया तो मेरी इज्जत भी मिट्टी में मिल जाएगी। सेठ ने घर में छिपी सभी शराब की बोतलें निकालीं और शराब को मिट्टी में मिला दिया। कारीगर ने सेठ को महंगी शराब ढुलकाते हुए देखा तो कहा - सेठजी, आप अच्छा काम कर रहे हैं। आपने शराब को मिट्टी में मिला दिया वरना शराब आपको मिट्टी में मिला देती।
अग्निविद्या
लंका का राजा रावण दिग्विजय के लिए निकला। विशाल सेना साथ थी। मार्ग में कुबेर नामक राजा का राज्य आया। कुबेर की राजधानी अमरकंका पर रावण ने चढाई की, लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली। इसकी वजह यह थी कि बुकर असालिका नामक विद्या में पारंगत था। इस विद्या से उसने अपनी राजधानी के चारों ओर अग्नि का कोट बना दिया। इसके फलस्वरूप कोई भी उसकी राजधानी में प्रवेश नहीं कर सकता। जीतने का तो सवाल ही नहीं उठता। इस तरह उसका राज्य अजेय बना हुआ था। छह महीने तक रावण ने अमरकंका के बाहर पडाव डाले रखा। आखिर में वह निराश हो गया। एक दिन अचानक उसके पास कुबेर की दासी आई और बोली - महाराज ! आप इस राज्य पर कभी विजय हासिल नहीं कर सकंगे, क्योंकि हमारे राजा असालिका विद्या में पारंगत है। इसलिए उन्हें कोई हरा नहीं सकता। उन्हें हराने का एक ही उपाय है - रानी को अपनी ओर मिला लो। क्योंकि राजा ने यह विद्या उन्हें भी सिखाई है। रानी ने आपको महलों से देखा है। वह आप जैसे बलवान और विद्यावान राजा को चाहने लग गई है। रानी ने मेरे जरिए आफ पास प्रस्ताव भेजा है कि यदि आप उन्हें अपनाकर अपनी रानी बनाएं, तो वे आपको विजय दिला सकती है। रावण पहले नीतिवान और चरित्रवान भी था, उसने परस्त्री कहकर रानी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। दासी को निराशा की मुद्रा में देख विभीषण ने इसका कारण पूछा। दासी ने सारा हाल कह सुनाया। विभीषण ने दासी से कहा - जाओ, रानी से कहो कि विभीषण ने उन्हें अपनी भाभी बनाना चाहता है और वह अपने भाई रावण को इसके लिए राजी कर लेगा। यह बात रावण को मालूम हुई, तो वह बहुत नाराज हुआ और उसने विभीषण से स्पष्टीकरण मांगा। विभीषण बोला - आपको उसे रानी नहीं बनाना है। यह तो हमारी एक राजनीतिक चाल है। हमें इस विद्या को सीखकर विजय प्राप्त करनी है। विभीषण की यह बात रावण को जंच गई।भोली रानी ने गुप्त मार्ग से आकर रावण को विद्या गुर बता दिया। विद्या दान के बाद रानी ने प्रणय प्रस्ताव रखा।रावण ने कहा - ज्ञान और विद्या सिखाने वाला गुरू होता है। आप मेरी गुरू माता है। मैं आफ बारे में बुरा सोच भी नहीं सकता। रानी परेशान हो गई उसने सारी बात विभीषण को बताई। विभीषण बोला- आपको मैंने भी भाभी कहकर पुकारा है। मैं नहीं चाहता कि मेरी भाभी कोई निन्दनीय और गलत काम करें। आपको यदि मेरे भाई स्वीकार भी कर लेंगे, तो आप उनकी उपपत्नी ही कहलाएंगी और आपको उनके पास कुबेर जैसा सम्मान नहीं मिलेगा। यह बात रानी को जंच गई और वह चुपचाप गुप्त मार्ग से अपने महलों में चली गई। रावण ने अमरकंका जीत ली और अपना चरित्रबल भी बनाए रखा। इसके बाद जैसे ही रावण ने सीता हरण किया और बुरी सोच को अपनाया तो उसका सर्वनाश हो गया।
मतीरों का चोर
एक खेत में तूंबे की बेल पर मोटे-मोटे मतीरे लगे थे। एक चोर ने ललचाकर मतीरे चुराने का इरादा बनाया। उसने मौका देखकर मतीरे तोड लिए। एक गठरी में मतीरों को बांध भी लिया। अचानक खेत का मालिक किसान आ गया। चोर मतीरों का गट्ठर कंधों पर रखकर सरपट दौडा। चोर को पकडने के लिए किसान ने भी उसका पीछा किया। रास्ते में नदी आ गई। मतीरों का चोर नदी के पानी में कूद गया। उसने मतीरों को नदी में छिपाने का प्रयास किया वह जैसे जैसे अपने हाथ के दबाव से मतीरों को पानी में दबाता। वैसे वैसे मतीरे ऊपर आ जाते। इतने में किसान भी वहां पहुंच गया। पानी में तैरते मतीरे देखकर उसने पूछा - तुमने मेरे खेत से मतीरे चुराए है ? चोर ने कहा - तुम्हारे मतीरे बडे नालायक है। एक मतीरे को पानी में छिपाता हूं तो दबा हुआ दूसरा मतीरा ऊपर आ जाता है। तुमने मतीरों को अच्छा पाठ पढा रखा है। खेत के मालिक ने लट्ठ लगाते हुए कहा- मतीरे भले ही पानी में एक बार दबाए जा सकते है। पर गलत काम कभी भी छिपाया नहीं जा सकता । चोर ने मतीरों से सीख लेते हुए किसान से कहा - अब मैं भविष्य में कभी चोरी नहीं करूंगा। मतीरों के इस स्वभाव ने मुझे मेहनत की रोटी कमा खाने की प्रेरणा दी है। किसान ने भी चोर को चोरी नहीं करने की शर्त पर माफ कर दिया।
चूडे की चर्चा
एक गरीब औरत किसी सेठ के घर गई। कोई मंगल दिन था। शुभ अवसर पर सेठानी ने सफेद झक चूडा पहना। वह चूडा बहुत ही कीमती हाथी दांत का था। चूडे को देखकर आस-पास की महिलाऐं सेठानी को बधाइयां देने लगी। उस चूडे को देखने के लिए सैकडो महिलाओं का आना-जाना लगा रह। यह सब रौनक देखकर गरीब औरत भी सोचने लगी - मैं भी हाथी दांत का चूडा पहनूं और आस-पास की महिलाओं की बधाइयां प्राप्त करूं। मेरे चूडे को देखने के लिए बहुत से लोग आएंगे। वह अपने घर पहुंची। पति से निवेदन करती हुई बोली - पति देव ! मुझे हाथी दांत का चूडा चाहिए। कृपया बाजार से खरीद कर दीजिए। पति बोला - तुम्हारे में अक्ल नाम की चीज नहीं है। घर में खाने के लिए पूरी रोटी नहीं है। हाथी दांत का चूडा काफी महंगा है। इसलिए चूडा नहीं ला सकता। पत्नी आवेश में आकर जोर से बोली - सुन लीजिए मेरा निर्णय। यदि चूडा नहीं आएगा तो घर में चूल्हा भी नहीं जलेगा। पति ने मीठे स्वर में समझाते हुए कहा- देखो, महाभागा जिद करना अच्छा नहीं है। बहुत कहने पर भी पत्नी कहां मानने वाली थी। बेचारा पति बाजार में गया और किसी साहूकार से ब्याज पर कर्ज लेकर चूडा लाया। पत्नी ने बडे चाव से चूडा पहना, झोंपडी के दरवाजे पर आकर बैठ गई। हाथों को सामने लटकाए थी। काफी देर तक वहां बैठी रही किन्तु कोई भी व्यक्ति उसे देखने के लिए नहीं आया। चार-पांच दिन तक यही सिलसिला चला, किसी ने चूडे की कोई चर्चा नहीं की। पत्नी के मन में प्रदर्शन की भूख जगी थी। उसने आव देखा न ताव अपने ही हाथों से अपनी झोंपडी में आग लगा दी। देखते-देखते आग बढने लगी। चारों ओर से लोग दौडे। लोगों ने आग पर तो काबू किया किन्तु उसकी झोंपडी जलकर राख हो गई। लोगों ने संवेदना प्रकट करते हुए पूछा - भाभीजी ! आफ घर में कुछ बचा या नहीं।
वह बोली - और कुछ भी नहीं बचा। महज हाथ में एक चूडा बचा है। लोग बोले - कब पहन लिया इतना सुन्दर चूडा आपने ? वह बोली - यह बात आप लोग पहले ही पूछ लेते तो झोंपडी में आग क्यों लगती। लोग उसकी मूर्खतापूर्ण बात सुनकर हंसी उडाने लगे कि इसके कहते घर फूंक तमाशा देखना।
बडा परिवार
एक सुखी और शालीन परिवार था। परिवार के सभी सदस्यों में बहुत एकता थी। सारा परिवार आनंद के सागर में गोते लगा रहा था। आपस में कभी भी तनाव नहीं होता था। एक जिज्ञासु उस परिवार में आया। दरवाजे में प्रवेश करते ही उसकी भेंट एक युवक से हुई। जिज्ञासु ने कहा- बंधुवर ! मैं एक जानकारी के लिए आया हूं। आपका बडा परिवार एक साथ कैसे रहता है ? उसने कहा - आप अंदर जाएं, मेरे पिताजी से पूछ लें। समाधान मिल जाएगा। जिज्ञासु अंदर गया। प्रश्न प्रस्तुत करते हुए कहा - कृपया समाधान दीजिए।
पिता ने कहा- मेरे पिताजी ऊपर की मंजिल पर रहते है। आप वहां जाए। वहीं समाधान मिलेगा। जिज्ञासु ऊपरी मंजिल पर पहुंचा। आसन पर बैठे बाबा से निवेदन की भाषा में कहा - बाबाजी ! आपका इतना विशाल परिवार एक साथ रहता है। इसका क्या रहस्य है ? बाबाजी ने एक पत्र पर सौ बार नम्रता व सहनशीलता शब्द लिखकर दिए। जिज्ञासु ने पूछा - दो शब्दों को सौ बार आपने क्यों लिखा ?वृद्ध ने कहा - मेरे परिवार में सौ सदस्य है इसलिए इन शब्दों को सौ बार लिखा है। सबमें विनम्रता और सहिष्णुता के भाव है। आपने जब दरवाजे पर मेरे पौत्र से पूछा तो उसने कहा - पिताजी अंदर है, समाधान मिल जाएगा। उसके पिता ने भी सीधा आपको मेरे पास भेज दिया। मेरे परिवार में बडों के प्रति विनय है कि वे स्वयं किसी सवाल का जवाब नहीं देते। घर से जुडे किसी भी सवाल को बडों के सामने रखते हैं। छोटे-बडे सभी सवालों के समाधान घर के बडे बुजुर्ग करते हैं । घर के सभी सदस्य उसकी पालना करते हैं। नम्रता और सहनशीलता हमारे घर की एकजुटता और प्रेमभाव का रहस्य है।
गधे की कब्र
इजरायल में एक मशहूर यहूदी फकीर रहता था। वह बीमार हो गया। उसकी एक बंजारे ने खूब सेवा की। प्रसन्न होकर फकीर ने बंजारे को एक गधा भेंट किया। गधे को पाकर बंजारा बडा खुश हुआ। गधा बडा स्वामी भक्त था। वह बंजारे की सेवा करता और बंजारा उसकी। दोनों को एक दूसरे के प्रति बहुत लगाव हो गया।
फिर बंजारे का यह मानना था कि यह गधा फकीर की दी गई भेंट है तो विलक्षण गधा तो होगा ही। एक दिन बंजारा माल बेचने ेक लिए गधे पर बैठकर दूसरे गांव गया। दुर्भाग्य से गधा रास्ते में बीमार हो गया। उसके पेट में इतना तेज दर्द हुआ कि वह वहीं पर तडप कर मर गया। बंजारे को अत्यधिक शोक हुआ। उसके लिए वह गधा कमाऊ पूत और कमाकर देने वाला एक साझीदार था। उसने गधे की कब्र के पास बैठकर दुख के दो आंसु ढलकाए। इतने में ही उधर से राहगीर गुजरा। उसने यह नजारा देखकर सोचा कि अवश्य ही यहां कोई न कोई फकीर का निधन हुआ है। श्रद्धांजति अर्पित करने के लिए वह भी कब्र के पास आया और दो फूल तोडकर चढा दिए। तीसरे ने उसे फूल चढाते देखा तो वह भी आया और जेब से दो रूपए निकाले और कब्र पर चढा दिए। बंजारा चुपचाप देखता रहा। वह कुछ बोला नहंी, लेकिन मन ही मन हंसा।
दोनों राहगीर अगले गांव में गए और लोगों से कब्र का जिक्र किया। ग्रामीण लोग आए। उन्होंने भी फूल और पैसे चढाए। अब बंजारे ने आगे जाने का फैसला छोडा और कब्र के पास बैठ गया। वह सोचने लगा - गधा जब जिन्दा था तब उतना कमाकर नहीं देता था जितना की मरने के बाद दे रहा है।खूब भीड लगती। जितने दर्शनार्थी आते कब्र का उतना ही ज्यादा प्रचार हो रहा था। गधे की कब्र किसी पहुंचे हुए फकीर की कब्र बन गई।एक दिन वह फकीर भी उसी रास्ते गुजरा, जिसने बंजारे को गधा दिया था। उसने कब्र के बारे में लोगों से चर्चा सुनी तो वह भी कब्र पर झुका। लेकिन जैसे ही उसनें वहां अपने पुराने भक्त बंजारे को बैठे देखा तो उससे पूछा कि यह कब्र किसकी है ? बंजारे ने कहा कि अब आफ सामने सच को छिपाकर रखने की मेरे पास ताकत नहीं है। उसने सारी आपबीती फकीर को सुना दी। फकीर को बडी हंसी आई। बंजारे ने पूछा कि आपको हंसी क्यों आई ? फकीर बोला कि मैं जहां रहता हूं वहां पर भी एक कब्र है जिसे लोग बडी श्रद्धा से पूजते है। आज मैं तुम्हें बताता हूं कि वह कब्र भी इस गधे की मां की है। लोग नहीं जानते है इसलिए किसी को भी पूजने लग जाते है। समझदार वही है जो किसी अंधविश्वास में पडे बिना सच्चाई को समझकर किसी बात को मानता है।
अकबर और उनकी बेगम
बादशाह अकबर और उनकी बेगम का अक्सर छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा हो जाता था। एक दिन ऐसे ही दोनों आपस में झगड़ रहे थे तो बेगम बोली, ‘‘आपको सबूत देना होगा कि मुझे वास्तव में प्रेम करते हैं आप। इसके लिए जैसा मैं कहती हूं, वैसा ही करिए। बीरबल को उसके ओहदे से हटाकर मेरे भाई शेरखान को रखें।’’
बादशाह ने अपनी बेगम को समझाने की बहुतेरी कोशिश करी कि बीरबल को ऐसे ही अकारण नहीं हटाया जा सकता। लेकिन बेगम ने एक न सुनी। तब अकबर बोले, ‘‘तुम खुद ही बीरबल से बात कर लो।’’
बादशाह की यह बात सुन बेगम के दिमाग में एक योजना जन्मी।
बेगम खुश होते हुए बोली, ‘‘मेरे पास एक तरीका है। कल हम दोनों यूं ही आपस में झगड़ने लगेंगे। तब आप बीरबल से कहेंगे कि यदि बेगम ने आप से माफी नहीं मांगी तो उसे उसके पद से हटा दिया जाएगा। इस तरह आप पर कोई इल्जाम भी नहीं आएगा।’’
अगले दिन योजना के अनुसार बादशाह और उनकी बेगम आपस में झगड़ पड़े। इससे नाराज होकर नकली गुस्से से भरे अकबर दूसरे महल में जाकर रहने लगे।
बीरबल को भी इस झगड़े की खबर लगी।
जब बीरबल बादशाह से मिलने गया तो वह बोले, ‘‘बीरबल ! बेगम को मुझसे माफी मांगनी ही होगी। वरना तुम्हें अपनी कुर्सी से हाथ धोना होगा।’’
एकबारगी तो बीरबल यह समझ ही न पाया कि बेगम यदि माफी नहीं मांगती तो उसका क्या दोष है ?
बीरबल वहां से बाहर निकला और एक सैनिक को पास बुलाकर उसके कान में कुछ फुसफुसाया। फिर वह बेगम से बात करने जा पहुंचा। उसने ऐसा आभास दिया कि जैसे उनके झगड़े के बारे में कुछ जानता ही नहीं।
कुछ देर बाद बीरबल की योजनानुसार वह सैनिक भीतर प्रविष्ट होता हुआ बोला, ‘‘हुजूर ! बादशाह सलामत का कहना है कि सब कुछ आपकी योजनानुसार ही चल रहा है। बादशाह इस समय बेहद बेचैन हैं और चाहते हैं कि आप तुरंत उसे लेकर उनके पास पहुंचें।’’
सुनते ही बीरबल तुरंत जाने के लिए खड़ा हो गया।
तब बेगम ने पूछा, ‘‘बीरबल ! माजरा क्या है ? हमें भी तो कुछ पता चले।’’
‘‘माफी चाहूंगा बेगम साहिबा।’’ बीरबल बोला, ‘‘लेकिन मैं ‘उस’ व्यक्ति के बारे में आपको बता नहीं सकता।’’ कहकर वह चला गया।
अब तो बेगम बहुत ही बेचैन और परेशान हो गई। उनके मन में बुरे-बुरे विचार आने लगे। उन्हें लगा कि जरूर कुछ गलत होने जा रहा है। उन्होंने सोचा, ‘हो न हो जरूर वह कोई दूसरी औरत ही होगी। बादशाह शायद उससे शादी करने वाले हैं। या खुदा ! अपने भाई को वजीर बनाने की चाहत तो मेरा ही घर बर्बाद करने पर तुली है।’
वह तुरंत बादशाह के पास पहुंची और घुटनों के बल बैठ कर रोने लगी। बादशाह बोले, ‘‘क्या बात है ? तुम इस तरह रो क्यों रही हो ?’’
आंखों में आँसू भरकर बेगम बोली, ‘‘मुझे माफ कर दें। मैं गलती पर थी। लेकिन दोबारा शादी न करें।’’
बादशाह यह सुनकर हैरान रह गए। वह बोले, ‘‘तुमसे किसने कहा कि मैं दूसरी शादी करने जा रहा हूं ?’’
तब बेगम ने वह सब दोहरा दिया जो बीरबल ने कहा था। यह सुनकर अकबर जोर से ठहाका लगाकर हंसते हुए बोले, ‘‘बीरबल ने तुम्हें बुद्धू बनाया है। चतुराई में उसे हराना असंभव है-यह तो अब तुम अच्छी तरह समझ ही गई होगी।’’
‘हां’ कहती हुई बेगम मुस्करा दी।
शराब के तीन गुण
एक ठिकाने में ठाकुर साहब रहते थे। उनके एक ही कुंवर था पर वह बडा शराबी था। बीडी, सिगरेट, शराब उसके लिए रोटी-पानी थे। कुछ दिनों के बाद वह शराबखोरी में चलते बीमार पड गया। ठाकुद ने अपने पुत्र की बहुत चिकित्सा कराई, पर बीमारी का कोई अंत नहीं आया। सारी दवाइयां बेकार गई। ऐक दिन उस गांव में अनुभवी हकीम आया। उसने ठाकुर के लडके की चिकित्सा प्रारंभ की।
कुंवरजी ने पूछा- परहेज क्या रखना होगा? हकीम ने कहा-घबराओं मत, तुम्हें शराब नहीं छोडने पडेगी। यह सुनकर कुंवर बडा खुश हुआ। उसने कहा- पहले जितने भी हकीम आए, वे सभी अनाडी थे। उन्होंने दवाई के साथ शराब छोडने को कहा था, पर आप बहुत समझदार और अनुभवी है। कुंवर के मन में हकीम के प्रति गहरा विश्वास हो गया। थोडे दिन के बाद लडके ने हकीम से पूछा- आपने मुझे शराब-सेवन की अनुमति कैसे दी?‘ वैद्य बोला शास्त्रों में शराब के तीन गुण बताए हैं। जो मनुष्य शराबी होता है उसके घर में चोर नहीं आते, उसे पैंदल नही चलना पडता बुढापे का शिकार नही होना होता।
कुंवर ने आश्चर्य से पूछा-कैसे? हकीम बोला- नशेडी को खांसी हो जाने से रात्रि में नींद नहीं आती। वह रात भर खांसता रहता है। अतः चोरों को उसके घर पर जाने की हिम्मत नहीं होती। उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है जिससे पैदल नही चल सकता। इसलिए उसे सवारी का सहारा लेना पडता है। उसकी मृत्यु जवानी में ही हो जाती है, जिससे बुढापे का मुंह नही देखना पडता। हकीम की बातों को सुनकर कुंवर ने शराब सहित सारे व्यसन छोड दिए और धीरे-धीरे स्वस्थ हो गया।
सोने का मंदिर
महाराज विक्रमादित्य ने एक दरबारी कवि के मुंह से राजा वलाह की प्रशंसा सुनी तो वे चौंक उठे। कवि को राजकक्ष में बुलवाया। विक्रमादित्य ने पूछा- कविराज, आप जिसकी तारीफ कर रहे थे? राजा वलाह कौन है? कवि बोला- महाराज, हमारा तो धंधा है। राजाओं की तारीफें सुनाकर जनता से चार पैसे कमा लेता हूं। मुझे तो आज राजा वलाह से बढकर दानी कोई दूसरा नही दिखाई देता। अब आप ही बतलाइए कि वलाह के गुण न गाऊं? राजा विक्रमादित्य ने उसे तिरछी निगाहों से देखा। हाथ मूंछों पर पहूंच गया। कवि ने मौंका देखकर राजा को उकसाया और हम तो चाहते है कि हुजूर का यश इतना फैले कि लोग वलाह का नाम भी भुल जाएं। विक्रमादित्य ने पूछा- वलाह की खूबिया बताओं?
क्वि कहने लगा- वलाह के महल में रातो-शत सोने का मंदिर तैयार हो जाता है। सवेरे-सवेरे उस मंदिर का सोना याचकों में वितरण कर देते है। कोई याचक कभी भी वलाह के यहां से निराश नहीं लौटता। विस्मय से विक्रमादित्य की भौहें तन गई। राजा ने पूछा- सच में ऐसा होता है। कवि सहज भाव से बोला- ’महाराज, सोलह आने सच कहता हूं। यदि हुजूर को विश्वास न हो तो अपने जासूस भेजकर मालूम कर लें। विक्रमादित्य ने कहा- एक शर्त है। अब तुम्हें मेरे राज में रहना होगा। तुम्हारी बातें सच निकली तो हम तुमकों बहुत धन देकर विदा करेंगे। दरवारियों ने कवि के ठहरने की व्यवस्था कर दी। राजा अंतःपुर में गए, सोचने लगे- यह तो बडी विचित्र बात सुनाई है कवि ने, परन्तु विधाता को इनती बडी सृष्टि में सब कुछ संभव है। अच्छा हो कि यह कौतुक मैं अपनी आंखों से देख आऊं। राजा ने विद्धान कवि से राजा वलाह की राजधानी का रास्ता पूछा और घोड पर बैठकर रवाना हो गया।
खट्टा आम
मेवाड के महाराणा अपने एक नौकर को सदैव अपने साथ रखते थे। भले ही युद्ध के मैदान हो, चाहे भगवान का मंदिर। एक बार वे अपने इष्टदेव एकलिंगजी के दर्शन करने गए। उस नौकर को भी साथ ले लिया। दर्शन कर वे तालाब के किनारे घुमने गए। उन्हें एक पेड पर ढेद सारे फ आम लगे हुए दिखाई दिए। उन्होंने एक आम लिया और उसकी चार फांक बनाई। एक फांक नौकर को देते हुए कहा- ’बताओ, कैसा स्वाद है?‘ नौकर ने आम खाया और कहा बहुत मीठा है। पर महाराज एक और देने की कृपा करें।‘ महाराणा ने एक फांक और दे दी। नौकर ने कहा- ’पाह क्या स्वाद है! म्जा आ गया। मेहरबानी कर एक और दीजिए।‘
महाराणा ने तीसरी फांक भी दे दी। उसे खाते ही वह नौकर बोला- बिल्कुल अमृत फल है। यह भी दे दीजिए।‘ उसने अंतिम फांक भी मांग ली। महाराणा को गुस्सा आ गया। उन्होंने कहा- ’तुम्हें शर्म नही आती! तुम्हें नही दूंगा यह अंतिम फांक।‘ यह कहते हुए महाराणा ने वह फांक मुंह में रखते ही उस एकदम उगल दिया। वे बोले ’इतना खट्टा आप खाकर भी तुम यह कहते रहे कि यह मीठा है, अमृत तुल्य है। क्यों कहा ऐसे?‘ नौकर बोला- ’महाराज, जीवन भर आप मीठे आम देते रहे हैं। आज खट्टा आम आ गया तो कैसे कहूं कि यह खट्टा है। ऐसा कहना मेरी कृतध्नता नही होती!‘ महाराणा ने उसे अपने गले से लगा लिया और कृतज्ञता के लिए उसे पुरस्कृत किया।
डंडे का डर
एक राजा ने एक बकरा पाला। उसे चराई के लिए एक चरवाहे को सौंप दिया। बकरा काफी हट्टा-कट्टा था। चराई के बाद शाम को जब बकरा वापस आता तब राजा उसके सामने धास डालता। बकरा और घास चर लेता था। राजा ने सोचा बकरा भूखा रहता है। एक दिन राजा ने घोषणा की कि जो भी आदमी बकरे का पूरा पेट भर देगा, उसे ईनाम दिया जाएगा। राजा ने शर्त रखी कि वे स्वयं इस बात की जांरच करेंगे कि बकरे का पेट भरा है या नहीं। कई लोग आए। बकरे को चराने के लिए ज्रगल ले गए। जब शाम को बकरा लेकर जांच के लिए राज दरबार में आते, राजा उसके सामने हरा घास डालते और बकरा घास चर जाता। कोई भी आदमी बकरे को पूरी नरह तृप्त नहीं कर पाया था।
एक चतुर आदमी ने सोचा- इस काम में जरूर कोई न कोई राज है, तभी राजा ने कहा है। वह आदमी बकरे को चराने के लिए जंगल ले गया। उसे हरियाली के बीच छोड दिया। जैसे ही बकरा घास खाने लगता है, वह डण्डे से उसके मुंह पर चोट मारता। दिन भर यह सिलसिला चलता रहा। बकरा एक तिनका भी खाऊंगा तो मार पडेगी। उसने घास चरना ही छोड दिया। शाम होते ही वह आदमी बकरे को दरबार में ले गया। राजा ने घास डाली। बकरे ने डंडे के डर से घास नहीं खाई। राजा उस आदमी की चालाकी नहीं भांप सका और उसने खुश होकर उसे ईनाम दिया।
बोध कथा
कई मूर्ख एक साथ टोली में रहते थे। वे परस्पर एक-दूसरे की बात का विश्वास करते तथा साथ-साथ ही बाहर भ्रमण करने जाते थे। एक बार वे अपने स्थान से दूर किसी गांव को जा रहे थे कि रास्ते में एक नदी थी। उन्हें नदी पार करके दूसरी और जाना था, किन्तु उनमें से किसी को भी तैरना नहीं आता था। वे नदी के किनारे खडे हो गए और सोचने लगे कि अब क्या किया जाए? आश्चर्य! सबको एक ही साथ एक ही विचार आया।
उन्होंने सोचा कि यहां नदी के किनारे पानी बडा उथला है। जैसे-जैसे नदी में आगे बढेंगे, पानी घुटनों तक आएगा और बीच में पानी अवश्य ही गहरा होना चाहिए। यानी कि बीच में पानी हमारे सिर के ऊपर से बह रहा होगा। फिर आगे कम होता जाएगा। घुटनों तक हो जायेगा। दूसरे किनारे पर जल पुनः उथला होगा। विचार करने पर वे सभी इस परिणाम पर पहुंचे कि जल का औसत स्तर केवल घुटनों तक होगा।
प्रसन्नता से उन्होंने एक-दूसरे के हाथ पकडे और नदी में आगे बढे। और वे सब डूब गये।
नदी पार करते समय औसत किसी को भी नही निकालना चाहिए। कहने का तात्पय। यही है कि पतन की ओर ले जाने वाली समस्त बुराइयों का हमें विवके होना चाहिए और उनसे प्रतिक्षण बचते रहना
विधाता से शिकायत
एक बार कुछ खरगोश गर्मी के दिनों में झरबेरी की एक सूखी झाडी में इकट्ठे हुए।
खेतों में उन दिनों अनाज न होने से वे सब भुखे थे और सुबह और शाम गांव से बाहर घूमने वालों के साथ आने वाले कुत्ते भी उन्हें बहुत तंग करते थे। मैदान की झाडयां सूख गई थी। कुत्तों के दौडने पर खरगोशों को छिपने का स्थान बहुत परेशान होने पर मिलता था। इन सब दुःखों से वे बेचैन हो गए थे।¬
एक खरगोश ने कहा विधाता ने हमारी जाति के साथ बडा अन्याय किया है। हमको इतना छोटा और दुर्बल बनाया। हमें उन्होंने न तो हिरन-जैसे सींग दिए न बिल्ली-जैसे तेज पंजे। अपने शत्रुओंे से बचने का हमारे पास कोई उपाय नही। सबके सामने से हमें भागना पडता है। सब ओर से सारी विपति हम लोगों के सिंर पर ही विधाता ने डाल दी हैं।
दूसरे खरगोश ने कहा-मैं तो अब इस दुःख और आश्ंाका भरे जीवन से घबरा गया ह। मैंने तालाब में डूब मरने का निश्चय किया है।
तीसरा बोला-मैं भी मर जाना चहता हूं। अब और कष्ट मुझसे नहीं सहा जाता। मैं अभी तालाब में कूदने जाता हूं।
हमस ब तुम्हारे साथ चलते हैं। हमस ब साथ जीए हैं तो साथ ही मरेगें। सब खरगोश बोल उठे। खरंगोश एक साथ तलाब की ओर चल पडे।
तालाब के पानी से निकलकर बहुत-से मेंढक किनारे पर बैठे थे। जब खरगोश के आने की आहट उन्हें हुई तो वे छपाछप पानी में कूद पडे। मेढकों को डरकर पानी में कूदते देख खरगोश रूक गए। एक खरगोश बोला- भाइयो ! प्राण देने की आवश्यकता नहीं है आओ लौट चलें। जब विधाता की सृष्टि में हमसे भी छोटे और हमसे डरने वाले जीव बडे मजे से जीते हैं तब हम जीवन से क्यों निराश हों ?
उसकी बात सुनकर सभी खरगोशों ने आत्महत्या का विचार छोंड दिया और अपने घर लौट आए।
ना समझ काबुली
एक बार एक काबुली हिन्दुस्तान आया। यहां के किसी शहर में घूमते हुए उसने एक मिठाई की दुकान देखी। दुकान में तरह-तरह की मिठाइयां सजी थी। वह काबुली हिन्दी के दो चार शब्द ही जानता था। उसने एक खास किस्म की मिठाई की ओर इशारा किया। वह मिठाई दिखने में बहुत स्वादिष्ट थी। हलवाई ने समझा की वह उसका नाम पूछ रहा है उसने कहा, खाजा। खाजा का मतलब खा लो। भी होता है। काबुली यह दूसरा मतलब ही जानता था वह झट से मिठाई उठाकर खाने लगा। हलवाई ने पैसे मांगे पर काबुली के पल्ले कुछ नही पडा। वह खुश होकर चल पडा। हलवाई ने कोतवाल से शिकायत की। कोतवाल ने काबुली को गिरफतार कर लिया। काबुली की सफाचट खोपडी पर तारकोल पोत दिया गया। फिर उसे गधें पर बिठा दिया गया और ढोल-नगाडो के साथ शहर के बाहर कर दिया, ताकि सब जान सके कि कानून तोडने वालो के साथ यहां कैसा सुलूक किया जाता है। इस दंड को भी काबुली वाले ने कौतुक समझा। गधे की सवारी,ढोल-ढमाका और जुलूस से उसे बहुत मजा आया और गलियो में से उसे देखने को उमडी भीड से उसने अपना सम्मान समझा
बच्चा बना बीरबल
एक दिन बीरबल दरबार में देर से पहुंचा। जब बादशाह ने देरी का कारण पूछा तो वह बोला, ‘‘मैं क्या करता हुजूर ! मेरे बच्चे आज जोर-जोर से रोकर कहने लगे कि दरबार में न जाऊं। किसी तरह उन्हें बहुत मुश्किल से समझा पाया कि मेरा दरबार में हाजिर होना कितना जरूरी है। इसी में मुझे काफी समय लग गया और इसलिए मुझे आने में देर हो गई।’’
बादशाह को लगा कि बीरबल बहानेबाजी कर रहा है।
बीरबल के इस उत्तर से बादशाह को तसल्ली नहीं हुई। वे बोले, ‘‘मैं तुमसे सहमत नहीं हूं। किसी भी बच्चे को समझाना इतना मुश्किल नहीं जितना तुमने बताया। इसमें इतनी देर तो लग ही नहीं सकती।’’
बीरबल हंसता हुआ बोला, ‘‘हुजूर ! बच्चे को गुस्सा करना या डपटना तो बहुत सरल है। लेकिन किसी बात को विस्तार से समझा पाना बेहद कठिन।’’
अकबर बोले, ‘‘मूर्खों जैसी बात मत करो। मेरे पास कोई भी बच्चा लेकर आओ। मैं तुम्हें दिखाता हूं कि कितना आसान है यह काम।’’
‘‘ठीक है, जहांपनाह !’’ बीरबल बोला, ‘‘मैं खुद ही बच्चा बन जाता हूँ और वैसा ही व्यवहार करता हूं। तब आप एक पिता की भांति मुझे संतुष्ट करके दिखाएं।’’
फिर बीरबल ने छोटे बच्चे की तरह बर्ताव करना शुरू कर दिया। उसने तरह-तरह के मुंह बनाकर अकबर को चिढ़ाया और किसी छोटे बच्चे की तरह दरबार में यहां-वहां उछलने-कूदने लगा। उसने अपनी पगड़ी जमीन पर फेंक दी। फिर वह जाकर अकबर की गोद में बैठ गया और लगा उनकी मूछों से छेड़छाड़ करने।
बादशाह कहते ही रह गए, ‘‘नहीं...नहीं मेरे बच्चे ! ऐसा मत करो। तुम तो अच्छे बच्चे हो न।’’
सुनकर बीरबल ने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। तब अकबर ने कुछ मिठाइयां लाने का आदेश दिया, लेकिन बीरबल जोर-जोर से चिल्लाता ही रहा।
अब बादशाह परेशान हो गए, लेकिन उन्होंने धैर्य बनाए रखा। वह बोले, ‘‘बेटा ! खिलौनों से खेलोगे ? देखो कितने सुंदर खिलौने हैं।’’
बीरबल रोता हुआ बोला, ‘‘नहीं, मैं तो गन्ना खाऊंगा।’’
अकबर मुस्कराए और गन्ना लाने का आदेश दिया।
थोड़ी ही देर में एक सैनिक कुछ गन्ने लेकर आ गया। लेकिन बीरबल का रोना नहीं थमा। वह बोला, ‘‘मुझे बड़ा गन्ना नहीं चाहिए, छोटे-छोटे टुकड़े में कटा गन्ना दो।’’
अकबर ने एक सैनिक को बुलाकर कहा कि वह एक गन्ने के छोटे-छोटे टुकड़े कर दे। यह देखकर बीरबल और जोर से रोता हुआ बोला, ‘‘नहीं, सैनिक गन्ना नहीं काटेगा। आप खुद काटें इसे।’’
अब बादशाह का मिजाज बिगड़ गया। लेकिन उनके पास गन्ना काटने के अलावा और कोई चारा न था। और करते भी क्या ? खुद अपने ही बिछाए जाल में फंस गए थे वह।
गन्ने के टुकड़े करने के बाद उन्हें बीरबल के सामने रखते हुए बोले अकबर, ‘‘लो इसे खा लो बेटा।’’
अब बीरबल ने बच्चे की भांति मचलते हुए कहा, ‘‘नहीं मैं तो पूरा गन्ना ही खाऊंगा।’’
बादशाह ने एक साबुत गन्ना उठाया और बीरबल को देते हुए बोले, ‘‘लो पूरा गन्ना और रोना बंद करो।’’
लेकिन बीरबल रोता हुआ ही बोला, ‘‘नहीं, मुझे तो इन छोटे टुकड़ों से ही साबुत गन्ना बनाकर दो।’’
‘‘कैसी अजब बात करते हो तुम ! यह भला कैसे संभव है ?’’ बादशाह के स्वर में क्रोध भरा था।
लेकिन बीरबल रोता ही रहा। बादशाह का धैर्य चुक गया। बोले, ‘‘यदि तुमने रोना बन्द नहीं किया तो मार पड़ेगी तब।’’
अब बच्चे का अभिनय करता बीरबल उठ खड़ा हुआ और हंसता हुआ बोला, ‘‘नहीं...नहीं ! मुझे मत मारो हुजूर ! अब आपको पता चला कि बच्चे की बेतुकी जिदों को शांत करना कितना मुश्किल काम है ?’’
बीरबल की बात से सहमत थे अकबर, बोले, ‘‘हां ठीक कहते हो। रोते-चिल्लाते जिद पर अड़े बच्चे को समझाना बच्चों का खेल नहीं।’’
आज तेरी छुट्टी, ऐश कर
सामाजिक कल्याण एवं बाल विकास मुत्रालय की पहल पर घोषणा की गई कि 15 साल से कम उम्र के बच्चों से काम करवाने पर दुकान का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया जाएगा, वहीं आर्थिक दंड के अलावा जेल की हवा भी खानी पड सकती है। पूरे राज्य में मुहिम चल रही थी। आज अधिकारियों के दल ने शहर के इंदिरा मार्केट पर धावा बोला। सारे सेठ- दुकानदार गिडगिडा रहे थे- ’साहब! गलती हो गई, अब कम उम्र के लडको को नौकरी पर कभी नहीं रखेंगे। गलती हो गई साहब! ’बाबू सबका नाम-पता नोट करते जा रहे थे। तभी बडे साहब की नजर एक बडी दुकान पर पडी जहां एक 12-13 साल की उम्र का लडका चाय बना रहा था। साहब ने पूछा- ’ए लडके, तेरी उम्र क्या है?‘ 15 साल! लडके ने तपाक से कहा। ’तू 15 साल का है?‘ बडे साहब ने उसे डपटा। लडके ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा-’जी, साब! 15 साल का ही हूं।‘ दुकान मालिक हाथ जोडकर खडा हो गया। ’चलो, आगे बढो‘, बडे साहब ने अमले से कहा।
जब अमला आगे बढ गया, तो दुकान मालिन ने लडके को हाथ पकडकर अपनी ओर खींचा- ’शाबाश! बेटे, क्या भरोसे के साथ झूठ बोला, तू तो कमाल का चतुर निकला।‘ 50 रूपए लडके के हाथ पर रखते हुए दुकानदार ने कहा-जा, आज तेरी छुट्टी, ऐश कर।‘
चार आलसी
मिर्थिला में वीरेश्वर नाम के महामंत्री थे। वे स्वभाव से दानी और दयालु थे। वे स्वभाव से दानी और दयालु थे। वे आलसियों और भिखारियों को भोजन देते थे। भोजन पाने वालों में बहुत से ऐसे झूठे आलसी थे जो नकली भिखारी बने हुए थे, फिर भी उन्हें चना मिलता था। दुनिया में कई प्रकार के कम्रहीन मनूष्य होते हैं। उनमें आलसी का नाम सबसे ऊंचा है। भूख की आंच से अंतडयां ऐंठती रहती हैं तो भी वह हाथ-पैर हिलाना नहीं चाहता। मेहनत-मशक्कत का, कोई झमेला नहीं। मीठी नींद पेट की आग को काबू में रहती है। महामंत्री के यहां पेटुओं की भीड प्रतिदिन बढने गली। अहदियों की मौज देखकर, बहुत-सारे चालाक आदमी अपना झूठ-मूठ का आलस्य दिखला कर वहां आने लगे। उन्हें भी भर-पेट खाना मिलने लगा। कुछ ही दिनों में अनाथालय अहदी लोगों से भर गया। आलसियों के पीछे बहुत ज्यादा धन खर्च होने लगा। अनाथालय के अधिकारियों का माथ ठनका। उन्होंने सोचा, मालिक ने अहदियों को अपंग जानकर उनके लिए खाने-पीने की मुफ्त व्यवस्था करवाई। अब जो आलसी नहीं हैं वे भी आलसी बनकर भोजन पाने लगे है। यह हमारी भूल है कि हम उन्हे नहीं हटाते। मालिक का यह नुकसान नाहक हो रहा है। हमें सच्चे अहदियों की जांच करनी चाहिए। झूठ-मूठ के मुफ्तखोरों को निकाल बाहर करना है। सर्दी का मौसम था। रात को अहनाथलय के सभी अहदी सो चुके थे। अधिकारयिों ने उन कुटीरों में आग लगवा दी। जलने के छर से फुर्तीले लोग भाग पूरे आलसी नहीं थे। बस चार आदमी नहीं भागे। वे रजाई ओढकर लेटे थे। शोर-गुल सुनकर उनमें से एक जरा-सा सुगबुगाया। वह रजाई के अंदर से ही बोला- ’यह कैसा हल्ला सुनाई दे रहा हैं? क्या हुआ?‘ मुंह उघाड कर दूसरे ने कहा- ’लगता है, इसी मकान में आग लगी है।‘ तीसरा बोला- ’ओह, आग तो बढती ही जाएगी। अगर भीगे कपडे या चटाई से कोई हम लोगों का ढंक जाता!‘ चौथे ने कहा- ’क्या बक-बक मचा रखी है? चुपचाप पडे क्यों नहीं रहते?‘ ’अहदी-भवन‘ के अधिकारियों को इन चारों के बारे मे बतलाया गया। उनके आदेश से चारों अहदियों को खींच-पकडकर बाहर लाया गया। इस प्रकार उनके प्राणों की रक्षा की गई। आलसियों को महामंत्री के सामने हाजिर किया गया। महामंत्री जी का हुक्म हुआ- ’इनचारों को अब पहले से भी अधिक खाद्य वस्तुएं दी जाएं। शेष नकली आलसियों को बाहर कर दिया गया।
असमी मेहमान
एक बार बतायो संत घूमते-फिरते किसी अमीर आदमी की दावत में जा पहुंचे। दावत में आसपास के गांवों के कई बडे रईस लोग शरीफ हुए। मेजदान अमीर आदमी ने अपने यहां बतायो संत को फटेहाल देखा तो मन ही मन और सोचा कि इस आदमी को यहां देखकर आने वाले लोग क्या कहेंगे? अमीर मेजदान लाल-पीला हो गया और उसने वतायो संत को वतायो संत ने अपने चचेरे भाई शेख अली के कीमती कपडे पहने और वे भाई की घोडीं पर सवार होकर उसी दावत में शामिल होने के लिए फिर चल दिए।
इस बार बतायो संत का बडा आदर-सत्कार हुआ। अमीर आदमी ने सोचा-एक और बडे आदमी ने उसकी दावत कबूल की है। फिर क्या था। चिलमची में वतायो के हाथ धुलाए गए। उनके आगे बिरयानी खाने की बजाय, चम्मचें भर-भरकर अपनी कमीज और पजामे पर डालते गए। दावत उडा रहे लोग आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगे। वे बहुमूल्य वस्त्रों को संबोधित करते हुए बोले-तुम खाओ। मेहमानी तुम्हारी हो रही है। खूब खाओ। मुझे तो इन्होंने यहां से धकेल कर बाहर निकाल दिया था। सारी बात जब लोगों के समझ में आई तो सभी ने संत से माफी मांगी।
मंत्र का प्रभाव
एक गांव में सास और बहू रहती थी। उन दोनों के बीच अक्सर लडाई-झगडा होता रहता था। सास बहू को खूब खरी-खोटी सुनाती थी। पलटकर बहू भी सास को एक सवाल के सात जवाब देती थी। एक दिन गांव में एक संत आए। बहू ने संत से निवेदन किया-गुरूदेव, मुझे ऐसा मंत्र दीजिए या ऐसा उपाय बताइए कि मेरी सास की बोलती बंद हो जाए। जवाब में संत ने कहा बेटी, यह मंत्र ले जाओ। जब तुम्हारी सास तुमसे गाली-गलौच करे, तो इस मंत्र को एक कागज पर लिखना और दांतो के बीच कसकर भींच लेना। दूसरे दिन जब सास ने बहू के साथ गाली-गलौच किया, तो बहू ने संत के कहे अनुसार मंत्र लिखे कागज को दांतों के बीच भींच लिया। ऐसी स्थिति में बहू ने सास की बात को कोई जवाब नहीं दिया। यह सिलसिला दो-तीन दिन चलता रहा। एक दिन सास के बडे प्रेमपूर्वक बहू से कहा-अब मैं तुमसे कभी नहीं लडूंगी क्योंकि अब तुमने मेरी गाली के बदले गाली देना बंद कर दिया। बहू ने सोचा- मंत्र का असर हो गया है और सासूजी ने हथियार डाल दिए है। दूसरी दिन बहू ने जाकर संत से निवेदन किया-गुरूजी आपका मंत्र काम कर गया। संत ने कहा यह मंत्र का असर नही, मौन का असर है।
सियार और तीतर
कुछ दूर उडने पर तीतर कुतें के बिलकुल नजदीक जा पहुंचा। कुता तीतर को देखकर उसकी ओर लपका। तीतर बचकर एक ओर हो गया। कुत्ते ने उसका पीछा किया। तीतर फुदक-फुदक कर अंत में कुत्ते को लेकर उस झाडी के पास आ पहुंचा, जहां सियार पर पड गई। वह तीतर को छोडकर सियार पर जा धमका। कुत्ते को अपनी ओर झपटता देख कर सियार वहां से सिर पर पैर रखकर भाग खडा हुआ। अब क्या था। कुत्ते ने सियार का पीछा करना शुरू कर दिया। सियार किसी तरह जान बचाकर फिर कुत्ते की नजर से ओझल होकर एक झाडी में जा छिपा।
तीतर सियार को देख रहा था। वह फुदक-फुदक कर फिर कुत्ते के आगे गया। कुत्ता उसे देखकर उस पर झपटा। वह फुदक-फुदक कर फिर आगे निकल गया। कुत्ता उसका पीछा करने लगा। तीतर इस तरह फुदक-फुदक करता हुआ कुत्ते को फिर उसी झाडी के पास ले आया, जहां सियार डरकर छिपा थां सियार को देखकर कुत्ता फिर तीतर को छोडकर उस पर झपटा। सियार फिर जान बचाकर भाग। अब कुत्ता उसका पीछा करने लगा। सियार एक झाडी में दुबक गया। कुत्ता उसकी घात लगाकर बैठ गया। तभी तीतर फुदक-फुदक कर कुत्ते के पास आया। तीतर को देख कर कुत्ते उस पर झपटा। तीतर उडता हुआ उस झाडी के पास पहुंचा, जहां सियार छिपा था। कुत्ते ने सियार को छठी का दूध याद आ गया। साक्षात मौत को देख कर रोते-रोते उसे नानी याद आ गई।
कुछ देर तक तीतर ने सियार को इसी तरह रूलाया, तो हार मान कर उसने तीतर से प्रार्थना की कि कुत्ते से उसकी रक्षा करे। रोते हुए सियार को देखकर तीतर को तरस आ गया। वह फुदक-फुदक करता हुआ फिर कुत्ते के सामने आया। कुत्ता उस पर झपटा। वह बच निकलां इस बार वह कुत्ते को इसी तरह बहुत दूर ले गया। फिर वह उड कर वापिस सियार के पास आ गया। तीतर को अपने पास देखकर सियार की जान में जान आ गई। उस दिन से सियार ने कभी भी तीतर को सताने और नीचा दिखाने की कोशिश नहीं की।
धैर्य की परीक्षा
दक्षिण के महान् संत तिरूवल्लुवर क्रोध को जीत चुके थे और सभी के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करते थे। उन दिनों जब वे अपनी आजीविका चलाने के लिए कपडे की दुकान करते थे तो उद्द्ण्ड स्वभाव के एक युवक ने उन्हें परेशान करने की सोची और निश्चय किया कि वह उन्हें क्रोधित करके ही छोडेगा। एक दिन वह युवक तिरूवल्लुवर की दूकान पर गया ओर एक धोती अपने हाथ में लेकर पूछने लगा, इसका मूल्य क्या है? तिरूवल्लूवर ने कहा, पांच रूपए। उस युवक ने उसी क्षण धोती को फाडकर उसके दो टुकडे कर दिए और फिर पूछा, बताओं, इसका मुल्य क्या हैं?
तिरूवल्लूवर ने शांत भाव से कहा, इसका दाम ढाई रूपए। उस युवक ने धोती के टुकडे को फाडकर फिर उसके दो टुकडे कर दिए पूछा, और इसके दाम? तिरूवल्लुवर ने उसी शांत मुद्रा में उतर दिया, सवा रूपया। वह युवक धोती के एक के बाद एक टुकडे करता गया और तिरूवल्लुवर से उसके दाम पूछता रहा। अंत मैं उसने धोती के धागे-धागे कर दिए और तिरूवल्लूवर के सामने ऐंठकर पांच रूपए फके। रूपए फेंककर जाने लगा तो उन्होंने रूपए लौटाते हुए कहा, देखो भाई, यदि तुम्ह धोती की आवश्यकता हो तो दूसरी धोती ले जाओ और यदि उसकी आवश्यकता नहीं हो, तो फिर ये रूपए अपने पास रखो। व्यर्थ में रूपए देने से तुम्हारे पिताजी रूष्ट होंगे। वे कहेंगे, घर में सामान नहीं आया तो तुमने रूपए कहां खो दिए! यह सुनकर युवक संत तिरूवल्लूवर के चरणों में गिर पडा।
सपने का भोज
तीनों भाइयों ने उसे गौर से देखा और यकीन होने पर हि चौधरी को नींद आ गई है वे भी बिस्तर लगाकर से गए। उनके सोते ही चौधरी दबे पांव उठा और सारी खीर चट कर गया। फिर वह अपने बिस्तर पर आया और चादर तानकर सो गया। अधिक खाने से उसके अंग-अंग में आलस आ रहा था। पलकें भारी हो रही थी। लेटते ही उसे नींदस आ गई। सुबह तीनों भाई उठे और बातें करने लगे। चौधरी अभी गाढी नींद में सोया था। उठकर वह करता भी क्या। वे एक-दूसरे से पूछने लगे तुम्हें कैसा सपना आया? एक भाई बोला- मुझे सपना आया कि मैं अजमेर में हूं। मै वहां के राजा दरबार में भी गया। दरबार कितना सुंदर थां फिर उसने दूसरे से अपना-अपना सुनाने को कहा। दूसरा भाई कहने लगा- मैं जयपुर के दरबार में गया। वहां मैंने राजा को भी देखा। इस बीच चौधरी जाग गया था और उनकी बातें सुन रहा था। तीसरा भाई बोला- अब मैं क्या कहूं। मैं चलते-चलते दिल्ली पहुंच गया। वहां मैंने बादशाह को देखा। तीनों भाई अपने सपने सुना चुके तो चौधरी कराहने लगा- आह! ऊह! आह! हर आह ऊह के साथ वह कभी इस करवट होता, कभी उस करवट, मानो कोई सपना देख रहा हो। ओ चौधरी, तू उठता है कि नहीं? मुझे परेशान मत करो! डसने कराहते हुए कहा। बता तुमने क्या सपना देखा? भाइयो, कुछ मत पूछो! एक लंबा-तगडा आदमी मेरे पास आया। उसने मुझे बहुत मारा। अभी भी मेरा जोड-जोड दर्द कर रहा है- उसने मुझसे कहा-यह खीर खा! च्ल शुरू हो जा! पीछे कुछ नही बचना चाहिए। मैं पूरी खीर खा गया तो उसने मुझे फिर मारा। मार-मार के भुरता बना दिया। उल्लू,हम तेरे पास ही सो रहे थे, तूने हमें जगाया क्यों नहीं? हम तुझे बचा लेते। तीनों भाइयों ने एक राय होकर कहा। चौधरी ने कहा-भाइयों, मैं तुम्हें कैसे जगाता! एक अजमेर गया हुआ था, दूसरा जयपुर ओर तीसरा बादशाह को देखने ठेठ दिल्ली। मैं बहुत चिल्लाया, बहुत आवाजें दी, पर तुम कैसे सुनते! तुम यहां थे भी तो नही!
आम का पेड
एक नगर में एक सुंदर बगीचा था। एक फकीर लंबी पदयात्रा करते हुए वहां पहुंचा। एक आम के पेड के नीचे खूंटी तानकर अलमस्त फकीर सो गया। थकान से उसे गहरी नींद आ गई। बगीचे में दो-तीन बच्चे भी खेल रहे थे। खेलते-खेलते वे आम के पेड पर पत्थर मारकर आम तोडने लगे। एक पत्थर उछल कर सोए हुए फकीर पर जा गिरा। फकीर के कपाल में चोट आई। खून की धार बहने लगी। बच्चे मारे डर के चिल्लाने लगे कि अब फकीर डंडा लेकर उनकी खैर खबर लेगा। बच्चे बगीचे के कोने में दुबक गए। फकीर सहमे हुए बच्चों के पास गया और बच्ची के चरण पकड कर क्षमा याचना करने लगा। एक बच्चे ने आगे बढकर कहा-गुरूजी, क्षमा तो हमें मांगनी चाहिए आप व्यर्थ में क्यों दुखी हो रहे हो। फकीर ने विनम्रता से कहा-तुमने आम पर पत्थर फेके तो आम के पेड ने तुम्हें रसीले आम दिए। मैं तुम्हें डर के सिवाय कुछ नहीं दे पाया। काश! आज मैं भी कोई फलवाला पेड होता तो तुम्हें डराने की बजाय मीठे आम देता। बस इसी पीडा से परेशान होकर मैं तुमसे क्षमा मांग रहा हूं। बच्चे फकीर की क्ष्माशीलता से प्रसन्न हुए और उन्होंने अनजाने में हुए अपराध की क्षमा मांगी। फकीर ने रसीले आम तोडकर बच्चों को दिए और उन्हे प्रसन्नापूर्वक विदा किया।
चाणक्य की कुटिया
पाटलिपुत्र के अमात्य आचार्य चाणक्य बहुत विद्वान न्यायप्रिय होने के साथ एक सीधे सादे ईमानदार सज्जन व्यक्ति भी थे। वे इतने बडे साम्राज्य के महामंत्री होनेके बावजूद छपपर से ढकी कुटिया में रहते थे। एक आम आदमी की तरह उनका रहन-सहन था। एक बार यूनान का राजदूत उनसे मिलने राज दरबार में पहुंचा राजनीति और कूटनय में दक्ष चाणक्य की चर्चा सुनकर राजदूत मंत्रमुग्ध हो गया। राजदूत ने शाम को चाणक्य से मिलने का समय मांगा।
आचार्य ने कहा-आप रात को मेरे घर आ सकते हैं। राजदूत चाणक्य के व्यवहार से प्रसन्न हुआ। शाम को जब वह राजमहल परिसर में ’आमात्य निवास‘ के बारे में पूछने लगा। राज प्रहरी ने बताया- आचार्य चाणक्य तो नगर के बाहर रहते हैं। राजदूत ने साचा शायद महामंत्री का नगर के बाहर सरोवर पर बना सुंदर महल होगा। राजदूत नगर के बाहर पहूंचा। एक नागरिक से पूछा कि चाणक्य कहा रहते है। एक कुटिया की ओर इशारा करते हुए नागरिक ने कहा-देखिए, वह सामने महामंत्री की कुटिया है। राजदूत आश्चर्य चकित रह गया। उसने कुटिया में पहुंचकर चाणक्य के पांव छुए और शिकायत की-आप जैसा चतुर महामंत्री एक कुटिया में रहता है। चाणक्य ने कहा-अगर म जनता की कडी मेहनत और पसीने की कमाई से बने महलों से रहूंगा तो मेरे देश के नागरिक को कुटिया भी नसीब नहीं होगी। चाणक्य की ईमानदारी पर यूनान का राजदूत नतमस्तक हो गया।
दो दामाद
एक गांव में एक बहुत चतुर महिला रहती थी। उसके दो दामाद थे। बडा दामाद धनवान था जबकि छोटे दामाद के पास खाने के दाने भी नहीं थे। एक बार त्योहार के मौके पर दोनों दामाद ससुराल में इकट्ठे हुए। भोजन के समय दोनों के लिए थाल परोसे गए। अमीर दामाद के थाल में छपपन भोग सजे थे जबकि गरीब दामाद की थाली में दलिया परोसी गई। ये भेद देखकर गरीब दामाद ने अमीर दामाद से कहा- के तो सासू दूसरी, के परोसता भूली। थाने परस्या लाडूआ माने परसी थूल्ली। सास ने यह बात सुनी तो उसने गरीब दामाद की मजाक उडाते हुए बोली-
न तो सासू दूसरी, न परोसता भूली। मुंह देख कर तिलक लगाया, खाओ गटागट थूल्ली। बेचारे गरीब दामाद ने दुनिया की हकीकत समझते हुए थूल्ली खाने में ही अपनी भलाई समझी।
मूल और फूल
एक सुंदर बगीचा था। बगीचे में रंग-बिरंगें फूल खिल रहे थे। बगीचे का सिंचन और संरक्षण करते जब मां बूढी हो गई तो उसके पूत्र ने कहा यह काम आप मेरे पर छोड दो। मैं सारे बगीचे का पानी पिलाउंगा और पूरी सार संभाल करूंगा।
एक महीने बाद जब बगीचे में मां गई तो मां ने देखा कि सारे फूल सूख रहे है। मां ने कहा-बेटे! क्या तुमने उपवन का बिल्कुल ध्यान ही नहीं रखा? सारे पौधे सूख गए हैं, फूल कुम्हला गए है। मां का उलाहना सुनकर पुत्र पश्चाताप करने लगा। उसने कहा-मैंने एक-एक फूल को प्राणों से ज्यादा प्यार किया है, सबकी अलग-अलग सार-संभाल की हैं। सबको अच्छी तरह से पानी पिलाया है, फिर भी सारे फूल सूख गए और मरझाा गए, इसका मुझे बहुत ही अफसोस है। मां ने कहा-भोले बेटे! पौधों को प्राण फूल में नहीं, मूल में रहता है। इन्हें जीवन देने के लिए जडों को सींचना आवश्यक होता है। किंतु तुम फूलों पर ही पानी डालते रहते हो, इसी भूल के कारण हरा-भरा बगीचा सूख गया है। फूलों की शोभा विलीन हो गई है। अब बेटे को समझ में आया कि मूल को सींचने से ही फूल सुरक्षित होते हैं।
गंधर्वसेन
एक दिन नवाब के दरबार में वजीर जोर-जोर से रोता हुआ आया। नवाब ने उससे वजब पूछी। वजीर बोला, गंधर्वसेन मर गया, जहांपनाह! सुनकर नवाब भी रो पडा। आह, गंधर्वसेन मर गया! मरहूम के लिए इकतालीस दिन का मातम मनाने का फरमान जारी हुआ। नवाब हरम में गया तब भी उसके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। बेगमों ने रोने की वजह पूछी। नवाब ने रूंधे गले से बताया कि गंधर्वसेन मर गया। बेगमें छाती पीट-पीट मर मातम मनाने लगीं। पूरे जनाने में मातम का आलम था। बडी बेगम की नौकरानी को ये गुलगपाडा समझ में नहीं आया। उसने बडी बेगम से पूछा, मोहतरमा सब रो क्यों रहे है? बेगम ने कहा, बेचारा गंधर्वसेन मर गया। कौन गंधर्वसेन? क्या वह नवाब साहब का बहुत नजदीकी रिश्तेदार था? अरे, यह तो पता नहीं बेगम भागी-भागी नवाब के पास गई। उसनेनवाब से पूछा कि यह गंधर्वसेन कौन था। जिसकी मौत पर सब रो-रोकर मातम मना रहे है। नवाब भागा-भागा दरबार में गया और वजीर को पूछा, यह गंधर्वसेन कौन था, जिसकी मौत पर दुखी हो रहे है? वजीर ने कहा, माफ करें हुजूर, मैं भी नहीं जानता कि वह कौन था। मैंने कोतवाल को रोते देखा कि हाय, गंधर्वसेन मर गया, तो उसका साथ देने के लिए मैं भी रोने लगा। नवाब बरस-पडा, जाओ, पता करो कि गंधर्वसेन कौन था। वजीर तेजी से भागता हुआ कोतवाल के पास गया। उसने कोतवाल से पूछा कि गंधर्वसेन कौन था। कोतवाल ने बताया कि वह भी नहीं जानता कि गंधर्वसेन कौन था? उसने जमादार को रोते सुना कि गंधर्वसेन मर गया, तो वह भी रोने लगा। मैंने वजीर को सूचना दे दी। वजीर और कोतवाल दोनों ने जमादार को पकडा और कोतवाल दोनों ने जमादार को पकडा और उससे पूछा कि वह किसके लिए रो रहा था? जमादार ने जवाब दिया, हुजूर, मैं क्या जानूं कि वह कौन था! मैंने अपनी बीवी को गंधर्वसेन की मौत पर रोते देखा तो उसके दुख से मेरा दिल पसीज गया। किसी को हंसते या रोते देखकर हमें भी उसकी छूत लग जाती है और हम भी हंसने या रोने लगते है। मैं भी बीवी को रते देख रोने लगा। तीनों मिलकर जमादारनी के पास गए। वह भी गंधर्वसेन से अनजान थी। उसने तो तालाब पर कपडे धोने वाली को फूट-फूटकर रोते और कहते सुना कि उसका गंधर्वसेन मर गया।
अब चारों उसके घर गए और उससे पूछा कि वह सुबह क्यों रों रही थी और गंधर्वसेन उसका क्या लगता था? यह सुनकर कपडे धोने वाली फिर रो पडी, मेरा कलेजा फटा जा रहा है। गंधर्वसेन हमारा पालतू गधा था। उसे मैं बेटे से भी ज्यादा चाहती थी। कहते-कहते वह दहाड मारकर रोने लगी। चारों बहुत शर्मिदा हुए और तेजी से चले गए। वजीर महल में गया और नवाब के पैर पकडकर हकीकत बताई कि गंधर्वसेन पालतू गधा था। जब यह खबर हरम में पहुंची, तो नवाब और दरबारियों के काम काज के तरीके पर सभी खूब हंसे।
राजंहस
एक किसान था दुर्गादास। वह धनी किसान होते हुए भी बहुत आलसी था। वह न अपने खेत देखने जाता था, न खलिहान। सब काम वह नौकरों पर छोड देता था। उसके आलस से उसके घर की व्यवस्था बिगड गई। उसको खेती में हानि होने लगी। गायों के दूध-घी से भी उसे कोई अच्छा लाभ नह होता था। एक दिन दुर्गादास का मित्र उसके घर आया। मित्र ने दुर्गादास के घर का हाल देखा। उसने यह समझ लिया कि अपने मित्र की भलाई करने के लिए उससे कहा-मित्र! तुम्हारी विपति देखकर मुझे बडा दुःख हो रहा है। तुम्हारी दरिद्रता को दूर करने का एक सरल उपाय मैं जानता हूं। दुर्गादास ने कहा-वह उपाय तुम मूझे बता दो। मैं उसे अवश्य करूंगा।
मित्र ने कहा-सब पक्षियों के जांगने से पहले ही मानसरोवर पर रहने वाला एक सफेद राजहंस पृथ्वी पर आता है। वह दोपहर दिन चढे लौट जाता है। यह तो पता नहीं कि वह कब कहां आएगा। पर जो आदमी उस सफेद हंस के दर्शन कर लेता है, उसको कभी किसी बात की कमी नहीं होती है। आलसी दुर्गादास बोला-कुछ भी हो, मै। उस हंस के दर्शन अवश्य करूंगा। मित्र चला गया। दुर्गादास दूसरे दिन बडे सबेरे उठा। वह घर से बाहर निकला और हंस की खोज में खलिहान में गया। वहां उसने देखा कि एक आदमी उसके ढेर से गेहूं अपनें ढेर में डालने के लिए चुरा रहा है। दुर्गादास को देखकर वह लज्जित हो गया और क्षमा मांगने लगा। खलिहान गाय का दूध दुहकर अपनी पत्नी के लोटे में डाल रहा था। दुर्गादास ने उसे डांटा। घर पर जलपान करके हंस की खोज में वह फिर निकला और खेत पर गया। उसने देखा कि खेत पर अब तक मजदूर आए ही नहीं थे। वह वहां रूक गया। जब मजदूर आए तो उन्हें देर से आने का उसने उलाहना दिया। इस प्रकार वह जहां गया, वहीं उसकी कोई-न-कोई नुकसान होते रूक गया।
सफेद हंस की खोज में दुर्गादास प्रतिदिन सबेरे उठने और घूमने लगा। अब उसके नौकर ठीक काम करने लगे। उसके यहां चोरी होना बंद हो गया। बहले वह रोगी था। अब प्रातः भ्रमण से उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो गया। जिस खेत से उसे दस मन अनाज मिलता था, उससे अब पचींस मन मिलने लगा। गोशाला से दूध बहुत अधिक आने लगा। एक दिन फिर दुर्गादास मित्र उसके घर आया। दुर्गादास ने कहा-मित्र! सफेद हंस तो मुझे अब तक नहीं मिला, किंतु उसकी खोज में लगने से मुझे बहुत लाभ हुआ है। मित्र हंस पडा और बोला-परिश्रम ही वह सफेद हंस है। परिश्रम के पंख सदा उजले होते है। जो परिश्रम न करके अपना काम नौकरों पर छोड देता है, वह हानि उठाता हैं और जो स्वयं परिश्रम करता है तथा जो स्वयं अपने काम की देखभाल करता है, वह सम्पति और सम्मान पाता है।
कुदरत का कानून
एक संत अपने शिष्यों के साथ स्थान-स्थान पर भ्रमण कर रहे थे। एक दिन वह एक गांव में जा पहुंचे। वे एक लुहार की दुकान पर पुंचे और रात बिताने की जगह मांगी। लुहार ने उनका बडा आदर-सत्कार किया। संत बोले- बेटा, हम तेरी सेवा से बडे प्रसन्न हैं और तुम्हें तीन वरदान देते है। जो चाहे, सो मांग लो। पहले तो लुहार सकुचाया, फिर बोला-महात्मा जी, यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे सौ वर्ष की आयु का वरदान दीजिए।‘ ’तथास्तु! संत बोले- ’दूसरा पर मांगो।‘ लुहार को अपने काम की बडी चिंता थी। उसने दूसरे वर में मांगा कि उसे जीवन भर काम की कोई कमी न रहे।
संत ने वह वर भी दिया और तीसरा वर मांगने को कहा। लुहार को एकाएक कुछ न सूझा, फिर एकदम वह बोला-आप मेरी जिस कुर्सी पर बैंठे है, उस पर जब भी कोई दूसरा बैठे तो मेरी मर्जी के बिना उठ ने सके। संत कुर्सी से उठे और तथासतु कहकर अपने शिष्यों के साथ वहां से चले गए। जैसा संत ने कहा था, ठीक वैसा ही हुआ। लुहार के सभी संगी साथी, एक-एक करके समय आने पर मरण का वरण कर गए। पर लुहार वैसे का वैसाप हट्टा-कट्टा बना रहा। उसकी दुकान पर काम की कोई कमी नहीं थी, वह दिन भर गाने गाते हुए और लोहा पीटता था। एक न एक दिन तो सभी का समय समाप्त होता है। वरदान के सौ वर्ष पूरे होते ही यमराज ने उसे साथ चलने को कहा। लुहार अपना समय पूरा होते देख पहले तो घबराया पर फिर संभलकर बोला-’आइए यमराज जी, मैं जरा अपने औजार संभाल कर रख दूं। तब तब आप इस कुर्सी पर विराजिए। यमराज कुर्सी पर बैठे ही थे की लुहार ठहाका मारकर हंसा और बोला-’अब आप यहां से मेरी मर्जी के बिना नहीं उठ सकते। यमराज ने बडी कोशिश की, पर उस कुर्सी से उठ ही न सके। लुहार उन्हें बी बैठा छोड कर खिलखिलाता हुआ निकल गया। यमराज को अब अपनी कैद में आकर लुहार को अपनी मृत्यु का कोई डर नहीं रहा। इसी खुशी में उसका दावत उडाने का मन हुआ। उसने एक मुर्गे को दडबे से निकालकर हलाल करने की सोची। मगर जैसी ही उसने मुर्गे की गर्दन पर चाकू चलाया, वह फिर से जुड गई। मुर्गा फडफडाता हुआ भाग निकला।
लुहार मुर्गे के पीछे दौडा पर उसे कपड न पाया। तब उसने एक बकरे पर हाथ डाला, पर घोर आश्चर्य, बकरा भी पुनः जीवित होकर उसके हाथ से निकल भागा। लुहार को तुरंत ही यह रहस्य समझ में आ गया और वह अपने मांथे पर हाथ मारकर बोला-मैं भी कैसा मुर्ख हूं। जब यमराज ही मेरी कैद में है तो किसी की मृत्यु कैसे हो सकती है? चलो अच्छा है, किसी को किसी के मरने का दुख नहीं होगा। मैं तो दलिये और खिचडी से ही गुजारा कर लूंगा, सभी की जान तो सलामत रहेगी, उसने सोचा। अगला साल आते-आते उसकी ही नहीं, पूरी दुनिया की मुसीबतें बढने लगी। किसी के भी न मरने के कारण जीव-जंतुओं की संख्या बढने लगी। अनगिनत मच्छर-मक्खियां, कीडे-मकौडे, चूहे और मेंढक पैदा हुए मगर मरा एक भी नहीं। चूहों ने खेतों और खलिहानों में रखी सारी फसलें व आनाज चट कर डाले।
पेडो का एक-एक फल पक्षियों और कीडों ने कुतर दिया। नदियां और समुद्र मछलियों, मेंढकों और अन्य पानी के जीवों से इतने भर गए कि उनमें से बदबू आने लगी और उनका पानी पीने लायक नही रहा। आकाश टिड्ड और मच्छरों से भरा रहने के कारण काला दिखाई पडने लगा। धरती पर भयानक सांप और वन्य जीव-जंतु विचरने लगे। प्रकृति का संतुलन बिगड गया। लोग अत्यधिक दुखी हो उठे। यह सब विनाश देखकर लुहार को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसे अब जाकर पता चला कि विनाश के बिना सारा विकास अधूरा है। प्रकृति के संतुलन के लिए मृत्यु अनिवार्य है। लुहार दौडता हुआ अपने घर पहुंचा और यमराज को मुक्त कर दिया। यमराज ने उसकी गर्दन में फंदा डाला और उसे यमलोक ले गया। उसके बाद धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया।
मूर्खाधिराज
एक बार बादशाह अकबर अपने राजमहल में गए। बादशाह को सबसे बडी बेगम उस समय अपनी किसी खास सहेली से बातें कर रही थी। बादशाह अचानक बीच में जाकर खडे हो गए। बेबम हंसती हुई बोली आइए मूर्खाधिराज!
बादशाह को बहुत बुरा लगा, लेकिन बेगम ने इससे पहले कभी बादशाह का अपमान नहीं किया था। बादशाह जानते थे कि बेगम चतुर है। वह बिना किसी मतलब के ऐसी बात नही कह सकती। फिर भी बादशाह यह नहीं जान सके कि बेगम ने आखिर उन्हें मूर्खाधिराज कहा तो क्यों कहा। बेगम से जवाब तलब करना बादशाह को अच्छा नहीं लगाा। थोडी देर वहां रूककर वे अपने कमरे में चल आए।
बादशाह उदास बैठे थे। उसी समय बीरबल उनके पास आए। बीरबल को देखते ही बादशाह ने कहा- आइए मूर्खाधिराज!
बीरबल हंसेर बोले-जी, मूर्खाधिराज! बादशाह ने आंख तरेर कर कहा- बीरबल! तुम मुझे मूर्खाधिराज क्यों कहते हो? बीरबल ने कहा आपने मुझे मुर्ख कहा तो आप हमारे राजा होने से मूर्खाधिराज नहीं तो और क्या हुए। अकबर ने बडी बेगम के साथ हुई बातचीत का ब्यौरा दिया तो बीरबल ने कहा-जहांपनाह, आदमी पांच प्रकार से मूर्खाधिराज कहलाता है। पहला तो वह जो दो व्यक्ति अकेले में बातें कर रहे हो और वहां बिना बुलाए जा खडा हो। दूसरा वह जो दो व्यक्ति बातचीत कर रहे हो और उसमें तीसरा व्यक्ति बीच में पडकर उनकी बात पूरी हुए बिना बोलने लगे। तीसरा जो कोई किसी को पूरी बात सुने बिना बीच में बोलने लगे। चौथा वह जो बिना किसी गलती के दूसरों को गाली दे और दोष लगाए। पांचवां मूर्खाधिराज वह है जो मूर्ख के पास जाए और मूर्खो की संगत करे। बादशाह बीरबल के उतर से बहुत प्रसन्न हुए। अब उन्हें समझ में आया कि बेगम ने उन्हें मूर्खाधिराज क्यों कहा।
छः दिशाएं
पुराने जमाने की बात है। एक आदमी सब दिशाओं में प्रणाम कर रहा था। साधना की मुद्रा मानी जाती है प्रणामी मुद्रा। उसने छहों दिशाओं केा प्रणाम किया।एक जिज्ञासु साधक ने उससे पूछा-यह क्या कर रहे हो। मैं सब दिशाओं को नमस्कार कर रहा हूं। उसने जवाब दिया। यह हमारे धर्म का विधान है। किसलिए करते हो जिज्ञासु ने पूछा। यह तो मुझे पता नही हैं। जिज्ञासु ने बात को आगे बढाया-तुम अपने पडोसियों के साथ कैंसा व्यवहार करते हो? कुछ लोग अपने नौकरों के साथ बहुत क्रूरतापूर्ण व्यवहार करते है। तुम उनके साथ कूद व्यवहार तो नही करते? कभी अच्छा व्यवहार करता हूं और कभी क्रूर व्यवहार भी कर लेता हूं। प्रणाम करने वाले आदमी ने कहा। अपने गुरूजनों का सम्मान करते हो? कभी करता हूं और कभी नहीं करता। मित्रों के साथ लडाई करते हो? कभी-कभी लडाई भी कर लेता हूं। कोरा दिशाओं को नमस्कार से क्या होगा? दिशाओं को नमस्कार करने का रहस्य क्या है? पहले इसे समझों जिज्ञासु ने जवाब दिया।
आप कृपाकर मुझे भी इसका रहस्य को जानते है? हां। क्या आप कृपाकर मुझे भी इसका रहस्य बताएंगे? कहा-पूर्व दिशा को नमस्कार करने का अर्थ हैं- अपने पूर्वजों का सम्मान करना। पश्चिम दिशा को नमस्कार करने का अर्थ है- अपने अनुगामियों का सम्मान करना। दक्षिण दिशा को नमस्कार करने का अर्थ है- अपने गुरू के आदेशों की पालन करना। गुरू को दक्षिण बनाना यानी अपने अनुकूल बनाना। उतर दिशा को नमस्कार करने का अर्थ है- अपने मित्रों के साथ सद्व्यवहार करना। उंची दिशा को नमस्कार करने का अर्थ है-अपने धर्मगुरूओं, आचार्यो का सम्मान करनां नीची दिशा को नमस्कार करने का अर्थ है- अपने नौकर-चाकरों का सम्मान करना। जिज्ञासु की बात सुनकर दिशाओं को प्रणाम करने वाले ने कहा-अब मैं इन सभी को दिशाएं मानकर इन सभी का सम्मान करूंगा।
अमृत का गंगाजल
एक संत थे। उन्होंने अपने चार शिष्यों को बुलाकर कहा देश की पवित्र नदियों का जल लेकर आओ। चारों शिष्य अलग-अलग दिशाओं में नदियों का जल लेने के लिए चल दिए। थोडे दिनों बाद लौटकर शिष्यों ने गुरूजी के सामने अलग-अलग नदियों का जल रखा। पहले शिष्य ने कहा यह यमुना का जल है। दूसरे शिष्य ने कहा यह गोदावरी नदी का जल है। तीसरे शिष्य ने कहा यह कावेरी का जल है। सभी की बात सुनकर गुरूजी ने कहा तुम चारों में से कोई गंगा नदी का जल तो लाया ही नहीं? एक प्रतिभावना शिष्य ने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया गुरूजी, आने तो पवित्र नदियों का जल मंगाया। गंगाजल तो अमृत हैं। यदि आप अमृत मंगाने के लिए कहते, तो मैं गंगाजल लातां शिष्य की बात सुनकर गुरूजी गदगद हो गए।
कंजूस का न्यौता
पंडिताइन सौदागर के घर आई और बोली जरूर तुमने इन्हें खाने में कुछ दिया है। बचा हुआ खाना दो, मैं उसे देखूंगी। खाना बचा नहीं था, तो सौदागर देता क्या? पंडिताइन बोली मैं इन्हें नहीं ले जाउंगी। मैं भी यहीं अपने प्राण दे दूंगी और तुम्हें ब्रह्रा हत्या और नारी हत्या करने का पाप लगेगा। सौदागर ने अपनी पत्नी से सलाह की। दोनों पंडिताइन को समझाने लगे-पंडितजी तो चल बसे अब वह लौटकर नहीं आएंगे। तुम अपने प्राण क्यों दे रहीं हो? जो भी मांगोगी, हम देने को तैयार है। पंडिताइन बोली- सौ लोगों का ब्रह्रा भोज करा, नहीं तो पांच हजार रूपए दो। सौदागर बोला-एक पंडित को खिलाने में जब यह गति हुई है, तो सौ को खिलाने में क्या दुर्गति होगी? साहूकार बोला- तुम पांच हजार रूपए ले लो।
सौदागर को पांच हजार रूपए निकाल कर देना अपना कलेजा निकाल कर देने जैंसा लग रहा था। पर मरता क्या करता? उसने रूपए पंडिताइन को दे दिए। पंडिताइन रूपए और पंडितजी को उठाकर अपने घर ले आई। पंडितजी घर में आते ही उठकर बैठ गए। दूसरे दिन सौदागर उनके घर के सामने से निकला, तो उसने देखा कि पंडितजी बैठे है। साहूकार को देखकर पंडितजी बोले- बद्ये, तुम जुग-जुग जियो। पंडितजी और पंडिताइन की चाल सौदागर समझ गया और बोला जुग-जुग तो तुम जियोगे । हम तो बिना मारें ही मर गए है।
चीते के बेटे-बहू
किसी गांव में गरीब पति-पत्नी रहते थे। उनके कोई संतान नहीं थी। उनके पास एक इंच भी जमीन नहीं थी। वे रोज वन में जाते, कंदमूल खाते और अपनी कुटिया में सो जाते। जंगल ही उनके जीने का सहारा था। कुछ दिनों बाद पत्नी के पांव भारी हो गए। जंगल में कंदमूल खोदते हुए उसने बच्चे को जन्म दिया। पत्नी ने पति को आवाज दी, ’सुनते हो बेटा जन्मा है। अब हम क्या करें?‘
गरीब ने कहा, ’घर में एक दाना भी नही है। न कपडे-लते हैं न और कुछ। हम इसे पालेंगे कैसे?‘ पत्नी ने कहा, ’ठीक है, इसे जंगल में छोड देते है। उसके भाग्य में जो लिखा होगा, वही होगा, वे दोनों बच्चे की वही छोडकर घर चले गए। बच्चे के रोने की आवाज सुनकर एक चीता वहां आया और उसे अपनी मांद में ले गया। वह उसका अपने बच्चे की तरह पालन-पोषण करने लगा।
वह बच्चा बडा हुआ तो चीते को उसके ब्याह की चिंता हुई। एक दिन चीते ने लडके से पूछा, ’तुम्हारे लिए एक लडकी ने आउं?‘ सकुचाते हुए लडके ने कहा, ’जो आपकी मरजी! अगर आप मेरी शादी करना चाहते है, तो कोई लडकी ले आइए पिताजी।‘ चीता किसी लडकी के उधर से गुजरने के इंतजार में था। एक लडकी आई। चीता उसे उठाकर मांद की तरफ चल दिया। रास्ते में वह अपने पर काबू न रख सका और उसका आधा कान खा गया। वह उसे लेकर घर पहुंचा और कहा, ’बेटे, मैं तुम्हारे लिए एक लडकी लाया हूं। जाओ, पसंद कर लो।‘ लडके ने बाहर देखा, ’अरे, इसका तो एक कान आधा गायब है। ’वह वापस चीते के पास गया और कहस-पिताजी! मुझे आधे कान वाली लडकी पसंद नहीं है।‘ एक-एक कर चीता कई लडकियां लाया। पर मांसाहार की आदत के चलने किसी का वह हाथ खा जाता, किसी का नाक तो किसी का कान। आ,ार एक दिन लडके ने कहा, ’पिताजी, मेरे लिए कोई अच्छी लडकी जाइए। पूरे सुंदर शरीर वाली हो जिसे सर्वाग सुंदरी कहते है।‘
इस बार चीता ऐसे घर में गया जहां ब्याह हो रहा था। फेरों के बीच में ही मंडप से दुल्हन को चीता उठा लाया। चीते को देखकर घराती-बराती सब भाग छूटे। इस बार चीते ने पूरी सावचेती बरती। दुल्हन को सही सलामत घर लाया। बेटे से उसका ब्याह कर दिया। चीता और बेटे-बहू बहुत सुख चैन के साथ रह रहे थे। एक रोज सब्ती काटते हुए बहू की अंगुली कट गई। रिसते खून को उसने पतियों से पोंछ दिया। खून की गंध बाकर चीता उन पतियों के पास गया और उन्हें चाटा। उसने सोचा, ’जिसके खून का स्पाद इतना अच्छा है तो उसका मांस कितना अच्छा होगा।‘ चीते की आंखों की रंगत ने बेटे बहू से चुगली खाई। पति-पत्नी समझ गए कि चीते की नीचत में खोट है। वह उन्हें खाएगा।
उसी रात को वे दोनों वहां से रफूचक्कर हो गए। सुबह चीते ने देखा दोनों का कहीं अता-पता नहीं था। उनके पांवो के निशानों के सहारे वह उनके पीछे गया। वे दोनों कहीं नहीं मिले। वे दोनों अब जंगल छोडकर नगर में बस गए। सुख शांति से रहने लगे। चीता अपनी बुरी हिंसक आदत के कारण हमेशा के लिए अपने बहू बेटे से दूर हो गया। अब वह अकेले पडे-पडे पछता रहा था।
चमत्कारी कटोरे
गांव के लोग ज्यों ही कोई पकवान पूरा करते दर्जनों नए पकवान हाजिर हो जाते अतिथियों ने रूच-रूच भोग लगाया। घर-घर चमत्कारी कटोरे की बात फैल गई। उस गांव में एक अमीर आदमी रहता था। वह अपने सामने किसी को कुछ नहीं गिनता था। उसने कटोरों के स्वामी किसान और उसकी पत्नी को उसने कई उपहार दिए और जादुई कटोरे मिलने का रहस्य जान लिया। घमंडी अमीर ने सोचा, इसमें क्या मुश्किल है! यह तो बाएं हाथ का खेल है। वह तेजी से घर गया और रसोइए को भांति-भांति के राजसी व्यंजन बनाने का आदेश दिया। अगले दिन सुबह वह पालकी में बैठा और कहारों को भगाते हुए तिराहे वाले बरगद के नीचे पहुंचा। वहां एक बडी टोकरी में महंगे से महंगे पकवान सजा और टोकरी को बरगर के नीचे रख दिया। कहारों को उसने शाम को वापस आने को कहकर लौटा दिया और खुद नींद का बहाना करके लेट गया। पर नींद तो उसने कोसों दूर थी। वह यह देखने के लिए बहुत व्यग्र था कि वनदेवियां कब आती है और क्या करती है। वह देर तक लेटा रहा। आंखिर उस पर नींद हावी हो गई। घडी भर बाद उसकी आंख खुली तो वह हडबडाकर उठ बैठा और इधर-उधर देखा। उसके पास चार अजीब-से कटोरे पडे थे और टोकरी खानी थी। आखिर वह सफल हुआ। वैसे अपनी सफलता पर उसे कभी संदेह नहीं हुआ था वनदेवियों के लिए वह मानवी व्यंजनों में से सबसे स्वादिष्ट और सबसे महंगे राजसी व्यंजन जो लाया था। उसकी इच्छा वे कैसे पूरी नही करती! और देखो, जादुई कटोरे उसे मिल गए। कहारों को पहले से भी तेज भगाते हुए वह घर पहुंचा। उसने घरवालों को आदेश दिया कि वे दौडकर जाएं और गांव के घर में यह खबर पहुंचा दें और भोज का निमंत्रण दे दें।
गांव वाले चारों दिशाओं से उसके भोजनकक्ष की ओर उमड पडे। कुछ ही दिन पहले हुए भोज की याद से उनके मुंह में पानी भर आया। आज फिर भोज, और वह भी साहूकार के यहा! कइयों ने दिन भर कुछ नहीं खाया। ताकि मेजबान की दरियादिली का आनंद उठाया जा सके। जरीदार पगडी, कुंडली और हीरे की अंगूठी डाले हुए नौकरों का मुखिया कटोरों के सामने खडा हुआ। उपस्थित अतिथियों को दिव्य व्यंजन परोसने का आदेश दिया। उसकी आवाज की गूंज अभी विलीन भी नही हुई थी कि कटोरों में से बीसियों आदमी निकले। वे पहलवानों सरीखे लगते थे। उनकी बांहों की मछलियां फडक रही थी। कटोरों से निकलते ही वे मेजबान और भूखे मेहमानों पर झपटे। उन्होंने सबको बारी-बारी से पकडा-झटके से चमचमाते उस्तरे निकाले और बडी तत्परता से उनके सर मूंडने लगे। एक-एक सर की उन्होंने ऐसी जोरदार घूटाई की कि वे तांबे की देगची के पेंदे की तरह चमकने लगे। पहलवानों ने कहा-जो चोरी और चालाकी करके इन कटोरों को पाने की कोशिश करता है उसका यही हाल होता है।
चोरों का दोस्त राजा
महल पहूंच कर राजा विक्रम भी नहाए-धोए। राजसी वस्त्रों और आभूषणों से सज्जित हो सिंहासन पर बैठे। नगर कोतवाल को तलब किया गया। राजा ने कोतवाल को डांटा- ’सारी रात क्या सोकर ही गुजारते हो? नगर के अंदर कहां क्या चोरी-चकारी होती है, तुम्हें कुछ पता नही चलता। जाओ कलाल के दारू खाने में चारा चोर शराब ढाल रहे हैं, उन्हें बांध-बूंधकर फौरन ले आओ..‘
कोतवाल चोरों को रस्सी से बांधकर ले आया। उन्हें दरबार में हाजिर किया गया। राजा ने चोरों से पूछा- ’मित्रो, मुझे पहचानते हो?‘
’महाराज‘- चोरों का सरदार हाथ जोडकर बोला ’मैंने तो आपको उसी पल पहचान लिया था, किंतु मेरे साथी गाफिल हैं, इन्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं था। गीदड ने तो ठीक ही कहा था। वह भला क्यों झूठ कहेगा। मेरे ही साथियों की अकल घास चरने चली गई थी। मुझ पर बुद्धूपन का भूत सवार था, सरकार।‘ राजा विक्रमादित्य को इस पर हंसी आ गई। वह बोले- ’दूष्टों, सीधे-सीधे तुम लोग अपना कसूर क्यों नहीं कबूल करते हो? नाहक ही बातों में क्यों उलझा रह हो? अपनी नीयत का खोट नही दिखाई देता?‘
चोर बोले- ’इसमें हमारी नीयत का क्या खोट है, महाराज?‘ राजा ने कहा- ’देखो, तुम हट्टे-फट्ठें हो, बहादुर भी हो, फिर भी चोरी का पेशा अपना रखा हैं तुमने। पकडे जाने पर कैसा बुरा हाल होता है?‘ चोर बोले- ’हां महाराज, इस नीयत ही है।‘ ’तो फिर इस धंधे को तुम छोड क्यों नहीं देते?‘- राजा ने पूछा तो जवाब मिला- ’इसकी जड है गरीबी। यही हमसे ऐसा गंदा काम करवाती है। सारे पापों की उत्पति दरिद्रता से होती है, महाराज! यही लोगों को बुरे काम करने के लिए उकसाती है।‘ दरबार बरखास्त हुआ। रईस का माल रईस को वापस भिजवा दिया गया। चोरों को छुटकारा मिला। चोरों के मुखिया खिसकू को एक गांव की जागीरदारी मिली। बाकी तीनों भी राजा की कृपा से मालदार हो गए। धूमधाम से उनकी विदाई हुई। कुछ वर्ष बीत जानें पर राजा विक्रमादित्य ने सोचाः चोरों के जिस सरदार को मैंने जागीरदार बनाया वह कैसे अपना काम कर रहा है? खोटी नीयत वाला आदमी शासन नहीं चला सकता। जिसकी हाजमा खराब हो वह तर माल नहीं पचाा सकता। सारी बात जानने के लिए राजा ने अपना जासूस भेजा। जासूस हाल-चाल मालूम करके लौट आया।
’कहो!‘ राजा ने पूछा। ’क्या बतलाउं आपसे, महाराज? आपको शायद अच्छा न लगे।‘
’नहीं, नहीं, तुम बतलाओं‘ राजा ने कहा। ’गलत-सलत बतलाए तो जासूस कैसा! सुनिए श्रीमान, आपने तो उस चोर को राजद्दी दे दी, वह तो उसका वैसा का वैसा ही है।
क्या नहीं होता है गांव में? शराबी, जुआरी, उचक्के, बस यही लोग है जिनकी तूती बोल रही है। ’अब क्या करना चाहिए?‘ राजा ने चिंता के साथ पूछा। भेष बदल कर राजा चोर के गांव में पहूंचे। जासूस की सारी बातें सच थी। चोरों का सरदार कुपात्र साबित हुआ। राजा विक्रमादित्य ने उसे देश से निकाल देकर गांव की प्रजा का कष्ट दूर कर दिया।
भाग्यवान किसान
किसान को परेशान हाल देखकर पत्नी के चेहरे पर हवाइयां उडने लगीं। वह मूर्ख पति की बुद्धिमान पत्नी थी। वह घबराई नहीं। तुरन्त गांव के वैद्य ने किसान की हालत देख कर उसे उल्टी होने की दवा दी। कुछ देर बाद उसे उल्टियां होने लगी। उल्टी में कई लोबिये निकलने लगे। यह देखकर सब किसान मूर्खता पर हंसने लगे। स्वस्थ होने पर किसान ने सबसे छोटी लडकी के यहां जाने का विचार बनाया।
अगले दिन वह गिद्ध दामाद के यहां यल पडा। गिद्ध का घर एक पहाडी पर था। बेटी और दामाद किसान को देखकर बेहद प्रसन्न हुए। गिद्ध ने अपनी पत्नी से कहा कि ससुर जी की हम क्या सेवा कर सकते है? पत्नी ने बताया कि पिताजी ने अपने गांव से बाहर बहुत ही कम दुनिया देखी है। इसलिए उनको सैर करवानी चाहिए। पत्नी का सुझाव गिद्ध को जंच गया। ससुर को अपने पंखों में बैठा कर उडने लगा। अजीबोगरीब दुनिया देखकर किसान के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसे लगा कि वह जीते जी स्वर्ग पहुंच गया है। गिद्ध रोज ससुर को सैर कराने लगा। किसान ने घर वापस लौटने की इच्छा व्यक्त की, तो गिद्ध ने तुरन्त उसे अपने पंखों में बैठाया और कुछ ही समय में उसे उसके गांव के पास छोडकर वापस चला आया। घर पहुंच कर पत्नी से डींगे हांकने लगा। जैसा उसने देखा था, वह सब पत्नी को कह सुनाया। यह कह कर उसने पत्नी से कहा कि यदि वह भी वैसी दुनिया देखना चाहती है, तो तैयार हो जाए। पत्नी की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने नहा धोकर नए-नए कपडे पहने और जल्दी ही बन-ठन कर तैयार हो गई। किसान ने अपने साथ दो सूप और मजबूत-सी दो रस्सियां ली और पत्नी को साथ लेकर पहाड की चोटी की ओर चल पडा। चोटी पर पहुंच कर किसान ने दानों सूपों को अपनी दोनों बगलों में कसकर बांधा। फिर पत्नी से अपनी पीठ पर चढने के लिए कहा। पत्नी ने वैसा ही किया। पीठ पर पत्नी के बैठते ही किसान ने नीचे छलांग लगा दी। अगले ही क्षण वह पत्नी समेत नीचे गड्ढे में जा गिरा। संयोग से उसी समय गिद्ध उडता हुआ उधर आया। उसकी नजर उन पर पडी। वह अपने सास-ससुर को पहचान गया। उसने तुरन्त बंदर और रीछ को खबर दी। वे दानों भी वहां आ पहुंचे। बंदर कहीं से एक जडी खोद लाया। उन दोनों की सांस चल रही थी। बंदर ने उनको जडी सुंघायी। जडी सूंघते ही दोनों होश में आ गए। फिर रीछ ने एक और जडी ढूंढ निकाली। उसको पानी में घिसकर उनके सारे बदन पर लगाया। कुछ समय में दोनों स्वस्थ हो गए। इस बीच बंदर, रीछ और गिद्ध के शाप की अपधि समाप्त हो गई। तीनों के तीनों खूबसूरत नवयुवकों में बदल गए। वे तीनों भाई एक राजा के लडके तीनों अपने राज्य की ओर चल पडे।
फकीर की खांसी
एक फकीर यात्रा करते हुए कही जा रहा था। घने जंगल से गुजरते हुए उसे कई दिनों तक कोई बस्ती नहीं मिली। बस्ती के बिना जंगली फल-फूल खाकर फकीर ने कई दिन बिताए। एक दिन फकीर ने सोचा। क हीं कुछ खाने को मिल जाए तो बेहतर होगा। फकीर को भरोसा था ईश्वर सबका ध्यान रखता है। इसलिए उसने ईश्वर को कहा-हे प्रभु तुम्हीं पालनहार हो। कई दिनों से रोटी नहीं मिली तुम्हीं कहीं से इसका जुगाड करो। आखिर चोच दी है तो चना भी खाने को दो। ये कहते हुए वह एक पेड पर चढ बैठा। दोपहर का वक्त था। एक नवाब अपने लोगों के साथ वन भ्रमण करते हुए उधर से गुजरां उसके साथ वजीर और दो सिपाही थे। वे सब उसी वृक्ष के नीचे आकर बैंठे। घनी छाया में आराम फरमाते हुए नवाब ने कहा-चलो आज खाना यहीं बनाया जाए। दानों सिपाहियों ने नवाब और वजीर समेत चार-पँाच लोगों का खाना बना लिया। नवाब के सामने गरमागरम- नरमानरम चकाचक छप्पन भोग परोसे गए। नवाब ने हाथ जोडकर ईश्वर से कामना की-हे प्रभु! रोज मैं महल में किसी फकीर को भोजन देकर भोजन करता हूं। आज इस घनघोर जंगल में किसी दरवेश के दर्शन करा दे तो मैं भोजन करू नवाब की प्रार्थना सुनते ही पेड पर बैठे फकीर ने खंकारा किया। नवाब ने उपर देखा और बोला- धन्यवाद परवरदीगार आखिर तूनें मेरी दुआ कबूल कर ली घर बैठे गंगा भेज दी। नवाब ने फकीर को प्रेमपूर्वक नीचे आकर भोजन करने को कहा। फकीर ने भोजन करने को कहा। फकीर ने भोजन कर नवाब के सामने ईश्वर को धन्यवाद दिया-हे प्रभु अरन महरल है। कीडी को कण और हाथी को मण आप ही देतें है। देने वाला तो खुदा ही है, बंदे को तो बस खांसना पडता है। ये कहते हुए फकीर ने अपना इकतारा बजाया और आगे के सुर के लिए चल पडा।
गधा और बैल
दो विद्वान पंडित वर्षो तक काशी में साथ-साथ शास्त्र पाठ पूरा कर अपने गांव जा रहे थे। पुराना जमाना था। उस समय ज्यादा वाहन नहीं थे। लेबी पदयात्राओं में कई स्थानों पर रात्रि विश्राम करना पडता था। दोनों विद्वानों ने मार्ग में एक धनवान सेठ के घर विश्राम किया। सेठ ने दोंनो के लिए उचित ठहरने और विश्राम की व्यवस्था कर दी तथा उनके लिए भोजन तैयार करने का सेवकों को आदेश दिया। इसी बीच सेठ ने दोनों का परिचय लेने की सोची। वह उनके पास गया। दानों से अध्ययन के संबंध में कई प्रकार के प्रश्न किए। दोनों ने अहंकार की भाषा में सेंठ को अपने अपने उतर दिए। सेठ बुद्धिमान और अनुभवी था। विद्वनों की आडबर और प्रदर्शनप्रियता का उसके मन पर अच्छा प्रभाव नहीं हुआ।
आप दोनों में अधिक अध्ययन किसने किया है? सेठ ने अलग-अलग दोनों से यह पूछा। इस प्रश्न पर दोनों विद्वानों के उतर बहुत ही निराशाजनक थे। दोनों ने केवल अपने को ही बडा बता दिया। सेठ विद्वानो के उतर बहुत ही निराशाजनक थे। दोनों ने केवल अपने को ही बडा बता दिया। सेठ विद्वानों के उतर से बहुत दुःखी था। जब भोजन का समय हुआ तब उसने व्यंजनों के स्थान पर एक की थाली में भूसा और एक की थाली में चारा परोसा। दोनों विद्वान यह देखकर आग-बबूला हो गए। उन्होंने कहा-’क्या आपने हमें जानवर समझ रखा है? लक्ष्मी के हाथों सरस्वती का ऐसा अपमान होगा, यह हमने कभी सोचा तक नही था!‘ सेठ ने कहा-’इसमें मेरा क्या दोष है? आप दोनों में से पहले ने बताया था कि एक निरा बैल हैं। दूसरे ने पहले को गधा बताया। गधें के लिए भूसा है और बैल के लिए चारा। अपने साथी का जा परिचय आपने मुझे दिया, मैंने उसी के अनुसार आपको भोजन परोसा है।‘ दोनों को अपनी भूल का अहसास हुआ। भविष्य में इस प्रकार की गलती नही करने का उन्होंने संकल्प किया। सेठ ने भी उन्हें हंलुआ-पूडी का भोजन कराया और दान-दक्षिणा देकर विदा किया।
दानवीर दारा
दाराशिकोह, मुगल बादशाह शाहजहां का समसे बडा बेटा था। दारा शिकोह बहुत दानी प्रवृति का व्यक्ति था। वह जब भी चांदनी चौक से आता-जाता तो फकीरों को कुछ न कुछ देता जाता था। जब दाराशिकोह औरंगजेब से लडाई में हार गया तो उसे बंदी बनाकर एक हाथी पर बैठाया गया और दिल्ली में घुमाया गयां चांदनी चौक से गुजरते वक्त एक फकीर ने तुज कसते हुए कहा-ओ दारा, आज मुझे तू क्या देगा? दारा की आंखे छलछला उठीं। फिर उसने अपना पशमीना उतार कर फकीर को देना चाहा, पर साथ चल रहे बहादुर खां ने उससे पशमीना छीनकर कहा-एक कैदी किसी को कुछ भी नहीं दे सकता है? तब दाराशिकोह ने रोकर फकीर से कहा-अफसोस, आज मैं तुम्हें सिर्फ अपने आंसू ही दे सकता हूं।
टेढा सवाल
एक दिन अकबर और बीरबल वन-विहार के लिए गए। एक टेढे पेड की ओर इशारा करके अकबर ने बीरबर से पूछा-यह दरख्त टेढा क्यों हैं? बीरबल ने जवाब दिया यह इसलिए टेढा है क्योंकि यह जंगल के तमाम दरख्तों का साला है। बादशाह ने पूछो-तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? बीरबल ने कहा-दुनिया में ये बात मशहूर है कि कुत्ते की दुम और साले हमेशा टेढे होते हैं। अकबर ने पूछा-क्या मेरा साला भी टेढ है? बीरबल ने फौरन कहा-बेशक जहंापनाह! अकबर ने कहा फिर मेरे टेढे साले को फांसी चढ दो!
एक दिन बीरबल ने फांसी लगाने की तीन तख्ते बनवाए-एक सोने का, एक चांदी का और एक लोहे का। उन्हें देखकर अकबर ने पूछा-तीन तख्ते किसलिए? बीरबल ने कहा गरीबनवाज, सोने का आफ के लिए, चांदी का मेरे लिए और लोहे का तख्ता सरकारी साले साहब के लिए। अकबर ने किसलिए? बीरबल ने कहा-क्यों नहीं साले है। बादशाह अकबर हंस पडे, सरकारी साले साहब ने जान में जान आई। वह बाइज्जत बरी हो गया।
निंदा के बहाने प्रशंसा
राजा भोज के दरबार में दूर-दूर से कवि, साहित्यकार और कलाकार आते रहते थे। वे राजा के सम्मुख अपनी कला का प्रदर्शन करते और सम्मान, प्रशंसा तथा इनाम पाते थे। एक बार उनके दरबार में शेखर और सुमन नाम के दो कवि काशी से पधारे। दोनों भाई थे। राजा ने दोनों से कहा-महाकवि, यहां रोज ही कोई न कोई कवि अथवा पंडित आता रहता है। जो भी आता है, मुझे प्रसन्न करने के लिए मेरी झूठी प्रशंसा करता है। मैं भी हाड-मांस से निर्मित एक मानव हूं। मुझमें भी अनेक त्रुटियों होगी। लेकिन हर आने वाला मेरी बंडाई के पुल बांधता है। इसलिए आप दोनों मेरी बडाई न करके मेरी निंदा करें। जो भी सुदंर ढंग से मेरी निंदा करेगा, वह उतम पुरस्कार का अधिकारी होगा।
राजा की बात सुनकर दरबार में मौन छा गया। राजा के सामने राजा की निंदा करना कोई साधारण बात नहीं थी। किसी पर कोई आरोप लगाकर उसे सिद्ध करना भी आवश्यक होता है। यदि राजा निंदा से कुद्धहों जाए, तो लेने के देने पड सकते है। फिर राजा भोज जैसा व्यक्ति जिसे दोषों से मुक्त माना जाता है, उनकी निंदा करना तो टेढी खीर थी।
दोनों भाइयों ने राजा की बात को सुना। एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराए। शेखर ने राजा से कहा-महाराज, मेरी ओर से एक कविता प्रस्तुत है। यह आफ गुणों से मेल नहीं खाती। सभी दरबारी शांत होकर कविता सुनने को उत्सुक होकर बैठ गए। शेखर ने संस्कृत में एक श्लोक पढा जिसका भावार्थ था- ’हे राजन्! आपको सभी लोग सर्वज्ञ मानते है। लेकिन वास्तव में यह सत्य नहीं है। आपको तों पूरी तरह से भाषा का ज्ञान भी नहीं है क्योंकि आफ मुख से याचकों के सम्मुख कभी भी दो अक्षरों का शब्द ’नहीं है‘ निकला ही नहीं, इन अक्षरों को न जानने वाला अपना पांडित्य भला कैसे सिद्ध कर सकता है?
दूसरे भाहै सुमन ने जो श्लोक पढा उसका अर्थ था हे राजन्! सब लोक दाता कहकर आपकी खूब बडाई करते है, लेकिन आप दाता की श्रेणी में नही आते क्योंकि अभी भी आप कुछ वस्तुएं नही दे पाते। उदाहरण के लिए आपने शत्रु को कभी पीठ नहीं दिखाई, पर नारियों को आपने अपना ह्रदय नहीं दिया। फिर आप पूर्ण दाता कैसे हो सकते है? दानों कवियों के श्लोक सुनकर राज दरबार तालियों से गूंज उठा। राजा भोज ने हंसकर कहा-आप लोगों ने निंदा तो अवश्य की, परन्तु उसका अर्थ तो प्रशंसा जैसा ही है। दोनों कवि भाइयों ने हाथ जोडकर कहा-राजन्! इससे अधिक आपकी निंदा करना तो हमारे वश में भी नहीं है। राजा भोज ने प्रसन्नतापूर्वक उनका सत्कार कर उन्हें पुरस्कृत किया।
कंधे पर सवारी
एक बार संत वतायो किसी यात्रा पर निकले थे। राह कच्ची थी, उपर से धूल उड रही थी। सूरज की तपिस जोरों पर थी। चलते-चलते उन्हें बडी थकान महसूस हूई। वे ईश्वर से बोले-अब तो कोई सवारी दिलाओ, तो यह शेष यात्रा अराम से कट जाए। यह कहकर वतायों संत अभी थोडा आगे चले ही थे कि उन्हें रियासत के हाकिम का एक सिपाही दिखाई दिया। सिपाही की घोडी ने रास्ते में ही बच्चा जना था। सिपाही ने तुनककर आवाज दी-अरे, यहां आओ! इस घोडी के बच्चे को लादकर ले चलो।
वतायो संत ने आना-कानी की, तो सिपाही ने उन्हें चाबुक दे मारा। विवश होकर वतायो संत ने घोडी के बच्चे को कंधे पर लाद लिया। सिपाही के आगे कंधों पर बोझ से सिर झुकाए हुए वे बंढ रहे थे और उनके पीछे-पीछे
घोडी पर सवार झूठी शान से सिर उंचा किए हुए सिपाही चल रहा था। जब वतायो संत सिपाही की चौकी पर कंधे से घोडी के बच्चे को उतार कर बाहर आए, तो उन्होंने ईश्वर को उलाहना देते हुए कहा-हे ईश्वर, मैंने आपसे कहा था कि मुझे सपारी के लिए घोडा दिलाओ पर आपने तो मुझ पर घोडा सवार करा दिया। हे ईश्वर, आप सुनते तो हो, पर भक्त की बात को समझते नहीं हो। यह कहते-कहते संत की आंखो से आंसू निकल पडे।
बडे घर की बेटी
एक सेठ के परिवार में नई बहूरानी आई। थोडे दिनों बाद एक दिन सास ने चटनी पीसने का पत्थर मंगाया। बहूरानी ने कहा-माताजी! मैं बडे घर की बेटी हूं। आज तक मैंने पत्थर को हाथ से छुआ तक है। इतने बडे पत्थर का भार मैं नहीं उठा सकती। भविष्य में इस प्रकार का काम मुझे कभी मत बताना।
सेठानी सास समझदार थी। उसने अपने हाथ से पत्थर लेकर चटनी पीस ली। जब पुत्र घर आया तो मौका देख कर मां ने उसे सारी जानकारी दी मुझे इ समस्या का समाधान करना चाहिए। अन्यथा मेरा सारा घर नरक बन जाएगा।
उसने पुराने जमाने के फैशन के अनुसार एक वजन दार सोने का आभूषण एक वजनदार सोने का आभूषण बनाया। उसने गहना अपनी पत्नी को दिखाया। पत्नी भारी कर्णफूल देखकर बडी प्रसन्न हुई। उसने तत्काल कहा-यह आभूषण बडा सुंदर है। इसे मैं अपने कानों में पहनूंगी। पति ने कहा यह बहुत भारी है, इतना भार तुम नहीं उठा सकोगी। यह सुनकर पत्नी ने कहा मैं इससे दस गुणा वजन भी उठा सकती हूं। इतना भार तो छोटा बच्चा भी उठा सकता है।
पति ने कहा जब मेरी मां ने चटनी के लिए पत्थर मंगाया तब तुमने कहां मैं बडे घर की बेटी हूं। मेरे से पत्थर नहीं उठ सकता। फिर कानों से दस गुणा भार कैंसे उठा सकती हो? बहू चतुर थी। पति के मुंह से यह बात सुनकर वह समझ गई कि इस आभूषण की रचना मुझे शिक्षा देने के लिए की गई है। बहू ने अपनी गलती मंजूर की। साथ ही प्रतिज्ञा भी की कि भविष्य में मेरी सास किसी भी काम के लिए कहेगी तो इंकार नहीं करूंगी। पति ने खुश होकर वह सुंदर कर्णफूल अपनी पत्नी को भेंट कर दिया।
पेड की पीडा
संत नामदेव जब बालक नामू थे, मां ने दरख्त की छाल उतार कर लाने होगी? परीक्षा की अपनी ही जांघ पर कुल्हाडी चलाई। गहरा घाव हुआं खून की धारा बहने लगी। नामू को लगा-धारदार हथियार के प्रहार से जब मुझे पीडा होती है तो वृक्ष को क्यों नही होगी? आखिर मेरे भीतर तो प्राण का प्रवाह है, जो सुख-दुःख का संवेदन है, वह वृक्ष में भी तो है। नामू बिना छाल लिए घर आ गया। खून से लथपथ उसका आधोवस्त्र देख मां स्तब्द्य रह गई। पूछने पर सारा रहस्य खुला। नामू की करूणां और संवेदनशीलता ने उसे संत नामदेव बना दिया।
जीभ और दांत
चीन के प्रसिद्व दार्शनिक चेगंचुंग बहुत बीमार थें । उनके बचने की आशा नही थी । उस समय शिष्य माओत्से ने उन्हे कहा-मुझे कुछ ज्ञान देने की कृपा करे ।
चेंगचुंग ने अपना मुंह खोला और कहा - क्या मेरे दांत हैं ?
नही । माओत्से ने जबाब दिया ।
और जीभ ? दार्शनिक ने पूछा ।
हां ।
दांत गिर गए पर जीभ मौजूद हैं क्या
तुम इसका मतलब जानते हो ?
नही ।
दांत कठोर हैं, और जीभ कोमल हैं । चेंगचुंग ने इसका अर्थ समझाते हुए कहा जो आदमी अपने जीवन में कोमल और नम्र रहता हैं वह सदा सफल होता हैं ।
मिट्टी की सास
एक गांव मे एक आज्ञाकारी सीधी-सादी बहू रहती थी। वह अपनी सास से बहुत कम बोलती थी। वह इशारों-इशारों से ही काम चला लेती थी। हर रोज बहू सास से पूछती कि आज कितना चावल फगा। सास कुछ देर विचार करती और फिर धीरे से एक अंगुली ऊपर उठाती। कभी दो अंगुलियां दिखाती कभी तीन-जैसी उसकी मरजी। एक दिन सास दुनिया से चल बसी। बहू रो-रो कर हलकान हो गई। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अपनी गृहस्थी वह बिना सासू मां के कैसे चलाए। वह किससे पूछे कि आज कितना चावल बनेगा? इस सवाल से पति कुछ ही दिनों में आजिज आ गया। रोज ब रोज के झंझट से छुटकारा पाने के लिए पति ने एक तरकीब सोची वह कुम्हार के पास गया और उससे अपनी मां की मिट्टी मूर्ति बनाने को कहा। कुम्हार ने दो मूर्तियों बना दी। कुछ ही दिनों में मूर्तियों को रंग पोत दिया। नए नकोर कपडे पहना दिए गए। मूर्तियों को घर लाया गया और उसे ऐसे स्थान पर रखा जहां से वह पत्नी को दिखती रहे। सास को वापस पाकर बहू फूली न समाई। जब भी उसे चावल की मात्रा के बारे में पूछना वह रसोई से बाहर देखती और आदेश ले लेती।
दो अंगुलियों वाला हाथ पहले दिखता तो वह दो कटोरी चावल पकाती और तीन अंगुलियों वाले हाथ की झलक दिखती तो तो तीन कटोरी। बहू मिट्टी की सास पाकर खुश थी और पति पत्नी को खुश देखकर खुश था। यह खुशी ज्यादा दिन नहीं चली। एक रोज पति को पता चला कि चावल की बोरी कुछ ही हफ्तों में खत्म हो गई। खाने वाले तो पति-पत्नी दो ही थे। उसने पत्नी से पूछा तो उसने बताया कि वह सास के आदेश का पालन करती है। पति ने पूछा आज कितना चावल बना। बहू ने कहा-तीन कटोरी। पति के आग लग गई, दो जनों के लिए तीन कटोरी चावल? तुम्हारी अक्ल घास चरने गई है? हम इतना चावल नहीं खा सकते। जब मां जिंदा थी तब भी तुम दो कटोरी चावल पकाती थी और वह भी हमसे खाया नहीं जाता था। पत्नी ने हौले से जवाब दिया, हम दो नहीं, तीन है। अपनी मां को क्यों भूल रहे हो। मैं अब भी उन्हें भोग लगाकर ही खाती ह। अक्सर तो मेरे लिए थोडा ही बचता है। बुरा मत मानो, मां की खुराक पहले से बढ गई है। पति को अपने कानों पर भरोसा नहीं था। कैसे मिट्टी की सास कई बोरी चावल चट कर गई। पति ने मिट्टी की सास और सच्ची बहू दोनों को घर से निकाल दिया।
दरअसल होता यह कि वह दोनों वक्त सास के आगे थाली रखती और एक-एक कर वह सब परोसतीं जो घर में बना होता। खाना परोस कर जैसे ही वह रसोई में जाती। पडोासन दीवार में बने सूराख से दबे पांव आती और थाली का खाना लेकर उसी रास्ते से वापस चली जाती। बेचारी बहू सोचती कि उसकी सास पहले की तरह अब भी खाना खाती है। इस छोटी सी नादानी ने उसे घर से बेघर कर दिया।
राजा का भाग्य
एक दिन राजा विक्रमादित्य के दरबार में एक पंडित आया। उसने यह घोषणा की कि यदि राजा उसके कहने पर एक महल का निर्माण करेगा तो उसका यश चारो ओर फैलेगा राजा ने पंडित से शुभ मुहूर्त पूछा पंडित ने कहा कि तुला लग्न में यह महल तैयार हो जाना चाहिए। तुला लग्न मे बने महल का कोष कभी खत्म नही होगा वहंा से लक्ष्मी कभी नही जाएगी यह सुनकर राजा ने तुरंत महामंत्री को बुलाकर महल को तुला लग्न तक तैयार होने का समय दिया। शुभ लग्न में महल की नींव रखी गई तथा बडे से बडा कारीगर महल बनवाने के लिये बुलाया गया। महल में जगह-जगह चांदी,सोने,हीरे,नीलम की जडाई हुई।एक दिन तुला लग्न पर महल बनकर तैयार हो गया। राजा पंडित के साथ महल देखने पहुंचे महल ऐसा कि किसी ने ना सुना ना देखा। पंडित के तो अचंभे का कोई ठिकाना नही रहा वह दबी आवाज में बोला यदि यह महल मुझे मिल जाए तो मै तो इन्द्र जैसा भाग्यवान बन जाऊं। पंडित जी की ऐसी अभिलाषा सुनकर महारानी व राजा कैसे उसे ठुकरा सकते थे। उन्होने उसी समय वह महल दान मे पंडित जी को दे दिया।
महल पाकर पंडितजी की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। मानो कि उन्हें इन्द्रासन मिल गया। वे परिवार समेत महल मे आ गये। एक पहर बीत जाने पर लक्ष्मी पंडित के सामने उपस्थित हुई और बोली-बेटा आज्ञा दो मै तेरा घर-बार और भंडार भर दू। अचानक घटी घटना से पंडित इतना घबरा गया कि उससे बोलते ना बना। नतीजा यह हुआ कि लक्ष्मी लौट गई। दो पहर बीत जाने पर लक्ष्मी फिर प्रकट हुई और बोली कि तुम्हें क्या चाहिए अब पंडित और डर गया उसका सारा सपना हिरन हो गया और किसी तरह रात बिताई। सुबह होते ही उसने डरते हुए महाराज से कहा कि दान में मिले इस महल मे पता नही कि भूत है या पिशाच। सारी रात उसने सोने ना दिया म तो बीवी बच्चो समेत बच गया मुझे क्षमा करे मै इस महल मे ना रहूंगा मैं तो बीवी बच्चो सहित भिक्षा मांगकर रह लूंगा मुझसे इस महल मे ना रहा जाएगा।
राजा को भोले पंडित की बातो पर दया आ गई। उसने पंडित को महल की जो कीमत थी वह देकर उसे विदा किया। और शुभ मुहूर्त निकलवाकर महल मे प्रवेश किया।
रात को राजा पलंग पर लेटे हुए कुछ सोच रहे थे कि अचानक लक्ष्मी प्रकट हुई और बोली राजा आप धन्य है आपका धर्म भी धन्य है यह कहकर लक्ष्मी अंतर्धान हो गई। पहर रात बीत जाने पर वह फिर प्रकट हुई और बोली - मै कहंा बरसू? राजा ने कहा यदि बरसना है मेरे पलंग को छोडकर कही भी बरसो उस रात राजा के रातधानी मे सोने की ईंटे बरसी। राजा ने यह मुनादी करवा दी कि जिसके घर जितना सोना है वह उसी का है और किसी को सोना उठाने से मना नही करेगा इस तरह वह नादान पंडित जो अपने ही मुहूर्त को समझ ना पाया वह भी खुशी से सोना समेटने लगौ
गंधर्वसेन
एक दिन नवाब के दरबार मे वजीर जोर-जोर से रोता हुआ आया। नवाब ने उससे वजह पूछी। वजीर बोला, गंधर्वसेन मर गया यह सुनकर नवाब भी रोने लगे। ओह, गंधर्वसेन मर गया!मरहूम के लिये इकतालीस दिन का फरमान जारी हुआ। नवाब हरम मे गया तो उसके आंसू थमने का नाम नही ले रहे थे। बेगमों ने रोने की वजह पूछी। नवाब ने रोते हुए बताया कि गंधर्वसेन मर गया। बेगमें छाती पिटने लगी और रो-रो कर मातम मनाने लगी। पूरे जनाने मे मातम का आलम था।
बडी बेगम की नौकरानी को यह गुलगपाडा समझ ना आया। उसने बडी बेगम से पूछ गंधर्वसेन कौन था? सब उसके लिये क्यो रो रहे है? क्या वह नवाब का कोई रिश्तेदार है? अरे यह तो पता नही बेगम भागी - भागी नवाब के पास गई वह नवाब से बोली-गंधर्वसेन कौन था जिसकी मौत पर हम सब रो रहे है? नवाब भागा -भागा दरबार मे गया और वजीर से पूछा यह गंधर्वसेन कौन था जिसकी मौत का हम मातम मना रहे है। वजीर बोला माफ करे हुजूर,यह तो मै भी नही जानता। मैने तो कोतवाल को रोते देखा तो उसका साथ देने के लिये मै भी रोने लगा। नवाब बरस पडा जाओ पताकर लाओ कि गंधर्वसेन कौन था। वजीर तेजी से भागता हुआ कोतवाल के पास गया और उससे पूछा कि यह गंधर्वसेन कौन था। कोतवाल ने बताया कि वह भी नही जानता कि गंधर्वसेन कौन था। कोतवाल ने बताया कि मै तो जमादार को रोते देखकर रोने लगा। वजीर और कोतवाल दोनो ही जमादार से पूछा कि तुम क्यो रो रहे थे? जमादार बोला कि हुजूर मै क्या जानू कि गंधर्वसेन कौन था मैने अपनी बीवी को गंधर्वसेन की मौत पर रोते देखा तो उसके दुख से मेरा दिल पसीज गया किसी को हंसते और रोते देखकर हमें भी छूत लग जाती है। हम भी हंसते या रोने लगते है। मै भी बीवी को रोते देख रोने लगा। सब मिलकर जमादारनी के पास गये और कहने लगे कि वह क्यो रो रही थी? वह बोली मैने तो तालाब पर धोबिन को रोते देखा इसलिये रोने लगी। वह सब धोबिन के पास गये और बोले कि तुम सुबह क्यो रो रही थी? गंधर्वसेन तुम्हारा क्या लगता था? यह सुनकर धोबिन फिर रो पडी और बोली कि मेरा तो कलेजा फटा जा रहा है। गंधर्वसेन तो मेरा पालतू गधा था। उसे मै अपने बेटे से भी ज्यादा चाहती थी। और फिर वह फूट-फूट कर रोने लगी। चारो बहुत शर्मिदा हुए और नवाब को हकीकत बताई सब यह सुनकर खूब हंसे।
फुलकुमारी
एक थी राजकुमारी उसका नाम था फूलकुमारी वह बहुत सुंदर थी जब वह हंसती तो सभी फूल,पौधे,पशु-पक्षी सब हंसते एक बार जब वह हंस रही थी तो राजा वहंा से निकले और बोले बेटी तुम इतना हंसती क्यों हो यह सुनकर फूलकुमारी रोने लगी अब वह ना तो बोलती ना हंसती राजा ने उसे खूब समझाया पर वह ना मानी उसे ऐसा देख राजा-रानी भी उदास रहने लगे। एक दिन एक आदमी राजा के पास आया और कहने लगा कि राजा सभी पौधे मुरझा गये है थोडी देर में एक आदमी और आया कि राजा सभी पशु-पक्षी उदास हो गये है। राजा ने सोचा कि इसी तरह यदि फूलकुमारी नही हंसी तो प्रजा मे अकाल पड जाएगा। राजा ने यह घोषणा करवा दी कि जो कोई राजकुमारी को हंसायेगा उसे खूब सारा इनाम दिया जाएगा। अब तो लोगो की भीड लग गई। एक भालू वाला आया वह भालू को नचाने लगा भालू ठुमक-ठुमक कर नाचने लगा सभी उसे देखकर हंसने लगे पर फुलकुमारी नही हंसी। फिर एक मदारी आया वह बंदर को नचाने लगा वह बंदर कभी नाचता कभी अपनी रूठी बंदरिया को मनाता उसे देखकर भी सब हंसे पर राजकुमारी ना हंसी। इस तरह कई लोग आये पर फुलकुमारी ना हंसी। एक दिन बडा सुंदर नौजवान राजा के पास आया उसके पास एक बकरा था। वह नकली दाढी-मूंछ लगाकर आया वह अपने करतब दिखाने लगा वह बकरे पर बैठ गया जैसे ही वह बकरे पर बैठा उसकी नकली दाढी गिर पडी जैसे ही उसने दाढी उठाई उसकी टोपी गिर गई, टोपी उठाई तो उसकी मूंछ गिर गई जैसे ही मूंछ उठाने लगा तो उसका बडा सा पेट गिर गया यह देखकर फुलकुमारी तेज-तेज हंसने लगी। उसे देख सब पशु-पौधे सब हंसने लगे। राजा भी खूब खुश हुआ उसने उस नौजवान को गले लगाया और राजकुमारी का विवाह उसी के साथ करवा कर सारा राजपाट उसी को सौप दिया और खुशी-खुशी सब रहने लगे।
दो पत्नियां
एक अधेड आदमी अपनी पत्नी से खूश नही था इसलिए वह एक और औरत ले आया। दोनो पत्नियां एक-दूसरे को फूटी आंख नही देख सकती थी। ये हमेशा झगडती रहती थी। इससे परेशान होकर उनके पति ने शहर के अलग-अलग मोहल्लो में दो शानदार मकान बनवाए।
बडी तकरार के बाद दोनो पत्नियां इस बात पर राजी हुई कि पति बारी-बारी से एक-एक दिन उनके साथ रहेगा। जब पति छोटी पत्नी के साथ रहता तो वह पति के सर से जुंए निकालने के बहाने उसके सारे सफेद बाल उखाड देती। वह चाहती थी कि उसका पति जवान दिखे और उसके सर पर एक भी सफेद बाल न हो। वह आदमी अपनी बडी उम्रदराज पत्नी के पास रूकता तो वह उसके काले-बाल उखाड देती। बडी पत्नी को यह अच्छा नही लगता था कि उसका पति उससे छोटा दिखे। नतीजा यह हुआ कि कुछ समय बाद उस आदमी के सर पर एक भी बाल नही बचा। वह गंजा था। लोग उसके लिए कहने लगे- दो पत्नियो का भरतार बिन मारे मरता करतार।
कर भला हो भला
एक बच्चा तीन दिन से भूखा शहर की गलियो में घूम रहा था पर कोई भी उस पर रहम नही कर रहा था। तभी उसने एक घर का दरवाजा खटखटाया एक औरत ने दरवाजा खोला उस बच्चे ने शर्म के मारे सिर्फ पानी ही मांग लिया वह औरत अंदर गई और गर्म दूध का गिलास लेकर आई और प्यार से उस बच्चे को दूध पिलाया । दूध पीकर बच्चा खुश होकर वहॅा से चला गया । कुछ सालो बाद उस औरत को स्तन कैसर हो गया सभी डाक्टरों सें उस को निराशा हाथ लगी। फिर वह एक सबसे जाने माने डॉक्टर के पास गई उस डॉक्टर ने तुरंत उसे भर्ती कर लिया तथा सभी आवश्यक टेस्ट कर लिये और कुछ दिनो में उसका ऑपरेशन कर दिया तथा अच्छे से उसकी दवा पानी की तथा उसके पूरी तरह से स्वस्थ होने पर उसे एक अच्छे से रूम में रखा। इतने दिन तक तो वह औरत कुछ ना बोली पर एक दिन उसने हिचकते हुए कहा कि डॅाक्टर साहब आपने इतने दिन ना तो कोई फीस ली ना ही कुछ कहा आपका बिल कितना हुआ। डॉक्टर बोला- आपको क्या वह दूध का गिलास याद है तब आपने क्या मुझसे उस दूध की गिलास का कोई मूल्य लिया था? तो मै आपसे क्या कोई मूल्य ले सकता ह?
दो बैलो की कथा
हीरा और मोती दो बैल थे। वे देखने में बहुत सुंदर और ताकतवर थे। उनका मालिक जिसका नाम गया था। उनसे बहुत प्यार करता था। वह उन्हें प्यार से नहलाता तथा प्यार से खाना खिलाता था। वे दोनो भी मालिक से बहुत प्यार करते थे। एक दिन गया का साला बिरजू गया के पास आया और कहने लगा कि भाई मैने भी खेती करनी शुरू कर दी है अगर तुम थोडे दिन के लिये अपने बैल मुझे दे दो तो मैं तुम्हारा एहसान मानूगां। गया नें अपनी पत्नी से विचार विमर्श कर उसे बैल दे दिये। हीरा और मोती दोनो ही मालिक को छोडना नही चाहते थे पर मालिक ने उनको समझा बुझा कर भेज दिया। रास्ते में दोनो बहुत थक गये पर बिरजू ने उन्हें ना तो चारा खिलाया ना ही कही आराम करने दिया। दोनो बैलो को बहुत गुस्सा आया वह कभी इधर भागते तो कभी उधर दोनो ने उसे खूब थकाया। बिरजू को गुस्सा आ गया उसने घर आकर दोनो को मोटे-मोटे रस्से से बांध दिया और उनके सामने रूखा सूखा चारा डाल दिया। दोनो को यह देखकर बहुत दुख हुआ वह अपने मालिक को याद करने लगा। उन्होने उस दिन कुछ भी ना खाया। रात को जब उन्हे कुछ ना खाने दिया तो वह जोर जोर से अपनी रस्सी खींचने लगे और शोर करने लगे बिरजू ने आकर उन्हें डंडे से खूब पीटा। दोनो के आंखो से आसूं आने लगे। थोडी देर बाद बिरजू की छोटी बेटी उनके पास आई और उन पर हाथ फेरने लगी। फिर उसने उनको छुपकर रोटी खिलाई। ऐसा कुछ दिन चलता रहा एक दिन बिरजू ने अपनी बेटी को देख लिया उसने अपनी बेटी को खूब मारा। यह देखकर हीरा मोती को बहुत दुख हुआ। अब उन्होने खाना पीना छोड दिया। बिरजू उन दोनो से खूब काम करवाता और खाने को रूखा सूखा डाल देता पर वह कुछ ना खाते। अब वह बहुत दुर्बल हो गये। एक दिन वह मौका पाकर वहां से दौड पडे वह खूब खुश हुए वह भागकर एक खेत में घुस गये और खूब मस्ती की उन्हें यह भी पता ना चला कि पीछे से खेत का मालिक आ गया। उसने हीरा और मोती को खूब पीटा और कांजीहाऊस मे बंद करवा दिया। वहां और भी जानवर बंद थे। अब हीरा और मोती परेशान हो गये। वहां सभी जानवरो की हालत बहुत खराब थी। तीन दिन बीत गये ना तो कोई उन्हें लेने आया ना ही किसी ने खाना दिया। अचानक हीरा और मोती को कहां से इतनी ताकत आई कि उन्होंने दरवाजे पर जोर जोर से सींग मारने लगे। उन्हें देख अन्य जानवरो को भी ताकत आ गई और वह भी दरवाजा तोडने लगे। दरवाजा अचानक खुल गया सब भागने लगे हीरा मोती भी भागने लगे अचानक उन्हें यह रास्ता जाना पहचाना लगा। वह पहुचते-२ अपने मालिक के पास पहुच गये। गया ने भी दौड कर उन्हें गले लगा लिया। वह रोने लगे। गया ने कहा अब वह इन्हें जाने ना देगा। दोनो बहुत खुश हुए।
शेर और चूहा
एक दिन एक जगंल में एक शेर सो रहा था। वह बहुत गहरी नींद में सो रहा था। तभी एक छोटा सा चूहा वहां से निकला। वह शेर की मुंछो से खेलने लगा। अचानक शेर की नींद टूट गई वह गुस्से से लाल पीला होने लगा। वह जोर से दहाडकर बोला कौन है जिसने मेरी नींद खराब की? मैं उसका खून पी जाऊंगा। चूहा बहुत डर गया वह हाथ जोडकर कहने लगा - सरकार माफ करे मैं गलती से आपकी मुछो से उलझ गया। मुझे माफ करे। शेर ने कहा नही अब तो मै तुम्हे सजा दूगां तुम्हे खा जाऊगां। चूहा बोला हुजूर नही यदि आप मुझे माफ कर दे तो मैं वही करूगां जो आप कहेगे। शेर बोला तुम मेरे क्या काम आओगे। पर मैं तुम्हें छोडता हूं अब यदि तुम कही दिखाई दोगे तो मैं तुम्हें छोडूंगा नही। चूहा वहंा से भाग खडा हुआ।
एक दिन उस जंगल में एक बहेलिया आ गया और उसने उस शेर को पकड लिया और एक जाल में पकड कर बांध दिया। शेर जोर जोर से मदद के लिये दहाडने लगा। पर किसी ने उसकी मदद ना की। तभी वह चूहा दौड कर उसके पास आया और तेजी से जाल कुतरने लगा। उसने सारा जाल कुतर दिया और शेर आजाद हो गया। आजाद होते ही शेर ने उसे अपने हाथ मे लेकर धन्यवाद कहने लगा। वह बोला कि यदि आज तुम ना होते तो मै मारा जाता पर तुमने मेरी जान बचाई मै गलत था तुम छोटे नही बहुत बडे हो। अब तुम मेरी मुंछो से खेल सकते हो। शेर और चूहा अब खेलने लगे।
बस पॉच मिनट
गोपी दस वर्ष का बालक था वह पांचवी कक्षा मे पढता था। वह बहुत आलसी था। वह हर काम में कहता बस अभी पॉच मिनट मे करता हूं भूल जाता जब उसकी मंा कहती गोपी सात बज गये उठ जाओ तो गोपी कहता अभी पांच मिनट में उठता हूं और फिर सो जाता मां कहती गोपी नाश्ता कर लो तो उस समय वह पाठ पढता। वह रोज स्कूल लेट पहुंचता तो अध्यापिका उसे डांटती पर उसे कोई फर्क ना पडता। एक बार स्कूल में अध्यापिका ने सब बच्चो से कहा कि कल स्कूल मे जादू का खेल दिखाया जाएगा सब बच्चे कल समय पर स्कूल पहुंच जाना। गोपी ने कभी जादू का खेल ना देखा था इसलिये वह बहुत खुश हुआ। अगले दिन उसकी मां ने गोपी को उठाया कि बेटा उठ जाओ स्कूल जाना है गोपी ने कहा कि अभी पांच मिनट में उठता हूं जब वह उठा तो स्कूल जाने का समय हो गया अचानक उसे जादू की याद आई वह जल्दी से हाथ मुंह धोकर बिना नाश्ते किये भागा-भागा स्कूल गया पर जब तक जादू का खेल समाप्त हो गया था। सब बच्चे जादू की ही बात कर रहे थे सब बच्चे बहुत खुश थे पर गोपी बहुत दुखी था।
रूपा
रूपा कक्षा में आई नई छात्रा थी। वह दिखने मे बहुत सुंदर थी। पर वह संकोची स्वभाव की थी वह किसी से बात नही करती थी। जब कोई उससे बाते करता तो वह केवल हां-हूं में सवाल जवाब करती। कक्षा में सब उससे अप्रसन्न रहते सब उसे घमंडी समझते अतः कोई उससे बात न करता न ही कोई उसे अपने साथ खिलाता। कुछ दिन बाद कक्षा में अध्यापिका ने घोषणा की कि कल सब को पिकनिक पर ले जाया जायेगा। सब बच्चे बहुत खुश हुए दूसरे दिन सब बच्चे बस मे पिकनिक के लिये रवाना हो गये। सब हंसी ठिठोली कर रहे थे पर रूपा इन सबसे अलग चुपचाप बैठी थी। बस एक सुंदर बगीचे के सामने रूकी वहां खूब हरे हरे पौधे व रंग रंगीले फूल थे। सब बच्चे अपनी अलग अलग टोलिया बनाकर खेलने लगे। रूपा भी एक पेंड के नीचे बैठ कर इन सबको देखने लगी। अचानक छपाक की आवाज आने पर रूपा तेजी से उस दिशा की ओर दौडी जिधर से आवाज आ रही थी उसने देखा कि उसकी ही कक्षा की सहपाठी मीरा दलदल वाले तालाब में गिर पडी है। उसने जल्दी से वहां पडी लताओ की रस्सी बनाई और मीरा से उसको पकडने के लिये कहने लगी मीरा ने वह रस्सी पकड ली और साथ साथ चिल्लाने भी लगी उनका शोर सुनकर सब दौडे दौडे आये जब तक मीरा काफी ऊपर तक आ गई इधर रूपा ने अपनी सारी ताकत लगी दी थी उसके कपडे जगह जगह से फट गये थे तथा हाथ जगह जगह से छिल गये थे। सब ने जोर लगाकर मीरा को खींच लिया मीरा ने रूपा को धन्यवाद किया तथा अध्यापिका ने भी रूपा की तारीफ की उन्होने कहा यदि आज रूपा ना होती तो मीरा का बच पाना मुश्किल था सब के सब रूपा की तारीफ कर रहे थे अब रूपा सब की सहेली बन गई थी।
अवसर
एक बार एक कलाकार ने अपने चित्रो की प्रदर्शनी लगाई । उसे देखने के लिए नगर ंके सैकडो धनवान व्यक्ति भी पहुंचे। एक लडकी भी इस प्रदर्शनी को देखने आई। उसने देखा, सब चित्रो के अंत में एक ऐसे मनुष्य का भी चित्र टंगा हैं, जिसके मुंह को बालो से ढंक दिया हैं और जिसके पैरो पर पंख लगे थे । चित्र के नीचे बडे अक्षरो में लिखा था- ’अवसर।‘
चित्र कुछ भद्दा सा था, इसलिए लोग उस पर उपेक्षित दृष्टि डालते और आगे बढ जाते । लडकी का ध्यान प्रारंभ से ही इस चित्र की ओर था। जब वह उसके पास पहुंची, तो उसने पूछ ही लिया - ’श्रीमानजी।‘ यह चित्र किसका हैं?‘
’अवसर का‘ -
कलाकार ने संक्षिप्त सा उतर दिया । ’आपने इसका मुंह क्यों ढक दिया हैं ?‘ लडकी ने दोबारा प्रश्न किया। इस बार कलाकार ने विस्तार से बताया - ’बच्ची ! प्रदर्शनी की तरह अवसर हर मनुष्य ंके जीवन में आता हैं और उसे आगे बढने की प्रेरणा देता हैं, किंतु साधारण मनुष्य उसे पहचानते तक नही, इसलिए वे जहां थे वही पडे रह जाते हैं, पर जो अवसर को पहचान लेता हैं, वही जीवन में कछ काम कर जाता हैं।‘
’और इसके पैरो में पखो का क्या रहस्य हैं?‘ लडकी ने उत्सुकता से पूछा । कलाकार बोला- ’यह जो अवसर आज चला गया, वह फिर कल कभी नही आता?‘ लडकी इस मर्म को समझ गई और उसी क्षण से अपनी उन्नति के लिए जुट गई।
पहचान
बस स्टॉप पर खडे वे बुजुर्ग बडी जल्दी में थे। उनकी उम्र 70 वर्ष से ज्यादा ही लग रही थी। उनकी एक बस छूट चुकी थी और दूसरी का वे बडी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। सुबह का वक्त था। बस स्टॉप पर ज्यादा भीड भी नही थी, इसलिए लोगो की निगाहे बरबस ही उस बेचैन बुजुर्ग की ओर उठ जाती।
आखिर एक नौजवान ने पूछ ही लिया कि दादा, आप बहुत जल्दी मे दिख रहे हो। क्या कोई बहुत जरूरी काम हैं। उस नौजवान का उतर सुनकर वृद्व ने ठंडी सांस ली और कहां, ’हां, मुझे नौ बजे तक अस्पताल पहुंचना हैं । वहां मेरी पत्नी भर्ती हैं । मुझे उसके साथ नाश्ता करना हैं। मैं रोज उसी ंके साथ नाश्ता करता हूं।‘
स्वाभाविक रूप से नौजवान का अगला प्रश्न यही था कि उन्हे क्या हो गया हैं। बुजुर्ग ने बताया,’उन्हे अलजाइमर्स हैं। यह एक ऐसी बीमारी होती हैं, जिसमें धीरे धीरे व्यक्ति की याददाश्त चली जाती है।‘
बीमारी ंके बारे में युवक ने अफसोस जताते हुए कहा कि, ’ओह! तब तो आपको जल्द से जल्द अस्पताल पहुंचना चाहिए, वरना उन्हे फिक्र होगी।‘
बुजुर्ग बोले, ’नही, उसे कोई चिंता नही होगी। उसकी याददाश्त जा चुकी हैं और यहां तक कि पिछले पांच साल से वह मुझे भी नही पहचान रही हैं।‘
यह सुनकर युवक हैरानी से बोला, ’और फिर आप हर सुबह उनसे मिलने जाते हैं, उनके साथ नाश्ता करते हैं।‘
वृद्व ने एक मीठी मुस्कान के साथ गंभीर स्वर में जबाब दिया,’बेटे, भले ही वह मुझे नही पहचान पाती हैं, पर मैं तो उसे उब भी पहचान पाता हूं।‘
सच्चा वारिस
एक गांव में एक जमींदार था। आपार धन-दौलत और हजारों एकड भूमि उसके पास थी। उसके तीन पुत्र थे। एक दिन जब सुबह उठकर उसने शीशे में अपना चेहरा देखा, तो सफेद बाल देख कर चिंता में पड गया। उसे चिंता सताने लगी कि उसके बाद वह अपनी दौलत का वारिस किसे बनाए। उसने पत्नी से अपनी बात कही। उसकी पत्नी बहुत चतुर थी।
उसने कहा,’आज से छह महीने बाद वह यह बताएगी कि उसका सच्चा वारिस कौन है ?‘
जमींदार निश्चित होकर व्यापार के लिए शहर चला गया। अगले दिन जमींदार का पत्नी ने अपने तीनों बेटों को बुलाकर कहा-’देखो, मैं कुछ दिन के लिए तुम्हारे नाना के घर जा रही हूं। तुम्हारे पिता व्यापार के लिए शहर गए है। उन्हें भी आने में कुछ दिन लगेगें, तब तक तुम्हें मेरी एक चीज संभालकर रखनी होगी।‘
’कहिए, माताजी ! हमारे लिए क्या आज्ञा है। हमें कौन-सी वस्तु संभालकर रखनी है।‘
उसने हर एक पुत्र को दो-दो सेर बीज संभालकर रखने को देते हुए कहा-’बेटा, ये बीज ह। इन्हें संभालकर रखना।‘
तीनों ने अपनी मां से उन्हें सुरक्षित रखने की बात कही। मां निश्चिंत होकर अपनी मां के घर चली गई।
बडे भाई ने बीजों को बेशकीमती समझकर तिजोरी में रख दिया और आश्वस्त हो गया
मझले ने सोचा यदि बीज अलमारी में रखे, तो सड जाएंगे अतः उसने बाजार में बेच दिए। सोचा मां के आने पर पुनः खरीद कर दे दूंगा।
सबसे छोटा भाई बुद्धिमान था। उसने सोचा छह महीने में तो इन्हें बोकर नई फसल, नए बीज प्राप्त किए जा सकते है अतः उसने हल चलवाया और खेतों में बो दिया।
छह महीने बाद जमींदार की पत्नी लौटी और उसने तीनों से अपने द्वारा दिए बीज वापस मांगे। बडा तुरंत गया और तिजोरी खोली। सडे बीजो की दुर्गध से उसका सिर चकरा गया। वह निराश सिर झुकाए मां के पास आकर बोला- ’मां, मैं बहुत शर्मिदा हूं, वे बीज तो सड गए है।‘
मझला भाई बाजार गया और तीन सेर बीज लेकर आया और बोला ’लीजिए माताजी, आपने दो सेर बीज दिए थे, मैं तीन सेर वापस दे रहा हूं।‘
’और तुम्हें जा बीज दिए थे, वे कहां है ?‘ मां ने तीसरे बेटे से पूछा।
उसने नम्रता भरे स्वर में कहा- ’मां, उसके लिए तो आपको खेतो में चलना होगा। मैंने उन्हें खेतों म बो दिया है। फसल खेत में लहलहा रही है। कुछ ही दिनों बाद पककर अनाज तैयार होगा और में आफ बीज लौटा पांऊगा।‘ मां के चेहरे पर मुस्कान आ गई।
अगले दिन जमींदार भी काफी धन कमाकर लौट आया। उसकी पत्नी ने उससे कहा, ’आपने मुझसे अपना सच्चा वारिस ढूंढने के लिए कहा था।‘
’तो क्या तुम्हें वारिस मिला।‘
’हां।‘
’कौन है वह?‘
’वह है आपका छोटा बेटा।‘ और उसने पूरी कथा सेना दी। जमींदार बहुत खुश हुआ और बोला, ’परिश्रम, बुद्धि तथा दूरदृष्टि ही सम्पति को बढाती है। अपने पुश्तैनी कारोबार को सच्चा वारिस ही बढाता है।‘ और उसने अपने छोटे बेटे को सारे व्यापार का भार सौंप दिया और स्वयं अपनी पत्नी के साथ पर्यटन पर निकल गया।
खामोशी
कहते है कभी पशु-पक्षी भी बोलते थे। मनुष्य की जबान में बातें करते थे। अपने सुख-दुःख भी बांटते थे। उन्हीं दिनों का एक किस्सा है।
एक था किसान। वह बडा मेहनतकश था। परिवार में पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चे थे। किसान-परिवार आराम से अपने दिन बिता रहा था। पशु-पक्षी भी उसके परिवार का हिस्सा थे। इस परिवार के सदस्य थे- कुत्ता, तोता, गाय और दो बैल। शाम को किसान चौपाल पर गांव के अन्य बच्चों के साथ धमाचौकडी मचाते। पत्नी अन्य स्त्रियों के साथ बैठकर गप-शप करती। और किसान के ये पालतू जीव भी बैठकर बतियाते थे। उनकी बातचीत थे। उनकी बातचीत का मुख्य मुद्धा पा्रयः किसान ही रहता। वे सभी उसकी प्रशंसा में ही बातें करते। ’भई, बडा भला है हमारा मालिक।‘ ’हमारा बडा खयाल रखता है। प्यार से रखता है हमें।‘ तोता कहता। गाय कहती। कुत्ता भी मालिक की प्रशंसा में दुम हिलाता। बैल कहते, ’सबको ऐसा ही मालिक देना भोले शंकर !‘
किसान सामाजिक प्राणी भी था। इधर खेत में बहुत काम बाकी था उधर उसे दूसरे गांव में अपने बीमार चाचा को देखने जाना था। सो उसने तय किया दो दिन का काम एक ही दिन में निपट जाए तो अच्छा। सुबह हुई। किसान ने बैल खोले और चल दिया खेत पर, जोत दिया उन्हें। बेल खुशी-खुशी खेत जोतने लगे।
उस दिन दोपहर का सूरज भी पता नहीं किस बात पर गुस्से में था। उसने आग बरसाना शुरू कर दिया। बैलों का हलब सूख गया। एक बैल बोला,’मालिक, प्यास लगी है। दूसरे ने समर्थन किया,’हां मालिक, पानी पिला दो।‘
’बस थोडी देर में। एक हलाई पूरी हो जाए।‘ किसान ने प्यार से जवाब दिया।
बैल मान गए। वे अपने काम में लगे रहे। काफी देर हो गई। उन्होंने फिर अनुनय की, ’मालिक पानी पिला दो। बहुत तेज प्यास लगी है।‘
’हां हां, बस जरा देर की ही बात है। फिर पी लेना।‘ बेल चुप हो गा। थोडा समय और बीता।
एक बैल ने कहा, ’भाई, आज मालिक को भी क्या सूझी है, जो सुबह से हमें जोत रखा है।‘
’मैं भी समझ नहीं पा रहा हूं।‘ दूसरे ने कहा, ’एक बार और कहते है।‘ इस बार दोनों एक साथ बोले, ’मालिक, हमें बहुत तेज प्यास लगी है। पानी पिला दो फिर चाहे देर शाम तक काम में जोते रखना।‘
उस दिन शायद किसान भी जिद ठाने हुए था। बोला, ’देखो, अब जरा देर और रूक जाओ। फिर हम तीनों पानी पिएंगे, भोजन भी करेंगे और आराम भी।‘
बैल फिर चुपचाप काम में लग गए। प्यास की मार और सूरज देवता का क्रोध सहते रहे। और फिर जब उनका प्यास से बुरा हाल हो गया तो बोले। लेकिन इस बार पानी और प्यास का जिक्र तक नहीं किया। बस यही कहा, ’लो मालिक, अब हम खामोश हो जाते है।
हम तुम्हारे सेवक है। हमें तुम्हारी सेवा ही करनी है। और जो सेवक होता है, वह खुद अपनी इच्छा नहीं बता पाता। उसका काम है मालिक की आज्ञा का पालन करना। और वह हम आखिरी सांस तक करते रहेंगे।‘
कहते है, बैल तभी से चुप है। आज भी खामोशी से मेहनत करते है। मालिक की इच्छा हो तेा पानी मिले। मालिक का रहम हो तो भोजन मिले। मालिक की दया-दृष्टि हो तो थोडा विश्राम मिले। वरना जुते रहो। जुटे रहो। जुटे रहो यही उनके जीवन का मूलमंत्र है।
एक था मेघा
यह किस्सा ५०० वर्ष पहले का हैं। मेघा ढोर चराया करता था। पशुओ के साथ मेघा कोसो तक फैले सपाट रेगिस्तान मे भोर में ही निकल लेता। मेघा दिनभर का पानी अपने साथ एक कुपडी, मिटटी की चपटी सुराही में ले जाता। शाम वापस लौटता। एक दिन कुपडी में थोडा सा पानी बच गया। मेघा को न जाने क्या सूझी कि उसने एक छोटा सा गढढा किया, उसमें कुपडी का पानी डाला और आक के पतों से अच्छी तरह ढक दिया। चराई का काम। आज यहां, कल कही ओर। मेघा दो दिन तक उस जगह पर नही जा सका और फिर वहां तीसरे दिन पहुंच पाया। उत्सुक हाथो ने आक के पते धीरे से हटाएं। गडढे में पानी तो नही था पर ठंडी हवा आई। मेघा के मुंह से शब्द निकला- ‘भाप’। मेघा ने सोचा इतनी गर्मी में थोडे से पानी की नमी बची रह सकती हैं, तो फिर यहां तालाब भी बन सकता है।
मेघा ने अकेले ही तालाब बनाना शुरू कर दिया। अब वह रोज अपने साथ कुदाल-तगाडी भी लाता। दिनभर अकेले मिटटी खोदता और पाल पर डालता। गाएं भी वही आसपास चरती रहती थी। भीम जैसी शक्ति नही थी, लेकिन भीम की शक्ति जैसा संकल्प था मेघा के पास। दो वर्ष तक वह अकेले ही लगा रहा। सपाट रेगिस्तान मे पाल का विशाल घेरा अब दूर से ही हर दिखने लगा था । पाल की खबर गांव को भी लगी।
अब रोज सुबह गांव से बच्चे और दूसरे लोग भी उसके साथ आने लगे। सब मिलकर काम करते। १२ साल हो गए थे,अब भी विशाल तालाब पर काम चल रहा था । लेकिन मेघा की उमर पूरी हो गई। पत्नी सती नही हुई और अब तो तालाब पर मेघा के बदले वह काम करने जाने लगी और फिर छह महीने में तालाब का काम पूरा हो गया। तालाब भाप के कारण शुरू हुआ था, इसलिए उस जगह का नाम भाप पडा जो बाद में बिगडकर ’बाप‘ हो गया। चरवाहे मेघा को समाज ने मेघोजी के नाम से याद रखा और तालाब की पाल पर ही इनकी सुंदर छतरी और उनकी पत्नी की स्मृति में एक देवली बना दी गई। यह जगह अब बीकानेर-जैसलमेर के रास्ते में पडने वाला छोटा से कस्बे बाप के नाम से जाना जाता है।
चार औरते, चार आदमी
एक आदमी जंगल में जा रहा था । उसे चार स्त्रियां मिली । उसने पहली से पूछा - बहन तुम्हारा नाम क्या हैं ?
उसने कहा बुद्वि कहां रहती हो? मनुष्य के दिमाग में।
दूसरी स्त्री से पूछा - बहन तुम्हारा नाम क्या हैं ? लज्जा ।
तुम कहां रहती हो ? आंख में
तीसरी से पूछा - तुम्हारा क्या नाम हैं ? हिम्मत कहां रहती हैं ? दिल में ।
चौथी से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ? तंदुरूस्ती
कहां रहती हैं ? पेट में। वह आदमी थोडा आगे बढा। उसे चार पुरूष मिले।
उसने पहले पुरूष से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ? क्रोध
कहां रहतें हो ? दिमाग में, दिमाग में तो बुद्वि रहती हैं, तुम कैसे रहते हो? जब मैं वहां रहात हुं तो हूं बुद्वि वहां से विदा हो जाती हैं। दूसरे पुरूष से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ? उसने कहां - लोभ कहां रहते हो? आंख में। आंख में तो लज्जा रहती हैं तुम कैसे रहते हो। जब मैं आता हूं तो लज्जा वहां से प्रस्थान कर जाती हैं ।
तीसरें से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ? जबाब मिला भय। कहां रहते हो? दिल में तो हिम्मत रहती हैं तुम कैसे रहते हो?
जब मैं आता हूं तो हिम्मत वहां से नौ दो ग्यारह हो जाती हैं।
चौथे से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ? उसने कहा - रोग। कहां रहतें हो? पेट में। पेट में तो तंदरूस्ती रहती हैं, तुम कैसे रहते हो। जब मैं आता हूं तो तंदरूस्ती वहां से रवाना हो जाती हैं।
नया लुक
अपने रिटायरमेंट के पैसों से उसने शहर में तीन कमरो का एक छोटा सा मकान बनवाया था। दो कमरों में उसके बेटे बहू रहते थे। एक छोटा सा कमरा उसके पास था। उसे किताबे पढने का शौक था, इसलिए एक छोटी लाइब्रेरी भी कमरे में बना ली। पिछले चार महीने से वह अपने बेटे बहू के बुरे व्यवहार के कारण गांव के पुश्तैनी मकान में रह रहा था। इस दौरान उसके पास बेटे बहू के कई पत्र आ चुके थे। उनमें एक ही बात बार बार लिखी थी वह शहर का अपना कमरा अब अपने पोते को दे देवें। उसे पोते से प्यार था। वह अब कॉलेज में पढ रहा था। उसने भी लिख दिया था कि वह कमरा उसके पोते के लिए ही हैं।
आज वह शहर के मकान में आया तो स्तब्ध रह गया । उसका कमरा खाली किया जा रहा था। बेटे और बहू ने उसके आने का इंतजार भी नही किया था। सामान बिखरा पडा था। फर्श पर किताबे बिखरी थी। उन पर चिडिया के घोसले के तिनके और धूल जमा थी। उसकी पत्नी को चिडियो से बहुत प्यार था। उसके कमरे में दो घोंसले थे। जब चिडिया के अंडे देने का समय आता तो पत्नी एक जच्चा की तरह उसकी देखभाल करती थी। पत्नी की मृत्यु के बाद उसने भी पत्नी की याद में उन घोंसलों को हटाया नही था, लेकिन आज दोनो घोंसलें जमीन पर पडे थे। एक बिखरा हुआ, दूसरा साबुत। चिडिया चींचीं करती व्याकुल होकर कमरे के चक्कर काट रही थी ।
उसने साबुत घोसलें को उठाया और बाहर लॉन में एक पेड की टहनियो के कोटर में उसे ले जाकर रख दिया। फिर वह किताबों पर बिखरी धूल और तिनकों को साफ कर किताबों का गठ्ठर बनाने लगा। सामने दीवार पर लगे उसकी पत्नी के फोटो को हटाकर एक कने में डाल दिया था। उसके स्थान पर एक अभिनेत्री का अर्धनग्न फोटो लगा था। उससे रहा नही गया। उसने बहू से कहा, ’यह फोटो तुम्हे दीवार पर क्या तकलीफ दे रहा था?‘ बहू ने कहा-’बाबूजी हम कमरे को न्यू लुक देना चाहते हैं। मम्मी का फोटो ओल्ड कॉस्ट्यूम में हैं, मैच नही करता।‘ आगे बात करना व्यर्थ था। अंत में उसने अपनी पत्नी का फोटो को उठाया और चलने को हुआ तो बहू ने कहा ’बाबूजी देख लीजिए। आपका कुछ और तो नही बचा?‘ उसने भरी आंखो से कहा ’नही बहू अब मेरा यहां कुछ भी नही बचा।‘ इतना कहकर वह तेजी से कमरे से बाहर निकल गया।
लॉन में उसने एक दृष्टि पेड पर डाली । घोंसला वहां सुरक्षित था। उसके पास ही चिडिया शांति से बैठी थी। उसने मन ही मन कहा ’मेंरा घोंसला तो उजड गया लेकिन मुझे खुशी हैं कि समय पर आकर मैने तुम्हारा घोंसला बचा दिया।‘ टहनी पर बैठी चिडिया टुकुर टुकुर उसे जाते हुए निहारती रही।
इंद्रलोक की यात्रा
किसी जुलाहे ंके खेत में हर रात देवराज इंद्र का हाथी ऐरावत आता था। वह आसमान से धरती पर उतरता और रात भर उसके खेत मे चरता। अपने खेत की हालत देखकर जुलाहे ंके कलेजे पर सांप लोट जाता। उसने समझदारों से पूछा कि उसके खेत को कौन बरबाद करता है। लोगों ने कहा यह गांव की चक्कियों की करतूत हो सकती है। उसके पाट रात को तुम्हारे खेत में आते जाते होंगे। जुलाहे ने यह सुन गांव की तमाम चक्कियों ंके पाट सांकज से बांध दिए। फिर भी उसके खेत की बरबादी नहीं रूकी। उसने घर बिरादरी वालों से सलाह ली। सभी ने कहा- यह धान कूटने की ओखलियों का काम हो सकता है। गांव वालों ंके सो जाने ंके बाद गांव की ओखलियां चुपक से तुम्हारे खेत मे चरने जाती होंगी। उसने गांव की सारी ओखलियों को रस्सी से बांध दिया। पर वही ढाक ंके तीन पात!
एक रात वह अपने खेत में जाकर सो गया और इंतजार करने लगा। वह देखता है कि एक हाथी उडता हुआ आया और फसल चरने लगा। जब हाथी वापस उडने लगा तो उसने पूंछ पकड ली। जुलाहा उसके साथ स्वर्ग चला गया। वहां इंद्र का दरबार लगा था। अप्सराएं नाच-गा रही थी। किसी ने जुलाहे की ओर ध्यान नहीं दिया। भूख लगने पर वह देवताओं की रेसोई में गया और जमकर दिव्य भोग जीमे। अगली रात जब ऐरावत पृथ्वी पर जाने लगा, तो उसकी पूंछ से लटक कर जुलाहा वापस गांव आ गया।
जुलाहे ने घर-गांवों वालों और मित्रों को अपनी रोमांचक यात्रा ंके बारे में बताया। वह बोला-मृत्युलोक जगह पर रहने से क्या फायदा! च्लो, सब इंद्रलोक चले! स्ब राजी हो गए। फसल चट करके ऐरावत वापस उडने लगा। जुलाहे ने फिर उसकी पूंछ पकड ली औश्र उसकी पत्नी ने पति ंके पांव पकड लिए। इसी तरह बाकी लोग भी एक-दूसरे ंके पांव पकड कर लटक गए। ऐरावत ने इस मानव श्रृंखला पर कोई ध्यान नहीं दिया। ऊपर उड गया। सभी काफी ऊपर आ गए। जुलाहे ने सोचा मैं भी कैसा मूर्ख ह! टपना करधा लाना ही भूल गया।
यह सोचते हुए उसने अफसोस से अपने हाथ मले। इस बीच हाथी की पूंछ उसके हाथों से छूट गई और सब वापस धरती पर धम्म से आ गिरे।
जंगल राज
एक जंगल के जलकुंड पर एक मेमना पानी पी रहा था। अभी उसने पानी भी नही पिया था कि एक चीता उधर आया। मेमने को देखकर चीते के मुंह मे पानी आ गया उसने सोचा कैसे न कैसे इस मेमने को खाया जाए। चीता मेमने के पास आया मेमने ने चीते से राम-राम की।
चीते ने गुस्से मे कहा- आज तो तुम मुझसे बच नही पाओगे। मै तो तुम्हें खाऊंगा। मेमने ने कातर स्वर मे कहा-जंगल के राजा मेरा क्या कसूर है जरा बताने की कृपा करे। तुमने १ साल पहले मुझे गाली दी थी चीते ने कहा। पर मै तो ६ महीने का ह मेमने ने कहा।
चीते ने कहा तब तो तुम्हारे बाप ने गाली दी होगी। पर मेरा बाप तो मेरे जन्म के पहले ही लकडबग्गे के हाथो मारा गया।
चीते ने पलटकर कहा- तब तो तुम्हारी मॉ ने गाली दी होगी।
पर मेरी मॉ तो कभी इस जंगल मे आई ही नही वह तो बाडे में बंधी रहती हैं।
चीते ने पलटवार किया फिर भी तुम नही बच सकते क्यो कि मुझे गाली एक भेड ने दी थी तुम भेड के जाए बच्चे हो, इसलिये तुम्हारे जाति भाई की सजा तुम्हे मिलेगी यही जगंलराज का कानून है। मेमना मिमयाता रह गया और चीते ने उसे अपना भोजन बना लिया।
लोभ की लत बहुत बुरी
राजा नल की कहानी बहुत पुरानी हैं। इस कहानी के जरिए इस बात को कहने की कोशिश की गई है कि जब मनुष्य के मन में लोभ या लालच बढ जाता हैं तो उसकी बुद्धि का नाश होने लगता हैं। वह अपने लोभ पर अंकुश नहीं लगा पाता और राजा नल की तरह बर्बाद हो जाता हैं। लालच की भावना प्रत्येक व्यक्ति के मन में बैठी होती हैं।
राजा नल बडे प्रतापी राजा थे। वे सर्वगुण सम्पन्न, सदाचारी और प्रजा पालक थे। उनकी कृति की गाथा हर दिशा में गाई जाती थी। पता नहीं एक दिन क्या हुआ कि राजा असावधानीवश शौचादि के बाद बिना पवित्र हुए ही संध्या वंदन करने लगे। राजा जैसे ही अपने नियमों के प्रति सुस्त हुए उनकी बुद्धि मंद हो गई। बुद्धि मंद हुई तो उनके निर्णय प्रभावित होने लगें। एक दिन वे अपने भाई और मित्र राजा पुष्कर के साथ बातों-बातों में जुआ खेलनें बैठ गए। वे हारने लगे इौर हारते ही चले गए। हारने के लिए अपनी पत्नी दमयंती के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचा। अपनी पत्नी दमयंती को भी दांव पर लगाने ही वाले थे कि अच्छे विचारों ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया। उन्हें याद आ गया कि यह वहीं दमयंती है जो उनकी धर्मपत्नी हैं। जब उसके साथ विवाह हुआ था तो आशीर्वाद देने के लिए इन्द्र आदि देवताओं को भी आना पडा था। लेकिन जब तक उनके मन में अच्छे विचार आते, तब तक तो वे अपना सर्वस्व खो चुके थें। जुए में सब हारने के बाद अपना भरा-पूरा राजपाट छोड कर दमयंती के साथ महल से बाहर निकल गए।
प्रजा ने उनको जुआ खेलने से बहुत रोका था। लेकिन उन्होंने किसी की बात नहीं मानी। पर अब पछताने के अलावा कोई रास्ता नही था। प्रजा भी प्रिय राजा को दयनीय हालत में देख कर काफी दुखी थे। एक गलत निर्णय ने राजा को बर्बाद कर दिया था। इधर राजा पुष्कर ने अपने नगर में घोषणा कर दी थी कि ’जो कोई राजा नल या उनकी पत्नी दमयंती की किसी भी प्रकार मदद करेगा तो उसे फांसी की सजा दे दी जाएगी।‘ इसलिए राजा नल की चाह कर भी उनकी प्रजा ने कोई मदद नहीं की। तीन दिनों तक अपने नगर में भूखे-प्यासें भटकने के बाद वे जंगल की ओर चल पडे।
एक दिन राजा नल ने कुछ खूबसूरत सुनहरे पंखों वाली चिडया का एक झुंड देखा। उन्हें लगा कि वे सभी सोने के पंखों वाली चिडया हैं जिन्हें पकड कर और उनके पंखों को बेच कर धन कमाया जा सकता हैं। लेकिन बिना जाल के पकडना संभव नहीं था। लेकिन लोभ में राजा ने फौरन अपने वस्त्रों को शरीर से उतारा और उसका जाल बना कर चिडया की तरफ फेंका। वे उनको पकड पाते इसके पहले ही वे जाल के साथ आसमान में उड गई। राजा नग्न अवस्था में रह गए। उन्हें अपने ऊपर काफी शर्म आ रही थी। एक प्रतापी राजा की ऐसी मति भ्रष्ट हुई कि वह नग्न हो गया था। उनके पास तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं थे। राजा पश्चाताप करने लगें।
बिटिया
एक राजा के सात रानियां थी। संतान न होने के कारण राजा बहुत दुःखी रहता था। आवेश में उसने सभी रानियों को बुलवा भेजा। राजा ने कहा,’तुम सातों में से एक-न-एक को एक वर्ष के अंदर मां बनना होगा। ऐसा ना हुआ तो मैं तुम सातों को महल से बाहर निकाल दूंगा। सभी रानियां एक दूसरे का मुंह ताकने लगी।
कुछ ही दिनों बाद रानियों को एक उपाय सुझा। सभी ने मिलकर निर्णय लिया कि राजा को खबर कर देते है कि छोटी रानी के बच्चा होने वाला हैं। बडी रानी ने राजा को यह समाचार भिजवा दिया। महल में खुशियां मनाई जाने लगी। किन्तु छोटी रानी परेशान हो उठी। प्रसव का समय हो गया। बडी रानी ने एक तरकीब ढूंढ निकाली। वह एक बिल्ली के बच्चे को ले आई और एक दासी को कुछ पैसे दिए, ताकि वह राजा से कहे लडकी पैदा हुई हैं। दूसरी बात यह तय की गई कि एक पंडित को पैसे दे कर पटाया जाए और उसके द्वारा राजा को यह कहलवाया जाए कि बारह वर्ष तक लडकी पर पिता का साया नहीं पडना चाहिए।
सभी को दोनो सुझाव जंच गए। अगले दिन दासी के हाथ राजा को खबर भेज दी गई कि कन्या हुई हैं। राजा सुनकर खुश हुआ। जब राजा ने कहा कि वह रानी और अपनी बेटी को देखने जा रहा है तो बडी रानी ने कहा, ’महाराज! जाने से पहले पंडितजी से सलाह अवश्य कर लें। पता नहीं, बच्ची के ग्रह कैसे हैं? पंडित ने राजा से वहीं कहा जो पहले से तय किया गया था। वह बोला,’राजन! आफ ग्रह इस बच्ची से टकराते हैं। अच्छा होगा यदि आप बारह वर्ष तक अपनी पुत्री से न मिलें।‘ राजा ने कहा,’भाई! मैं तो उसकी सलामती के लिए सब कुछ ही दिन बाकी थे तो राजा ने बडी रानी को बुलवाया और उससे कहा, ’रानी! अब बारह वर्ष बीतने में कुछ दिन ही बाकी हैं। इतनी लंबी अवधि मैनें बहुत मुश्किल से गुजारी हैं। पंडितजी से बात करती हूं‘ इतना कह कर चली गई। बडी रानियों ने सभी रानियों को बुलाया। सभी एक साथ मिलकर सोचने लगी। छोटी रानी को उपाय सुझा, उसने कहा कि पंडितजी से यह कहा जाए कि बारह वर्ष से पहले-पहले शादी कर देनी जरूरी हैं।
राजा ने मंत्रियों को अच्छे वर की तलाश करवाई। विवाह की तिथि निश्चित कर दी गईं। विवाह से कुछ दिन पहले अपने होने वाले दामाद को बडी रानी ने अपने पास बुलाया ओर सारी कहानी सुनाते हुए बोली, ’बेटा, हम बडी मुसीबत में फंस गए हैं। तुम चाहो ंतो हमारी मदद कर सकते हों‘ ’तुम राजा से यह कह दो कि वह दामाद का मुंह देख सकते हों, किन्तु लडकी का मुंह तीन वर्ष तक यह देख सकते। तुम्हारी मां को भी पंडित द्वारा यह कहलवा दिया जाएगा कि वह तीन वर्ष तक बहू का मुंह नहीं देख सकती, क्योंकि ऐसा करना उसके घर के लिए अशुभ होगा। इस प्रकार तुम हम सातों रानियों को मुसीबत से बचा सकतें हों।‘
लडका बडा नेक ओर दयालु था। उसे मुसीबत में फंसी रानियों पर दया आई। उसेन बडी रानी को वचन दिया कि वह वहीं करेगा जो रानी चाहती हैं। शादी बडी धूमधाम ये की गईं। डोली मे बिल्ली के बच्चें को विदा कर दिया गया। लडके ने मां से कह दिया कि बहू के लिए अलग चबूतरा बनवाया जाए, क्योंकि कोई भी तीन वर्ष तक उसका चेहरा नहीं देख सकता।
एक दिन त्यौहार पर लडके की मां ने दुखी होकर अपने बेटे से कहा, ’लोगों के घर बहू आने से रौनक आ जाती है, सास को सुख मिलता हैं। लेकिन मैं अभागिन ऐसी हूं, जिसे न तो बहू का स्पर्स देखने को मिला और न ही उसका कोई सुख।‘ बिल्ली चुपचाप सुन रही थी। अगले दिन जब उसकी सास बाहर गई तो पीछे से बिल्ली ने सारे घर को बुहार डाला, फिर पूंछ पर पोंछन बांधकर सारे घर में पोंछन लगा डाली। इतना करके वह अपने चबूतरें पर वापस लौटी तो घर भर को साफ-सुथरा देख कर राजकुमार की मॉ आश्चर्यचकित हो गईं। सोचने लगी, आखिर झाडू-बुहारी कौन कर गया?
एक दिन जब बिल्ली घर की सफाई कर रही थी तो शिवजी और पार्वती उधर स निकले। पार्वती ने बिल्ली को सफाई करते देखा तो रूक गई। पार्वती ने बिल्ली से ऐसा करने का कारण पूछा। पार्वती के पूछने पर बिल्ली बोली, ’राजा की संतान न होने के कारण रानियों की जान खतरे में थी। मेरे पति ने बडी कुर्बानी की हैं। मुझसे विवाह कर मुझे अपने घर ले आए। पार्वती को दोनो पर दया आई। उन्होंने नारियल तेल में भस्म मिला कर बिल्ली को देते हुए कहा,’इसे अपने बछन पर चार दिन मलने से सभी दुःख दूर हो जाएंगें। बिल्ली ने ऐसा ही किया। वह सुन्दर लडकी बन गईं। उसने अपनी एक टांग को छोडकर सारे शरीर में चार दिन तक तेल मला। चौथे दिन शाम को जब लडका लौटा तो बिल्ली के स्थान पर एक सुंदरी को देखकर आश्चर्यचकित हुआ। इस पर सुंदरी ने कहा, ’मैं। ही आपकी पत्नी बिल्ली हूं। शिव-पार्वती ने मुझे दर्शन दिए। उनसे मैंने अपनी सारी राम कहानी कही। अब मैं बिल्ली से स्त्री बन गई हूं। जब लडके को सुंदरी की इस बात पर विश्वास न हुआ तो सुंदरी ने अपनी वह टांग दिखाई जिस पर उसने तेल नहीं मला था। बिल्ली बोली,’यह अंग मैनें आपकी तसल्ली के लिए ही छोडा हैं। लडका बडा ही खुश हुआ। दूसरे दिन वह राजमहल पहुंचा। उसने सातों माओं को सारी कथा सुनाई। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। इसके बाद राजा को कन्या का मुंह दिखाने का निर्णय ले लिया गया। राजा अपनी रानियों सहित दामाद के घर पहुंचा। वहां अपनी रूपवती कन्या को देखकर वे सब फूले न समाए।
पोटली में क्या
किसान सुखराम कई खेतों का मालिक था। उनमें स्वयं काम करता था। पूरे परिवार का गुजारा उन्हीं खेतों से होता था। पर जैसे-जैसे वह बूढा होने लगा, उसे चिंता सताने लगी कि उसके दोनो बेटों में से कौन उसका काम सही ढंग से संभाल पाएगा। बडा बेटा ’राम‘ या छोटा बेटा ’श्याम।‘ ऐसा ख्याल आते ही उसे एक उपाय सूझा। क्यों न दोनों बेटों की परीक्षा ली जाय। दोनों में से कौन ज्यादा योग्य और ईमानदार हैं?
सुखराम ने एक दिन दोनों बेटों को पास बुलाया और दोनों को अलग-अलग एक पोटली दी। फिर बोला-’बेटा राम! तुम यह पोटली खेत में ले जाओं और पूर्व दिशा में जो आम का पेड लगा है उसके नीचे गड्ढा खोदकर दबा देना। और श्याम तुम अपनी पोटली को पश्चिम में लगे आम के पेड के नीचे गड्ढा खोदकर दबा देना। हां एक बात का ध्यान रहे कि पोटली खोलकर मत देखना कि इसमे क्या हैं ?‘
’जी पिताजी!‘ कहकर दोनों अपनी-अपनी पोटली उठाकर चल पडे। रास्ते में राम अपनी एक ही धुन में मस्त था कि उसे पिताजी के कहे अनुसार पोटली को पूर्व दिशा में लगे आम के पेड के नीचे गाडना हैं। पर श्याम के मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे कि पिताजी ने पोटली खोलनें से मना क्यों किया हैं। ? उसने राम से पूछा -’भइया इसमें क्या होगा ?‘
’मुझे क्या पता, लौटकर पिताजी से ही पूछ लेना।‘ राम बोला।
’क्या इसमे सोना होगा जो हमें छिपाकर रखना हैं ?‘
’पता नहीं तुम तो चुपचाप वो करो पिताजी ने कहा है।‘
श्याम की बात अनसुनी कर वह फिर बोला-’नहीं सोना नही होगा, क्योंकि यह हल्की हैं। क्या इसमे पिताजी की सम्पति के कागजात होंगे ?‘
’मुझे नहीं मालूम।‘
’भइया जरा अपनी पोटली तो दिखाओ वह हल्की है या भारी?‘
’नहीं मैं नहीं दिखाऊंगा।‘ राम थोडा तेज आवाज में बोला।
’कही ऐसा तो नहीं कि तुम्हारी पोटली में सोना हो और मेरी पोटली में कागजात!‘ श्याम उत्सुकता से बोला।
’पिताजी ने जैसा कहा है वैसा करों यह मत सोचों कि कहां क्या हैं? अब की बार राम थोडा नाराज होकर बोला। श्याम की बकबक से तंग आकर राम जल्दी-जल्दी चलने लगा। श्याम को अच्छा मौका मिल गया। उसने सोचा, भइया तो आगे बढ गए है, मैं चुफ से पोटली खोलकर देखता हूं कि उसमें क्या हैं ?
राम तो आगे बढकर पिताजी के बताए स्थान खोदने लगा और श्याम रास्ते में ही बैठकर पोटली खोलनें लगा। उसमे कुछ कागज के टुकडे और रूई थी। यह देखकर श्याम को गुस्सा आया। वो पिताजी की बात भूल उल्टे पैर घर की तरफ लौट पडा और घर पहुंचते ही गुस्से से बोला-’पिताजी,पिताजी!‘
दो पीपे फारसी
एक छोटे गाँव में सीधें-साधें ग्रामीण रहते थे। पजांब में तब दुर्रानियों का राजपाट था। दुर्रानी फारसी बोलते थे।वे पजांबी नही जानते थे। ग्रामीण बडी मुश्किल में पड गये। हाकिम लगान उगाने आते तो किसान उन्हें अपना नफा नुकसान समझा नही पाते। वे अपना सारा समान हाकिमो के पास रख देते और अपना पीछा छुडाते थे।
एक दिन गांव वालो ने सभा की। दो लोगो को जो अक्लमंद थे उनको काबुल भेजना तय किया ताकि वे वहां से फारसी भाषा ला सके।इस काम के लिये दो सफेद दाढी वाले अनुभवी लोगो को चुना गया। दोनो बुढे पैदल ही लंबी यात्रा के लिये निकल गये। वे हर गॉव में बडी उत्सुकता से पूछते-यहां कोई फारसी बेचने वाला है? गॉव वाले उन पर हसंते। आखिर वे जलालाबाद शहर पहुंचे। शहर के दरवाजे पर उन्हें एक शैतान किस्म का आदमी मिला। ग्रामीणों ने उससे पूछा कि हमारे गाांव के लिये थोडी फारसी चाहिये। वह आदमी तुरंत समझ गया कि ये महामूर्ख है। इन्हें उल्लू बनाकर पैसा ऐठना काफी आसान है। तो वह बोला -क्यों नही! अगर तुम पैसा चुकाने के लिये तैयार हो तो मेरे पास २ पीपो में बहुत बढया फारसी भरी है। वह उन्हें अपने घर ले गया और उन्हें भोजन खिला कर सुला दिया। बदमाश आदमी ने देखा कि उसके घर के आगे कुछ ततैयें रोज घोंसला बनाते हैं। शतान आदमी ने दो पीपो में कुछ मिठाई रखी और उसमें ततैयों के बच्चों समेत मिट्टी के घरदे भर दिये। फिर उनके ऊपर ढक्कन लगाकर ग्रामीणों के हवाले कर दिये। वह बोला - रास्ते में पीपा खोलना मत,नही तो फारसी भाग जाएगी। सभांल के रखना इसमे ठसाठस फारसी भरी हैं। गांव पहुंच कर जिन-जिन लोगो को फारसी चाहिये उन्हें अन्धरे कमरे में इकट्रठा करना। कमरे के दरवाजे - खिडकियां बंद करना और उन्हें अपने - अपने कपडे उतारने के लिये कह देना। फिर पीपे खोले । सबको अपना हिस्सा मिल जायेगा। वह ग्रामीण जल्दी-जल्दी गांव पहुंचे और सभी पडोसियों को पीपा दिखाया और एक पल भी गंवाए बिना वे एक अन्धेरे कमरे में गये और अपने - अपने कपडे उतारकर पीपे को खोल दिया। बंद ततैये उडे और उन पर टट पडे वे दरवाजा तोडकर भागे और चिल्लाने लगे। उनके मुहं सूज गये। इसके बाद गांव वालो ने तय किया कि फिर कभी फारसी में टांग नही अडायेगे। हम अच्छे हमारी भाषा अच्छी।
बहादुर राजकुमारी
एक राज्य में दो खूबसूरत राजकुमारियां आराम से रहती थी। उनके राज्य में चारों तरफ शान्ति और प्रेम का वातावरण था। बडी राजकुमारी का नाम अन्निका और छोटी का नाम ब्रिटीका था। एक दुष्ट राक्षस ब्रिटीका को जबरदस्ती उठाकर ले जाता हैं और अपने शक्तिशाली मायाजाल में बंद कर देता हैं। उसके माता-पिता अपनी बेटी के लिए दुःखी होते हैं, लेकिन वे दुष्ट राक्षस का मुकाबला नहीं कर पाते। लेकिन उसकी बहिन अन्निका शक्तिशाली थी। वह अपने जादुई घोडे पर बैठकर आकाश में रहने वाले दुष्ट राक्षस से अपनी बहिन को बचाने के लिए चली गई। वहां राक्षस के सैनिकों ने उस पर आक्रमण कर दिया। राजकुमारी ने अपनी अद्भुत शक्तियों के दम पर जल्द ही उन सबको मार डाला। फिर वह राक्षस को ढूंढने लगी। वहां उसे एक गोल आग का दरवाजा दिखाई दिया। वह अपने घोडे सहित उस आग के घेरे में घुस गई और राक्षस को तलाश करने लगी। वहां पहुंचकर राजकुमारी की आंखे आश्चर्य से फैल गई। वहां एक शानदार महल था। वह उसे देखती जा रही थी। अचानक पीछे से उसे अपनी बहिन ब्रिटीका की आवाज आई। उसने चारों तरफ देखा लेकिन उसे कोई दिखाई नहीं दिया। फिर ब्रिटीका ने उससे कहा,’अन्निका दुष्ट राक्षस के जादू के कारण तुम मुझे देख नहीं सकते लेकिन मैं तुम्हें आसानी से देख सकती हूं।‘ तुम्हारें पीछे जो दरवाजा है उसे अगर तुम खोल दोगी तो मैं उस राक्षस के मायाजाल से मुक्त हो जाऊंगी। अन्निका दरवाजे को खोलने की कोशिश करने लगी। लेकिन दरवाजा नहीं खुला। इतने में ही अट्टहास करता हुआ राक्षस वहां आ गया। उसने अन्निका से कहा, ’इस दरवाजे की चाबी मेरे पास हैं और मैं तुम्हें चाबी दूंगा नही।‘ फिर उन दोनों में भयंकर लडाई शुरू हो गई। अन्निका ने जल्द ही अपनी शक्तियों से उस राक्षस का अंत कर दिया। राक्षस के मरते ही उसका मायाजाल समाप्त हो गया और राजकुमारी ब्रिटीका भी उसके मायाजाल से मुक्त हो गयी। अन्निका अपनी बहिन को लेकर वापस अपने महल पहुंच गई और वे खुशी-खुशी रहने लगे।
घर का न घाट का
एक चरवाहा था, नन्दू। उसके पास बहुत सी बकरीयां थी। वह बडी सावधानी से उनकी देखभाल करता था।
एक बार उस इलाके में भयंकर अकाल पडा। पशुओं के लिए चारा मिलना दुर्लभ हो गया। आखिर चन्दू बकरियों के साथ चारें की खोज में गांव से निकल पडा।
चलते-चलते नन्दू एक घाटी में जा पहुंचा। वहां चारों ओर हरियाली फैली हुई थी। नन्दू ने वही रहने का फैसला किया। वहां एक पुरानी झोपडी भी थी। नन्दू ने मरम्मत करके उसे अपने रहने लायक बना लिया। बकरियों के लिए भी उसने एक बाडा बना दिया।
एक-दो दिन बारिश हुई। घास-पात में खूब मच्छर हो गए। नन्दू ने एक उपाय सोचा,’लकडया एकत्रित करके जगह-जगह आग जला दी।‘ खूब धुंआ हुआ। धुंए से मच्छर भाग गए। अब तो वह रोज यही करने लगा। आसपास के गड्ढो को भी भर दिया। इस तरह धीरे-धीरे मच्छर खत्म हो गए। अब बकरिय को कोई तकलीफ न थी।
एक दिन नन्दू फल-फूल की तलाश में जंगल में गया। वहां सुनहरी रंग के हिरण एक समूह में आने लगे। हिरणों को देखकर नन्दू के मन में लोभ आ गया। सोचने लगा-क्यों न इन्हें पकड कर राजा को उपहार में दिया जाए। ऐसे खूबसूरत हिरण पाकर राजा बहुत खुश होंगे। हो सकता है, मुझे बढया ंइनाम भी मिल जाए। राजा धन देंगे, तो मेरी मौज हो जाएगी। अब नन्दू को अपनी बकरियों की परवाह न रही। वह नित्य हिरणों को आकर्षित करने के तरीके सोचता रहता। उसने वहीं नई झोंपडी बना ली। वह अपनी बकरियों को लगभग भूल ही गया। देख-रेख के बिना बकरियों कमजोर और बीमार रहने लगी। उनमें से कुछ चरते-चरते राह भूलकर भटक गई। कुछ मर गई। धीरे-धीरे मौसम बदलने लगा। बारिश और ठंड के बाद गर्मी आ गई। हिरण वहां से घने जंगल में भाग चले गए। नन्दू हिरणों की खोज में फिरने लगा। लेकिन हिरण कहां मिलतें।
अंत में वह समझ गया, अब हिरण नहीं आएंगे। तब उसे बकरियों की याद आई। वह भारी मन से अपनी पुरानी झोपडी में लौट आया। लेकिन उसे बाडे में एक भी बकरी दिखाई नहीं दी। नन्दू ने पछता कर अपना सिर पीट लिया। लालच के कारण वह घर का रहा, न घाट का।
तेनालीराम की घोषणा~~~
तेनाली राम के बारे में~~~
1520 ई. में दक्षिण भारत के विजयनगर राज्य में राजा कृष्णदेव राय हुआ करते थे। तेनाली राम उनके दरबार में अपने हास-परिहास से लोगों का मनोरंजन किया करते थे। उनकी खासियत थी कि गम्भीर से गम्भीर विषय को भी वह हंसते-हंसते हल कर देते थे।
उनका जन्म गुंटूर जिले के गलीपाडु नामक कस्बे में हुआ था। तेनाली राम के पिता बचपन में ही गुजर गए थे। बचपन में उनका नाम ‘राम लिंग’ था, चूंकि उनकी परवरिश अपने ननिहाल ‘तेनाली’ में हुई थी, इसलिए बाद में लोग उन्हें तेनाली राम के नाम से पुकारने लगे।
विजयनगर के राजा के पास नौकरी पाने के लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। कई बार उन्हें और उनके परिवार को भूखा भी रहना पड़ा, पर उन्होंने हार नहीं मानी और कृष्णदेव राय के पास नौकरी पा ही ली। तेनाली राम की गिनती राजा कृष्णदेव राय के आठ दिग्गजों में होती है।
तेनालीराम के तीर - सबसे कीमती वस्तु
एक युद्ध में विजय प्राप्त करने के उपरांत महाराज के मन में आया कि एक विजय स्तंभ की स्थापना कराई जाए। फौरन एक शिल्पी को यह कार्य सौंपा गया। जब विजय स्तंभ बनकर पूरा हुआ तो उसकी शोभा देखते ही बनती थी। शिल्पकला की वह अनूठी ही मिसाल थी।
महाराज ने शिल्पी को दरबार में बुलाकर पारिश्रमिक देकर कहा, ``इसके अतिरिक्त तुम्हारी कला से प्रसन्न होकर हम तुम्हें और भी कुछ देना चाहते हैं। जो चाहो, सो मांग लो।''
``अन्नदाता।'' सिर झुकाकर, शिल्पी बोला, ``आपने मेरी कला की इतनी अधिक प्रशंसा की है कि अब माँगने को कुछ भी शेष नहीं बचा। बस, आपकी कृपा बनी रहे, मेरी यही अभिलाषा है।''
``नहीं-नहीं, कुछ तो माँगना ही होगा।'' महाराज ने हठ पकड़ ली।
दरबारी शिल्पी को समझाकर बोले, ``अरे भई! जब महाराज अपनी खुशी से तुम्हें पुरस्कार देना चाहते हैं, तो इन्कार क्यों करते हो। जो जी चाहे माँग लो, ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते।'' शिल्पकार बड़ा ही स्वाभिमानी था। पारिश्रमिक के अतिरिक्त और कुछ भी लेना नहीं चाहता था। यह उसके स्वभाव के विपरीत था, किन्तु सम्राट भी जिद पर अड़े थे।
जब शिल्पकार ने देखा कि महाराज मान ही नहीं रहे हैं तो उसने अपने औजारों का थैला खाली करके, महाराज की ओर बढ़ा दिया और बोला, ``महाराज! यदि कुछ देना ही चाहते हैं, तो मेरा यह थैला संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु से भर दें।''
महाराज सोचने लगे,क्या दें इसे? कौन-सी चीज़ दुनिया में सबसे अनमोल है? अचानक उन्होंने पूछा, ``क्या तुम्हारे थैले को हीरे-जवाहरातों से भर दिया जाए?'' ``हीरे-जवाहरातों से बहुमूल्य भी कोई वस्तु हो सकती है महाराज।'' महाराज ने दरबारियों की ओर देखा, दरबारी स्वयं उलझन में थे कि हीरे-जवाहरात से भी कीमती क्या वस्तु हो सकती है।
अचानक महाराज को तेनालीराम की याद आई, जो आज दरबार में उपस्थित नहीं था। उन्होंने तुंत एक सेवक को तेनालीराम को बुलाने भेजा। कुछ देर बाद ही तेनालीराम दरबार में हाजिर था। रास्ते में उसने सेवक से सारी बात मालूम कर ली थी कि क्या समस्या है और महाराज ने क्यों बुलाया है। तेनालीराम के आते ही महाराज ने उसे पूरी बात बताकर पूछा, ``अब तुम्हीं बताओ, संसार में सबसे मूल्यवान वस्तु कौन-सी है, जो इस कलाकार को दी जाए?''
``वह वस्तु भी मिल जायेगी महाराज! मैं अभी इसका झोला भरता हूँ।'' यह कह कर तेनालीराम ने शिल्पी के हाथ से झोला लेकर उसका मुँह खोला और तीन-चार बार तेजी से ऊपर-नीचे किया। फिर उसका मुँह बाँधकर शिल्पकार को देकर बोला, ``लो, मैंने इसमें संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु भर दी है।''
शिल्पकार प्रसन्न हो गया। उसने झोला उठाकर महाराज को प्रणाम किया और दरबार से चला गया। महाराज सहित सभी दरबारी हक्के-बक्के-से थे कि तेनालीराम ने उसे ऐसी क्या चीज़ दी है, जो वह इस कदर खुश होकर गया है। उसके जाते ही महाराज ने तेनालीराम से पूछा, ``तुमने झोले में तो कोई वस्तु भरी ही नहीं थी, फिर शिल्पकार चला कैसे गया?''
``महाराज! आपने देखा नहीं, मैंने उसके झोले में हवा भरी थी। हवा संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु है। उसके बिना संसार में कुछ भी संभव नहीं। उसके बिना प्राणी जीवित नहीं रह सकता। न आग जले, न पानी बहे। किसी कलाकार के लिए तो हवा का महत्व और भी अधिक है। कलाकार की कला को हवा न दी जाए तो कला और कलाकार दोनों ही दम तोड़ दें।''
महाराज ने तेनालीराम की पीठ थपथपाई और अपने गले की बहुमूल्य माला उतार कर तेनालीराम के गले में डाल दी।
गुलाब का फूल
तेनाली राम की पत्नी को गुलाब के फूलों का बहुत शौक था। वह तेनाली राम से चोरी-चोरी अपने बेटे को राजा के बाग में भेजा करती। वह वहां से एक गुलाब का फूल तोड़ लाता, जिसे तेनाली राम की पत्नी अपने बालों में लगा लिया करती।
दरबार में तेनाली राम के कई शत्रु थे। उन्हें किसी तरह यह बात पता चल गई, लेकिन राजा से कहने का साहस उनमें नहीं था। वह जानते थे कि तेनाली राम अपनी सूझबूझ के बल पर अपने बेटे को बचा लेगा और उन्हें बेवकूफ बनना पड़ेगा।
उन्होंने सोचा कि तेनाली राम के बेटे को रंगे हाथों पकड़ना चाहिए। एक दिन उन्हें अपने जासूसों से पता चला कि तेनाली राम का बेटा फूल तोड़ने के लिए बगीचे में आया हुआ है। फिर क्या था, उन्होंने राजा से शिकायत की ओर कहा, “महाराज, हम अभी उस चोर को आपके सामने उपस्थित करेंगे।”
वे लोग बगीचे के मुख्य द्वार पर जाकर खड़े हो गए। बाग के दूसरे सभी द्वारों पर भी आदमी खड़े कर दिए गए। उन्हें तेनाली राम के बेटे के पकड़े जाने का इतना यकीन था कि वे तेनाली राम को भी अपने साथ ले गए थे। उन्होंने बड़ा रस ले लेकर तेनाली राम को बताया कि अभी उसका बेटा रंगे हाथों पकड़ा जाएगा और उसे राजा के सामने पेश किया जाएगा। उनमें से एक बोला, “कहो तेनाली राम अब तुम्हें क्या कहना है?”
“मुझे क्या कहना है?” तेनाली राम ने चिल्लाते हुए कहा, “मेरे बेटे के पास अपनी बात कहने के लिए जबान है। वह स्वयं ही जो कहना होगा, कह लेगा। मेरा अपना विचार तो यह है कि वह अवश्य मेरी पत्नी की दवा के लिए जड़ें लेने गया होगा, गुलाब का फूल लेने नहीं।”
तेनाली राम के बेटे ने बगीचे के अंदर ये शब्द सुन लिए, जिन्हें तेनाली राम ने उसे सुनाने के लिए ही ऊंची आवाज में कहा था। वह अपने पिता की बात का मतलब समझ गया। उसने झट से गुलाब का फूल मुंह में डाल लिया और उसे खा गया। फिर उसने बाग में से कुछ जड़ें इकट्ठी की ओर उन्हें झोली में डालकर बाग के द्वार तक पहुंचा। तेनाली राम के शत्रु दरबारियों ने उसे एकदम पकड़ लिया और उसे राजा के पास ले गए।
“महाराज, इसने अपनी झोली में आपके बाग से चुराए गए गुलाब के फूल छिपा रखे हैं।” दरबारियों ने कहा। “गुलाब के फूल, कैसे गुलाब के फूल?” तेनालीराम के बेटे ने कहा, “ये तो मेरी मां की दवा के लिए जड़ें हैं।” उसने झोली खोलकर जड़ें दिखा दीं। दरबारियों के सिर शर्म से झुक गए। राजा ने तेनाली राम से क्षमा मांगी और उसके बेटे को बहुत-सी भेंट देकर घर भेज दिया।
तेनालीराम की घोषणा~~~
एक बार राजा कृष्णदेव राय से पुरोहित ने कहा, ‘महाराज, हमें अपनी प्रजा के साथ सीधे जुड़ना चाहिए।’ पुरोहित की बात सुनकर सभी दरबारी चौंक पड़े। वे पुरोहित की बात समझ न पाए।
तब पुरोहित ने अपनी बात को समझाते हुए उन्हें बताया, ‘दरबार में जो भी चर्चा होती है, हर सप्ताह उस चर्चा की प्रमुख बातें जनता तक पहुँचाई जाएँ। प्रजा भी उन बातों को जानें।’ मंत्री ने कहा, ‘महाराज, विचार तो वास्तव में बहुत उत्तम है। तेनालीराम जैसे अकलमंद और चतुर व्यक्ति ही इस कार्य को सुचारु रूप से कर सकते हैं। साथ ही तेनालीराम पर दरबार की विशेष जिम्मेदारी भी नहीं है।’
राजा ने मंत्री की बात मान ली और तेनालीराम को यह काम सौंप दिया। तय किया गया-तेनालीराम जनहित और प्रजा-हित की सारी बातें, जो राजदरबार में होंगी, लिखित रूप से दरोगा को देंगे। दरोगा नगर के चौराहों पर मुनादी कराकर जनता और प्रजा को उन बातों की सूचनाएँ देगा।
तेनालीराम सारी बात समझ गया था। वह यह भी समझ गया था कि मंत्री ने उसे जबरदस्ती फँसाया है। तेनालीराम ने भी अपने मन में एक योजना बनाई। सप्ताह के अंत में उसने मुनादी करने के लिए दरोगा को एक पर्चा थमा दिया। दरोगा ने पर्चा मुनादी वाले को पकड़ाकर कहा, ‘जाओ और मुनादी करा दो।’
मुनादी वाला सीधा चौराहे पर पहुँचा और ढोल पीट-पीटकर मुनादी करते हुए बोला, ‘सुनो-सुनो, नगर के सारे नागरिकों सुनो।’ महाराज चाहते हैं कि दरबार में जनहित के लिए जो फैसले किए गए हैं, उन्हें सारे नगरवासी जानें। उन्होंने श्रीमान तेनालीराम को यह कठिन काम सौंपा है। हम उन्हीं की आज्ञा से आपको यह समाचार सुना रहे हैं। ध्यान देकर सुनो।
महाराज चाहते हैं कि प्रज्ञा और जनता के साथ पूरा न्याय हो। अपराधी को दंड मिले। इस मंगलवार को राजदरबार में इसी बात को लेकर काफी गंभीर चर्चा हुई। महाराज चाहते थे कि पुरानी न्याय-व्यवस्था की अच्छी और साफ-सुथरी बातें भी इस न्याय प्रणाली में शामिल की जाएँ।
इस विषय में उन्होंने पुरोहित जी से पौराणिक न्याय-व्यवस्था के बारे में जानना चाहा किंतु पुरोहित जी इस बारे में कुछ न बता सके, क्योंकि वह दरबार में बैठे ऊँघ रहे थे। उन्हें इस दशा में देखकर राजा कृष्णदेव राय को गुस्सा आ गया। उन्होंने भरे दरबार में पुरोहित जी को फटकारा।
गुरुवार को सीमाओं की सुरक्षा पर राजदरबार में चर्चा हुईं किंतु सेनापति उपस्थित न थे, इस कारण सीमाओं की सुरक्षा की चर्चा आगे न हो सकी। राजा ने मंत्री को कड़े आदेश दिए हैं कि राजदरबार में सारे सभासद ठीक समय पर आएँ।’
यह कहकर मुनादी वाले ने ढोल बजा दिया। इस प्रकार हर सप्ताह नगर में जगह-जगह मुनादी होने लगी। हर मुनादी में तेनालीराम की चर्चा हर जगह होती थी। तेनालीराम की चर्चा की बात मंत्री,सेनापति और पुरोहित के कानों में भी पहुँची। वे तीनों बड़े चिंतित हो गए,कहने लगे,‘तेनालीराम ने सारी बाजी ही उलटकर रख दी। जनता समझ रही है कि वह दरबार में सबसे प्रमुख हैं। वह जानबूझकर हमें बदनाम कर रहा है।’
दूसरे ही दिन जब राजा दरबार में थे तो मंत्री ने कहा, ‘महाराज, हमारा संविधान कहता है कि राजकाज की समस्त बातें गोपनीय होती हैं। उन बातों को जनता या प्रजा को बताना ठीक नहीं।’
तभी तेनालीराम बोल पड़ा, ‘बहुत अच्छे मंत्री जी, आपको शायद उस दिन यह बात याद नहीं थी। आपको भी तभी याद आया, जब आपके नाम का ढोल पिट गया।’
यह सुनकर सारे दरबारी हँस पड़े। बेचारे मंत्री जी की शक्ल देखने लायक थी। राजा कृष्णदेव राय भी सारी बात समझ गए। वह मन ही मन तेनालीराम की सराहना कर रहे थे।
तेनालीराम और बहुरूपिया~~~
तेनालीराम के कारनामों से राजगुरु बहुत परेशान थे। हर दूसरे-तीसरे दिन उन्हें तेनालीराम के कारण नीचा देखना पड़ता था। वह सारे दरबार में हँसी का पात्र बनता था। उन्होंने सोचा कि यह दुष्ट कई बार महाराज के मृत्युदंड से भी बच निकला है। इससे छुटकारा पाने का केवल एक ही रास्ता है कि मैं स्वयं इसको किसी तरह मार दूँ।
उन्होंने मन ही मन एक योजना बनाई। राजगुरु कुछ दिनों के लिए तीर्थयात्रा के बहाने नगर छोड़कर चले गए और एक जाने-माने बहुरुपिए के यहाँ जाकर उससे प्रशिक्षण लेने लगे। कुछ समय में वे बहुरुपिए के सारे करतब दिखाने में कुशल हो गए।
वे बहुरुपिए के वेश में ही वापस नगर चले आए और दरबार में पहुँचे। उन्होंने राजा से कहा कि वे तरह-तरह के करतब दिखा सकते है। राजा बोले, ‘तुम्हारा सबसे अच्छा स्वांग कौन-सा है?’
बहुरुपिए ने कहा, ‘मैं शेर का स्वांग बहुत अच्छा करता हूँ, महाराज। लेकिन उसमें खतरा है। उसमें कोई घायल भी हो सकता है और मर भी सकता है। इस स्वांग के लिए आपको मुझे एक खून माफ करना पड़ेगा।’
महाराज ने उनकी शर्त मान ली। ‘एक शर्त और है महाराज। मेरे स्वांग के समय तेनालीराम भी दरबार में अवश्य उपस्थित रहे,’ बहुरुपिया बोला। ‘ठीक है, हमें यह शर्त भी स्वीकार है,’ महाराज ने सोचकर उत्तर दिया।
इस शर्त को सुनकर तेनालीराम का माथा ठनका। उसे लगा कि यह अवश्य कोई शत्रु है, जो स्वांग के बहाने मेरी हत्या करना चाहता है। अगले दिन स्वांग होना था। तेनालीराम अपने कपड़ों के नीचे कवच पहनकर आया ताकि अगर कुछ गड़बड़ हो तो वह अपनी रक्षा कर सके। स्वांग शुरू हुआ।
बहुरुपिए की कला का प्रदर्शन देखकर सभी दंग थे। कुछ देर तक उछलकूद करने के बाद अचानक बहुरुपिया तेनालीराम के पास पहुँचा और उस पर झपट पड़ा। तेनालीराम तो पहले से ही तैयार था। उसने धीरे से अपने हथनखे से उस पर वार किया। तिलमिलाता हुआ बहुरुपिया उछलकर जमीन पर गिर पड़ा।
तेनालीराम पर हुए आक्रमण से राजा भी एकदम घबरा गए थे। कहीं तेनालीराम को कुछ हो जाता तो? उन्हें बहुरुपिए की शर्तों का ध्यान आया। एक खून की माफी और तेनालीराम के दरबार में उपस्थित रहने की शर्त। अवश्य दाल में कुछ काला है।
उन्होंने तेनालीराम को अपने पास बुलाकर पूछा, ‘तुम ठीक हो ना? घाव तो नहीं हुआ?’ तेनालीराम ने महाराज को कवच दिखा दिया। उसे एक खरोंच भी न आई थी। महाराज ने पूछा, ‘क्या तुम्हें इस व्यक्ति पर संदेह था, जो तुम कवच पहनकर आए हो?’
‘महाराज, अगर इसकी नीयत साफ होती तो यह दरबार में मेरे उपस्थित रहने की शर्त न रखता,’ तेनालीराम ने कहा। महाराज बोले, ‘इस दुष्ट को मैं दंड देना चाहता हूँ। इसने तुम्हारे प्राण लेने का प्रयत्न किया है। मैं इसे अभी फाँसी का दंड दे सकता हूँ लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम स्वयं इससे बदला लो।’
‘जी हाँ, मैं स्वयं ही इसको मजा चखाऊँगा।’ तेनालीराम गंभीरता से बोला।‘वह कैसे?’ महाराज ने पूछा। ‘बस आप देखते जाइए’, तेनालीराम ने उत्तर दिया।
फिर तेनालीराम ने बहुरुपिए से कहा, ‘महाराज, तुम्हारी कला से बहुत प्रसन्न हैं। वह चाहते हैं कि कल तुम सती स्त्री का स्वांग दिखाओ। अगर उसमें तुम सफल हो गए तो महाराज की ओर से तुम्हें पुरस्कार के रूप में पाँच हजार स्वर्णमुद्राएँ भेंट की जाएँगी।’
बहुरुपिए के वेश में छिपे राजगुरु ने मन ही मन कहा कि इस बार तो बुरे फँसे, लेकिन अब स्वांग दिखाए बिना चारा भी क्या था? तेनालीराम ने एक कुंड बनवाया। उसमें बहुत-सी लकड़ियाँ जलवा दी गईं। वैद्य भी बुलवा लिए गए कि शायद तुरंत उपचार की आवश्यकता पड़े।
बहुरुपिया सती का वेश बनाकर पहुँचा। उसका पहनावा इतना सुंदर था कि कोई कह नहीं सकता था कि वह असली स्त्री नहीं है। आखिर उसे जलते कुंड में बैठना ही पड़ा। कुछ पलों में ही लपटों में उसका सारा शरीर झुलसने लगा। तेनालीराम से यह देखा न गया। उसे दया आ गई। उसने बहुरुपिए को कुंड से बाहर निकलवाया। राजगुरु ने एकदम अपना असली रूप प्रकट कर दिया और तेनालीराम से क्षमा माँगने लगे।
तेनालीराम ने हँसते हुए उसे क्षमा कर दिया और उपचार के लिए वैद्यों को सौंप दिया। कुछ ही दिनों में राजगुरु स्वस्थ हो गया। उसने तेनालीराम से कहा, ‘आज के बाद मैं कभी तुम्हारे लिए मन में शत्रुता नहीं लाऊँगा। तुम्हारी उदारता ने मुझे जीत लिया है। आज से हमें दोनों अच्छे मित्र की तरह रहेंगे।’
तेनालीराम ने राजगुरु को गले लगा लिया। उसके बाद तेनालीराम और राजगुरु में कभी मनमुटाव नहीं हुआ।
(साभार: तेनालीराम का हास-परिहास, डायमंड प्रकाशन, सर्वाधिकार सुरक्षित।)
सीमा की चौकसी~~~
विजयनगर में पिछले कई दिनों से तोड़-फोड़ की घटनाएँ बढ़ती जा रही थीं। राजा कृष्णदेव राय इन घटनाओं से काफी चिंतित हो उठे। उन्होंने मंत्रिपरिषद की बैठक बुलाई और इन घटनाओं को रोकने का उपाय पूछा।
‘पड़ोसी दुश्मन देश के गुप्तचर ही यह काम कर रहे हैं। हमें उनसे नर्मी से नहीं, सख्ती से निबटना चाहिए।’ सेनापति का सुझाव था। ‘सीमा पर सैनिक बढ़ा दिए जाने चाहिए ताकि सीमा की सुरक्षा ठीक प्रकार से हो सके।’ मंत्री जी ने सुझाया।
राजा कृष्णदेव राय ने अब तेनालीराम की ओर देखा। ‘मेरे विचार में तो सबसे अच्छा यही होगा कि समूची सीमा पर एक मजबूत दीवार बना दी जाए और वहां हर समय सेना के सिपाही गश्त करें।’ तेनालीराम ने अपना सुझाव दिया। मंत्री जी के विरोध के बावजूद राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम का यह सुझाव सहर्ष मान लिया।
सीमा पर दीवार बनवाने का काम भी उन्होंने तेनालीराम को ही सौंप दिया और कहा दिया कि छह महीने के अंदर पूरी दीवार बन जानी चाहिए। इसी तरह दो महीने बीत गए लेकिन दीवार का काम कुछ आगे नहीं बढ़ सका। राजा कृष्णदेव राय के पास भी यह खबर पहुँची। उन्होंने तेनालीराम को बुलवाया और पूछताछ की।
मंत्री भी वहाँ उपस्थित था। ‘तेनालीराम, दीवार का काम आगे क्यों नहीं बढ़ा?’ ‘क्षमा करें महाराज, बीच में एक पहाड़ आ गया है, पहले उसे हटवा रहा हूँ।’ ‘पहाड़...पहाड़ तो हमारी सीमा पर है ही नहीं।’ राजा बोले। तभी बीच में मंत्री जी बोल उठे-‘महाराज, तेनालीराम पगला गया है।’
तेनालीराम मंत्री की फब्ती सुनकर चुप ही रहे। उन्होंने मुस्कुराकर ताली बजाई। ताली बजाते ही सैनिकों से घिरे बीस व्यक्ति राजा के सामने लाए गए। ‘ये लोग कौन है?’ राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम ने पूछा।
‘पहाड़! तेनालीराम बोला-‘ये दुश्मन देश के घुसपैठिए हैं महाराज। दिन में जितनी दीवार बनती थी, रात में ये लोग उसे तोड़ डालते थे। बड़ी मुश्किल से ये लोग पकड़ में आए हैं। काफी तादाद में इनसे हथियार भी मिले हैं। पिछले एक महीने में इनमें से आधे पाँच-पाँच बार पकड़े भी गए थे, मगर...।’
‘इसका कारण मंत्री जी बताएँगे इन्हें दंड क्यों नहीं दिया गया?’ क्योंकि इन्हीं की सिफारिश पर इन लोगों को हर बार छोड़ा गया था।’ तेनालीराम ने कहा। यह सुनकर मंत्री के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। राजा कृष्णदेव राय सारी बात समझ गए। उन्होंने सीमा की चौकसी का सारा काम मंत्री से ले लिया और तेनालीराम को सौंप दिया।
मनहूस कौन~~~
रामैया नाम के आदमी के विषय में नगर-भर में यह प्रसिद्ध था कि जो कोई प्रातः उसकी सूरत देख लेता था, उसे दिन-भर खाने को नहीं मिलता था। इसलिए सुबह-सुबह कोई उसके सामने आना पसंद नहीं करता था।
किसी तरह यह बात राजा कृष्णदेव राय तक पहुँच गई। उन्होंने सोचा, ‘इस बात की परीक्षा करनी चाहिए।’ उन्होंने रामैया को बुलवाकर रात को अपने साथ के कक्ष में सुला दिया और दूसरे दिन प्रातः उठने पर सबसे पहले उसकी सूरत देखी।
दरबार के आवश्यक काम निबटाने के बाद राजा जब भोजन के लिए अपने भोजन कक्ष में गए तो भोजन परोसा गया। अभी राजा ने पहला कौर ही उठाया था कि खाने में मक्खी दिखाई दी। देखते-ही-देखते उनका मन खराब होने लगा और वह भोजन छोड़कर उठ गए। दोबारा भोजन तैयार होते-होते इतना समय बीत गया कि राजा की भूख ही मिट गई।
राजा ने सोचा-‘अवश्य यह रामैया मनहूस है, तभी तो आज सारा दिन भोजन नसीब नहीं हुआ।’ क्रोध में आकर राजा ने आज्ञा दी कि इस मनहूस को फाँसी दे दी जाए। राज्य के प्रहरी उसे फाँसी देने के लिए ले चले। रास्ते में उन्हें तेनालीराम मिला। उसने पूछा तो रामैया ने उसे सारी बात कह सुनाई।
तेनालीराम ने उसे धीरज बँधाया और उसके कान में कहा, ‘तुम्हें फाँसी देने से पहले ये तुम्हारी अंतिम इच्छा पूछेंगे। तुम कहना, ‘मैं चाहता हूँ कि मैं जनता के सामने जाकर कहूँ कि मेरी सूरत देखकर तो खाना नहीं मिलता, पर जो सवेरे-सवेरे महाराज की सूरत देख लेता है, उसे तो अपने प्राण गँवाने पड़ते हैं।’
यह समझाकर तेनालीराम चला गया। फाँसी देने से पहले प्रहरियों ने रामैया से पूछा, ‘तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है?’ रामैया ने वही कह दिया, जो तेनालीराम ने समझाया था। प्रहरी उसकी अनोखी इच्छा सुनकर चकित रह गए। उन्होंने रामैया की अंतिम इच्छा राजा को बताई।
सुनकर राजा सन्न रह गए। अगर रामैया ने लोगों के बीच यह बात कह दी तो अनर्थ हो जाएगा। उन्होंने रामैया को बुलवाकर बहुत-सा पुरस्कार दिया और कहा-‘यह बात किसी से मत कहना।’
तेनालीराम और राजा का तोता~~~
किसी ने महाराज कृष्णदेव राय को एक तोता भेंट किया। वह तोता बड़ी भली और सुंदर-सुंदर बातें करता था। वह लोगों के प्रश्नों के उत्तर भी देता था। राजा को वह तोता बहुत पसंद था।
उन्होंने उसे पालने और उसकी रक्षा का भार अपनी एक विश्वासी नौकर को सौंपते हुए कहा-‘इस तोते की सारी जिम्मेदारी अब तुम्हारी है। इसका पूरा ध्यान रखना। तोता मुझे बहुत प्यारा है। इसे कुछ हो गया तो याद रखो, तुम्हारे हक में वह ठीक नहीं होगा। अगर तुमने या किसी और ने कभी आकर मुझे यह समाचार दिया कि यह तोता मर गया है, तो तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोने पड़ेंगे।’
उस नौकर ने तोते की खूब देखभाल की। हर तरह से उसकी सुख-सुविधा का ध्यान रखा, पर तोता बेचारा एक दिन चल बसा। बेचारा नौकर थर-थर काँपने लगा। सोचने लगा कि अब मेरी जान की खैर नहीं। वह जानता था कि तोते की मौत का समाचार सुनते ही क्रोध में महाराज उसे मृत्युदंड दे देंगे।
बहुत दिन सोचने पर उसे एक ही रास्ता सुझाई दिया। तेनालीराम के अलावा कोई उसकी रक्षा नहीं कर सकता था। वह दौड़ा-दौड़ा तेनालीराम के पास पहुँचा और उन्हें सारी बात कह सुनाई।
तेनालीराम ने कहा-‘बात सचमुच बहुत ही गंभीर है। वह तोता महाराज को बहुत प्यारा था, पर तुम चिंता मत करो। मैं कुछ उपाय निकाल ही लूँगा। तुम शांत रहो। तोते के बारे में तुम्हें महाराज से कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं सँभाल लूँगा।’
तेनालीराम महाराज के पास पहुँचा और घबराया हुआ बोला, ‘महाराज आपका वह तोता....!’ ‘क्या हुआ तोते को?तुम इतने घबराए हुए क्यों हो तेनालीराम? बात क्या है?’ महाराज ने पूछा।
‘महाराज, आपका वह तोता तो अब बोलता ही नहीं। बिलकुल चुप हो गया है। न कुछ खाता है, न पीता है, न पंख हिलाता है। बस सूनी-सूनी आँखों से ऊपर की ओर देखता रहता है। उसकी आँखें तक झपकती नहीं।’ तेनालीराम ने कहा।
महाराज तेनालीराम की बात सुनकर बहुत हैरान हुआ। वह स्वयं तोते के पिंजरे के पास पहुँचे। उन्होंने देखा कि तोते के प्राण निकल चुके हैं। झुँझलाते हुए वे तेनालीराम से बोले-‘तुमने सीधी तरह से यह क्यों नहीं कह दिया कि तोता मर गया है। तुमने सारी महाभारत सुना दी, पर असली बात नहीं कही।’
‘महाराज, आप ही ने तो कहा था कि अगर तोते के मरने का समाचार आपको दिया गया तो तोते के रखवाले को मृत्युदंड दे दिया जाएगा। अगर मैंने आपको यह समाचार दे दिया होता, तो वह बेचारा नौकर अब तक मौत के घाट उतार दिया गया होता।’ तेनालीराम ने कहा।
राजा इस बात से बहुत प्रसन्न थे कि तेनालीराम ने उन्हें एक निर्दोष व्यक्ति को मृत्युदंड देने से बचा लिया था।
तेनालीराम और लाल मोर~~~
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय को अनोखी चीजों को जमा करने का बहुत शौक था। हर दरबारी उन्हें खुश करने के लिए ऐसी ही चीजों की खोज में लगे रहते थे, ताकि राजा को खुश कर उनसे मोटी रकम वसूल सके।
एक बार कृष्णदेव राय के दरबार में एक दरबारी ने एक मोर को लाल रंग में रंग कर पेश किया और कहा, “महाराज इस लाल मोर को मैंने बहुत मुश्किल से मध्य प्रदेश के घने जंगलों से आपके लिए पकड़ा है।” राजा ने बहुत गौर से मोर को देखा। उन्होंने लाल मोर कहीं नहीं देखा था।
राजा बहुत खुश हुए...उन्होंने कहा, “वास्तव में आपने अद्भुत चीज लाई है। आप बताएं इस मोर को लाने में कितना खर्च पड़ा।” दरबारी अपनी प्रशंसा सुनकर आगे की चाल के बारे में सोचने लगा।
उसने कहा, “मुझे इस मोर को खोजने में करीब पच्चीस हजार रुपए खर्च करने पड़े।”
राजा ने तीस हजार रुपए के साथ पांच हजार पुरस्कार राशि की भी घोषणा की। राजा की घोषणा सुनकर एक दरबारी तेनालीराम की तरफ देखकर मुस्कराने लगा।
तेनालीराम उसकी कुटिल मुस्कराहट देखकर समझ गए कि यह जरूर उस दरबारी की चाल है। वह जानते थे कि लाल रंग का मोर कहीं नहीं होता। बस फिर क्या था, तेनालीराम उस रंग विशेषज्ञ की तलाश में जुट गए।
दूसरे ही दिन उन्होंने उस चित्रकार को खोज निकाला। वे उसके पास चार मोर लेकर गए और उन्हें रंगवाकर राजा के सामने पेश किया।
“महाराज हमारे दरबारी मित्र, पच्चीस हजार में केवल एक मोर लेकर आए थे, पर मैं उतने में चार लेकर आया हूं।”
वाकई मोर बहुत खूबसूरत थे। राजा ने तेनालीराम को पच्चीस हजार रुपए देने की घोषणा की। तेनाली राम ने यह सुनकर एक व्यक्ति की तरफ इशारा किया, “महाराज अगर कुछ देना ही है तो इस चित्रकार को दें। इसी ने इन नीले मोरों को इतनी खूबसूरती से रंगा है।”
राजा को सारा गोरखधंधा समझते देर नहीं लगी। वह समझ गए कि पहले दिन दरबारी ने उन्हें मूर्ख बनाया था।
राजा ने उस दरबारी को पच्चीस हजार रुपए लौटाने के साथ पांच हजार रुपए जुर्माने का आदेश दिया। चित्रकार को उचित पुरस्कार दिया गया। दरबारी बेचारा क्या करता, वह बेचारा सा मुंह लेकर रह गया।
तेनालीराम को मौत की सजा~~~
बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिलशाह को डर था कि राजा कृष्णदेव राय अपने प्रदेश रायचूर और मदकल को वापस लेने के लिए हम पर हमला करेंगे। उसने सुन रखा था कि वैसे राजा ने अपनी वीरता से कोडीवडु, कोंडपल्ली, उदयगिरि, श्रीरंगपत्तिनम, उमत्तूर, और शिवसमुद्रम को जीत लिया था।
सुलतान ने सोचा कि इन दो नगरों को बचाने का एक ही उपाय है कि राजा कृष्णदेव राय की हत्या करवा दी जाए। उसने बड़े इनाम का लालच देकर तेनालीराम के पुराने सहपाठी और उसके मामा के संबंधी कनकराजू को इस काम के लिए राजी कर लिया।
कनकराजू तेनालीराम के घर पहुँचा। तेनालीराम ने अपने मित्र का खुले दिल से स्वागत किया। उसकी खूब आवभगत की और अपने घर में उसे ठहराया। एक दिन जब तेनालीराम काम से कहीं बाहर गया हुआ था, कनकराजू ने राजा को तेनालीराम की तरफ से संदेश भेजा-‘आप इसी समय मेरे घर आएँ तो आपको ऐसी अनोखी बात दिखाऊँ, जो आपने जीवनभर न देखी हो।
राजा बिना किसी हथियार के तेनालीराम के घर पहुँचे। अचानक कनकराजू ने छुरे से उन पर वार कर दिया। इससे पहले कि छुरे का वार राजा को लगता, उन्होंने कसकर उसकी कलाई पकड़ ली। उसी समय राजा के अंगरक्षकों के सरदार ने कनकराजू को पकड़ लिया और वहीं उसे ढेर कर दिया।
कानून के अनुसार, राजा को मारने की कोशिश करने वाले को जो व्यक्ति आश्रय देता था, उसे मृत्युदंड दिया जाता था। तेनालीराम को भी मृत्युदंड सुनाया गया। उसने राजा से दया की प्रार्थना की।
राजा ने कहा, ‘मैं राज्य के नियम के विरुद्ध जाकर तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता। तुमने उस दुष्ट को अपने यहाँ आश्रय दिया। तुम कैसे मुझसे क्षमा की आशा कर सकते हो? हाँ, यह हो सकता है कि तुम स्वयं फैसला कर लो, तुम्हें किस प्रकार की मृत्यु चाहिए?’
‘मुझे बुढ़ापे की मृत्यु चाहिए, महाराज।’ तेनालीराम ने कहा। सभी आश्चर्यचकित थे। राजा हँसकर बोले, ‘इस बार भी बच निकले तेनालीराम।’
मकान का दान
एक बार राजा कृष्णदेव राय ने तेनाली राम से कहा, “धनी आदमी को चाहिए कि वह दान करता रहे। जो दूसरों के लिए कुछ नहीं करता, वह भी कोई मनुष्य है? इतने धनवान हो, किसी ब्राह्मण को एक मकान ही दे डालो।” “जैसा महाराज चाहें।” तेनाली राम ने कहा।
उसने एक सुन्दर-सा, छोटा-सा मकान बनवाया, जिसके चारों ओर फूलों का बाग था। उसके मुख्य द्वार पर उसने यह घोषणा लिखवा दी। “यह मकान उस ब्राह्मण को दिया जाएगा, जिसे अपने हाल पर संतोष होगा।” बहुत दिनों तक मकान का दान पाने कोई नहीं आया।
अंत में एक ब्राह्मण ने आकर तेनाली राम से कहा, “मैं अपने हाल पर बिल्कुल संतुष्ट हूं, इसलिए यह मकान मुझे दान दे दीजिए।” “तुम केवल लालची ही नहीं, झूठे और मूर्ख भी हो। तुम्हें सीधे-सादे शब्दों का अर्थ भी नहीं मालूम।
अगर तुम्हें अपने हाल पर संतोष होता, तो तुम यह मकान मांगने आते ही क्यों? तुम्हें मकान दान करके अपने वचनों से फिरना पड़ेगा और फिर यह दुख भी बना रहेगा कि मैंने मकान का दान एक मूर्ख व्यक्ति को दे दिया। तुम यहां से जा सकते हो।”
इस तरह तेनाली राम का मकान कभी दान नहीं दिया जा सका। तेनाली राम ही उसका मालिक बना रहा।
सुनहरा हिरन
ढलती हुई ठंड का सुहाना मौसम था। राजा कृष्णदेव राय वन-विहार के लिए चल पड़े। साथ में कुछ दरबारी और सैनिक भी चल पड़े। शहर से दूर जंगल में डेरा डाला गया। कभी गीत-संगीत की महफिल जमती तो कभी किस्से-कहानियों का दौर चल पड़ता। इसी तरह मौज-मस्ती में कई दिन गुजर गए।
एक दिन राजा कृष्णदेव राय अपने दरबारियों से बोले, ‘जंगल में आए हैं तो शिकार जरूर करेंगे।’ तुरंत शिकार की तैयारियां हो गईं। राजा कृष्णदेव राय तलवार और तीर-कमान लेकर घोड़े पर बैठकर शिकार के लिए निकल पड़े। मंत्री और दरबारी अपने घोड़ों पर उनके साथ थे।
तेनालीराम भी जब उन सबके साथ चलने लगा तो मंत्री बोला, ‘महाराज, तेनालीराम को अपने साथ ले जाकर क्या करेंगे। यह तो अब बूढ़े हो गए हैं, इन्हें यहीं रहने दिया जाए। हमारे साथ चलेंगे तो बेचारे थक जाएंगे।’
इस बात पर सारे दरबारी हंस पड़े लेकिन तेनालीराम क्योंकि राजा को बड़े प्रिय थे, इसलिए तेनालीराम को भी अपने साथ ले लिया। थोड़ी देर का सफर तय करके सब लोग जंगल में पहुंच गए। तभी राजा कृष्णदेव राय को एक सुनहरा हिरन दिखाई दिया। राजा ने उसका पीछा किया और पीछा करते-करते वह घने जंगल में पहुंच गए, राजा घनी झाड़ियों के बीच बढ़ते जा रहे थे।
एक जगह पर आकर उन्हें सुनहरा हिरन अपने बहुत ही पास दिखाई दिया तो उन्होंने निशाना साधा। घोड़ा अभी भी दौड़ता जा रहा था। राजा कृष्णदेव राय तीर चलाने ही वाले थे कि अचानक तेनालीराम जोर से चिल्लाया-‘रुक जाइए, महाराज, इसके आगे जाना ठीक नहीं।’ राजा कृष्णदेव राय ने फौरन घोड़ा रोका।
इतने में हिरन निकल गया। राजा को बहुत गुस्सा आया। वह तेनालीराम पर बरस पड़े-‘तेनालीराम, तुम्हारी वजह से हाथ में आया शिकार निकल गया। तुमने हमें क्यों रोका?’ मंत्री और अन्य दरबारियों ने भी फबती कसी, ‘महाराज, तेनालीराम डरते हैं। वह डरपोक हैं, इसीलिए तो हम उन्हें अपने साथ न लाने के लिए कह रहे थे।’
तभी तेनालीराम को न जाने क्या सूझा। बोले, ‘महाराज, जरा मंत्री जी इस पेड़ पर चढ़कर हिरन को देखें तभी कुछ कहूंगा या बताऊंगा।’ राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री जी को पेड़ पर चढ़कर हिरन को देखने का आदेश दिया। मंत्री जी पेड़ पर चढ़े तो उन्होंने एक विचित्र दृश्य देखा।
हिरन जंगली झाड़ियों के बीच फंसा जोर-जोर से उछल रहा था। उसका सारा शरीर लहूलुहान हो गया था। ऐसा लगता था जैसे जंगली झाड़ियों ने उसे अपने पास खींच लिया हो। वह हिरन अपना भरपूर जोर लगाकर झाड़ियों से छूटने की कोशिश कर रहा था। आखिरकार बड़ी मुश्किल से वह अपने आपको उन झाड़ियों से छुड़ा पाया था, या यूं कह लीजिए कि बड़ी मुश्किल से अपनी जान छुड़ा पाया था।
मंत्री ने यह सारी बात राजा को बताई। राजा यह सब सुनकर हैरान रह गए और बोले, ‘तेनालीराम, यह सब क्या है?’ ‘महाराज, यहां से आगे खतरनाक झाड़ियां हैं। इनके कांटे शरीर में चुभकर प्राणियों का खून पीने लगते हैं। जो जीव इनकी पकड़ में आया-वह अधमरा होकर ही इनसे छूटा।
पेड़ से मंत्री जी ने स्वयं लहूलुहान हिरन को देख लिया। इसीलिए महाराज, मैं आपको रोक रहा था।’ राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री और दरबारियों की ओर आश्चर्य से देखा और कहा, ‘देखा, तुम लोगों ने, तेनालीराम को साथ लाना क्यों जरूरी था?’ मंत्री और सारे दरबारी अपना-सा मुंह लेकर रह गए और एक-दूसरे की ओर ताकने लगे।
संन्यासी का बूढ़ा खजूर
एक बार तेनाली राम के गांव में भयंकर सूखा पड़ा। पीने के लिए पानी मिलना मुश्किल हो गया। लोग बेहद दुखी थे। जब सूखा पूरे जोरों पर था तो एक दिन एक संन्यासी कहीं से गांव आ पहुंचा। अभी उस संन्यासी ने गांव में प्रवेश किया ही था कि एकाएक मूसलाधार वर्षा होने लगी। अंधविश्वासी भक्तों ने समझा कि यह सब संन्यासी के आने का ही प्रभाव है।
बस फिर क्या था! लोग संन्यासी के पास आने लगे। वे लोग उसे चढ़ावा चढ़ाने लगे, उसके गुण गाने लगे। तेनाली राम ने संन्यासी के पास जाकर पूछा, “कहिए महात्माजी, उस बूढ़े खजूर का क्या हाल है?” संन्यासी बात को समझकर धीरे से मुस्करा दिया।
कोई भी आसानी से बेवकूफ बन सकता है?
नगर के जो लोग वहां जमा थे, वे हक्के-बक्के होकर तेनाली राम और संन्यासी का मुंह ताकने लगे। उनमें से एक ने कहा, “भाई तेनाली राम, तुम्हारी बात का भेद हमारी समझ में बिल्कुल नहीं आया।”
तेनाली राम ने हंसकर कहा, “एक बार एक कौआ खजूर के पेड़ पर जा बैठा। उसके बैठते ही एक खजूर का फल नीचे आ गिरा। जिसने देखा, उसने यही कहा कि यह खजूर कौए ने गिराई है।
इसी तरह जब संन्यासी गांव में पहुंचा तो एकाएक वर्षा होने लगी, तो सब ने यही कहा कि वर्षा इनके आने से हुई है। इसलिए मैंने इनसे पूछा-‘उस बूढ़े खजूर का क्या हाल है?’ तेनाली राम की बात सुनकर लोग हंस पड़े।
संन्यासी से तेनाली राम से कहा, “तुम बहुत बुद्धिमान हो और योग्य भी। साहस से काम लोगे तो एक दिन ऐसी जगह जा पहुंचोगे, जहां तुम्हें न सुख की कमी होगी, न पैसे की।
मखमल की जूती
एक दिन कृष्णदेव राय और तेनाली राम में इस बात को लेकर बहस छिड़ गई कि आमतौर पर लोग किसी भी बात पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं या नहीं। राजा का कहना था कि लोगों को आसानी से बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। तेनाली राम का विचार था कि लोग किसी भी बात पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं। हां, उन्हें विश्वास करवाने वाला व्यक्ति समझदार होना चाहिए।
राजा ने कहा-“तुम किसी से भी जो चाहो, नहीं करवा सकते।” “महाराज, क्षमा करें, लेकिन मैं असंभव से असंभव काम करवा सकता हूं और तो और, मैं किसी व्यक्ति से आप पर जूता फिंकवा सकता हूं।” “क्या?” राजा ने कहा-“मेरी चुनौती है कि तुम ऐसा करके दिखाओ।” “मुझे आप की चुनौती स्वीकार है। हां, इसके लिए आपको मुझे समय देना होगा।” तेनाली राम बोला। “तुम जितना समय चाहो ले सकते हो।” राजा ने कहा। बात आई गई हो गई। राजा भी इस घटना को भूल गए।
एक मास बाद राजा कृष्णदेव राय ने कुर्ग प्रदेश के एक पहाड़ी सरदार की सुन्दर बेटी से विवाह तय किया। पहाड़ी इलाके के सरदार को विजयनगर के राजाओं के रीति-रिवाजों का कोई ज्ञान नहीं था। राजा ने तो उससे कहा था-“मुझे केवल तुम्हारी बेटी विवाह में चाहिए। रीति-रिवाज तो हर प्रदेश के अलग-अलग होते हैं, उनके बारे में चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है।” पर सरदार फिर भी चाहता था कि राजाओं के विवाह की सारी रस्में पूरी की जाएं। एक दिन चुपके से तेनाली राम उसके यहां विवाह की रस्में समझाने पहुंच गए। सरदार को बेहद प्रसन्नता हुई। उसने तेनाली राम से वादा किया कि तेनाली राम की बताई बातें किसी से नहीं कहेगा।
तेनाली राम ने कहा, “राजा कृष्णदेव राय के वंश में एक पुराना रिवाज है कि विवाह की शेष रस्में पूरी हो जाने पर दुल्हन अपने पांव से मखमल की जूती उतार कर राजा पर फेंकती है। उसके बाद दूल्हा-दुल्हन को अपने घर ले जाता है। मैं चाहता था कि यह रस्म भी पूरी अवश्य की जानी चाहिए। इसलिए मैं गोवा के पुर्तगालियों से एक जोड़ी मखमली जूती ले भी आया हूं।
पुर्तगालियों ने भी मुझे बताया कि दुल्हा-दुल्हन पर जूते फेंकने का रिवाज यूरोप में भी है, हालांकि वहां चमड़े के जूते फेंके जाते हैं। हमारे यहां तो चमड़े के जूतों की बात सोची भी नहीं जा सकती। हां, मखमल की जूती की और बात है।” “कुछ भी हो, तेनाली राम जी, मखमल की ही सही, है तो जूती ही। पति पर जूता फेंकना क्या अनुचित नहीं होगा?” सरदार ने कहा। “वैसे तो विजयनगर के विवाह में यह रस्म होती आई है, पर आप अगर इस रिवाज से झिझकते हैं, तो रहने दीजिए।”
सरदार एकदम बोला-“नहीं, नहीं लाइए, यह जूती मुझे दीजिए। मैं अपनी बेटी के विवाह में किसी प्रकार की कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता।” विवाह की रस्में पूरी हो चुकी थीं। राजा खुशी-खुशी अपनी दुल्हन को घर ले जाने की तैयारी कर रहे थे। अचानक दुल्हन ने पांव से मखमल की जूती उतारी और मुस्कराते हुए राजा पर फेंकी। तेनाली राम राजा के पास ही था। उसने धीरे से राजा के कान में कहा-“महाराज, इन्हें क्षमा कर दीजिए, यह सब मेरा किया धरा है।”
अपने महल पर पहुंचने पर राजा कृष्णदेव राय को तेनाली राम से सारी कहानी मालूम हो गई। वह बोले-“तुम्हारा कहना ही ठीक था। लोग किसी भी बात पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं।”
तेनालीराम और कुबड़ा धोबी
तेनालीराम ने कहीं सुना था कि एक दृष्ट आदमी साधु का भेष बनाकर लोगों को अपने जाल में फंसा लेता है। उन्हें प्रसाद में धतूरा खिला देता है। यह काम वह उनके शत्रुओं के कहने पर धन के लालच में करता था। धतूरा खाककर कोई तो मर जाता और कोई पागल हो जाता।
उन दिनों भी उसके धतूरे के प्रभाव से एक व्यक्ति पागल होकर नगर की सड़कों पर घूमा रहा था। लेकिन धतूरा खिलाने वाले व्यक्ति के खिलाफ उसके पास कोई प्रमाण नहीं था। इसलिए वह खुलेआम सीना तानकर चला करता। तेनालीराम ने सोचा कि ऐसे व्यक्ति को अवश्य दंड मिलना चाहिए।
एक दिन जब वह दृष्ट व्यक्ति शहर की सड़कों पर आवारागर्दी कर रहा था, तो तेनालीराम उसके पास गया और उसे बातों में उलझाए रखकर उस पागल के पास ले गया, जिसे धतूरा खिलाया गया था। वहां जाकर चुपके से तेनालीराम ने उसका हाथ पागल के सिर पर दे मारा।
उस पागल ने आव देखा न ताव, उस आदमी के बाल पकड़कर उसका सिर पत्थर पर टकराना शुरू कर दिया। पागल तो था ही, उसने उसे इतना मारा कि वह पाखंडी साधु मर गया। मामला राजा तक पहुंचा। राजा ने पागल को तो छोड़ दिया, लेकिन क्रोध में तेनालीराम को यह सजा दी कि इसे हाथी के पांवों से कुचलवाया जाए, क्योंकि इसी ने इस पागल का सहारा लेकर साधु के प्राण ले लिए।
दो सिपाही तेनालीराम को शाम के समय एक सुनसान एकांत स्थान पर ले गए और उसे गर्दन तक जमीन में गाड़ दिया। इसके बाद वे हाथी लेने चले गए। सिपाहियों ने सोचा कि अब यह बच भी कैसे सकता है! कुछ देर बाद वहां से एक कुबड़ा धोबी निकला। उसने तेनालीराम से पूछा, ‘क्यों भाई यह क्या तमाशा है? तुम इस तरह जमीन में क्यों गड़े हो?’
तेनालीराम ने कहा-‘कभी मैं भी तुम्हारी तरह कुबड़ा था, पूरे दस साल मैं इस कष्ट से दुखी रहा। जो देखता वही मुझ पर हंसता। यहां तक कि मेरी पत्नी भी। आखिर एक दिन अचानक मुझे एक महात्मा मिल गए। वह मुझसे बोले, ‘इस पवित्र स्थान पर पूरा एक दिन आंख बंद किए और बिना एक शब्द भी बोले गर्दन तक खड़े रहोगे तो तुम्हारा कष्ट दूर हो जाएगा। मिट्टी खोदकर मुझे बाहर निकालकर तो जरा देखो कि मेरा कूबड़ दूर हो गया है कि नहीं?’ धोबी ने उसके चारों ओर की मिट्टी खोदी।
जब तेनालीराम बाहर निकला तो धोबी बहुत हैरान हुआ। सचमुच कूबड़ का कहीं नाम निशान तक नहीं था। वह तेनालीराम से बोला, ‘सालों हो गए इस कूबड़ के बोझ को पीठ पर लादे हुए। मैं क्या जानता था कि इसका इलाज इतना आसान है। मुझ पर इतनी कृपा करो, मुझे यहीं गाड़ दो। मेरे ये कपड़े धोबी मुहल्ले में जाकर मेरी पत्नी को दे देना और उससे कहना कि वह सवेरे मेरा नाश्ता ले आए। मैं तुम्हारा यह अहसान जीवन-भर नहीं भूलूंगा. और, हां मेरी पत्नी को यह मत बताना कि कल तक मेरा कूबड़ ठीक हो जाएगा। मैं कल उसे हैरान करना चाहता हूं।’
‘बहुत अच्छा।’ तेनालीराम ने धोबी से कहा और उसे गर्दन तक गाड़ दिया। फिर उसके कपड़े बगल में दबाकर बोला,‘अच्छा, तो मैं चलता हूं। अपनी आंखें बंद रखना और मुंह भी, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए, नहीं तो सारी मेहनत बेकार हो जाएगी और यह कूबड़ बढ़कर दो गुना हो जाएगा।’
धोबी बोला ‘चिंता मत करो, मैंने कूबड़ के कारण बड़े दुख उठाए हैं। इसे दूर करने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं।’ धोबी ने कहा। तेनालीराम वहां से चलता बना। कुछ देर बाद राजा के सिपाही एक हाथी लेकर पहुंचे और धोबी का सिर उसके पांवों तले कुचलवा दिया। सिपाहियों को पता नहीं चला कि यह कोई और व्यक्ति है।
सिपाही तेनालीराम की मृत्यु का समाचार लेकर राजा के पास पहुंचे। तब तक उनका क्रोध शांत हो गया था और वे दुखी थे, क्योंकि उन्होंने तेनालीराम को मृत्युदंड दिया। तब तक उस पाखंडी साधु के बारे में भी उन्हें काफी कुछ पता चल चुका था। वह सोच रहे थे, ‘बेचारे तेनालीराम को बेकार ही अपनी जान गंवानी पड़ी। उसने तो एक ऐसे अपराधी को दंड दिया था, जिसे मेरे पुलिस अफसर भी नहीं पकड़ सके थे।’
अभी राजा सोच में ही डूबे थे कि तेनालीराम दरबार में आ पहुंचा और बोला,‘महाराज की जय हो!’ राजा सहित सभी आश्चर्य से उसके चेहरे की ओर देख रहे थे।
तेनालीराम ने राजा कृष्णदेव राय को सारी कहानी कह सुनाई। राजा ने उसे क्षमा कर दिया।
ज्योतिषी की भविष्यवाणी
बीजापुर के सुल्तान को पता चला कि उसका भेजा हुआ जासूस ‘राजा साहब’ तेनाली राम की सूझबूझ के कारण पकड़ लिया गया और उसे मार दिया गया है। उसे यह भी पता चला कि विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय बीजापुर पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे हैं। सुल्तान घबरा गया। वह जानता था कि इतने कुशल सेनापति के नेतृत्व में विजयनगर की सेना अवश्य जीत जाएगी।
उसने एक चाल चली। उसने विजयनगर के राज- ज्योतिषी को एक लाख रुपए की रिश्वत देकर अपने साथ मिला लिया और कहा कि वह यह भविष्यवाणी करे कि राजा ने अगर तुंगभद्रा नदी एक वर्ष के समाप्त होने से पहले पार की तो उसकी मृत्यु हो जाएगी।
ज्योतिषी ने एक लाख रुपए लेकर यह भविष्यवाणी कर दी। राजा ने सुना तो हंस दिए, “मैं नहीं मानता कि इस समय आक्रमण करने में कोई खतरा है।” दरबारियों और सेनापतियों को अवश्य राजा के प्राणों की चिन्ता थी।
उन्होंने राजा से कहा, “महाराज, करोड़ों की सुरक्षा आप पर निर्भर है। कम-से-कम उनका ध्यान रखकर ही आप अपने प्राणों को खतरे में न डालें। आप अगर एक साल प्रतीक्षा कर भी लें तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। आपकी शक्ति के आगे बीजापुर कहां टिक पाएगा लेकिन भाग्य के साथ लड़ाई मुश्किल है। आप अभी आक्रमण न करें तो अच्छा है।”
इधर रानियों ने भी राजा से मिन्नत की कि बीजापुर पर आक्रमण के लिए वे एक वर्ष रुक जाएं। राजा ने तेनाली राम से कहा, “मैं बीजापुर पर अभी आक्रमण करना चाहता हूं, लेकिन रानियों और दरबारियों को भी नाराज नहीं करना चाहता।”
तेनाली राम भी राजा से सहमत था। उसने कहा, “हर भविष्यवाणी पर विश्वास नहीं करना चाहिए।” “मैं चाहता हूं कि कोई इस ज्योतिषी की भविष्यवाणी को गलत सिद्ध कर दे। अगर कोई ऐसा कर दे तो मैं उसे दस हजार स्वर्ण मुद्राएं दूंगा।” राजा ने कहा।
तेनालीराम ने कहा “यह काम आप मुझे सौंप दीजिए, लेकिन एक शर्त है। ज्योतिषी को झूठ सिद्ध करने पर अगर उसे कोई दंड देना पड़ा, तो मुझे इसके लिए महाराज क्षमा करेंगे।” तेनाली राम बोला।
“अगर वह झूठ बोल रहा है तो तुम्हें उसे मृत्युदंड तक देने का अधिकार मैं देता हूं। राजा ने कहा।” तेनाली राम ने अपने मित्र सेनापति से मिलकर एक योजना बनाई। अगले दिन तेनाली राम ने राजा के सामने ज्योतिषी से पूछा, “ज्योतिषी जी, क्या आपकी सभी भविष्यवाणियां सदा सच होती हैं?”
“इसमें क्या संदेह है?” ज्योतिषी ने कहा, “अगर मेरी एक भी भविष्यवाणी कोई झूठी साबित कर दे तो मैं उसे अपने प्राणों पर अधिकार देने को तैयार हूं।” “तब तो आप जैसे महान ज्योतिषी को पाकर हमारा देश धन्य है। क्या मैं जान सकता हूं कि इस समय आपकी आयु क्या है और आप कितनी आयु तक जिएंगे?” तेनाली राम ने कहा। “इस समय मेरी आयु 44 वर्ष है। अभी मुझे 30 वर्ष और जीना है। भाग्य के अनुसार मेरी मृत्यु 74 वर्ष की आयु में होगी। इसमें एक पल का भी हेर-फेर नहीं हो सकता।” ज्योतिषी बोला।
एकाएक सेनापति की तलवार चमकी और ज्योतिषी का सिर धड़ से अलग होकर पृथ्वी पर आ गिरा। तेनाली राम ने कहा, “आखिर ज्योतिषी जी की भविष्यवाणी गलत सिद्ध हो गई। बुरा सोचने वाले का बुरा ही होता है। मैं जानता था कि यह आदमी बेईमान है। दूसरों का भाग्य बताने चले थे महाशय, किन्तु अपनी किस्मत न पढ़ सके।”
बाद में ज्योतिषी के घर की तलाशी ली गई तो शत्रु के कई पत्र उसके यहां मिले, जिनसे उसकी देश के प्रति गद्दारी साबित हो गई। सभी ने तेनाली राम की प्रशंसा की। राजा ने उसे दस हजार स्वर्ण मुद्राएं दीं और बीजापुर पर आक्रमण करके उसे जीत लिया।
विजय के बाद जब राजा वापस लौटे तो बोले, “यह सब तेनाली राम की बुद्धि का परिणाम है।” उन्होंने तेनाली राम को स्वर्ण मुद्राओं की एक और बड़ी थैली भेंट में दी।
कुबड़ा धोबी:
तेनालीराम ने कहीं सुना था कि एक दृष्ट आदमी साधु का भेष बनाकर लोगों को अपने जाल में फँसा लेता है। उन्हें प्रसाद में धतूरा खिला देता है। यह काम वह उनके शत्रुओं के कहने पर धन के लालच में करता था। धतूरा खाककर कोई तो मर जाता और कोई पागल हो जाता।
उन दिनों भी उसके धतूरे के प्रभाव से एक व्यक्ति पागल होकर नगर की सड़कों पर घूमा करता था। लेकिन धतूरा खिलाने वाले व्यक्ति के खिलाफ कोई प्रमाण नहीं था। इसलिए वह खुलेआम सीना तानकर चला करता। तेनालीराम ने सोचा कि ऐसे व्यक्ति को अवश्य दंड मिलना चाहिए।
एक दिन जब वह दृष्ट व्यक्ति शहर की सड़कों पर आवारागर्दी कर रहा था, तो तेनालीराम उसके पास गया और उसे बातों में उलझाए रखकर उस पागल के पास ले गया, जिसे धतूरा खिलाया गया था। वहाँ जाकर चुपके से तेनालीराम ने उसका हाथ पागल के सिर पर दे मारा। उस पागल ने आव देखा न ताव, उस आदमी के बाल पकड़कर उसका सिर पत्थर पर टकराना शुरू कर दिया। पागल तो था ही, उसने उसे इतना मारा कि वह पाखंडी साधु मर गया। मामला राजा तक पहुँचा। राजा ने पागल को तो छोड़ दिया, लेकिन क्रोध में तेनालीराम को यह सजा दी कि इसे हाथी के पाँवों से कुचलवाया जाए, क्योंकि इसी ने इस पागल का सहारा लेकर साधु के प्राण ले लिए।
दो सिपाही तेनालीराम को शाम के समय एक सुनसान एकांत स्थान पर ले गए और उसे गरदन तक जमीन में गाड़ दिया। इसके बाद वे हाथी लेने चले गए। उन्होंने सोचा कि अब यह बच भी कैसे सकता है!
कुछ देर बाद वहाँ से एक कुबड़ा धोबी निकला। उसने तेनालीराम से पूछा, ‘क्यों भाई यह क्या तमाशा है? तुम इस तरह जमीन में क्यों गड़े हो?’
तेनालीराम ने कहा-‘कभी मैं भी तुम्हारी तरह कुबड़ा था, पूरे दस साल मैं इस कष्ट से दुखी रहा। जो देखता वही मुझ पर हँसता। यहाँ तक कि मेरी पत्नी भी। आखिर एक दिन अचानक मुझे एक महात्मा मिल गए। वह मुझसे बोले, ‘इस पवित्र स्थान पर पूरा एक दिन आँख बंद किए और बिना एक शब्द भी बोले गरदन तक खड़े रहोगे तो तुम्हारा कष्ट दूर हो जाएगा। मिट्टी खोदकर मुझे बाहर निकालकर तो जरा देखो कि मेरा कूबड़ दूर हो गया है कि नहीं?’
धोबी ने उसके चारों ओर की मिट्टी खोदी। जब तेनालीराम बाहर निकला तो धोबी बहुत हैरान हुआ। सचमुच कूबड़ का कहीं नाम निशान तक नहीं था।
वह तेनालीराम से बोला, ‘सालों हो गए इस कूबड़ के बोझ को पीठ पर लादे हुए। मैं क्या जानता था कि इसका इलाज इतना आसान है। मुझ पर इतनी कृपा करो, मुझे यहीं गाड़ दो। मेरे ये कपड़े धोबी मुहल्ले में जाकर मेरी पत्नी को दे देना और उससे कहना कि वह सवेरे मेरा नाश्ता ले आए। मैं तुम्हारा यह अहसान जीवन-भर नहीं भूलूँगा. और, हाँ मेरी पत्नी को यह मत बताना कि कल तक मेरा कूबड़ ठीक हो जाएगा। मैं कल उसे हैरान करना चाहता हूँ।’
‘बहुत अच्छा।’ तेनालीराम ने धोबी से कहा और उसे गरदन तक गाड़ दिया। फिर उसके कपड़े बगल में दबाकर बोला,‘अच्छा, तो मैं चलता हूँ। अपनी आँखें बंद रखना और मुँह भी, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए, नहीं तो सारी मेहनत बेकार हो जाएगी और यह कूबड़ बढ़कर दो गुना हो जाएगा।’
‘चिंता मत करो, मैंने कूबड़ के कारण बड़े दुख उठाए हैं। इसे दूर करने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।’ धोबी ने कहा। तेनालीराम वहाँ से चलता बना।
कुछ देर बाद राजा के सिपाही एक हाथी लेकर पहुँचे और धोबी का सिर उसके पाँवों तले कुचलवा दिया। सिपाहियों को पता नहीं चला कि यह कोई और व्यक्ति है। सिपाही तेनालीराम की मृत्यु का समाचार लेकर राजा के पास पहुँचे। तब तक उनका क्रोध शांत हो गया था और वे दुखी थे, क्योंकि उन्होंने तेनालीराम को मृत्युदंड दिया. तब तक उस पाखंडी साधु के बारे में भी उन्हें काफी कुछ पता चल चुका था।
वह सोच रहे थे, ‘बेचारे तेनालीराम को बेकार ही अपनी जान गँवानी पड़ी। उसने तो एक ऐसे अपराधी को दंड दिया था, जिसे मेरे पुलिस अफसर भी नहीं पकड़ सके थे।’ अभी राजा सोच में ही डूबे थे कि तेनालीराम दरबार में आ पहुँचा और बोला,‘महाराज की जय हो!’ राजा सहित सभी आश्चर्य से उसके चेहरे की ओर देख रहे थे। तेनालीराम ने राजा कृष्णदेव राय को सारी कहानी कह सुनाई। राजा ने उसे क्षमा कर दिया।
मकान का दान
एक बार राजा कृष्णदेव राय ने तेनाली राम से कहा, “धनी आदमी को चाहिए कि वह दान करता रहे। जो दूसरों के लिए कुछ नहीं करता, वह भी कोई मनुष्य है? इतने धनवान हो, किसी ब्राह्मण को एक मकान ही दे डालो।” “जैसा महाराज चाहें।” तेनाली राम ने कहा।
उसने एक सुन्दर-सा, छोटा-सा मकान बनवाया, जिसके चारों ओर फूलों का बाग था। उसके मुख्य द्वार पर उसने यह घोषणा लिखवा दी। “यह मकान उस ब्राह्मण को दिया जाएगा, जिसे अपने हाल पर संतोष होगा।” बहुत दिनों तक मकान का दान पाने कोई नहीं आया।
अंत में एक ब्राह्मण ने आकर तेनाली राम से कहा, “मैं अपने हाल पर बिल्कुल संतुष्ट हूं, इसलिए यह मकान मुझे दान दे दीजिए।” “तुम केवल लालची ही नहीं, झूठे और मूर्ख भी हो। तुम्हें सीधे-सादे शब्दों का अर्थ भी नहीं मालूम।
अगर तुम्हें अपने हाल पर संतोष होता, तो तुम यह मकान मांगने आते ही क्यों? तुम्हें मकान दान करके अपने वचनों से फिरना पड़ेगा और फिर यह दुख भी बना रहेगा कि मैंने मकान का दान एक मूर्ख व्यक्ति को दे दिया। तुम यहां से जा सकते हो।”
इस तरह तेनाली राम का मकान कभी दान नहीं दिया जा सका। तेनाली राम ही उसका मालिक बना रहा।
सांप भी मर गया लाठी भी नहीं टूटी
राजा कृष्णदेव राय का दरबारी गुणसुन्दर तेनाली राम से बहुत नाराज था। हंसी-हंसी में तेनाली राम ने कुछ ऐसी बात कह दी थी, जो उसे बुरी लग गई थी। मन-ही-मन वह तेनाली राम से बदला लेने की योजनाएं बनाया करता था। राजगुरु से तो तेनालीराम की कभी पटती ही नहीं थी।
गुणसुन्दर और राजगुरु में दोस्ती हो गई। दोस्ती का कारण एक ही था कि उन दोनों का एक ही दुश्मन था तेनाली राम। गुणसुन्दर को यह बात बहुत बुरी लगती थी कि राजा भी हर समय तेनाली राम की प्रशंसा किया करते थे। वह राजा को भी भला-बुरा कहा करता। तेनाली राम को इस बात का पता था।
एक बार गुणसुन्दर और राजगुरु दोनों ने मिलकर राजा से तेनाली राम की बहुत बुराई की और कहा-“महाराज, तेनाली राम पीठ पीछे आपकी बुराई करने से नहीं चूकता।” महाराज को विश्वास तो नहीं हुआ लेकिन फिर भी उन्होंने तेनाली राम से पूछा-“क्या तुम सचमुच मेरे लिए गलत शब्द कहा करते हो?” तेनाली राम सारी बात समझ गया।
उसने कहा-“महाराज, इस सवाल का उत्तर मैं आपको आज रात दूंगा, पर आपको मेरे साथ चलना होगा।” अंधेरा होने पर तेनाली राम राजा को लेकर राजगुरु के घर के पिछवाड़े पहुंचा और दोनों खिड़की के पास खड़े हो गए। अन्दर राजगुरु और गुणसुन्दर बातें कर रहे थे।
“हमारे महाराज भी बस कान के कच्चे हैं। अब तक तेनाली राम जो कहता रहा, उसे ही वह सच मानते रहे, और आज हम दोनों की बातें सच मान लीं।” कह कर गुणसुन्दर हंस पड़ा। उसने राजा को लेकर और भी कुछ उलटी-सीधी बातें कहीं। राजगुरु कुछ नहीं बोला, लेकिन अपने दोस्त की बात को काटा भी नहीं।
राजा कृष्णदेव राय ने अपने कानों से सब कुछ सुना। तेनाली राम बोला-“महाराज, अब तो आपको अपने सवाल का जवाब मिल गया?” “हां, तेनाली राम, पर राजगुरु के लिए हमारे मन में अब भी सम्मान है। लगता है तुमसे ईर्ष्या के कारण राजगुरु भटक गए हैं और गलत आदमी की दोस्ती में फंस गए हैं। जैसे भी हो, इस दुष्ट गुणसुन्दर के जाल से राजगुरु को निकालना तुम्हारा काम है।” राजा बोले।
“आप चिन्ता मत कीजिए। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। बस, कुछ दिनों तक इन्तजार करना पड़ेगा।” तेनाली राम ने कहा। कुछ दिन बाद तेनाली राम ने एक दावत दी। उसमें राजा कृष्णदेव राय भी पधारे। सभी दरबारी भी थे। राजगुरु भी, गुणसुन्दर भी। तेनाली राम ने राजगुरु और गुणसुन्दर की विशेष आवभगत की। बड़ी देर तक गपशप चलती रही।
एकाएक तेनाली राम ने अपना मुंह गुणसुन्दर के कान के पास ले जाकर कुछ कहा। उस समय तेनाली राम की निगाह राजगुरु पर टिकी थी। तेनाली राम ने क्या कहा, यह गुणसुन्दर की कुछ समझ में नहीं आया, क्योंकि असल में तेनाली राम ने यों ही उसे कान में कुछ ऊटपटांग शब्द कह डाले थे। फिर जोर से तेनाली राम ने कहा-“मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, किसी को बताना नहीं।”
गुणसुन्दर भौचक्का-सा तेनाली राम की ओर देख रहा था। इधर राजगुरु के मन में खटका हुआ। तेनाली राम जब गुणसुन्दर के कान में कुछ कह रहा था, तो उसकी निगाह राजगुरु पर ही थी। उसने सोचा-“अवश्य कोई बात मेरे विषय में कही गई है।” राजगुरु ने गुणसुन्दर से पूछा-“क्या कह रहा था तेनाली राम?”
“कुछ नहीं। मेरे कान में कुछ बोला तो सही वह, पर मुझे कुछ समझ में नहीं आया बस, यों ही कुछ कह गया बेकार से शब्द।” गुणसुन्दर ने कहा। राजगुरु ने सोचा-“गुणसुन्दर मुझसे असली बात छिपा रहा है। दोस्त होकर भी अगर यह ऐसा करता है, तो ऐसी दोस्ती किस काम की? अवश्य तेनाली राम और यह दोनों मिलकर मेरा मजाक उड़ाते होंगे। मैं समझता था कि गुणसुन्दर मेरा सच्चा दोस्त है।”
उसके बाद राजगुरु ने गुणसुन्दर से बात करना और मिलना-जुलना बन्द कर दिया। दोनों की दोस्ती कुछ ही दिनों में बीती हुई कहानी बन कर रह गई।
राजा ने तेनाली राम से कहा-“सचमुच, मुश्किलों को सुलझाने में तुम्हारा कोई जोड़ नहीं। ऐसा काम किया है तुमने कि सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।”
बैल की झूल
एक बार एक आदमी तांत्रिक का वेश धर कर विजयनगर में घुस आया। उसके पास धातु से बना एक बैल था, कौड़ियों से सजा। धातु का बैल पहियों पर चलता था। उस बैल को देखने के लिए आदमियों का मजमा लग गया। तांत्रिक कहता, “बैल के कान में चुपके से मन की बात कहो। आपके प्रश्न का जवाब मिलेगा।” लोग बात पूछते। वह तांत्रिक तीन बार बैल के सिर पर थपकी देकर कहता, “बोलो।”
बस, बैल आदमी की वाणी में बोलने लगता। दरबार में भी उस अदभुत बैल की चर्चा होने लगी। राजा कृष्णदेव राय ने तांत्रिक को दरबार में बुलवाया। सबसे पहले सेनापति ने बैल के कान में पूछा, “क्या हम पड़ोसी राजा से जीत जाएंगे?”
तांत्रिक ने बैल के सिर पर तीन बार थपकी दी। आवाज आई, “जीत तो हो सकती है, मगर महाराज अपने कृपापात्र से सावधान रहें।” यह सुन, सभी की निगाहें तेनाली राम की ओर उठ गईं। तेनाली राम भांप गया, दाल में कुछ काला है। वह बोला, “महाराज, मैं भी कुछ पूछना चाहता हूं, पर तांत्रिक को एक तरफ बैठा दिया जाए।”
तेनाली राम ने बैल के कान में पूछा, “आप उस धोखेबाज देशद्रोही का नाम बताएं।” काफी देर हो गई, कोई जवाब नहीं मिला। तेनाली राम कौड़ियों से बनी झूल उठाने लगा। तांत्रिक चिल्लाया, “मुझे मत छेड़ो। मेरा तंत्र इसी में छिपा है। तुम्हें भस्म कर देगा।” मगर तेनाली राम ने झूल उतार ली।
देखा, बैल के सिर के बीच में एक पेंच है। उसे दबाने पर बैल चलने लगता था। फिर उसने देखा, बैल के पेट में एक दरवाजा भी था। उसे खोला गया। एक आदमी अंदर बैठा था। वही प्रश्नों के उत्तर दे रहा था। उसे बाहर निकाला गया।
तांत्रिक को भी सिपाहियों ने पकड़ लिया। अंदर कुछ कागज मिले। उनमें विजयनगर और राजमहल के नक्शे थे। मार पड़ी, तो सारा राज खुल गया।
वे दोनों शत्रु राजा के जासूस थे। तेनाली राम से उन्हें खतरा था, इसीलिए उसे रास्ते से हटाना चाहते थे। राजा ने सूझबूझ के लिए तेनाली राम की पीठ थपथपाई।
चूहों की समस्या
चूहों ने तेनाली राम के घर में बड़ा उत्पात मचा रखा था। एक दिन चूहों ने तेनालीराम की पत्नी की एक सुंदर साड़ी में काटकर एक छेद बना दिया। तेनाली राम और उनकी पत्नी को बहुत क्रोध आया। उन्होंने सोचा-“इन्हें पकड़कर मारना ही पड़ेगा। नहीं तो न जाने ओर कितना नुकसान कर दें।”
बहुत कोशिश करने पर भी चूहे उनके हाथ नहीं लग रहे थे। वे संदूकों और दूसरे सामान के पीछे जाकर छिप जाते। भागते-दौड़ते, घंटों की कोशिश के बाद कहीं एक चूहा पकड़कर मार पाए। तेनाली राम बड़ा परेशान था।
आखिर वह अपने एक मित्र के पास गया, जिसने उसे सलाह दी कि चूहों से छुटकारा पाने के लिए एक बिल्ली पाल लो। वही इस मुसीबत का इलाज है। तेनाली राम ने बिल्ली पाल ली और सचमुच उसके यहां चूहों का उत्पात कम होने लगा। उसने चैन की सांस ली।
अचानक एक दिन उसकी बिल्ली ने पड़ोसियों के पालतू तोते को पकड़ लिया और मार डाला। घर की मालकिन ने अपने पति से शिकायत की और कहा कि इस दुष्ट बिल्ली को मार डालो। उसने तेनाली राम की बिल्ली का पीछा किया और उसे जा पकड़ा। वह उसको मारने ही वाला था कि तेनाली राम वहां आ गया।
तेनाली ने कहा-“भाई, मैंने यह बिल्ली चूहों से छुटाकारा पाने के लिए पाली है। हमें क्षमा कर दीजिए और बिल्ली मुझे वापस कर दीजिए। मुझ पर आपका बड़ा एहसान होगा।” पड़ौसी नहीं माना, बोला-“चूहे पकड़ने के लिए तुम्हें बिल्ली की क्या आवश्यकता है? मैं तो बिना बिल्ली के भी चूहे पकड़ सकता हूं।” और उसने बिल्ली को मार दिया।
कुछ दिनों बाद पड़ोसी को किसी ने एक सुन्दर संदूक उपहार भेजा। उसने अपने शयनकक्ष में जाकर संदूक खोला। उसी कमरे में उसकी पत्नी की कीमती साड़ियां रखी थीं। संदूक खोलते ही चूहों की सेना उसमें से उछलकर बाहर निकल आई। चूहे कमरे के चारों और दौड़ने लगे। वह उन्हें पकड़ने के लिए कभी बाएं तो कभी दाएं उछ्लता पर असफल रहा। उसके साथ उसके नौकर भी थे।
कई घंटों की उछलकूद के बाद कहीं जाकर उन्हें चूहों से छुटकारा मिला। पर इस दौरान उनका काफी नुकसान भी उठाना पड़ा। उनके कीमती गलीचों पर चूहों के खून के निशान पड़ चुके थे। ठोकर खाकर एक कीमती फूलदान भी टूट गया गया।
थके हारे पड़ोसी ने जब संदूक में यह देखने का प्रयास किया कि आखिर किसने यह संदूक भेजी है, तो एक पर्ची पाई। उस पर लिखा था, “आपने कहा था कि आप बिना बिल्ली के ही चूहों पर काबू पा जाएंगे।
मैं परीक्षा के लिए कुछ चूहों को आपके यहां भेज रहा हूं। आपका तेनालीराम।” तेनालीराम का नाम पढ़ते ही पड़ोसी को सारी बात समझ में आ गई। उसने फौरन अपनी भूल के लिए तेनालीराम से माफी मांग ली।
हीरों के चोर
एक बार विजयनगर में सूखा पड़ा। नगर के अंदर और आस-पास के सभी बाग सूख गए। उन्हें पानी की सख्त जरूरत थी। तेनाली राम का घर तुंगभद्रा नदी के किनारे पर था। उसका बाग भी बिल्कुल सूख चला था। बाग के बींचोबीच एक कुआं था। उसमें पानी था, लेकिन इतना नीचे कि उससे सिंचाई करने में बहुत खर्च हो जाता। सच बात तो यह थी कि यह खर्च बाग में होने वाले फलों आदि के मूल्य से कहीं ज्यादा पड़ जाता।
तेनाली राम एक दिन शाम को कुएं के पास बैठा सोच रहा था कि सिंचाई के लिए मजदूर लगवाए या नहीं। उसका बेटा उसके पास बैठा था। तभी उसने देखा कि तीन व्यक्ति बड़े ध्यान से उसके मकान की ओर देख रहे हैं। उसने सोचा कि अवश्य ये लोग चोर हैं, जो चोरी करने से पहले मकान के सारे रास्ते आदि देखने की कोशिश में हैं।
तेनाली राम ने ऊंचे स्वर में अपने पुत्र से कहा-“बेटा, सूखे के दिन हैं। चोर- डाकू बहुत घूम रहे हैं। अब रत्नों का वह कीमती संदूक मकान में रखना ठीक नहीं है। चलो, उस संदूक को उठाकर इस कुएं में डाल दें ताकि उसे कोई चुरा न सके। किसे पता चलेगा कि रत्नों का सन्दूक कुएं में है?”
यह कहकर वह अपने बेटे के साथ मकान के अंदर चला गया और हंसकर बोला-“आज इन चोरों का कुछ ठीक ढंग से मेहनत करने का अवसर मिलेगा।” बाप बेटे ने मिलकर सन्दूक में बहुत सारे पत्थर भरे। फिर उसे उठाकर कुएं में फेंक दिया। सन्दूक के कुएं के तल पर लगने से काफी जोर की आवाज हुई।
तेनाली राम ऊंचे स्वर में अपने पुत्र से बोला-“अब हमारे हीरे सुरक्षित है।” चोर मन ही मन मुस्कराए। जैसे ही तेनाली राम और उसका पुत्र मकान में गए, दोनों पीछे के दरवाजे के बाग में पहुंचे और कुएं से निकले पानी को बगीचे की नालियों में बहाने लगे।
रात-भर की मेहनत से बाग के लगभग हर पेड़ को पानी मिल गया। जब कुएं में से इतना पानी निकल गया कि सन्दूक उठाकर बाहर निकाला जा सके, तब तक प्रातः के पांच बज चुके थे। सन्दूक खोलकर जब चोरों ने देखा कि उसमें हीरे नहीं बल्कि पत्थर हैं, तो सिर पर पांव रखकर भागे कि मूर्ख तो बन ही गए, अब कहीं पकड़े न जाएं।
जब तेनाली राम ने यह बात राजा को बताई तो बहुत हंसे और बोले-“कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मेहनत तो बेचारा कोई करता है और लाभ किसी और को पहुंचता है।”
दान का लालच
एक दिन राजा कृष्णदेव राय के दरबार में इस विषय पर बहस हो रही थी कि राज्य की समृद्धि के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति कौन होता है? एक दरबारी बोला, “राज्य की समृद्धि वहां के राजा पर निर्भर करती है। दुष्टों को दंड देकर, सबके अधिकारों की रक्षा करके, अंदरूनी अशांति और बाहरी आक्रमणों से राज्य की स्वतंत्रता बचाकर राजा ही अपने राज्य में खुशहाली ले आता है।”
“मेरे विचार में राजा की समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण तो है पर अकेला नहीं, और फिर इस बात का क्या भरोसा कि राजा दुष्ट अत्याचारी नहीं होगा।” राजा ने कहा।
राजकुमारी मोहनांगी ने कहा, “राजा की रीढ़ की हड्डी हैं साधारण लोग, किसान, लुहार, बढ़ई, सुनार, कुम्हार, नाई, जुलाहे, मजदूर, चित्रकार आदि। यही लोग अपने परिश्रम और लगन से अपनी और राज्य की समृद्धि में चार चांद लगाते हैं।”
राजा बोले, “लेकिन यह कैसे संभव है? पढ़े-लिखे न होने के कारण उन्हें राजा, मंत्रियों और ब्राह्मणों पर निर्भर रहना पड़ता है।” “राज्य की समृद्धि के लिए मंत्री सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।” प्रधानमंत्री ने कहा। “यह कैसे हो सकता है? मंत्रियों को भी राजा पर निर्भर रहना पड़ता है, और फिर योग्य मंत्री भी कई बार ऐसे काम कर देते हैं जिनसे राज्य को हानि पहुंचती है।”
राजा ने कहा। तभी सेनापति ने कहा, “मेरे विचार में सेनापति राज्य की खुशहाली के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।” “अगर राजा उन पर नियंत्रण न रखे तो सेनापति कभी शांति ही न होने दे। बस, युद्ध ही चलते रहें।”
राजा बोले।
एक दरबारी बोला, “सबसे महत्वपूर्ण वस्तु राज्य के किले हैं।” “नहीं, नहीं।” राजा ने कहा, “बहादुर जनता किलों से अधिक महत्वपूर्ण है।” “इस बारे में तुम्हारा क्या विचार है?”
राजा ने तेनाली राम से पूछा। “जी, मेरे विचार में अच्छा और बुरा होने से कोई सम्बन्ध नहीं। अच्छा व्यक्ति चाहे ब्राह्मण हो या न हो, राज्य को लाभ ही पहुंचाएगा, और ब्राह्मण होकर भी कोई व्यक्ति राज्य को बेहद नुकसान भी पहुंचा सकता है।” तेनाली राम ने कहा। यह सुनकर राजगुरु ने कहा, “तुम ब्राह्मणों पर आरोप लगा रहे हो। राज्य का कोई भी ब्राह्मण कभी अपने राजा या राज्य को हानि नहीं पहुंचा सकता, यह मेरा दावा है।”
“मैं आपके दावे को झूठा साबित कर दूंगा, राजगुरु जी। जो व्यक्ति मूल रूप में अच्छा नहीं है, वह ब्राह्मण होकर भी धन के लोभ में सब कुछ कर सकता है।” तेनाली राम ने कहा। राजा ने यह देखकर सभा भंग कर दी कि बहस में जरूरत से अधिक गरमी आ गई है। एक मास बीत गया। इस बात को सभी भूल गए।
तेनाली राम ने अपनी योजना राजा को बताई और नगर के आठ प्रमुख ब्राह्मणों के पास गया। उसने उन्हें बताया कि राजा कृष्णदेव राय इसी समय चुने हुए ब्राह्मणों को चांदी की थालियां और स्वर्णमुद्राएं देना चाहते हैं।
ब्राह्मण बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कृतज्ञता जताई कि तेनाली राम ने उन्हें इस अवसर के लिए चुना है। वे बोले, “हम अभी स्नान करके आते हैं।” “स्नान के लिए समय नहीं है। राजा तैयार बैठे हैं। ऐसा न हो कि दान का मुहूर्त निकल जाए और आप लोग स्नान करते ही रह जाएं।”
तेनाली राम ने कहा, “इसलिए मैं जाकर दूसरे ब्राह्मणों को बुला लाता हूं।” “ठहरिए, ठहरिए, तेनाली राम जी, हम अपने-अपने बालों पर थोड़ा सा पानी छिड़कर लेते हैं। धर्म के सिद्धांत के अनुसार इसे स्नान के बराबर ही माना जाएगा।” उन ब्राह्मणों में से एक ने कहा।
तेनाली राम कुछ न बोला। चुपचाप प्रतीक्षा करता रहा। ब्राह्मणों ने अपने-अपने सिरों पर पानी छिड़का, तिलक लगाया और तेनाली राम के पीछे-पीछे दरबार में जा पहुंचे। दरबार में राजा द्वारा रखी गई चांदी की आठ बड़ी-बड़ी थालियां और उनमें स्वर्णमुद्राएं देखकर तो ब्राह्मणों की बांछें खिल गई।
राजा जब दान करने लगे तो एकाएक तेनाली राम बोला, “महाराज, मेरे विचार में आपको इस बात पर कोई आपत्ति नहीं होगी कि इन ब्राह्मणों ने स्नान नहीं किया। बेचारे जल्दी-जल्दी यहां पहुंच कर दान लेना चाहते थे, इसलिए इन्होंने अपने सिरों पर पानी छिड़का है।”
राजा ने क्रोध में भरकर पूछा, “क्या यह सच है?” ब्राह्मणों को काटो तो खून नहीं। उन्होंने धीरे से स्वीकार कर लिया कि उन्होंने स्नान नहीं किया है और चुपके से खिसकने लगे। तेनाली राम ने राजगुरु से कहा, “कहिए राजगुरु, उस दिन जो बहस छिड़ी थी, उसके बारे में आपको क्या कहना है?
देखा, धन के लालच में ये लोग वह सब भी भूल गए, जिसे ये सब अपना धर्म-कर्म मानते है। ब्राह्मण होने भर से किसी का दर्जा ऊंचा नहीं हो जाता।”
यह बात सिद्ध हो गई थी कि राज्य को सबसे महत्वपूर्ण अंग ब्राह्मण नहीं है, बल्कि साधारण परिश्रमी जनता है, जिन्हें यदि अच्छा राजा और समझदार मंत्री मिले तो राज्य के समृद्ध होने में कोई दर नहीं लगती।
सुनहरा हिरन
ढलती हुई ठंड का सुहाना मौसम था। राजा कृष्णदेव राय वन-विहार के लिए चल पड़े। साथ में कुछ दरबारी और सैनिक भी चल पड़े। शहर से दूर जंगल में डेरा डाला गया। कभी गीत-संगीत की महफिल जमती तो कभी किस्से-कहानियों का दौर चल पड़ता। इसी तरह मौज-मस्ती में कई दिन गुजर गए।
एक दिन राजा कृष्णदेव राय अपने दरबारियों से बोले, ‘जंगल में आए हैं तो शिकार जरूर करेंगे।’ तुरंत शिकार की तैयारियां हो गईं। राजा कृष्णदेव राय तलवार और तीर-कमान लेकर घोड़े पर बैठकर शिकार के लिए निकल पड़े। मंत्री और दरबारी अपने घोड़ों पर उनके साथ थे।
तेनालीराम भी जब उन सबके साथ चलने लगा तो मंत्री बोला, ‘महाराज, तेनालीराम को अपने साथ ले जाकर क्या करेंगे। यह तो अब बूढ़े हो गए हैं, इन्हें यहीं रहने दिया जाए। हमारे साथ चलेंगे तो बेचारे थक जाएंगे।’
इस बात पर सारे दरबारी हंस पड़े लेकिन तेनालीराम क्योंकि राजा को बड़े प्रिय थे, इसलिए तेनालीराम को भी अपने साथ ले लिया। थोड़ी देर का सफर तय करके सब लोग जंगल में पहुंच गए। तभी राजा कृष्णदेव राय को एक सुनहरा हिरन दिखाई दिया। राजा ने उसका पीछा किया और पीछा करते-करते वह घने जंगल में पहुंच गए, राजा घनी झाड़ियों के बीच बढ़ते जा रहे थे।
एक जगह पर आकर उन्हें सुनहरा हिरन अपने बहुत ही पास दिखाई दिया तो उन्होंने निशाना साधा। घोड़ा अभी भी दौड़ता जा रहा था। राजा कृष्णदेव राय तीर चलाने ही वाले थे कि अचानक तेनालीराम जोर से चिल्लाया-‘रुक जाइए, महाराज, इसके आगे जाना ठीक नहीं।’ राजा कृष्णदेव राय ने फौरन घोड़ा रोका।
इतने में हिरन निकल गया। राजा को बहुत गुस्सा आया। वह तेनालीराम पर बरस पड़े-‘तेनालीराम, तुम्हारी वजह से हाथ में आया शिकार निकल गया। तुमने हमें क्यों रोका?’ मंत्री और अन्य दरबारियों ने भी फबती कसी, ‘महाराज, तेनालीराम डरते हैं। वह डरपोक हैं, इसीलिए तो हम उन्हें अपने साथ न लाने के लिए कह रहे थे।’
तभी तेनालीराम को न जाने क्या सूझा। बोले, ‘महाराज, जरा मंत्री जी इस पेड़ पर चढ़कर हिरन को देखें तभी कुछ कहूंगा या बताऊंगा।’ राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री जी को पेड़ पर चढ़कर हिरन को देखने का आदेश दिया। मंत्री जी पेड़ पर चढ़े तो उन्होंने एक विचित्र दृश्य देखा।
हिरन जंगली झाड़ियों के बीच फंसा जोर-जोर से उछल रहा था। उसका सारा शरीर लहूलुहान हो गया था। ऐसा लगता था जैसे जंगली झाड़ियों ने उसे अपने पास खींच लिया हो। वह हिरन अपना भरपूर जोर लगाकर झाड़ियों से छूटने की कोशिश कर रहा था। आखिरकार बड़ी मुश्किल से वह अपने आपको उन झाड़ियों से छुड़ा पाया था, या यूं कह लीजिए कि बड़ी मुश्किल से अपनी जान छुड़ा पाया था।
मंत्री ने यह सारी बात राजा को बताई। राजा यह सब सुनकर हैरान रह गए और बोले, ‘तेनालीराम, यह सब क्या है?’ ‘महाराज, यहां से आगे खतरनाक झाड़ियां हैं। इनके कांटे शरीर में चुभकर प्राणियों का खून पीने लगते हैं। जो जीव इनकी पकड़ में आया-वह अधमरा होकर ही इनसे छूटा।
पेड़ से मंत्री जी ने स्वयं लहूलुहान हिरन को देख लिया। इसीलिए महाराज, मैं आपको रोक रहा था।’ राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री और दरबारियों की ओर आश्चर्य से देखा और कहा, ‘देखा, तुम लोगों ने, तेनालीराम को साथ लाना क्यों जरूरी था?’ मंत्री और सारे दरबारी अपना-सा मुंह लेकर रह गए और एक-दूसरे की ओर ताकने लगे।
बंद आंख और खुली आंख
दिल्ली का एक प्रसिद्ध व्यक्ति, जो हाथ की सफाई से तरह-तरह के जादू के खेल दिखाया करता था, एक बार विजयनगर गया और उसने तरह-तरह के खेल दिखाए। उसने पत्थरों को स्वर्ण मुद्राओं में बदल दिया। उसने अपना सिर काटकर अपने हाथ से पकड़कर राजा को दिखाया। वह राजा से बोला-“महाराज, आपके राज्य में कोई मेरा मुकाबला नहीं कर सकता।
मेरी चुनौती है कि जो कोई भी आकर मुझे इस कला से हराएगा, मेरा सिर उसके सामने हाजिर है।” राजा को उसकी शेखी बहुत बुरी लगी। उसने तेनाली राम से कहा-“अगर तुम इस व्यक्ति का अभिमान तोड़ दो तो तुम्हें एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दी जाएंगी।” “मुझे स्वीकार है, महाराज।” तेनाली राम ने कहा।
तेनाली राम उस जादूगर के पास पहुंचा और बोला-“क्यों इतनी शेखी बघार रहे हो?” मेरा दावा है कि जो मैं अपनी बंद आंखों के साथ कर सकता हूं, वह तुम अपनी खुली आंखों से नहीं कर सकते। “क्यों बेकार की बात करते हो?” जादूगर बोला-“अगर तुम बंद आंखों के साथ एक भी ऐसा काम कर सकते हो जो मैं खुली आंखों के साथ नहीं कर सकता तो मैं अपना सिर तुम्हारे हवाले कर दूंगा।” “ठीक है।”
तेनाली राम ने कहा और उसने पिसी हुई मिर्च मंगवाई और आंखें बंद करके एक-एक मुट्ठी मिर्च दोनों आंखों के ऊपर डाल ली। एक मिनट तक उसने आंखें बंद ही रखीं और मुस्कराता रहा। उसके बाद मिर्च हटाकर उसने अपने पलकें धो डालीं और जादूगर से कहा-“जो मैं बंद आंखों के साथ किया है, वह अब तुम अपनी खुली आंखों के साथ करो।”
जादूगर ने हार मान ली, बोला, “मेरा सिर आपके आगे हाजिर है।” “मुझे तुम्हारे सिर की जरूरत नहीं है। मैं महाराज से मिलने वाले पुरस्कार से ही संतुष्ट हूं।” तेनाली राम ने कहा। इस तरह राजा कृष्णदेव राय का मस्तक गर्व से ऊंचा हो गया।
सबसे बड़ा बच्चा
दीवाली निकट आ रही थी। राजा कृष्णदेव राय ने राज दरबार में कहा-“क्यों न इस बार दीवाली कुछ अलग ढंग से मनाई जाए? ऐसा आयोजन किया जाए कि उसमें बच्चे-बड़े सभी मिलकर भाग लें।” “विचार तो बहुत उत्तम है महाराज।” मंत्री ने प्रसन्न होकर कहा।
सबने अपने-अपने सुझाव दिए। पुरोहित जी ने एक विशाल यज्ञ के आयोजन का सुझाव दिया तो मंत्री जी ने दूर देश से जादूगरों को बुलाने की बात कही। और भी दरबारियों ने अपने सुझाव दिए। लेकिन कृष्णदेव राय को किसी का सुझाव नहीं जंचा, उन्होंने सुझाव हेतु तेनालीराम की ओर देखा।
तेनाली राम मुस्कराया। फिर बोला-“क्षमा करें महाराज, दीपावली तो दीपों का पर्व है। यदि अलग ढंग का ही आयोजन चाहते हैं तो ऐसा करें-रात में तो हर वर्ष दीये जलाए ही जाते हैं। इस बार दिन में भी जलाएं।” यह सुनकर सारे दरबारी ठठाकर हंस पड़े।
मंत्री फब्ती कसते हुए बोला-“शायद बुढ़ापे की वजह से तेनाली राम को कम दिखाई देने लगा है, इसलिए इन्हें दिन में भी दीये चाहिए।” राजा कृष्णदेव राय भी तेनाली राम के इस सुझाव पर खीझे हुए थे, बोले-“तेनाली राम, हमारी समझ में तुम्हारी बात नहीं आई।” “महाराज मैं मिट्टी के दीये नहीं जीते-जागते दीपों की बात कर रहा हूं। और वे हैं हमारे नन्हें-मुन्ने बच्चे! जिनकी हंसी दीपों की लौ से भी ज्यादा उज्जवल है।” तेनाली राम ने कहा।
“तुम्हारी बात तो बहुत अच्छी है! लेकिन कार्यक्रम क्या हो?” राजा ने पूछा। “महाराज, इस बार दीवाली पर बच्चों के लिए एक मेले का आयोजन हो। बच्चे दिन भर उछलें-कूदें, हंसें-खिलखिलाएं, प्रतियोगिताओं में भाग लें। इस मेले का इंतजाम करने वाले भी बच्चे ही हों। बड़े भी उस मेले में जाएं लेकिन बच्चों के रूप में।
वे कहीं भी किसी भी बात में दखल न दें। जो बच्चा सर्वप्रथम आएगा, उसे राज्य का सबसे बड़ा बच्चा पुरस्कार दें...!” तेनाली राम ने अपनी बात पूरी की। “लेकिन राज्य का सबसे बड़ा बच्चा कौन है?” राजा ने पूछा। “वह तो आप ही हैं महाराज। आपसे बढ़कर बच्चों जैसा, निर्मल स्वभाव और किसा होगा?” तेनाली राम मुस्कराया।
यह सुनकर राजा कृष्णदेव राय की हंसी छूट गई। दरबारी भी मंद-मंद मुस्कराने लगे। दीवाली का दिन आया। बच्चों के मेले की बड़ी धूम रही। राजा कृष्णदेव राय बहुत खुश थे, बोले-“कमाल कर दिया बच्चों ने। सचमुच, इन नन्हें-मुन्ने दीपों का प्रकाश तो अदभुत है, अनोखा है, सबसे प्यारा है।”
बैंगन की चोरी
राजा कृष्णदेव राय के निजी बाग में बढ़िया किस्म के बैंगन के कुछ पौधे थे। एक बार राजा ने दरबारियों को दावत दी, जिसमें बैंगन की सब्जी भी परोसी गई। तेनाली राम को बैंगन बड़े स्वादिष्ट लगे। घर आकर उसने अपनी पत्नी से बैंगनों की प्रशंसा की।
पत्नी ने तेनाली राम से कहा-“इतने स्वादिष्ट बैंगन कम से कम एक बार तो मुझे भी खिलाओ।” “राजा अपने बाग के पौधों के बारे में बड़े सावधान रहते हैं। उनके बाग में चोरी करने वालों का सिर काट लिया जाता है। न बाबा न, मैं बैंगन चोरी करके नहीं ला सकता।” तेनाली राम ने कहा। “देखो, मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं मांगा। कम से कम एक बार तो मेरी इच्छा पूरी कर दो।” पत्नी बोली।
तेनाली राम को अपनी पत्नी के आगे हार माननी पड़ी। एक रात वह चुपके से राजा के बाग में कूद गया और दस-बारह बढ़िया बैंगन तोड़कर ले आया। उसकी पत्नी ने बड़े परिश्रम और लगन से उन्हें बनाया।
“वाह, वाह, क्या बढ़िया बैंगन है!” तेनाली राम की पत्नी ने चखते हुए कहा-“अपने बेटे को भी कम से कम चखा तो देने चाहिए।” “ऐसा गजब न कर देना। छः साल का बच्चा है। अचानक कभी मुंह से बात निकल गई तो लेने के देने पड़ जाएंगे।”
तेनाली राम बोला। “यह कैसे हो सकता है? ये बढ़िया बैंगन हम दोनों अकेले बैठकर खा लें और बेटे को चखाएं भी नहीं? कुछ ऐसा सोचो कि वह बैंगन खा भी ले और चोरी भी साबित न हो।” तेनाली राम की पत्नी बोली। “बहुत अच्छा।” तेनाली राम ने कहा।
उसने एक बाल्टी में पानी भरा और खुली छत पर, जहां बच्चा सोया हुआ था, खूब सारा पानी उस पर छिड़क दिया। फिर उसे उठाकर कहा-“वर्षा हो रही है। चलो, अंदर चलो।” अंदर ले जाकर उसने बच्चे के कपड़े बदलवाए। उसके बाद उसे बैंगन की तरकारी खाने को दी। फिर यह कह कर कि वर्षा हो रही है, उसे अंदर ही सुला दिया। अगले दिन राजा को बैंगनों की चोरी का पता चला गया।
नगर में इस बात को लेकर बड़ा शोर मचा। राजा ने चोर पकड़ने वाले को काफी बड़ा पुरस्कार देने की घोषणा की। प्रधानमंत्री अप्पाजी को तेनाली राम पर शक था। उसने राजा को अपना विचार बताया। “मैं जानता हूं कि वह बहुत चतुर है। वह किसी-न-किसी बहाने बच निकलेगा। उसके बेटे को बुलवाओ। अभी सच्चाई पता चल जाएगी।
राजा ने कहा।” तेनाली राम के बेटे को बुलवाया गया। उससे पूछा गया-“कल रात को तुमने कौन सी सब्जी खाई थी?” “बैंगन की सब्जी बहुत ही स्वादिष्ट थी।” बच्चे ने कहा। प्रधानमंत्री अप्पाजी ने तेनाली राम से कहा-“अब तो तुम्हें अपना अपराध स्वीकार करना ही पड़ेगा।”
“बिल्कुल नहीं।” तेनाली राम ने कहा-“यह तो कल रात बहुत ही जल्दी सो गया था। यों ही ऊटपटांग बातें कर रहा है। अवश्य इसने सपना देखा होगा। मैं अभी सारी बात साफ किए देता हूं।
इससे पूछिए कि कल रात मौसम कैसा था?” अप्पाजी ने बच्चे से पूछा-“कल रात कैसा मौसम था, आकाश साफ था या बारिश हुई थी?” “कल रात को बड़ी मूसलधार वर्षा हुई थी, प्रधानमंत्रीजी मेरे सारे कपड़े भीग गए थे।” बच्चे ने कहा।
रात को एक बूंद भी पानी नहीं पड़ा था। अप्पाजी ने सोचा-“यह बच्चा यों ही कल्पनाएं कर रहा है, जैसे वर्षा की कल्पना है, वैसे ही बैंगन की सब्जी की बात भी सोच ली होगी।” अप्पाजी ने तेनाली राम से अपने शक के लिए क्षमा मांग ली। एक बार फिर तेनालीराम अपनी चालाकियों से बच गया।
तेनालीराम की गायें
राजा कृष्णदेव राय सवेरे-सवेरे बगीचे में घूमने जाया करते थे, साथ में तेनालीराम भी होते थे। इस बात से दरबार के अन्य लोग जलते थे। वे इसी ताक में रहते थे कि कैसे तेनालीराम को नीचा दिखाया जाए।
एक दिन तेनालीराम बीमार पड़ गए। राजा अकेले ही घूमने गए। जब वे बगीचे में गए तो यह देखकर हैरान रह गए कि वहां के फूल-पौधे कुचले पड़े हैं और कुछ गायें चर रही हैं। दुखी राजा ने माली को बुलवाया।
राजा ने पूछा, “यह गायें कहां से आईं?”
माली को सभी दरबारियों ने तेनालीराम का नाम बताने को कहा था। उसने कहा, “महाराज यह गायें तेनालीराम ने बगीचे में चराने के लिए मंगवाई हैं।”
तब तक दूसरे दरबारी भी आ गए। उन्होंने भी राजा से चुगली की। राजा कृष्ण देव राय तेनालीराम पर बहुत गुस्सा हुए। उन्होंने तेनालीराम पर पांच हजार स्वर्णमुद्राओं का जुर्माना लगा दिया।
इस बीच तेनालीराम को भी इस बात का पता चल गया। उन्होंने मामले की छानबीन की। घटना के तीसरे दिन वह दरबार में आए। उनके साथ में कुछ गांव वाले भी थे। महाराज को प्रणाम कर तेनालीराम ने कहा, “महाराज मुझे सजा देने पहले इन गांव वालों की शिकायत सुन लें।”
गांव वालों ने कहा, “महाराज आपके कुछ दरबारियों ने हमसे कुछ गायें खरीद कर लाईं थीं। उनके पैसे हमें अब तक नहीं मिले हैं। आप ही न्याय करें महाराज।”
राजा ने जब पूछताछ की तो सच्चाई का पता लग गया। गायें तेनालीराम को नींचा दिखाने के लिए लाई गई थीं। राजा ने उन षड्यंत्रकारियों को वही जुर्माना लगाकर तेनालीराम को बरी कर दिया। साथ-साथ दरबारियों को उन गायों की कीमत भी अदा करने को कहा गया। इस बार भी दुष्ट दरबारी तेनालीराम की बुद्धि के आगे मात खा गए।
महाराज का आतिथ्य
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय जहाँ कहीं भी जाते, जब भी जाते, अपने साथ हमेशा तेनालीराम को जरूर ले जाते थे। इस बात से अन्य दरबारियों को बड़ी चिढ़ होती थी।
एक दिन तीन-चार दरबारियों ने मिलकर एकांत में महाराज से प्रार्थना की, ‘महाराज, कभी अपने साथ किसी अन्य व्यक्ति को भी बाहर चलने का अवसर दें।’ राजा को यह बात उचित लगी। उन्होंने उन दरबारियों को विश्वास दिलाया कि वे भविष्य में अन्य दरबारियों को भी अपने साथ घूमने-फिरने का अवसर अवश्य देंगे।
एक बार जब राजा कृष्णदेव राय वेष बदलकर कुछ गाँवों के भ्रमण को जाने लगे तो अपने साथ उन्होंने इस बार तेनालीराम को नहीं लिया बल्कि उसकी जगह दो अन्य दरबारियों को साथ ले लिया। घूमते-घूमते वे एक गाँव के खेतों में पहुँच गए। खेत से हटकर एक झोपड़ी थी, जहाँ कुछ किसान बैठे गपशप कर रहे थे।
राजा और अन्य लोग उन किसानों के पास पहुँचे और उनसे पानी माँगकर पिया। फिर राजा ने किसानों से पूछा, ‘कहो भाई लोगों, तुम्हारे गाँव में कोई व्यक्ति कष्ट में तो नहीं है? अपने राजा से कोई असंतुष्ट तो नहीं है?’
इन प्रश्नों को सुनकर गाँववालों को लगा कि वे लोग अवश्य ही राज्य के कोई अधिकारीगण हैं। वे बोले, ‘महाशय, हमारे गाँव में खूब शांति है, चैन है। सब लोग सुखी हैं। दिन-भर कडी़ मेहनत करके अपना काम-काज करते हैं और रात को सुख की नींद सोते हैं। किसी को कोई दुख नहीं है। राजा कृष्णदेव राय अपनी प्रजा को अपनी संतान की तरह प्यार करते हैं, इसलिए राजा से असंतुष्ट होने का सवाल ही नहीं पैदा होता।’
‘इस गाँव के लोग राजा को कैसा समझते हैं?’ राजा ने एक और प्रश्न किया।
राजा के इस सवाल पर एक बूढ़ा किसान उठा और ईख के खेत में से एक मोटा-सा गन्ना तोड़ लाया। उस गन्ने को राजा को दिखाता हुआ वह बूढ़ा किसान बोला, ‘श्रीमान जी, हमारे राजा कृष्णदेव राय बिल्कुल इस गन्ने जैसे हैं।’ अपनी तुलना एक गन्ने से होती देख राजा कृष्णदेव राय सकपका गए। उनकी समझ में यह बात बिल्कुल भी न आई कि इस बूढ़े किसान की बात का अर्थ क्या है?
उनकी यह भी समझ में न आया कि इस गाँव के रहने वाले अपने राजा के प्रति क्या विचार रखते हैं? राजा कृष्णदेव राय के साथ जो अन्य साथी थे, राजा ने उन साथियों से पूछा, ‘इस बूढ़े किसान के कहने का क्या अर्थ है?’ साथी राजा का यह सवाल सुनकर एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
फिर एक साथी ने हिम्मत की और बोला, ‘महाराज, इस बूढ़े किसान के कहने का साफ मतलब यही है कि हमारे राजा इस मोटे गन्ने की तरह कमजोर हैं। उसे जब भी कोई चाहे, एक झटके में उखाड़ सकता है। जैसे कि मैंने यह गन्ना उखाड़ लिया है।’
राजा ने अपने साथी की इस बात पर विचार किया तो राजा को यह बात सही मालूम हुई। वह गुस्से से भर गए और इस बूढ़े किसान से बोले, ‘तुम शायद मुझे नहीं जानते कि मैं कौन हूँ?’
राजा की क्रोध से भरी वाणी सुनकर वह बूढ़ा किसान डर के मारे थर-थर काँपने लगा। तभी झोंपड़ी में से एक अन्य बूढ़ा उठ खड़ा हुआ और बड़े नम्र स्वर में बोला-‘महाराज, हम आपको अच्छी तरह जान गए हैं, पहचान गए हैं, लेकिन हमें दुख इस बात का है कि आपके साथी ही आपके असली रूप को नहीं जानते। मेरे साथी किसान के कहने का मतलब यह है कि हमारे महाराज अपनी प्रजा के लिए तो गन्ने के समान कोमल और रसीले हैं किंतु दुष्टों और अपने दुश्मनों के लिए महानतम कठोर भी।’ उस बूढ़े ने एक कुत्ते पर गन्ने का प्रहार करते हुए अपनी बात पूरी की।
इतना कहने के साथ ही उस बूढ़े ने अपना लबादा उतार फेंका और अपनी नकली दाढ़ी-मूँछें उतारने लगा। उसे देखते ही राजा चौंक पड़े। ‘हैं-हैं तेनालीराम, तुमने यहाँ भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा।’ ‘तुम लोगों का पीछा कैसे छोड़ता भाई? अगर मैं पीछा न करता तो तुम इन सरल हृदय किसानों को मौत के घाट ही उतरवा देते। महाराज के दिल में क्रोध का ज्वार पैदा करते, सो अलग।’ ‘तुम ठीक ही कह रहे हो, तेनालीराम। मूर्खों का साथ हमेशा दुखदायी होता है। भविष्य में मैं कभी तुम्हारे अलावा किसी और को साथ नहीं रखा करूँगा।’
उन सबकी आपस की बातचीत से गाँववालों को पता चल ही गया था कि उनकी झोंपड़ी पर स्वयं महाराज पधारे हैं और भेष बदलकर पहले से उनके बीच बैठा हुआ आदमी ही तेनालीराम है तो वे उनके स्वागत के लिए दौड़ पड़े। कोई चारपाई उठवाकर लाया तो कोई गन्ने का ताजा रस निकालकर ले आया।
गाँववालों ने बड़े ही मन से अपने मेहमानों का स्वागत किया। उनकी आवभगत की। राजा कृष्णदेव राय उन ग्रामवासियों का प्यार देखकर आत्मविभोर हो गए। तेनालीराम की चोट से आहत हुए दरबारी मुँह लटकाए हुए जमीन कुरेदते रहे। तेनालीराम एक ओर बैठा मंद-मंद मुस्करा रहा था।
कला का चमत्कार
राजा ने एक नया महल बनवाया। उसमें एक प्रसिद्ध कलाकार से दीवारों पर बड़े सुंदर चित्र बनवाए। राजा अपने दरबारियों को वे चित्र दिखाने नए महल में ले गया। सबने उन चित्रों की जी भरकर प्रशंसा की, पर तेनालीराम चुप था।
अचानक उसने एक चित्र देखा, जिसमें एक व्यक्ति का एक ओर का चेहरा ही दिखाई देता था। उसने राजा से पूछा, ‘महाराज, इस व्यक्ति के चेहरे का दूसरा आधा भाग कहाँ है?’ ‘तुम भी अजीब मूर्ख हो!’ राजा ने हँसते हुए कहा, ‘दूसरे आधे भाग की कल्पना करनी पड़ती है।’ तेनालीराम चुप हो गया। कोई एक महीने बाद तेनालीराम ने राजा से कहा, ‘महाराज, मैं कई दिनों से बड़े परिश्रम से चित्र बनाना सीख रहा हूँ। मैंने कई अच्छे-अच्छे चित्रकारों को पीछे छोड़ दिया है।’ राजा बोले, ‘ऐसी बात है तो ठीक है। तुम मेरे भवन के दीवारों पर अपनी कला का चमत्कार दिखाओ।’ तेनालीराम ने बड़ी लगन के साथ यह काम किया। एक महीने के बाद उसने राजा से कहा कि वह दरबारियों के साथ आकर उसके चित्र देखें।
सब महल में पहुँचे। सब दीवारों पर शरीर के अलग-अलग अंगों के चित्र बने थे। कहीं हाथ, कहीं घुटने, कहीं कुहनी, जगह-जगह नाम, कान, आँखें, दाँत और मुँह बने थे। क्रोध में चिल्लाते हुए राजा ने पूछा, ‘यह सब क्या है? शरीर के दूसरे भाग साथ क्यों नहीं हैं?’ ‘उनकी कल्पना करनी पड़ती है महाराज!’गंभीर-सा मुँह बनाकर तेनालीराम ने कहा। राजा ने दो सिपाही बुलवाए। ये वही सिपाही थे, जिन्हें तेनालीराम ने कोड़ों का उपहार दिलवाया था। राजा ने हुक्म दिया, ‘ले जाओ इसे और इसका सिर धड़ से अलग कर दो। मैं तंग आ गया हूँ इस आदमी से। मेरा महल इसने बरबाद कर दिया है।’
सिपाही तेनालीराम को ले जाते हुए बहुत खुश थे। आज उससे बदला लेने का अवसर मिला था। तेनालीराम ने कहा, ‘मुझे मरना तो है ही, लेकिन आप लोगों की बड़ी कृपा होगी अगर आप मुझे मरने से पहले किसी तालाब में कमर तक पानी में खड़े होकर प्रार्थना करने दें, जिससे मैं स्वर्ग जा सकूँ।’ दोनों सिपाहियों ने सोचा, क्या हर्ज है। उन्होंने कहा, ‘ठीक है, पर कोई चालाकी करने की कोशिश मत करना।’ ‘आप मेरे दोनों ओर तलवार लेकर खड़े हो जाइए। मैं बचने की कोशिश करूँ तो बेशक मुझ पर वार कर दीजिए।’
सिपाहियों ने सोचा कि यह तो बहुत अच्छी योजना है। वे एक तालाब में तेनालीराम के दोनों ओर तलवारें निकालकर खड़े हो गए। कोई पौने घंटे के बाद तेनालीराम अचानक चिल्लाया-‘तलवार चलाओ।’ और झट से पानी में डुबकी लगा दी। घबराहट और जल्दी में सिपाहियों ने तलवारें चला दीं और एक-दूसरे के वार खाकर जान से हाथ धो बैठे। तेनालीराम राजा के पास पहुँचा। राजा का क्रोध तब तक ठंडा हो चुका था। हैरान होते हुए, पूछा, ‘तुम बच कैसे गए?’ ‘महाराज, उन मूर्खों ने मुझे मारने की बजाए एक-दूसरे को मार दिया।’ और तेनालीराम ने सारी कहानी कह सुनाई। ‘इस बार तो मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ पर आगे से इस तरह की शरारतें नहीं होनी चाहिए।’
कुत्ते की दुम
एक दिन राजा कृष्णदेव राय के दरबार में इस बात पर गरमागरम बहस हो रही थी कि मनुष्य का स्वभाव बदला जा सकता है या नहीं। कुछ का कहना था कि मनुष्य का स्वभाव बदला जा सकता है। कुछ का विचार था कि ऐसा नहीं हो सकता, जैसे कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं हो सकती।
राजा को एक विनोद सूझा। उन्होंने कहा, ‘बात यहाँ पहुँची कि अगर कुत्ते की दुम सीधी की जा सकती है, तो मनुष्य का स्वभाव भी बदला जा सकता है, नहीं तो नहीं बदला जा सकता।’ राजा ने फिर विनोद को आगे बढ़ाने की सोची, बोले, ‘ठीक है, आप लोग यह प्रयत्न करके देखिए।’
राजा ने दस चुने हुए व्यक्तियों को कुत्ते का एक-एक पिल्ला दिलवाया और छह मास के लिए हर मास दस स्वर्णमुद्राएँ देना निश्चित किया। इन सभी लोगों को कुत्तों की दुम सीधी करने का प्रयत्न करना था। इन व्यक्तियों में एक तेनालीराम भी था। शेष नौ लोगों ने इन छह महीनों में पिल्लों की दुम सीधी करने की बड़ी कोशिश कीं।
एक ने पिल्ले की पूँछ के छोर को भारी वजन से दबा दिया ताकि इससे दुम सीधी हो जाए। दूसरे ने पिल्ले की दुम को पीतल की एक सीधी नली में डाले रखा। तीसरे ने अपने पिल्ले की पूँछ सीधी करने के लिए हर रोज पूँछ की मालिश करवाई। छठे सज्जन कहीं से किसी तांत्रिक को पकड़ लाए, जो कई तरह से उटपटाँग वाक्य बोलकर और मंत्र पढ़कर इस काम को करने के प्रयत्न में जुटा रहा। सातवें सज्जन ने अपने पिल्ले की शल्य चिकित्सा यानी ऑपरेशन करवाया। आठवाँ व्यक्ति पिल्ले को सामने बिठाकर छह मास तक प्रतिदिन उसे भाषण देता रहा कि पूँछ सीधी रखो भाई, सीधी रखो।
नवाँ व्यक्ति पिल्ले को मिठाइयाँ खिलाता रहा कि शायद इससे यह मान जाए और अपनी पूँछ सीधी कर ले। पर तेनालीराम पिल्ले को इतना ही खिलाता, जितने से वह जीवित रहे। उसकी पूँछ भी बेजान सी लटक गई, जो देखने में सीधी ही जान पड़ती थी।
छह मास बीत जाने पर राजा ने दसों पिल्लों को दरबार में उपस्थित करने का आदेश दिया। नौ व्यक्तियों ने हट्टे-कट्टे और स्वस्थ पिल्ले पेश किए। जब पहले पिल्ले की पूँछ से वजन हटाया गया तो वह एकदम टेढ़ी होकर ऊपर उठ गई। दूसरी की दुम जब नली में से निकाली गई वह भी उसी समय टेढ़ी हो गई। शेष सातों पिल्लों की पूँछे भी टेढ़ी ही थीं।
तेनालीराम ने अपने अधमरा-सा पिल्ला राजा के सामने कर दिया। उसके सारे अंग ढलक रहे थे। तेनालीराम बोला, ‘महाराज, मैंने कुत्ते की दुम सीधी कर दी है।’ ‘दुष्ट कहीं के!’ राजा ने कहा, ‘बेचारे निरीह पशु पर तुम्हें दया भी नहीं आई? तुमने तो इसे भूखा ही मार डाला। इसमें तो पूँछ हिलाने जितनी शक्ति भी नहीं है।’
‘महाराज, अगर आपने कहा होता कि इसे अच्छी तरह खिलाया-पिलाया जाए तो मैं कोई कसर नहीं छोड़ता। पर आपका आदेश तो इसकी पूँछ को स्वभाव के विरुद्ध सीधा करने का था, जो इसे भूखा रखने से ही पूरा हो सकता था। बिल्कुल ऐसे ही मनुष्य का स्वभाव भी असल में बदलता नहीं है। हाँ, आप उसे काल कोठरी में बंद करके, उसे भूखा रखकर उसका स्वभाव मुर्दा बना सकते हैं।’
कंजूस सेठ
राजा कृष्णदेव राय के राज्य में एक कंजूस सेठ रहता था। उसके पास धन की कोई कमी न थी, पर एक पैसा भी जेब से निकालते समय उसकी नानी मर जाती थी। एक बार उसके कुछ मित्रों ने हँसी-हँसी में एक कलाकार से अपना चित्र बनवाने के लिए उसे राजी कर लिया, उसके सामने वह मान तो गया, पर जब चित्रकार उसका चित्र बनाकर लाया, तो सेठ की हिम्मत न पड़ी कि चित्र के मूल्य के रूप में चित्रकार को सौ स्वर्णमुद्राएँ दे दे।
यों वह सेठ भी एक तरह का कलाकार ही था। चित्रकार को आया देखकर सेठ अंदर गया और कुछ ही क्षणों में अपना चेहरा बदलकर बाहर आया। उसने चित्रकार से कहा, ‘तुम्हारा चित्र जरा भी ठीक नहीं बन पड़ा। तुम्हीं बताओ, क्या यह चेहरा मेरे चेहरे से जरा भी मिलता है?’ चित्रकार ने देखा, सचमुच चित्र सेठ के चेहरे से जरा भी नहीं मिलता था।
तभी सेठ बोला, ‘जब तुम ऐसा चित्र बनाकर लाओगे, जो ठीक मेरी शक्ल से मिलेगा, तभी मैं उसे खरीदूँगा।’ दूसरे दिन चित्रकार एक और चित्र बनाकर लाया, जो हूबहू सेठ के उस चेहरे से मिलता था, जो सेठ ने पहले दिन बना रखा था। इस बार फिर सेठ ने अपना चेहरा बदल लिया और चित्रकार के चित्र में कमी निकालने लगा। चित्रकार बड़ा लज्जित हुआ। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस तरह की गलती उसके चित्र में क्यों होती है?
अगले दिन वह फिर एक नया चित्र बनाकर ले गया, पर उसके साथ फिर वही हुआ। अब तक उसकी समझ में सेठ की चाल आ चुकी थी। वह जानता था कि यह मक्खीचूस सेठ असल में पैसे नहीं देना चाहता, पर चित्रकार अपनी कई दिनों की मेहनत भी बेकार नहीं जाने देना चाहता था। बहुत सोच-विचारकर चित्रकार तेनालीराम के पास पहुँचा और अपनी समस्या उनसे कह सुनाई। कुछ समय सोचने के बाद तेनालीराम ने कहा-‘कल तुम उसके पास एक शीशा लेकर जाओ और कहो कि आपकी बिलकुल असली तस्वीर लेकर आया हूँ। अच्छी तरह मिलाकर देख लीजिए। कहीं कोई अंतर आपको नहीं मिलेगा। बस, फिर अपना काम हुआ ही समझो।’ अगले दिन चित्रकार ने ऐसा ही किया।
वह शीशा लेकर सेठ के यहाँ पहुँचा और उसके सामने रख दिया। ‘लीजिए, सेठ जी, आपका बिलकुल सही चित्र। गलती की इसमें जरा भी गुंजाइश नहीं है।’ चित्रकार ने अपनी मुस्कराहट पर काबू पाते हुए कहा। ‘लेकिन यह तो शीशा है।’सेठ ने झुँझलाते हुए कहा। ‘आपकी असली सूरत शीशे के अलावा बना भी कौन सकता है? जल्दी से मेरे चित्रों का मूल्य एक हजार स्वर्णमुद्राएँ निकालिए।’ चित्रकार बोला। सेठ समझ गया कि यह सब तेनालीराम की सूझबूझ का परिणाम है। उसने तुरंत एक हजार स्वर्णमुद्राएँ चित्रकार को दे दीं। तेनालीराम ने जब यह घटना महाराज कृष्णदेव राय को बताई तो वह खूब हँसे।
चोटी की कीमत
एक दिन बातों-बातों में राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से पूछा, ‘अच्छा, यह बताओ कि किस प्रकार के लोग सबसे अधिक मूर्ख होते हैं और किस प्रकार के सबसे अधिक सयाने?’तेनालीराम ने तुरंत उत्तर दिया, ‘महाराज! ब्राह्मण सबसे अधिक मूर्ख और व्यापारी सबसे अधिक सयाने होते हैं।’ ‘ऐसा कैसे हो सकता है?’राजा ने कहा।‘मैं यह बात साबित कर सकता हूँ’, तेनालीराम ने कहा। ‘कैसे?’राजा ने पूछा।’
‘अभी जान जाएँगे आप। जरा,राजगुरु को बुलवाइए।’राजगुरु को बुलवाया गया। तेनालीराम ने कहा,‘महाराज, अब मैं अपनी बात साबित करूँगा, लेकिन इस काम में आप दखल नहीं देंगे। आप यह वचन दें, तभी मैं काम आरंभ करूँगा।’ राजा ने तेनालीराम की बात मान ली। तेनालीराम ने आदरपूर्वक राजगुरु से कहा,‘राजगुरु जी,महाराज को आपकी चोटी की आवश्यकता है। इसके बदले आपको मुँहमांगा इनाम दिया जाएगा।’
राजगुरु को काटो तो खून नहीं। वर्षों से पाली गई प्यारी चोटी को कैसे कटवा दें? लेकिन राजा की आज्ञा कैसे टाली जा सकती थी। उसने कहा, ‘तेनालीराम जी, मैं इसे कैसे दे सकता हूँ।’‘राजगुरु जी, आपने जीवन-भर महाराज का नमक खाया है। चोटी कोई ऐसी वस्तु तो है नहीं, जो फिर न आ सके। फिर महाराज मुँहमाँगा इनाम भी दे रहे हैं।...’
राजगुरु मन ही मन समझ गया कि यह तेनालीराम की चाल है। तेनालीराम ने पूछा,‘राजगुरु जी, आपको चोटी के बदले क्या इनाम चाहिए?’ राजगुरु ने कहा, ‘पाँच स्वर्णमुद्राएँ बहुत होंगी।’पाँच स्वर्णमुद्राएँ राजगुरु को दे दी गई और नाई को बुलावाकर राजगुरु की चोटी कटवा दी गई। अब तेनालीराम ने नगर के सबसे प्रसिद्ध व्यापारी को बुलवाया। तेनालीराम ने व्यापारी से कहा, ‘महाराज को तुम्हारी चोटी की आवश्यकता है।’ ‘सब कुछ महाराज का ही तो है, जब चाहें ले लें, लेकिन बस इतना ध्यान रखें कि मैं एक गरीब आदमी हूँ।’ व्यापारी ने कहा। ‘तुम्हें तुम्हारी चोटी का मुँहमाँगा दाम दिया जाएगा।’ तेनालीराम ने कहा। ‘सब आपकी कृपा है लेकिन...।’व्यापारी ने कहा। ‘क्या कहना चाहते हो तुम।’-तेनालीराम ने पूछा। ‘जी बात यह है कि जब मैंने अपनी बेटी का विवाह किया था, तो अपनी चोटी की लाज रखने के लिए मैंने पूरी पाँच हजार स्वर्णमुद्राएँ खर्च की थीं। पिछले साल मेरे पिता की मौत हुई। तब भी इसी कारण पाँच हजार स्वर्णमुद्राओं का खर्च हुआ और अपनी इसी प्यारी-दुलारी चोटी के कारण बाजार से कम-से-कम पाँच हजार स्वर्णमुद्राओं का उधार मिल जाता है।’ अपनी चोटी पर हाथ फेरते हुए व्यापारी ने कहा।
‘इस तरह तुम्हारी चोटी का मूल्य पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ हुआ। ठीक है,यह मूल्य तुम्हें दे दिया जाएगा।’ पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ व्यापारी को दे दी गईं। व्यापारी चोटी मुँड़वाने बैठा। जैसे ही नाई ने चोटी पर उस्तरा रखा,व्यापारी कड़ककर बोला, ‘सँभलकर, नाई के बच्चे। जानता नहीं, यह महाराज कृष्णदेव राय की चोटी है।’ राजा ने सुना तो आगबबूला हो गया। इस व्यापारी की यह मजाल कि हमारा अपमान करे? उन्होंने कहा, ‘धक्के मारकर निकाल दो इस सिरफिरे को।’ व्यापारी पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राओं की थैली को लेकर वहाँ से भाग निकला। कुछ देर बाद तेनालीराम ने कहा, ‘आपने देखा महाराज, राजगुरु ने तो पाँच स्वर्णमुद्राएँ लेकर अपनी चोटी मुँड़वा ली। व्यापारी पंद्रह हजार स्वर्णमुद्राएँ भी ले गया और चोटी भी बचा ली। आप ही कहिए, ब्राह्मण सयाना हुआ कि व्यापारी?’राजा ने कहा, ‘सचमुच तुम्हारी बात ठीक निकली।’
तेनालीराम और महाराज का आतिथ्य
महाराज का आतिथ्य
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय जहाँ कहीं भी जाते, जब भी जाते, अपने साथ हमेशा तेनालीराम को जरूर ले जाते थे। इस बात से अन्य दरबारियों को बड़ी चिढ़ होती थी।
एक दिन तीन-चार दरबारियों ने मिलकर एकांत में महाराज से प्रार्थना की, ‘महाराज, कभी अपने साथ किसी अन्य व्यक्ति को भी बाहर चलने का अवसर दें।’ राजा को यह बात उचित लगी। उन्होंने उन दरबारियों को विश्वास दिलाया कि वे भविष्य में अन्य दरबारियों को भी अपने साथ घूमने-फिरने का अवसर अवश्य देंगे।
एक बार जब राजा कृष्णदेव राय वेष बदलकर कुछ गाँवों के भ्रमण को जाने लगे तो अपने साथ उन्होंने इस बार तेनालीराम को नहीं लिया बल्कि उसकी जगह दो अन्य दरबारियों को साथ ले लिया। घूमते-घूमते वे एक गाँव के खेतों में पहुँच गए। खेत से हटकर एक झोपड़ी थी, जहाँ कुछ किसान बैठे गपशप कर रहे थे।
राजा और अन्य लोग उन किसानों के पास पहुँचे और उनसे पानी माँगकर पिया। फिर राजा ने किसानों से पूछा, ‘कहो भाई लोगों, तुम्हारे गाँव में कोई व्यक्ति कष्ट में तो नहीं है? अपने राजा से कोई असंतुष्ट तो नहीं है?’
इन प्रश्नों को सुनकर गाँववालों को लगा कि वे लोग अवश्य ही राज्य के कोई अधिकारीगण हैं। वे बोले, ‘महाशय, हमारे गाँव में खूब शांति है, चैन है। सब लोग सुखी हैं। दिन-भर कडी़ मेहनत करके अपना काम-काज करते हैं और रात को सुख की नींद सोते हैं। किसी को कोई दुख नहीं है। राजा कृष्णदेव राय अपनी प्रजा को अपनी संतान की तरह प्यार करते हैं, इसलिए राजा से असंतुष्ट होने का सवाल ही नहीं पैदा होता।’
‘इस गाँव के लोग राजा को कैसा समझते हैं?’ राजा ने एक और प्रश्न किया।
राजा के इस सवाल पर एक बूढ़ा किसान उठा और ईख के खेत में से एक मोटा-सा गन्ना तोड़ लाया। उस गन्ने को राजा को दिखाता हुआ वह बूढ़ा किसान बोला, ‘श्रीमान जी, हमारे राजा कृष्णदेव राय बिल्कुल इस गन्ने जैसे हैं।’ अपनी तुलना एक गन्ने से होती देख राजा कृष्णदेव राय सकपका गए। उनकी समझ में यह बात बिल्कुल भी न आई कि इस बूढ़े किसान की बात का अर्थ क्या है?
उनकी यह भी समझ में न आया कि इस गाँव के रहने वाले अपने राजा के प्रति क्या विचार रखते हैं? राजा कृष्णदेव राय के साथ जो अन्य साथी थे, राजा ने उन साथियों से पूछा, ‘इस बूढ़े किसान के कहने का क्या अर्थ है?’ साथी राजा का यह सवाल सुनकर एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
फिर एक साथी ने हिम्मत की और बोला, ‘महाराज, इस बूढ़े किसान के कहने का साफ मतलब यही है कि हमारे राजा इस मोटे गन्ने की तरह कमजोर हैं। उसे जब भी कोई चाहे, एक झटके में उखाड़ सकता है। जैसे कि मैंने यह गन्ना उखाड़ लिया है।’
राजा ने अपने साथी की इस बात पर विचार किया तो राजा को यह बात सही मालूम हुई। वह गुस्से से भर गए और इस बूढ़े किसान से बोले, ‘तुम शायद मुझे नहीं जानते कि मैं कौन हूँ?’
राजा की क्रोध से भरी वाणी सुनकर वह बूढ़ा किसान डर के मारे थर-थर काँपने लगा। तभी झोंपड़ी में से एक अन्य बूढ़ा उठ खड़ा हुआ और बड़े नम्र स्वर में बोला-‘महाराज, हम आपको अच्छी तरह जान गए हैं, पहचान गए हैं, लेकिन हमें दुख इस बात का है कि आपके साथी ही आपके असली रूप को नहीं जानते। मेरे साथी किसान के कहने का मतलब यह है कि हमारे महाराज अपनी प्रजा के लिए तो गन्ने के समान कोमल और रसीले हैं किंतु दुष्टों और अपने दुश्मनों के लिए महानतम कठोर भी।’ उस बूढ़े ने एक कुत्ते पर गन्ने का प्रहार करते हुए अपनी बात पूरी की।
इतना कहने के साथ ही उस बूढ़े ने अपना लबादा उतार फेंका और अपनी नकली दाढ़ी-मूँछें उतारने लगा। उसे देखते ही राजा चौंक पड़े। ‘हैं-हैं तेनालीराम, तुमने यहाँ भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा।’ ‘तुम लोगों का पीछा कैसे छोड़ता भाई? अगर मैं पीछा न करता तो तुम इन सरल हृदय किसानों को मौत के घाट ही उतरवा देते। महाराज के दिल में क्रोध का ज्वार पैदा करते, सो अलग।’ ‘तुम ठीक ही कह रहे हो, तेनालीराम। मूर्खों का साथ हमेशा दुखदायी होता है। भविष्य में मैं कभी तुम्हारे अलावा किसी और को साथ नहीं रखा करूँगा।’
उन सबकी आपस की बातचीत से गाँववालों को पता चल ही गया था कि उनकी झोंपड़ी पर स्वयं महाराज पधारे हैं और भेष बदलकर पहले से उनके बीच बैठा हुआ आदमी ही तेनालीराम है तो वे उनके स्वागत के लिए दौड़ पड़े। कोई चारपाई उठवाकर लाया तो कोई गन्ने का ताजा रस निकालकर ले आया।
गाँववालों ने बड़े ही मन से अपने मेहमानों का स्वागत किया। उनकी आवभगत की। राजा कृष्णदेव राय उन ग्रामवासियों का प्यार देखकर आत्मविभोर हो गए। तेनालीराम की चोट से आहत हुए दरबारी मुँह लटकाए हुए जमीन कुरेदते रहे। तेनालीराम एक ओर बैठा मंद-मंद मुस्करा रहा था।
तेनालीराम और उपहार
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक दिन पड़ोसी देश का दूत आया। यह राजा कृष्णदेव राय के लिए अनेक उपहार भी लाया था। विजयनगर के राजदरबारियों ने दूत का खूब स्वागत-सत्कार किया। तीसरे दिन जब दूत अपने देश जाने लगा तो राजा कृष्णदेव राय ने भी अपने पड़ोसी देश के राजा के लिए कुछ बहुमूल्य उपहार दिए।
राजा कृष्णदेव राय उस दूत को भी उपहार देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने दूत से कहा-‘हम तुम्हें भी कुछ उपहार देना चाहते हैं। सोना-चाँदी, हीरे,रत्न, जो भी तुम्हारी इच्छा हो, माँग लो।’ ‘महाराज, मुझे यह सब कुछ नहीं चाहिए। यदि देना चाहते हैं तो कुछ और दीजिए।’ दूत बोला। ‘महाराज, मुझे ऐसा उपहार दीजिए, जो सुख में दुख, में सदा मेरे साथ रहे और जिसे मुझसे कोई छीन न पाए।’ यह सुनकर राजा कृष्णदेव राय चकरा गए।
उन्होंने उत्सुक नजरों से दरबारियों की ओर देखा। सबके चेहरों पर परेशानी के भाव दिखाई दे रहे थे। किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कौन-सा उपहार हो सकता है। तभी राजा कृष्णदेव राय को तेनालीराम की याद आई। वह दरबार में ही मौजूद था। राजा ने तेनालीराम को संबोधित करते हुए पूछा-‘क्या तुम ला सकते हो ऐसा उपहार जैसा दूत ने माँगा है?’ ‘अवश्य महाराज, दोपहर को जब यह महाशय यहाँ से प्रस्थान करेंगे, वह उपहार इनके साथ ही होगा।’ नियत समय पर दूत अपने देश को जाने के लिए तैयार हुआ। सारे उपहार उसके रथ में रखवा दिए गए।
जब राजा कृष्णदेव राय उसे विदा करने लगे तो दूत बोला-‘महाराज, मुझे वह उपहार तो मिला ही नहीं, जिसका आपने मुझसे वायदा किया था।’ राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा और बोले-‘तेनालीराम, तुम लाए नहीं वह उपहार?’ इस पर तेनालीराम हँसकर बोला, ‘महाराज, वह उपहार तो इस समय भी इनके साथ ही है। लेकिन यह उसे देख नहीं पा रहे हैं। इनसे कहिए कि जरा पीछे पलटकर देखें।’
दूत ने पीछे मुड़कर देखा, मगर उसे कुछ भी नजर न आया। वह बोला-‘कहाँ है वह उपहार? मुझे तो नहीं दिखाई दे रहा।’ तेनालीराम मुस्कुराए और बोले-‘जरा ध्यान से देखिए दूत महाशय, वह उपहार आपके पीछे ही है-आपका साया अर्थात आपकी परछाई। सुख में, दुख में, जीवन-भर यह आपके साथ रहेगा और इसे कोई भी आपसे नहीं छीन सकेगा।’ यह बात सुनते ही राजा कृष्णदेव राय की हँसी छूट गई। दूत भी मुस्कुरा पड़ा और बोला-‘महाराज, मैंने तेनालीराम की बुद्धिमता की काफी तारीफ सुनी थीं, आज प्रमाण भी मिल गया।’ तेनालीराम मुस्कराकर रह गया।
तेनालीराम ने बनाया बोलने वाला बुत
दशहरे का त्यौहार निकट था। राजा कृष्णदेव राय के दरबारियों ने भी जब दशहरा मनाने की बात उठाई तो राजा कृष्णदेव राय बोले, ‘मेरी हार्दिक इच्छा है कि इस बार दशहरा खूब धूमधाम से मनाया जाए। मैं चाहता हूँ कि इस अवसर पर सभी दरबारी, मंत्रीगण, सेनापति और पुरोहित अपनी-अपनी झाँकियाँ सजाएँ। जिसकी झाँकी सबसे अच्छी होगी, हम उसे पुरस्कार देंगे।’
यह सुनकर सभी दूसरे दिन से ही झाँकियाँ बनाने में जुट गए। सभी एक से एक बढ़कर झाँकी बनाने की होड़ में लगे थे। झाँकियाँ एक से बढ़कर एक थीं। राजा को सभी की झाँकियाँ नजर आईं मगर तेनालीराम की झाँकी उन्हें कहीं दिखाई नहीं दी।
वह सोच में पड़ गए और फिर उन्होंने अपने दरबारियों से पूछा, ‘तेनालीराम कहीं नजर नहीं आ रहा है। उसकी झाँकी भी दिखाई नहीं दे रही है। आखिर तेनालीराम है कहाँ?’
‘महाराज, तेनालीराम को झाँकी बनानी आती ही कहाँ है? वह देखिए, उधर उस टीले पर काले रंग से रंगी एक झोंपड़ी और उसके आगे खड़ा है एक बदसूरत बुत। यही है उसकी झाँकी तेनालीराम की झाँकी।’ मंत्री ने व्यंग्यपू्र्ण स्वर में कहा।
राजा उस ऊँचे टीले पर गए और तेनालीराम से पूछा, ‘तेनालीराम, यह तुमने क्या बनाया है? क्या यही है तुम्हारी झाँकी?’ ‘जी महाराज, यही मेरी झाँकी है और मैंने यह क्या बनाया है इसका उत्तर मैं इसी से पूछकर बताता हूँ, कौन है यह?’ कहते हुए तेनालीराम ने बुत से पूछा, ‘बोलता क्यों नहीं? महाराज के सवाल का उत्तर दें।’
‘मैं उस पापी रावण की छाया हूँ जिसके मरने की खुशी में तुम दशहरे का त्यौहार मना रहे हो। मगर मैं मरा नहीं। एक बार मरा, फिर पैदा हो गया। आज जो आप अपने आसपास भुखमरी, गरीबी, अत्याचार, उत्पीड़न आदि देख रहे हैं न...। ये सब मेरा ही किया-धरा है। अब मुझे मारने वाला है ही कौन?’ कहकर बुत ने एक जोरदार कहकहा लगाया।
राजा कृष्णदेव राय को उसकी बात सुनकर क्रोध आ गया। वे गुस्से में भरकर बोले, ‘मैं अभी अपनी तलवार से इस बुत के टुकड़े-टुकड़े कर देता हूँ।’ ‘बुत के टुकड़े कर देने से क्या मैं मर जाऊँगा? क्या बुत के नष्ट हो जाने से प्रजा के दुख दूर हो जाएँगे?’ इतना कहकर बुत के अंदर से एक आदमी बाहर आया और बोला, ‘महाराज, क्षमा करें। यह सच्चाई नहीं, झांकी का नाटक था।’
‘नहीं, यह नाटक नहीं था, सत्य था। यही सच्ची झाँकी है। मुझे मेरे कर्तव्य की याद दिलाने वाली यह झाँकी सबसे अच्छी है। प्रथम पुरस्कार तेनालीराम को दिया जाता है।’राजा कृष्णदेव राय ने कहा। राजा की इस बात पर सभी दरबारी आश्चर्य से एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे।
तेनालीराम बने ‘महामूर्ख’
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय होली का त्योहार बड़ी धूम-धाम से मनाते थे। इस अवसर पर हास्य-मनोरंजन के कई कार्यक्रम होते थे। हर कार्यक्रम के सफल कलाकार को पुरस्कार भी दिया जाता था। सबसे बड़ा पुरस्कार ‘महामूर्ख’ की उपाधि पाने वाले को दिया जाता था।
कृष्णदेव राय के दरबार में तेनालीराम सब का मनोरंजन करते थे। वह बहुत तेज दिमाग के थे। उन्हें हर साल का सर्वश्रेष्ठ हास्य-कलाकर का पुरस्कार तो मिलता ही था, ‘महामूर्ख’ का खिताब भी हर साल वही जीत ले जाते। दरबारी इस कारण से उनसे जलते थे। उन्होंने एक बार मिलकर तेनालीराम को हराने की युक्ति निकाली।
इस बार होली के दिन उन्होंने तेनालीराम को खूब छककर भंग पिलवा दी। होली के दिन तेनालीराम भंग के नशे में देर तक सोते रहे। उनकी नींद खुली तो उन्होंने देखा दोपहर हो रही थी। वह भागते हुए दरबार पहुंचे। आधे कार्यक्रम खत्म हो चुके थे।
कृष्णदेव राय उन्हें देखते ही डपटकर पूछ बैठे, “अरे मूर्ख तेनालीराम जी, आज के दिन भी भंग पीकर सो गए?”
राजा ने तेनालीराम को मूर्ख कहा, यह सुनकर सारे दरबारी खुश हो गए। उन्होंने भी राजा की हां में हां मिलाई और कहा, “आपने बिल्कुल ठीक कहा, तेनालीराम मूर्ख ही नहीं महामूर्ख है।”
जब तेनालीराम ने सब के मुंह से यह बात सुनी तो वे मुस्कराते हुए राजा से बोले, “धन्यवाद महाराज, आपने अपने मुंह से मुझे महामूर्ख घोषित कर आज के दिन का सबसे बड़ा पुरस्कार दे दिया।”
तेनालीराम की यह बात सुनकर दरबारियों को अपनी भूल का पता चल गया, पर अब वे कर भी क्या सकते थे? क्योंकि वे खुद ही अपने मुंह से तेनालीराम को महामूर्ख ठहरा चुके थे। हर साल की तरह इस साल भी तेनालीराम ‘महामूर्ख’ का पुरस्कार जीत ले गए।
दरबार में ठंडी बयार
गर्मी का मौसम था। राजा कृष्णदेव राय के महल में भी काफी गर्मी थी। दरबारी भी बहुत परेशान थे। जब उनकी सहनशीलता जवाब दे गई तो उन्होंने दरबार में भी, सवेरे की ठंडी हवा लाने की इच्छा जाहिर की।
दरबारियों की यह बात सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने उनसे पूछा, “आप में से जो कोई दरबार में ठंडी हवा ला देंगे उन्हें पुरस्कार मिलेगा।”
राजा की बात सुनकर सभी दरबारी चुप गए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि दरबार में ठंडी हवा लाई कैसे लाई जाए।
दूसरे दिन जब सभी दरबारी, दरबार में आए तो राजा ने उनसे कल के काम के बारे में पूछा। सभी दरबारियों का चेहरा उतरा हुआ था। तभी तेनाली राम ने कहा कि वह दरबार में ठंडी बयार लाने की व्यवस्था कर देगा।
तेनालीराम की जवाब सुनकर सभी दरबारी हैरान रह गए। राजा की आज्ञा होने पर, तेनाली राम ने बाहर खड़े लोगों को बुलवाया। सभी के हाथ में खसखस के भींगे हुए पंखे थे। तेनाली राम का इशारा पाते ही सभी खसखस के पंखों से दरबार में हवा झेलने लगे। थोड़ी ही देर में सारा दरबार ठंडी हवा और खुशबू से महक उठा।
राजा और दरबारी बड़े प्रसन्न हुए। राजा मन ही मन तेनाली राम की बुद्धिमत्ता से बड़े प्रभावित हुए। महाराज ने तेनाली राम को पुरस्कार में एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दीं। सभी दरबारी इस बार भी देखते रह गए।
तेनालीराम ने चोरी पकड़ी
एक बार राजा कृष्णदेव राय के राज्य विजयनगर में लगातार चोरी होनी शुरू हुई। सेठों ने आकर राजा के दरबार में दुहाई दी, “महाराज हम लुट गए बरबाद हो गए। रात को ताला तोड़कर चोर हमारी तिजोरी का सारा धन उड़ा ले गए।”
राजा कृष्णदेव राय ने इन घटनाओं की जांच कोतवाल से करवाई, पर कुछ भी हाथ नहीं लगा। वह बहुत चिंतित हुए। चोरी की घटनाएं होती रही। चोरों की हिम्मत बढ़ती जा रही थी।
अंत में राजा ने दरबारियों को लताड़ते हुए कहा, “क्या आप में से कोई भी ऐसा नहीं जो चोरों को पकड़वाने की जिम्मेदारी ले सके?” सारे दरबारी एक दूसरे का मुंह देखने लगे। तेनालीराम ने उठ कर कहा, “महाराज यह जिम्मेदारी मैं लूंगा।”
वहां से उठकर तेनालीराम नगर के एक प्रमुख जौहरी के यहां गया। उसने अपनी योजना उसे बताई और घर लौट गया। उस जौहरी ने अगले दिन अपने यहां आभूषणों की एक बड़ी प्रदर्शनी लगवाई। रात होने पर उसने सारे आभूषणों को एक तिजोरी में रख कर ताला लगा दिया।
आधी रात को चोर आ धमके। ताला तोड़कर तिजोरी में रखे सारे आभूषण थैले में डालकर वे बाहर आए। जैसे ही वे सेठ की हवेली से बाहर जाने लगे सेठ को पता चल गया, उसने शोर मचा दिया।
आस-पास के लोग भी आ जुटे। तेनालीराम भी अपने सिपाहियों के साथ वहां आ धमके और बोले, “जिनके हाथों में रंग लगा हुआ है, उन्हें पकड़ लो।” जल्द ही सारे चोर पकड़े गए। अगले दिन चोरों को दरबार में पेश किया गया। सभी के हाथों पर लगे रंग देखकर राजा ने पूछा, “तेनालीराम जी यह क्या है?”
“महाराज हमने तिजोरी पर गीला रंग लगा दिया था, ताकि चोरी के इरादे से आए चोरों के शरीर पर रंग चढ़ जाए और हम उन्हें आसानी से पकड़ सकें।”
राजा ने पूछा, “पर आप वहां सिपाहियों को तैनात कर सकते थे।”
“महाराज इसमें उनके चोरों से मिल जाने की सम्भावना थी।”
राजा कृष्णदेव राय ने तेनाली राम की खूब प्रशंसा की।
तेनालीराम के पाप का प्रायश्चित
पाप का प्रायश्चित
तेनाली राम ने जिस कुत्ते की दुम सीधी कर दी थी, वह बेचारा कमजोरी की वजह से एक-दो दिन में मर गया। उसके बाद अचानक तेनाली राम को जोरों का बुखार आ गया।
एक पंडित ने घोषणा कर दी कि तेनाली राम को अपने पाप का प्रायश्चित करना पड़ेगा नहीं तो उन्हें इस रोग से छुटकारा नहीं मिल पाएगा।
तेनाली राम ने पंडित से इस पूजा में आने वाले खर्च के बारे में पूछा। पंडित जी ने उन्हें सौ स्वर्ण मुद्राओं का खर्च बताया।
“लेकिन इतनी स्वर्ण मुद्राएं मैं कहां से लाऊंगा?”, तेनाली राम ने पंडित जी से पूछा।
पंडित जी ने कहा, “तुम्हारे पास जो घोड़ा है, उसे बेचने से जो रकम मिले वह तुम मुझे दे देना।”
तेनाली राम ने शर्त स्वीकार कर ली। पंडित जी ने पूजा पाठ करके तेनाली राम के ठीक होने की प्रार्थना की। कुछ दिनों में तेनाली राम बिल्कुल स्वस्थ हो गए।
लेकिन वह जानते था कि वह प्रार्थना के असर से ठीक नहीं हुए हैं, बल्कि दवा के असर से ठीक हुए हैं।
तेनाली राम पंडित जी को साथ लेकर बाजार गए। उनके एक हाथ में घोड़े की लगाम थी और दूसरे में एक टोकरी।
उन्होंने बाजार में घोड़े की कीमत एक आना बताई और कहा, “जो भी इस घोड़े को खरीदना चाहता है, उसे यह टोकरी भी लेनी पड़ेगी, जिसका मूल्य है एक सौ स्वर्ण मुद्राएं।”
इस कीमत पर वे दोनों चीजें एक आदमी ने झट से खरीद लीं। तेनाली राम ने पंडित जी की हथेली पर एक आना रख दिया, जो घोड़े की कीमत के रूप में उसे मिला था। एक सौ स्वर्ण मुद्राएं उन्होंने अपनी जेब में डाल ली और चलते बने।
पंडित जी कभी अपनी हथेली पर पड़े सिक्के को तो कभी जाते हुए तेनाली राम को देख रहे थे।
तेनालीराम और स्वप्न महल
एक रात राजा कृष्णदेव राय ने सपने में एक बहुत ही सुंदर महल देखा, जो अधर में लटक रहा था। उसके अंदर के कमरे रंग-बिरंगे पत्थर से बने थे। उसमें रोशनी के लिए दीपक या मशालों की जरूरत नहीं थी। बस जब मन में सोचा, अपने आप प्रकाश हो जाता था और जब चाहे अँधेरा।
उस महल में सुख और ऐश्वर्य के अनोखे सामान भी मौजूद थे। धरती से महल में पहुँचने के लिए बस इच्छा करना ही आवश्यक था। आँखें बंद करो और महल के अंदर। दूसरे दिन राजा ने अपने राज्य में घोषणा करवा दी कि जो भी ऐसा महल राजा को बनाकर देगा, उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का पुरस्कार दिया जाएगा।
सारे राज्य में राजा के सपने की चर्चा होने लगी। सभी सोचते कि राजा कृष्णदेव राय को न जाने क्या हो गया है। कभी सपने भी सच होते हैं? पर राजा से यह बात कौन कहे?
राजा ने अपने राज्य के सभी कारीगरों को बुलवाया। सबको उन्होंने अपना सपना सुना दिया। कुशल व अनुभवी कारीगरों ने राजा को बहुत समझाया कि महाराज, यह तो कल्पना की बातें हैं। इस तरह का महल नहीं बनाया जा सकता। लेकिन राजा के सिर पर तो वह सपना भूत की तरह सवार था।
कुछ धूर्तों ने इस बात का लाभ उठाया। उन्होंने राजा से इस तरह का महल बना देने का वादा करके काफी धन लूटा। इधर सभी मंत्री बेहद परेशान थे। राजा को समझाना कोई आसान काम नहीं था। अगर उनके मुँह पर सीधे-सीधे कहा जाता कि वह बेकार के सपने में उलझे हैं तो महाराज के क्रोधित हो जाने का भय था।
मंत्रियों ने आपस में सलाह की। अंत में फैसला किया गया कि इस समस्या को तेनालीराम के सिवा और कोई नहीं सुलझा सकता। तेनालीराम कुछ दिनों की छुट्टी लेकर नगर से बाहर कहीं चला गया। एक दिन एक बूढ़ा व्यक्ति राजा कृष्णदेव राय के दरबार में रोता-चिल्लाता हुआ आ पहुँचा।
राजा ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, ‘तुम्हें क्या कष्ट है? चिंता की कोई बात नहीं। अब तुम राजा कृष्णदेव राय के दरबार में हो। तुम्हारे साथ पूरा न्याय किया जाएगा।’ ‘मैं लुट गया, महाराज। आपने मेरे सारे जीवन की कमाई हड़प ली। मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं, महाराज। आप ही बताइए, मैं कैसे उनका पेट भरूँ?’ वह व्यक्ति बोला।
‘क्या हमारे किसी कर्मचारी ने तुम पर अत्याचार किया है? हमें उसका नाम बताओ।’ राजा ने क्रोध में कहा। ‘नहीं, महाराज, मैं झूठ ही किसी कर्मचारी को क्यों बदनाम करूँ?’ बूढ़ा बोला। ‘तो फिर साफ क्यों नहीं कहते, यह सब क्या गोलमाल है? जल्दी बताओ, तुम चाहते क्या हो?’ ‘महाराज अभयदान पाऊँ तो कहूँ।’ ‘हम तुम्हें अभयदान देते हैं।’ राजा ने विश्वास दिलाया।
‘महाराज, कल रात मैंने सपने में देखा कि आप स्वयं अपने कई मंत्रियों और कर्मचारियों के साथ मेरे घर पधारे और मेरा संदूक उठवाकर आपने अपने खजाने में रखवा दिया। उस संदूक में मेरे सारे जीवन की कमाई थी। पाँच हजार स्वर्ण मुद्राएँ।’ उस बूढ़े व्यक्ति ने सिर झुकाकर कहा।
‘विचित्र मूर्ख हो तुम! कहीं सपने भी सच हुआ करते हैं?’ राजा ने क्रोधित होते हुए कहा। ‘ठीक कहा आपने, महाराज! सपने सच नहीं हुआ करते। सपना चाहे अधर में लटके अनोखे महल का ही क्यों न हो और चाहे उसे महाराज ने ही क्यों न देखा हो, सच नहीं हो सकता। ’
राजा कृष्णदेव राय हैरान होकर उस बूढ़े की ओर देख रहे थे। देखते-ही-देखते उस बूढ़े ने अपनी नकली दाढ़ी, मूँछ और पगड़ी उतार दी। राजा के सामने बूढ़े के स्थान पर तेनालीराम खड़ा था। इससे पहले कि राजा क्रोध में कुछ कहते, तेनालीराम ने कहा- ‘महाराज, आप मुझे अभयदान दे चुके हैं।’ महाराज हँस पड़े। उसके बाद उन्होंने अपने सपने के महल के बारे में कभी बात नहीं की।
तेनालीराम और तपस्या का सच
विजयनगर राज्य में बड़ी जोरदार ठंड पड़ रही थी। राजा कृष्णदेव राय के दरबार में इस ठंड की बहुत चर्चा हुई। पुरोहित ने महाराज को सुझाया। ‘महाराज, यदि इन दिनों यज्ञ किया जाए तो उसका फल उत्तम होगा। दूर-दूर तक उठता यज्ञ का धुआँ सारे वातावरण को स्वच्छ और पवित्र कर देगा।’
दरबारियों ने एक स्वर में कहा, ‘बहुत उत्तम सुझाव है पुरोहित जी का। महाराज को यह सुझाव अवश्य पसंद आया होगा।’ दरबारियों ने एक स्वर में कहा, ‘बहुत उत्तम सुझाव है पुरोहित जी का। महाराज को यह सुझाव अवश्य पसंद आया होगा।’ महाराज कृष्णदेव राय ने कहा-‘ठीक है। आप आवश्यकता के अनुसार हमारे कोष से धन प्राप्त कर सकते हैं।’
‘महाराज, यह महान यज्ञ सात दिन तक चलेगा। कम-से-कम एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तो खर्च हो ही जाएँगी।’ प्रतिदिन सवेरे सूर्योदय से पहले मैं नदी के ठंडे जल में खड़े होकर तपस्या करुँगा और देवी-देवताओं को प्रसन्न करुँगा। और अगले ही दिन से यज्ञ शुरू हो गया। इस यज्ञ में दूर-दूर से हजारों लोग आते और ढेरों प्रसाद बँटता है।
पुरोहित जी यज्ञ से पहले सुबह-सवेरे कड़कड़ाती ठंड में नदी के ठंडे जल में खड़े होकर तपस्या करते, देवी-देवताओं को प्रसन्न करते। लोग यह सब देखते और आश्चर्यचकित होते। एक दिन राजा कृष्णदेव राय भी सुबह-सवेरे पुरोहित जी को तपस्या करते देखने के लिए गए। उनके साथ तेनालीराम भी था।
ठंड इतनी थी कि दाँत किटकिटा रहे थे। ऐसे में पुरोहित जी को नदी के ठंडे पानी में खड़े होकर तपस्या करते देख राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से कहा, ‘आश्चर्य! अदभुत करिश्मा है! कितनी कठिन तपस्या कर रहे हैं हमारे पुरोहित जी। राज्य की भलाई की उन्हें कितनी चिंता है!’
‘वह तो है ही। आइए महाराज...जरा पास चलकर देखें पुरोहित जी की तपस्या को।’ तेनालीराम ने कहा। ‘लेकिन पुरोहित जी ने तो यह कहा है कि तपस्या करते समय कोई पास न आए। इससे उनकी तपस्या में विघ्न पैदा होगा।’ राजा ने कहा।
‘तो महाराज, हम दोनों ही कुछ देर तक उनकी प्रतीक्षा कर लें। जब पुरोहित जी तपस्या समाप्त करके ठंडे पानी से बाहर आएँ, तो फल-फूल देकर उनका सम्मान करें।’ राजा कृष्णदेव राय को तेनालीराम की यह बात जँच गई। वह एक ओर बैठकर पुरोहित को तपस्या करते देखते रहे।
काफी समय गुजर गया लेकिन पुरोहित जी ने ठंडे पानी से बाहर निकलने का नाम तक न लिया। तभी तेनालीराम बोल उठा- ‘अब समझ में आया। लगता है ठंड की वजह से पुरोहित जी का शरीर अकड़ गया है। इसीलिए शायद इन्हें पानी से बाहर आने में कष्ट हो रहा है। मैं इनकी सहायता करता हूँ।’
तेनालीराम नदी की ओर गया और पुरोहित जी का हाथ पकड़कर उन्हें बाहर खींच लाया। पुरोहित जी के पानी से बाहर आते ही राजा हैरान रह गए। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वे बोले, ‘अरे, पुरोहित जी की तपस्या का चमत्कार तो देखो! इनकी कमर से नीचे का सारा शरीर नीला हो गया।’
तेनालीराम हँसकर बोला, ‘यह कोई चमत्कार नहीं है, महाराज। यह देखिए...सर्दी से बचाव के लिए पुरोहित जी ने धोती के नीचे नीले रंग का जलरोधक पाजामा पहन रखा है।’ राजा कृष्णदेव राय हँस पड़े और तेनालीराम को साथ लेकर अपने महल की ओर चल दिए। पुरोहित दोनों को जाते हुए देखता रहा।
अपमान का बदला
तेनालीराम ने सुना था कि राजा कृष्णदेव राय बुद्धिमानों व गुणवानों का बड़ा आदर करते हैं। उसने सोचा, क्यों न उनके यहाँ जाकर भाग्य आजमाया जाए। लेकिन बिना किसी सिफारिश के राजा के पास जाना टेढ़ी खीर थी। वह किसी ऐसे अवसर की ताक में रहने लगा। जब उसकी भेंट किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से हो सके।
इसी बीच तेनालीराम का विवाह दूर के नाते की एक लड़की मगम्मा से हो गया। एक वर्ष बाद उसके घर बेटा हुआ। इन्हीं दिनों राजा कृष्णदेव राय का राजगुरु मंगलगिरि नामक स्थान गया। वहाँ जाकर रामलिंग ने उसकी बड़ी सेवा की और अपनी समस्या कह सुनाई।
राजगुरु बहुत चालाक था। उसने रामलिंग से खूब सेवा करवाई और लंबे-चौड़े वायदे करता रहा। रामलिंग अर्थात तेनालीराम ने उसकी बातों पर विश्वास कर लिया और राजगुरु को प्रसन्न रखने के लिए दिन-रात एक कर दिया। राजगुरु ऊपर से तो चिकनी-चुपड़ी बातें करता रहा, लेकिन मन-ही-मन तेनालीराम से जलने लगा।
उसने सोचा कि इतना बुद्धिमान और विद्वान व्यक्ति राजा के दरबार में आ गया तो उसकी अपनी कीमत गिर जाएगी। पर जाते समय उसने वायदा किया-‘जब भी मुझे लगा कि अवसर उचित है, मैं राजा से तुम्हारा परिचय करवाने के लिए बुलवा लूँगा।’ तेनालीराम राजगुरु के बुलावे की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगा, लेकिन बुलावा न आना था और न ही आया।
लोग उससे हँसकर पूछते, ‘क्यों भाई रामलिंग, जाने के लिए सामान बाँध लिया ना?’ कोई कहता, ‘मैंने सुना है कि तुम्हें विजयनगर जाने के लिए राजा ने विशेष दूत भेजा है।’ तेनालीराम उत्तर देता-‘समय आने पर सब कुछ होगा।’ लेकिन मन-ही-मन उसका विश्वास राजगुरु से उठ गया।
तेनालीराम ने बहुत दिन तक इस आशा में प्रतीक्षा की कि राजगुरु उसे विजयनगर बुलवा लेगा। अंत में निराश होकर उसने फैसला किया कि वह स्वयं ही विजयनगर जाएगा। उसने अपना घर और घर का सारा सामान बेचकर यात्रा का खर्च जुटाया और माँ, पत्नी तथा बच्चे को लेकर विजयनगर के लिए रवाना हो गया।
यात्रा में जहाँ कोई रुकावट आती, तेनालीराम राजगुरु का नाम ले देता, कहा, ‘मैं उनका शिष्य हूँ।’ उसने माँ से कहा, ‘देखा? जहाँ राजगुरु का नाम लिया, मुश्किल हल हो गई। व्यक्ति स्वयं चाहे जैसा भी हो, उसका नाम ऊँचा हो तो सारी बाधाएँ अपने आप दूर होने लगती हैं। मुझे भी अपना नाम बदलना ही पड़ेगा।
राजा कृष्णदेव राय के प्रति सम्मान जताने के लिए मुझे भी अपने नाम में उनके नाम का कृष्ण शब्द जोड़ लेना चाहिए। आज से मेरा नाम रामलिंग की जगह रामकृष्ण हुआ।’
‘बेटा, मेरे लिए तो दोनों नाम बराबर हैं। मैं तो अब भी तुझे राम पुकारती हूँ, आगे भी यही पुकारूँगी।’ माँ बोली।
कोडवीड़ नामक स्थान पर तेनालीराम की भेंट वहाँ के राज्य प्रमुख से हुई, जो विजयनगर के प्रधानमंत्री का संबंधी था। उसने बताया कि महाराज बहुत गुणवान, विद्वान और उदार हैं, लेकिन उन्हें कभी-कभी जब क्रोध आता है तो देखते ही देखते सिर धड़ से अलग कर दिए जाते हैं। ‘जब तक मनुष्य खतरा मोल न ले, वह सफल नहीं हो सकता। मैं अपना सिर बचा सकता हूँ।
तेनालीराम के स्वर में आत्मविश्वास था। राज्य प्रमुख ने उसे यह भी बताया कि प्रधानमंत्री भी गुणी व्यक्ति का आदर करते हैं, पर ऐसे लोगों के लिए उनके यहाँ स्थान नहीं है, जो अपनी सहायता आप नहीं कर सकते। चार महीने की लंबी यात्रा के बाद तेनालीराम अपने परिवार के साथ विजयनगर पहुँचा। वहाँ की चमक-दमक देखकर तो वह दंग ही रह गया।
अपमान का बदला
तेनालीराम ने सुना था कि राजा कृष्णदेव राय बुद्धिमानों व गुणवानों का बड़ा आदर करते हैं। उसने सोचा, क्यों न उनके यहाँ जाकर भाग्य आजमाया जाए। लेकिन बिना किसी सिफारिश के राजा के पास जाना टेढ़ी खीर थी। वह किसी ऐसे अवसर की ताक में रहने लगा। जब उसकी भेंट किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से हो सके।
इसी बीच तेनालीराम का विवाह दूर के नाते की एक लड़की मगम्मा से हो गया। एक वर्ष बाद उसके घर बेटा हुआ। इन्हीं दिनों राजा कृष्णदेव राय का राजगुरु मंगलगिरि नामक स्थान गया। वहाँ जाकर रामलिंग ने उसकी बड़ी सेवा की और अपनी समस्या कह सुनाई।
राजगुरु बहुत चालाक था। उसने रामलिंग से खूब सेवा करवाई और लंबे-चौड़े वायदे करता रहा। रामलिंग अर्थात तेनालीराम ने उसकी बातों पर विश्वास कर लिया और राजगुरु को प्रसन्न रखने के लिए दिन-रात एक कर दिया। राजगुरु ऊपर से तो चिकनी-चुपड़ी बातें करता रहा, लेकिन मन-ही-मन तेनालीराम से जलने लगा।
उसने सोचा कि इतना बुद्धिमान और विद्वान व्यक्ति राजा के दरबार में आ गया तो उसकी अपनी कीमत गिर जाएगी। पर जाते समय उसने वायदा किया-‘जब भी मुझे लगा कि अवसर उचित है, मैं राजा से तुम्हारा परिचय करवाने के लिए बुलवा लूँगा।’ तेनालीराम राजगुरु के बुलावे की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगा, लेकिन बुलावा न आना था और न ही आया।
लोग उससे हँसकर पूछते, ‘क्यों भाई रामलिंग, जाने के लिए सामान बाँध लिया ना?’ कोई कहता, ‘मैंने सुना है कि तुम्हें विजयनगर जाने के लिए राजा ने विशेष दूत भेजा है।’ तेनालीराम उत्तर देता-‘समय आने पर सब कुछ होगा।’ लेकिन मन-ही-मन उसका विश्वास राजगुरु से उठ गया।
तेनालीराम ने बहुत दिन तक इस आशा में प्रतीक्षा की कि राजगुरु उसे विजयनगर बुलवा लेगा। अंत में निराश होकर उसने फैसला किया कि वह स्वयं ही विजयनगर जाएगा। उसने अपना घर और घर का सारा सामान बेचकर यात्रा का खर्च जुटाया और माँ, पत्नी तथा बच्चे को लेकर विजयनगर के लिए रवाना हो गया।
यात्रा में जहाँ कोई रुकावट आती, तेनालीराम राजगुरु का नाम ले देता, कहा, ‘मैं उनका शिष्य हूँ।’ उसने माँ से कहा, ‘देखा? जहाँ राजगुरु का नाम लिया, मुश्किल हल हो गई। व्यक्ति स्वयं चाहे जैसा भी हो, उसका नाम ऊँचा हो तो सारी बाधाएँ अपने आप दूर होने लगती हैं। मुझे भी अपना नाम बदलना ही पड़ेगा।
राजा कृष्णदेव राय के प्रति सम्मान जताने के लिए मुझे भी अपने नाम में उनके नाम का कृष्ण शब्द जोड़ लेना चाहिए। आज से मेरा नाम रामलिंग की जगह रामकृष्ण हुआ।’
‘बेटा, मेरे लिए तो दोनों नाम बराबर हैं। मैं तो अब भी तुझे राम पुकारती हूँ, आगे भी यही पुकारूँगी।’ माँ बोली।
कोडवीड़ नामक स्थान पर तेनालीराम की भेंट वहाँ के राज्य प्रमुख से हुई, जो विजयनगर के प्रधानमंत्री का संबंधी था। उसने बताया कि महाराज बहुत गुणवान, विद्वान और उदार हैं, लेकिन उन्हें कभी-कभी जब क्रोध आता है तो देखते ही देखते सिर धड़ से अलग कर दिए जाते हैं। ‘जब तक मनुष्य खतरा मोल न ले, वह सफल नहीं हो सकता। मैं अपना सिर बचा सकता हूँ।
तेनालीराम के स्वर में आत्मविश्वास था। राज्य प्रमुख ने उसे यह भी बताया कि प्रधानमंत्री भी गुणी व्यक्ति का आदर करते हैं, पर ऐसे लोगों के लिए उनके यहाँ स्थान नहीं है, जो अपनी सहायता आप नहीं कर सकते। चार महीने की लंबी यात्रा के बाद तेनालीराम अपने परिवार के साथ विजयनगर पहुँचा। वहाँ की चमक-दमक देखकर तो वह दंग ही रह गया।
तेनालीराम और जाड़े की मिठाई
एक बार राजमहल में राजा कृष्णदेव राय के साथ तेनालीराम और राजपुरोहित बैठे थे। जाड़े के दिन थे। सुबह की धूप सेंकते हुए तीनों बातचीत में व्यस्त थे। तभी एकाएक राजा ने कहा-‘जाड़े का मौसम सबसे अच्छा मौसम होता है। खूब खाओ और सेहत बनाओ।’
खाने की बात सुनकर पुरोहित के मुँह में पानी आ गया। बोला-‘महाराज, जाड़े में तो मेवा और मिठाई खाने का अपना ही मजा है-अपना ही आनंद है।’ ‘अच्छा बताओ, जाड़े की सबसे अच्छी मिठाई कौन-सी है?’ राजा कृष्णदेव राय ने पूछा। पुरोहित ने हलवा, मालपुए, पिस्ते की बर्फी आदि कई मिठाइयाँ गिना दीं।
राजा कृष्णदेव राय ने सभी मिठाइयाँ मँगवाईं और पुरोहित से कहा-‘जरा खाकर बताइए, इनमें सबसे अच्छी कौन सी है?’ पुरोहित को सभी मिठाइयाँ अच्छी लगती थीं। किस मिठाई को सबसे अच्छा बताता।
तेनालीराम ने कहा, ‘सब अच्छी हैं, मगर वह मिठाई यहाँ नहीं मिलेगी।’ ‘कौन सी मिठाई?’ राजा कृष्णदेव राय ने उत्सुकता से पूछा- ‘और उस मिठाई का नाम क्या है?’ ‘नाम पूछकर क्या करेंगे महाराज। आप आज रात को मेरे साथ चलें, तो मैं वह मिठाई आपको खिलवा भी दूँगा।’
पढ़ें: तेनालीराम और जनता की अदालत
राजा कृष्णदेव राय मान गए। रात को साधारण वेश में वह पुरोहित और तेनालीराम के साथ चल पड़े। चलते-चलते तीनों काफी दूर निकल गए। एक जगह दो-तीन आदमी अलावा के सामने बैठे बातों में खोए हुए थे। ये तीनों भी वहाँ रुक गए। इस वेश में लोग राजा को पहचान भी न पाए। पास ही कोल्हू चल रहा था।
तेनालीराम उधर गए और कुछ पैसे देकर गरम-गरम गुड़ ले लिया। गुड़ लेकर वह पुरोहित और राजा के पास आ गए। अँधेरे में राजा और पुरोहित को थोड़ा-थोड़ा गरम-गरम गुड़ देकर बोले-‘लीजिए, खाइए, जाड़े की असली मिठाई।’ राजा ने गरम-गरम गुड़ खाया तो बड़ा स्वादिष्ट लगा।
राजा बोले, ‘वाह, इतनी बढ़िया मिठाई, यहाँ अँधेरे में कहाँ से आई?’ तभी तेनालीराम को एक कोने में पड़ी पत्तियाँ दिखाई दीं। वह अपनी जगह से उठा और कुछ पत्तियाँ इकट्ठी कर आग लगा दी। फिर बोला, ‘महाराज, यह गुड़ है।’
‘गुड़...और इतना स्वादिष्ट! ’ ‘महाराज, जाड़ों में असली स्वाद गरम चीज में रहता है। यह गुड़ गरम है, इसलिए स्वादिष्ट है।’ यह सुनकर राजा कृष्णदेव राय मुस्कुरा दिए। पुरोहित अब भी चुप था।
तेनालीराम और जनता की अदालत
एक दिन राजा कृष्णदेव राय शिकार के लिए गए। वह जंगल में भटक गए। दरबारी पीछे छूट गए। शाम होने को थी। उन्होंने घोड़ा एक पेड़ से बांधा। रात पास के एक गांव में बिताने का निश्चय किया। राहगीर के वेश में किसान के पास गए। कहा, “दूर से आया हूं। रात को आश्रय मिल सकता है?”
किसान बोला, “आओ, जो रूखा-सूखा हम खाते हैं, आप भी खाइएगा। मेरे पास एक पुराना कम्बल ही है, क्या उसमें जाड़े की रात काट सकेंगे?” राजा ने ‘हां’ में सिर हिलाया।
रात को राजा गांव में घूमे। भयानक गरीबी थी। उन्होंने पूछा, “दरबार में जाकर फरियाद क्यों नहीं करते?” कैसे जाएं? राजा तो चापलूसों से घिरे रहते हैं। कोई हमें दरबार में जाने ही नहीं देता।” किसान बोला।
सुबह राजधानी लौटते ही राजा ने मंत्री और दूसरे अधिकारियों को बुलाया। कहा, “हमें पता चला है, हमारे राज्य के गांवों की हालत ठीक नहीं है। तुम गांवों की भलाई के काम करने के लिए खज़ाने से काफी रुपया ले चुके हो। क्या हुआ उसका?”
पढ़ें: तेनालीराम का खूंखार घोड़ा
मंत्री बोला, “महाराज, सारा रुपया गांवों की भलाई में खर्च हुआ है। आपसे किसी ने गलत कहा।” मंत्री के जाने के बाद उन्होंने तेनाली राम को बुलवा भेजा। कल की पूरी घटना कह सुनाई। तेनाली राम ने कहा, “महाराज, प्रजा दरबार में नहीं आएगी। अब आपको ही उनके दरबार में जाना चाहिए। उनके साथ जो अन्याय हुआ है, उसका फैसला उन्हीं के बीच जाकर कीजिए।”
अगले दिन राजा ने दरबार में घोषणा की-“कल से हम गांव-गांव में जाएंगे, यह देखने के लिए कि प्रजा किस हाल में जी रही है!” सुनकर मंत्री बोला, “महाराज, लोग खुशहाल हैं। आप चिन्ता न करें। जाड़े में बेकार परेशान होंगे।”
तेनाली राम बोला, “मंत्रीजी से ज्यादा प्रजा का भला चाहने वाला और कौन होगा? यह जो कह रहे हैं, ठीक ही होगा। मगर आप भी तो प्रजा की खुशहाली देखिए।” मंत्री ने राजा को आसपास के गांव दिखाने चाहे। पर राजा ने दूर-दराज के गावों की ओर घोड़ा मोड़ दिया। राजा को सामने पाकर लोग खुल कर अपने समस्याएं बताने लगे।
मंत्री के कारनामे का सारा भेद खुल चुका था। वह सिर झुकाए खड़ा था। राजा कृष्णदेव राय ने घोषणा करवा दी- अब हर महीने कम से कम एक बार वे खुद जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं का समाधान करेंगे।
तेनालीराम और खूँखार घोड़ा
विजयनगर के पड़ोसी मुसलमान राज्यों के पास बड़ी मजबूत सेनाएँ थीं। राजा कृष्णदेव राय चाहते थे कि विजयनगर की घुड़सवार फौज भी मजबूत हो ताकि हमला होने पर दुश्मनों का सामना कुशलता से किया जा सके।
उन्होंने बहुत से अरबी घोड़े खरीदने का विचार किया। मंत्रियों ने सलाह दी कि घोड़ों को पालने का एक आसान तरीका यह है कि शांति के समय ये घोड़े नागरिकों को रखने के लिए दिए जाएँ और जब युद्ध हो तो उन्हें इकट्ठा कर लिया जाए।
राजा को यह सलाह पसंद आ गई। उन्होंने एक हजार बढ़िया अरबी घोड़े खरीदे और नागरिकों को बाँट दिए। हर घोड़े के साथ घास, चने और दवाइयों के लिए खर्चा आदि दिया जाना भी तय हुआ। यह फैसला किया गया कि हर तीन महीनों के बाद घोड़ों की जाँच की जाएगी।
तेनालीराम ने एक घोड़ा माँगा तो उसको भी एक घोड़ा मिल गया। तेनालीराम घोड़े को मिलने वाला सारा खर्च हजम कर जाता। घोड़े को उसने एक छोटी-सी अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया, जिसकी एक दीवार में जमीन से चार फुट की ऊँचाई पर एक छेद था। उसमें से मुट्ठी-भर चारा तेनालीराम अपने हाथों से ही घोड़े को खिला देता।
पढ़ें: तेनालीराम की भटकती आत्मा
भूखा घोड़ा उसके हाथ में मुँह मार कर पल-भर में चारा चट कर जाता। तीन महीने बीतने पर सभी से कहा गया कि वे अपने घोड़ों की जाँच करवाएँ। तेनालीराम के अतिरिक्त सभी ने अपने घोड़ों की जाँच करवा ली।
राजा ने तेनालीराम से पूछा, ‘तुम्हारा घोड़ा कहाँ है।’ ‘महाराज, मेरा घोड़ा इतना खूँखार हो गया है कि मैं उसे नहीं ला सकता। आप घोड़ों के प्रबंधक को मेरे साथ भेज दीजिए। वही इस घोड़े को ला सकते हैं।’ तेनालीराम ने कहा। घोड़ों का प्रबंधक, जिसकी दाढ़ी भूसे के रंग की थी, तेनालीराम के साथ चल पड़ा।
कोठरी के पास पहुँचकर तेनालीराम बोला, ‘प्रबंधक, आप स्वयं देख लीजिए कि यह घोड़ा कितना खूँखार है। इसीलिए मैंने इसे कोठरी में बंद कर रखा है।’‘कायर कहीं के तुम क्या जानो घोड़े कैसे काबू में किए जाते हैं? यह तो हम सैनिकों का काम है।’ कहकर प्रबंधक ने दीवार के छेद में से झाँकने की कोशिश की।
सबसे पहले उसकी दाढ़ी छेद में पहुँची। इधर भूखे घोड़े ने समझा कि उसका चारा आ गया और उसने झपटकर दाढ़ी मुँह में ले ली। प्रबंधक का बुरा हाल था। वह दाढ़ी बाहर खींच रहा था लेकिन घोड़ा था कि छोड़ता ही न था। प्रबंधक दर्द के मारे जोर से चिल्लाया। बात राजा तक जा पहुँची। वह अपने कर्मचारियों के साथ दौड़े-दौड़े वहाँ पहुँचे। तब एक कर्मचारी ने कैंची से प्रबंधक की दाढ़ी काटकर जान छुड़ाई।
जब सबने कोठरी में जाकर घोड़े को देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह तो हड्डियों का केवल ढाँचा-भर रह गया था।
क्रोध से उबलते हुए राजा ने पूछा, ‘तुम इतने दिन तक इस बेचारे पशु को भूखा मारते रहे?’
‘महाराज, भूखा रहकर इसका यह हाल है कि इसने प्रबंधक की कीमती दाढ़ी नोंच ली। उन्हें इस घोड़े के चंगुल से छुड़ाने के लिए स्वयं महाराज को यहाँ आना पड़ा। अगर बाकी घोड़ों की तरह इसे भी जी-भरकर खाने को मिलता तो न जाने यह क्या कर डालता?’ राजा हँस पड़े और उन्होंने हमेशा की तरह तेनालीराम का यह अपराध भी क्षमा कर दिया।
तेनालीराम की भटकती आत्मा
तेनालीराम को मृत्युदंड दे दिया गया। यह समाचार आग की तरह शहर में फैल गया। कोई नहीं जानता था कि तेनालीराम जीवित है और अपने घर में छिपा हुआ है। लोगों में खुसर-फुसर होने लगी। छोटे से अपराध की इतनी बड़ी सजा?
अंधविश्वासियों ने यह प्रचार करना भी शुरू कर दिया कि ब्राह्मण की आत्मा भटकती रहती है। इस पाप का प्रायश्चित होना चाहिए। राजा की दोनों रानियों ने जब यह सुना तो वे भी डर गईं। उन्होंने राजा से कहा कि इस पाप से मुक्ति के लिए कुछ उपाय कीजिए। लाचार होकर राजा ने अपने राजगुरु और राज्य के चुने हुए एक सौ साठ ब्राह्मण को विशेष पूजा करने का आदेश दिया ताकि तेनालीराम की आत्मा को शांति मिले।
पूजा का कार्य नगर के बाहर बरगद के उस पेड़ के नीचे किया जाना था, जहाँ अपराधियों को मृत्युदंड दिया जाता था। यह खबर तेनालीराम तक पहुँच गई। रात होने से पहले ही वह उस बरगद के पेड़ पर जा बैठा। उसने सारा शरीर लाल मिट्टी से रंग लिया और चेहरे पर धुएँ की कालिख पोत ली।
इस तरह उसने भटकती आत्मा का रूप बना लिया। रात में ब्राह्मणों ने छोटी-छोटी लकड़ियों से आग जलाई। उसके सामने बैठकर न जाने वे कौन-कौन से मंत्र पढ़ने लगे। वे जल्दी से पूजा समाप्त करके घर जाकर अपने आरामदेह बिस्तरों पर सोना चाहते थे।
पढ़ें: तेनालीराम को बुढ़ापे में मौत की सजा
जल्दी-जल्दी मंत्र पढ़कर उन्होंने तेनालीराम की भटकती आत्मा को पुकारा, ‘तेनालीराम की भटकती आत्मा! ‘आहा!’ उन्हें उत्तर मिला। ब्राह्मणों की सिट्टी-पिट्टी गुम, उनके पाँव डर के मारे जैसे जमीन से ही चिपक गए थे। उनमें खुसर-फुसर होने लगी-‘भटकती आत्मा ने सचमुच उत्तर दिया है। हमें तो इस बात की आशा बिल्कुल नहीं थी।’
असल में तो वे लोग पूजा की खानापूरी करके राजा से कुछ रुपया ऐंठने के चक्कर में थे। उन्होंने सोचा भी न था कि तेनालीराम सचमुच भटकती आत्मा बन गया। एकाएक अजीब-सी गुर्राहट के साथ तेनालीराम पेड़ से कूदा। ब्राह्मणों ने उसकी भयानक सूरत देखी तो डर के मारे चीखते-चिल्लाते सिर पर पाँव रखकर भागे।
राजा ने उन सबसे जब यह कहानी सुनी तो बहुत हँसे-‘तुम लोग तो बड़ी-बड़ी बातें बनाना ही जानते हो। जिस भटकती आत्मा को शांत करने के लिए तुम्हें भेजा था, उसी से डरकर भाग आए?’ ब्राह्मण सिर झुकाए खड़े रहे। ‘विचित्र बात तो यह है कि इस भटकती आत्मा ने मुझे दर्शन नहीं दिए। तुम लोगों को ही दिखाई दिया।’
राजा ने कहा-‘जो हुआ सो हुआ। अब जो इस भटकती आत्मा से मुक्ति दिलवाएगा, उसे एक हजार स्वर्णमुद्राएँ दी जाएँगी।’ राजा की घोषणा के तीन दिन बाद एक बूढ़ा संन्यासी राजदरबार में उपस्थित हुआ। उसकी दाढ़ी बगुले के पंख की तरह सफेद थी।
उसने कहा, ‘महाराज, मैं इस भटकती आत्मा से आपको मुक्ति दिला सकता हूँ। शर्त यह है कि जब आपको संतोष हो जाए कि भटकती आत्मा नहीं रही, तो आपको मुझे मुँहमाँगी चीज देनी होगी।’ ‘ठीक है, इस भटकती आत्मा से तो मुक्ति दिलवाइए ही, साथ ही उस ब्राह्मण की हत्या के पाप से भी मुझे छुटकारा दिलाइए, जो बेचारा मेरे क्रोध के कारण मारा गया।’ राजा ने कहा।
‘आप चिंता न करें, मेरे उपाय के बाद आपको ऐसा लगेगा जैसे ब्राह्मण मरा ही नहीं।’ संन्यासी बोला। ‘क्या?’ राजा ने हैरान होकर पूछा, ‘क्या आप उस विदूषक को दोबारा जीवित कर सकते हैं?’ ‘आप चाहें तो ऐसा कर सकता हूँ। संन्यासी ने उत्तर दिया।
‘ऐसा हो सके तो और क्या चाहिए। राजा ने कहा। राजगुरु पास ही बैठा था, बोला, ‘लेकिन महाराज, कभी मुर्दे भी जीवित हुए हैं? और फिर उस मसखरे को जीवित करने से लाभ ही क्या है? वह फिर अपनी शरारतों पर उतर आएगा और आपसे दोबारा मौत की सजा पाएगा।’
‘कुछ भी हो, हम यह चमत्कार अवश्य देखना चाहते हैं और फिर हमारे मन पर जो बोझ है, वह भी तो उतर जाएगा। संन्यासी जी, आप यह उपाय कब करना चाहेंगे?’ राजा ने कहा। ‘अभी और यहीं।’ संन्यासी ने उत्तर दिया।
‘लेकिन भटकती आत्मा यहाँ नहीं, बरगद के उस पेड़ के ऊपर है, महाराज, मुझे तो लगता है कि संन्यासी कोरी बातें ही करना जानता है, इसके बस का कुछ नहीं है।’ राजगुरु ने राजा से कहा। ‘राजगुरु जी, जो मैं कह रहा हूँ वह करके दिखा सकता हूँ। आप ही कहिए, यदि मैं उस ब्राह्मण को ही आपके सामने जीवित करके दिखा दूँ तो क्या भटकती आत्मा शेष रहेगी?’ संन्यासी बोला।
‘बिलकुल नहीं।’ राजगुरु ने उत्तर दिया। ‘तो फिर लीजिए, देखिए चमत्कार।’ संन्यासी ने अपने गेरुए वस्त्र और नकली दाढ़ी उतार दी। अपनी सदा की पोशाक में तेनालीराम राजा और राजगुरु के सामने खड़ा था। दोनों हैरान थे। उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
तेनालीराम ने तब राजा को पूरी कहानी सुनाई। उसने राजा को याद दिलाया, ‘आपने मुझे मुँहमाँगा इनाम देने का वायदा किया है। आप उन अंगरक्षकों को क्षमा कर दीजिए, जिन्हें आपने मुझे मारने के लिए भेजा था।’
राजा ने हँसते हुए कहा, ‘ठीक है, साथ ही तुम्हें एक हजार स्वर्णमुद्राओं की थैली भी भेंट की जाती है। और हाँ, वह जो दस स्वर्णमुद्राएँ तुम्हारी माँ और पत्नी को देने का मैंने आदेश दिया था, उसे वापस लेता हूँ, नहीं तो कोषाध्यक्ष मेरी नाक में दम कर देगा।’ यह कहकर राजा कृष्णदेव राय ने एक जोर का ठहाका लगाया।
तेनालीराम को बुढ़ापे में मौत की सजा
बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिलशाह को डर था कि राजा कृष्णदेव राय अपने प्रदेश रायचूर और मदकल को वापस लेने के लिए हम पर हमला करेंगे। उसने सुन रखा था कि वैसे राजा ने अपनी वीरता से कोडीवडु, कोंडपल्ली, उदयगिरि, श्रीरंगपत्तिनम, उमत्तूर, और शिवसमुद्रम को जीत लिया था।
सुलतान ने सोचा कि इन दो नगरों को बचाने का एक ही उपाय है कि राजा कृष्णदेव राय की हत्या करवा दी जाए। उसने बड़े इनाम का लालच देकर तेनालीराम के पुराने सहपाठी और उसके मामा के संबंधी कनकराजू को इस काम के लिए राजी कर लिया।
कनकराजू तेनालीराम के घर पहुँचा। तेनालीराम ने अपने मित्र का खुले दिल से स्वागत किया। उसकी खूब आवभगत की और अपने घर में उसे ठहराया। एक दिन जब तेनालीराम काम से कहीं बाहर गया हुआ था, कनकराजू ने राजा को तेनालीराम की तरफ से संदेश भेजा-‘आप इसी समय मेरे घर आएँ तो आपको ऐसी अनोखी बात दिखाऊँ, जो आपने जीवनभर न देखी हो।
राजा बिना किसी हथियार के तेनालीराम के घर पहुँचे। अचानक कनकराजू ने छुरे से उन पर वार कर दिया। इससे पहले कि छुरे का वार राजा को लगता, उन्होंने कसकर उसकी कलाई पकड़ ली। उसी समय राजा के अंगरक्षकों के सरदार ने कनकराजू को पकड़ लिया और वहीं उसे ढेर कर दिया।
कानून के अनुसार, राजा को मारने की कोशिश करने वाले को जो व्यक्ति आश्रय देता था, उसे मृत्युदंड दिया जाता था। तेनालीराम को भी मृत्युदंड सुनाया गया। उसने राजा से दया की प्रार्थना की।
राजा ने कहा, ‘मैं राज्य के नियम के विरुद्ध जाकर तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता। तुमने उस दुष्ट को अपने यहाँ आश्रय दिया। तुम कैसे मुझसे क्षमा की आशा कर सकते हो? हाँ, यह हो सकता है कि तुम स्वयं फैसला कर लो, तुम्हें किस प्रकार की मृत्यु चाहिए?’
‘मुझे बुढ़ापे की मृत्यु चाहिए, महाराज।’ तेनालीराम ने कहा। सभी आश्चर्यचकित थे। राजा हँसकर बोले, ‘इस बार भी बच निकले तेनालीराम।’
तेनालीराम की बिल्ली दूध की जली
एक बार राजा ने सुना नगर में चूहे बढ़ गए हैं। उन्होंने चूहों की मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए एक हजार बिल्लियाँ पालने का फैसला किया। बिल्लियाँ मँगवाई गईं और उन्हें नगर के लोगों में बाँट दिया। जिसे बिल्ली दी गई, उसे साथ में एक गाय भी दी गई ताकि उसका दूध पिलाकर बिल्ली को पाला जा सके।
तेनालीराम भी इस अवसर पर राजा के सामने खड़ा हुआ। उसे भी एक बिल्ली और गाय दे दी गई। उसने पहले दिन बिल्ली के सामने उबलते हुए दूध का कटोरा रख दिया। बिल्ली भूखी थी। बेचारी ने जल्दी से कटोरे में मुँह मारा।
उसका मुँह इतनी बुरी तरह जला कि उसके बाद जब उसके सामने ठंडा दूध भी रखा जाता, तो वह भाग खड़ी होती। तेनालीराम गाय का सारा दूध अपने लिए और अपनी माँ, पत्नी और बच्चों के लिए प्रयोग में लाता। तीन महीने बाद सभी बिल्लियों की जाँच की गई।
गाय का दूध पी-पीकर सभी बिल्लियाँ मोटी-ताजी हो गई थीं, लेकिन तेनालीराम की बिल्ली तो सूखकर काँटा हो चुकी थी और सब बिल्लियों के बीच अलग ही दिखाई दे रही थी। राजा ने क्रोध से पूछा, ‘तुमने इसे गाय का दूध नहीं पिलाया?’ ‘महाराज, यह तो दूध को छूती भी नहीं।’ भोलेपन से तेनालीराम ने कहा।
‘क्या कहते हो? बिल्ली दूध नहीं पीती? तुम समझते हो, मैं तुम्हारी इन झूठी बातों में आ जाऊँगा?’ ‘मैं बिलकुल सच कह रहा हूँ, महाराज। यह बिल्ली दूध नहीं पीती।’‘अगर तुम्हारी बात सच निकली तो तुम्हें सौ स्वर्णमुद्राएँ दूँगा। लेकिन अगर बिल्ली ने दूध पी लिया, तो तुम्हें सौ कोड़े लगाए जाएँगे।’ राजा ने कहा।
तेनालीराम ने राजा की यह शर्त मान ली। दूध का बड़ा कटोरा मँगवाया गया। राजा ने बिल्ली को अपने हाथ में लेकर कहा, ‘पियो बिल्ली रानी, दूध पियो।’ बिल्ली ने जैसे ही दूध देखा, डर के मारे राजा के हाथ से निकलकर म्याऊँ-म्याऊँ करती भाग खड़ी हुई। ‘सौ स्वर्णमुद्राएँ मेरी हुईं।’ तेनालीराम बोला।
‘वह तो ठीक है, लेकिन मैं इस बिल्ली को अच्छी तरह देखना चाहता हूँ।’ राजा ने कहा। बिल्ली को अच्छी तरह देखने पर राजा ने पाया कि उसके मुँह पर जले का एक बड़ा निशान है। राजा ने कहा, ‘दुष्ट कहीं के? जान-बूझकर इस बेचारी को तुमने गरम दूध पिलाया ताकि यह हमेशा के लिए दूध से डर जाए। क्या ऐसा करते हुए तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आई?’
‘महाराज, यह देखना राजा का कर्त्तव्य है कि उसके राज्य में मनुष्य के बच्चों को बिल्लियों से पहले दूध मिलना चाहिए।’ राजा कृष्णदेव राय अपनी हँसी न रोक सके और उन्होंने एक सौ स्वर्णमुद्राएँ देते हुए कहा, ‘शायद आगे से तुम्हें यह सुबुद्धि आ जाए कि बेचारे मासूम जानवरों के साथ दुष्टता का व्यवहार नहीं करना चाहिए।
तेनालीराम और कीमती उपहार
लड़ाई जीतकर राजा कृष्णदेव राय ने विजय उत्सव मनाया। उत्सव की समाप्ति पर राजा ने कहा- ‘लड़ाई की जीत अकेले मेरी जीत नहीं है-मेरे सभी साथियों और सहयोगियों की जीत है। मैं चाहता हूँ कि मेरे मंत्रिमंडल के सभी सदस्य इस अवसर पर पुरस्कार प्राप्त करें। आप सभी लोग अपनी-अपनी पसंद का पुरस्कार लें। परंतु एक शर्त है कि सभी को अलग-अलग पुरस्कार लेने होंगे। एक ही चीज दो आदमी नहीं ले सकेंगे।’
यह घोषणा करने के बाद राजा ने उस मंडप का पर्दा खिंचवा दिया, जिस मंडप में सारे पुरस्कार सजाकर रखे गए थे। फिर क्या था! सभी लोग अच्छे-से-अच्छा पुरस्कार पाने के लिए पहल करने लगे। पुरस्कार सभी लोगों की गिनती के हिसाब से रखे गए थे।
अतः थोड़ी देर की धक्का-मुक्की और छीना-झपटी के बाद सबको एक-एक पुरस्कार मिल गया। सभी पुरस्कार कीमती थे। अपना-अपना पुरस्कार पाकर सभी संतुष्ट हो गए।अंत में बचा सबसे कम मूल्य का पुरस्कार-एक चाँदी की थाली थी।
यह पुरस्कार उस आदमी को मिलना था, जो दरबार में सबके बाद पहुँचे यानी देर से पहुँचने का दंड। सब लोगों ने जब हिसाब लगाया तो पता चला कि श्रीमान तेनालीराम अभी तक नहीं पहुँचे हैं। यह जानकर सभी खुश थे।
पढ़ें: तेनालीराम और राजा का तोता
सभी ने सोचा कि इस बेतुके, बेढंगे व सस्ते पुरस्कार को पाते हुए हम सब तेनालीराम को खूब चिढ़ाएँगे। बड़ा मजा आएगा। तभी श्रीमान तेनालीराम आ गए। सारे लोग एक स्वर में चिल्ला पड़े, ‘आइए, तेनालीराम जी! एक अनोखा पुरस्कार आपका इंतजार कर रहा है।’ तेनालीराम ने सभी दरबारियों पर दृष्टि डाली।
सभी के हाथों में अपने-अपने पुरस्कार थे। किसी के गले में सोने की माला थी, तो किसी के हाथ में सोने का भाला। किसी के सिर पर सुनहरे काम की रेशम की पगड़ी थी, तो किसी के हाथ में हीरे की अँगूठी। तेनालीराम उन सब चीजों को देखकर सारी बात समझ गया। उसने चुपचाप चाँदी की थाली उठा ली। उसने चाँदी की उस थाली को मस्तक से लगाया और उस पर दुपट्टा ढंक दिया, ऐसे कि जैसे थाली में कुछ रखा हुआ हो।
राजा कृष्णदेव राय ने थाली को दुपट्टे से ढंकते हुए तेनालीराम को देख लिया। वे बोले, ‘तेनालीराम, थाली को दुपट्टे से इस तरह क्यों ढंक रहे हो?’
‘क्या करुँ महाराज, अब तक तो मुझे आपके दरबार से हमेशा अशर्फियों से भरे थाल मिलते रहे हैं। यह पहला मौका है कि मुझे चाँदी की थाली मिली है। मैं इस थाल को इसलिए दुपट्टे से ढंक रहा हूँ ताकि आपकी बात कायम रहे। सब यही समझे कि तेनालीराम को इस बार भी महाराज ने थाली भरकर अशर्फियाँ पुरस्कार में दी हैं।’
महाराज तेनालीराम की चतुराई-भरी बातों से प्रसन्न हो गए। उन्होंने गले से अपना बहुमूल्य हार उतारा और कहा, ‘तेनालीराम, तुम्हारी आज भी खाली नहीं रहेगी। आज उसमें सबसे बहुमूल्य पुरस्कार होगा। थाली आगे बढ़ाओ तेनालीराम!’
तेनालीराम ने थाली राजा कृष्णदेव राय के आगे कर दी। राजा ने उसमें अपना बहुमूल्य हार डाल दिया। सभी लोग तेनालीराम की बुद्धि का लोहा मान गए। थोड़ी देर पहले जो दरबारी उसका मजाक उड़ा रहे थे, वे सब भीगी बिल्ली बने एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे, क्योंकि सबसे कीमती पुरस्कार इस बार भी तेनालीराम को ही मिला था।
परियों से भेंट - तेनाली राम की कहानियॉ
परियों से भेंट - तेनाली राम की कहानियॉ
एक बार विजयनगर के राज दरबार में एक यात्री राजा कॄष्णदेव राय से मिलने के लिए आया। पहरेदारों ने राजा को उसके आने की सूचना दी। राजा ने यात्री को उनसे मिलने की आज्ञा दे दी।
यात्री बहुत ही लम्बा व पतला था। उसका सारा शरीर नीला था। वह राजा के सामने सीधा खडा होकर बोला, “महाराज, मैं नीलदेश का नीलकेतु हूँ और इस समय मैं विश्व-भ्रमण पर निकला हुआ हूँ। अनेक देशों की यात्रा करते हुए मैं यहॉ पहुँचा हूँ। घूमते हुए मैंने अनेक देशों में विजय नगर और आपके न्यायपूर्ण शासन व उदार स्वाभाव के बारे मैं बहुत कुछ सुना। अतः मेरे मन मैं विजय नगर और आपको देखने व जानने की उत्सुकता और भी बढ गई। इसीलिए मैं आपसे मिलने व विजय नगर साम्राज्य को देखने की अभिलाषा से यहॉ आया हूँ।”
राजा ने यात्री का स्वागत किया और उसे शाही अतिथि घोषित किया। राजा द्वारा मिले आदर व सत्कार से गदगद होकर यात्री बोला, “महाराज, मैं उस स्थान के विषय में जानता हूँ, जहॉ परियॉ रहती हैं। मैं आपके सामने अपनी जादुई शक्ति से उन्हें बुला सकता हूँ।”
यह सुनकर राजा बहुत उत्सुक हो गए और बोले, “इसके लिए मुझे क्या करना होगा, नीलकेतु?”
“महाराज, इसके लिए आपको नगर के बाहर स्थित तालाब के किनारे मध्यरात्री को अकेले आना होगा। तब मैं वहॉ परियों को नॄत्य के लिए बुला सकता हूँ।” नीलकेतु ने उत्तर दिया।
राजा उसकी बात मान गए। उसी रात मध्यरात्रि में राजा अपने घोडे पर सवार होकर तालाब की ओर चल दिए। वहॉ पुराने किले से घिरा हुआ एक बहुत बडा तालाब था ।
राजा के वहॉ पहुँचने पर नीलकेतु पुराने किले से बाहर निकला और बोला, “स्वागत है महाराज, आपका स्वागत है। मैंने सारी व्यवस्था कर दी है और पहले से ही परियों को यहॉ बुला लिया है। वे सभी किले के अन्दर हैं और शीघ्र ही आपके लिए नॄत्य करेंगी।”
यह सुनकर राजा चकित हो गए। उन्होंने कहा था कि मेरी उपस्थिति में परियों को बुलाओगे?”
“यदि महाराज की यही इच्छा है तो मैं फिर से कुछ परियों को बुला दूँगा। अब अन्दर चला जाए ।” नीलकेतु बोला। राजा, नीलकेतु के साथ जाने के लिए घोडे से उतर गए। जैसे ही वह आगे बढे, उन्होने ताली की आवाज सुनी। शीघ्र ही उन्हे विजयनगर की सेना ने नीलकेतु को भी पकडकर बेडियों से बॉध दिया।
“यह सब क्या है और यह हो क्या रहा है?” राजा ने आश्चर्य से पूछा।
तभी तेनाली राम पेड के पीछे से निकला और बोला, “महाराज, मैं आपको बताता हूँ कि यह सब क्या हो रहा है? यह नीलकेतु हमारे पडोसी देश् का रक्षा मंत्री हैं । किले के अन्दर कोई परियॉ नहीं हैं। वास्तव में, इसके देश के सिपाही ही वहॉ परियों के रूप में छिपे हुए हैं अपने नकली परों में उन्होंने अपने हथियार छिपाए हुए हैं। यह सब आपको घेरकर मारने की योजना है।”
“तेनाली राम, एक बार फिर मेरे प्राणो की रक्षा के लिए तुम्हें धन्यवाद। परन्तु, यह बतओ कि तुम्हें यह सब पता कैसे चला?” राजा बोले। \ तेनाली राम ने उत्तर दिया, “महाराज जब यह नीलकेतु दरबार में आया था, तो इसने अपने शरीर को नीले रंग से रंगा हुआ था । परन्तु यह जानकर कि विजयनगर का दरबार बुद्धिमान दरबारियों से भरा हुआ है, यह घबरा गया तथा पसीने-पसीने हो गया। पसीने के कारण इसके शरीर के कई अगो पर से नीला रंग हट गया तथा इसके शरीर का वास्तविक रंग दिखाई देने लगा। मैंने अपने सेवकों को इसका पीचा करने के लिए कहा । उन्होंने पाया कि ये सब यहॉ आपको मारने की योजना बना रहे हैं।”
राजा तेनाली राम की सतर्कता से प्रभावित हुए और उसे पुनः धन्यवाद दिया ।
अंतिम इच्छा
विजयनगर के ब्राह्मण बड़े लालची थे। वे हमेशा किसी न किसी बहाने राजा कृष्णदेव राय से धन ऐंठ लेते थे। राजा की उदारता का वे अनुचित फायदा उठाते। एक दिन राजा ने उनसे कहा, “मरते समय मेरी मां ने आम खाने की इच्छा जताई थी, जो उस समय पूरी नहीं हो सकी थी। क्या अब कोई उपाय हो सकता है, जिससे उनकी आत्मा को शांति मिले।”
ब्राह्मणों ने कहा, “महाराज, यदि आप एक सौ आठ ब्राह्मणों को सोने का एक-एक आम भेंट करें तो आपकी मां की अधूरी इच्छा पूरी हो जाएगी। ब्राह्मणों को दिया दान मृतात्मा के पास अपने आप पहुंच जाता है।”
राजा कृष्णदेव राय ने ब्राह्मणों को सोने के एक-एक आम दान कर दिए। तेनालीराम को ब्राह्मणों के इस लालच पर बहुत गुस्सा आया। वह उन्हें सबक सिखाने की ताक में रहने लगा।
और किस्से: तेनाली राम और कुबड़ा धोबी
जब उनकी मां की मृत्यु हुई तो उन्होंने भी ब्राह्मणों को अपने घर बुलाया। जब सारे ब्राह्मण आसनों पर बैठ गए तो तेनालीराम ने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया और अपने नौकरों से कहा, “जाओ, लोहे की गर्म सलाखें लेकर आओ और इन ब्राह्मणों के शरीर पर दागो।”
ब्राह्मणों ने जब यह सुना तो चीख-पुकार मच गई। सब उठ कर दरवाजे की ओर भागे। पर नौकर उन्हें पकड़ कर एक-एक बार दागने लगे। बात राजा तक पहुंच गई। वह खुद आए और ब्राह्मणों को बचाया।
गुस्से में उन्होंने पूछा, “यह क्या हरकत है तेनालीराम?”
तेनालीराम ने कहा, “महाराज, मेरी मां को जोड़ों के दर्द की बीमारी थी। मरते समय उनको बहुत तेज दर्द था। अंतिम समय उन्होंने यह इच्छा प्रकट की थी कि दर्द की जगह पर लोहे की गर्म सलाखें दागी जाएं ताकि दर्द से आराम पाकर उनके प्राण चैन से निकल सकें। उस समय उनकी यह इच्छा पूरी नहीं की जा सकी थी। इसलिए ब्राह्मणों को सलाखें दागनी पड़ीं।
राजा हंस पड़े। ब्राह्मणों के सिर शर्म से झुक गए।
तेनालीराम का जवाब
एक बार तेनालीराम से राजा कृष्णदेव ने पूछा,
‘तेनालीराम बताओ! सबसे अधिक मूर्ख कौन होते हैं?
तेनालीराम कहाँ कम पड़ते थे जवाब देने में, उन्होंने फुर्ती से जवाब दे डाला...
‘महाराज! सबसे अधिक मूर्ख ब्राह्मण ही होते हैं।'
नाई की उच्च नियुक्ति - तेलानीराम की कहानियॉ
नाई की उच्च नियुक्ति - तेलानीराम की कहानियॉ
शाही नाई का कार्य प्रतिदिन राजा कॄष्णदेव राय की दाढी बनाना था। एक दिन, जब वह दाढी बनाने के लिए आया तो राजा कॄष्णदेव राय सोए हुए थे। नाई ने सोते हुए ही उनकी दाढी बना दी। उठने पर राजा ने सोते हुए दाढी बनाने पर नाई की बहुत प्रशंसा की। राजा उससे बहुत प्रसन्न हुए और उसे इच्छानुसार कुछ भी मॉगने को कहा। इस पर नाई बोला, “महाराज, मैं आपके शाही दरबार का दरबारी बनना चाहता हूँ।”
राजा नाई की इच्छा पूरी करने के लिए तैयार हो गए। नाई की उच्च नियुक्ति का समाचार जैसे ही चारों ओर फैला, अन्य दरबारी यह सुनकर व्याकुल हो गए। सभी ने सोचा कि अज्ञानी व्यक्ति दरबारी बनकर अपने पद का दुरुपयोग कर सकता है। सभी दरबारी समस्या के समाधान के लिए तेनाली राम के पास पहूँचे। तेनाली राम ने उन्हें सहायता का आश्वासन दिया।
अगली सुबह राजा नदी किनारे सैर के लिए गए। वहॉ उन्होंने तेनाली राम को एक काले कुत्ते को जोर से रगड-रगड कर नहलाते हुए देखा तो हैरान हो गए। राजा द्वारा कारण पूछने पर तेनाली राम ने बताया, “महाराज, मैं इसे गोरा बनाना चाहता हूँ।”
राजा ने हँसते हुए पूछा, “क्या नहलाने से काला कुत्ता गोरा हो जाएगा?”
“महाराज, जब एक अज्ञानी व्यक्ति दरबारी बन सकता है तो यह भी गोरा हो सकता है।” तेनाली राम ने उत्तर दिया।
यह सुनकर राजा तुरन्त समझ गए कि तेनाली राम क्या कहना चाहता है। उसी दिन राजा ने दरबार में नाई को पुनः उसका वही स्थान दिया, जिसके लिए वह उपयुक्त था।
महान पुस्तक - तेनालीराम की कहानियॉ
महान पुस्तक - तेनालीराम की कहानियॉ
एक बार राजा कॄष्णदेव राय के दरबार में एक महान विद्वान आया। उसने वहॉ दरबार में उपस्थित सभी विद्वानो को चुनौती दी कि पूरे विश्व में उसके समान कोई बुध्दिमान व विद्वान नहीं है। उसने दरबार में उपस्थित सभी दरबारियों से कहा कि यदि उनमें से कोई चाहे तो उसके साथ किसी भी विषय पर वाद-विवाद कर सकता है। परन्तु कोई भी दरबारी उससे वाद-विवाद करने का साहस न कर सका। अन्त में सभी दरबारी सहायता के लिए तेनाली राम के पास गए । तेनाली राम ने उन्हें सहायता का आश्वासन दिया और दरबार में जाकर तेनाली ने विद्वान की चुनौती स्वीकार कर ली। दोनों के बीच वाद-विवाद का दिन भी निश्चित कर दिया गया।
निश्चित दिन तेनाली राम एक विद्वान पण्डित के रुप में दरबार पँहुचा। उसने अपने एक हाथ में एक बडा सा गट्ठर ले रखा था, जो देखने में भारी पुस्तकों के गट्ठर के समान लग रहा था। शीघ्र ही वह महान विद्वान भी दरबार में आकर तेनाली राम के सामने बैठ गया। पण्डित रुपी तेनाली राम ने राजा को सिर झुकाकर प्रणाम किया और गट्ठर को अपने और विद्वान के बीच में रख दिया, तत्पश्चात दोनों वाद-विवाद के लिए बैठ गए।
राजा जानते थे कि पण्डित का रुप धरे तेनाली राम के मस्तिष्क में अवश्य ही कोई योजना चल रही होगी इसलिए वह पूरी तरह आश्वस्त थे। अब राजा ने वाद-विवाद आरम्भ करने का आदेश दिया।
पण्डित के रुप में तेनाली राम पहले अपने स्थान पर खडा होकर बोला, “विद्वान महाशय! मैंने आपके विषय मैं बहुत कुछ सुना है। आप जैसे महान विद्वान के लिए मैं एक महान तथा महत्वपूर्ण पुस्तक लाया हूँ, जिस पर हम लोग वाद-विवाद करेंगे।”
“महाशय! कॄपया मुझे इस पुस्तक का नाम बताइए।” विद्वान ने कहा।
तेनाली राम बोले, “विद्वान महाशय, पुस्तक का नाम है, ‘तिलक्षता महिषा बन्धन’
विद्वान हैरान हो गया। अपने पूरे जीवन में उसने इस नाम की कोई पुस्तक न तो सुनी थी न ही पढी थी। वह घबरा गया कि बिना पढीव सुनी हुई पुस्तक के विषय में वह कैसे वाद्-विवाद करेगा। फिर भी वह बोला, “अरे, यह तो बहुत ही उच्च कोटि की पुस्तक है। इस पर वाद-विवाद करने में बहुत ही आनन्द आएगा । परन्तु आज यह वाद-विवाद रहने दिया जाए। मेरा मन भी कुछ उद्विनहै और इसके कुछ महत्वपूर्ण तथ्यूं को मैं भूल भी गया हूँ। कल प्रातः स्वस्थ व स्वच्छ मस्तिष्क के साथ हम वाद-विवाद करेगें।”
तेनाली राम के अनुसार, वह विद्वान तो आज के वाद-विवाद के लिए पिछले कई दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था परन्तु अतिथि की इच्छा का ध्यान रखना तेनाली का कर्तव्य था। इसलिए वह सरलता से मान गया। परन्तु वाद-विवाद में हारने के भय से वह विद्वान नगर छोडकर भाग गया। अगले दिन प्रातः जब विद्वान शाही दरबार में उपस्थित नहीं हुआ, तो तेनाली राम बोला, “महाराज, वह विद्वान अब नहीं आएगा। वाद-विवाद में हार जाने के भय से लगता है, वह नगर छोडकर चला गया है।”
“तेनाली, वाद-विवाद के लिय लाई गई उस अनोखी पुस्तक के विषय में कुछ बताओ जिससे कि डर कर वह विद्वान भाग गया ?” राजा ने पूछा ।
“महाराज, वास्तव में, ऐसी कोई भी पुस्तक नहीं है। मैंने ही उसका यह नाम रखा था। ‘तिलक्षता महिशा बन्धन ‘, इसमें ‘तिलक्षता का अर्थ है, ‘शीशम की सूखी लकडियॉ’ और ‘महिषा बन्धन का अर्थ है, ‘वह रस्सी जिससे भैसों को बॉधा जाता है।’ मेरे हाथ में वह गट्ठर वास्तव में शीशम की सूखी लकडिओं का था, जो कि भैंस को बॉधने वाली रस्सी से बन्धी थीं। उसे मैंने मलमल के कपडे में इस तरह लपेट दिया था ताकी वह देखने में पुस्तक जैसी लगे।”
तेनाली राम की बुद्धिमता देखकर राजा व दरबारी अपनी हँसी नहीं रोक पाए। राजा ने प्रसन्न होकर तेनाली राम को ढेर सारे पुरस्कार दिया।
कौन बडा - तेनालीराम
एक बार राजा कृष्णदेव राय महल में अपनी रानी के पास विराजमान थे। तेनालीराम की बात चली, तो बोले-सचमुच हमारे दरबार में उस जैसा चतुर कोई नहीं है। इसीलिए अभी तक तो कोई उसे हरा नही पाया है।
सुनकर रानी बोली-आप कल तेनालीराम को भोजन के लिए महल में आमंत्रित करें। मैं उसे जरूर हरा दूंगी। राजा ने मुस्कुराकर हामी भर ली। अगले दिन रानी ने अपने हाथों से स्वादिष्ट पकवान बनाए। राजा के साथ बैठा। तेनालीराम उन पकवानों की जी भर प्रशंसा करता हुआ, खाता जा रहा था। खानें के बाद रानी ने उसे बढया पान का बीडा भी खाने को दिया। तेनालीराम मुस्कुराकर बोला-’सचमुच, आज जैसा खाने का आनंद तो मुझे कभी नहीं आया!‘ तभी रानी ने अचानक पूछ लिया-अच्छा, तेनालीराम, एक बात बताओ। राजा ज्यादा बडे है या मैं? अब तो तेनालीराम चकराया। राजा-रानी दोनों ही उत्सुकता से देख रहे थे कि भला तेनालीराम क्या जवाब देता है।
अचानक तेनालीराम को जाने क्या सुझा, उसने दोनों हाथ जोडकर पहले धरती को प्रणाम किया, फिर आसमान को। फिर एकाएक जमीन पर गिर पडा। रानी घबराकर बोली- अरे-अरे, यह क्या तेनालीराम? तेनालीराम उठकर खडा हुआ, बोला- महारानी जी, मेरे लिए तो आप धरती है, राजा आसमान! दोनों में से किसे छोटा, किसे बडा कहूं, समझ में नही आ रहा! वैसे आज महारानी के हाथों का बना भोजन इतना स्वादिष्ट था कि उन्ही को बडा कहना होगा। इसलिए मैं धरती को ही दंडवत प्रणाम कर रहा था। सुनकर राजा और रानी दोनों की हंसी छुट गई। रानी बोली- सचमुच तुम चतुर हो, तेनालीराम। मुझे जिता दिया, पर हारकर भी खुद जीत गए। इस पर महारानी और राजा कृष्णदेव राय के साथ तेनालीराम भी खिल-खिलाकर हंस दिए।
कुएं का विवाह
एक बार राजा कॄष्णदेव राय और तेनालीराम के बीच किसी बात को लेकर विवाद हो गया। तेनालीराम रुठकर चले गए। आठ-दस दिन बीते, तो राजा का मन उदास हो गया। राजा ने तुरन्त सेवको को तेनालीराम को खोजने भेजा। आसपास का पूरा क्षेत्र छान लिया पर तेनालीराम का कहीं अता-पता नहीं चला। अचानक राजा को एक तरकीब सूझी। उसने सभी गांवों में मुनादी कराई राजा अपने राजकीय कुएं का विवाह रचा रहे हैं, इसलिए गांव के सभी मुखिया अपने-अपने गांव के कुओं को लेकर राजधानी पहुंचे। जो आदमी इस आज्ञा का पालन नहीं करेगा, उसे जुर्माने में एक हजार स्वर्ण मुद्राएं देनी होंगी। मुनादी सुनकर सभी परेशान हो गए। भला कुएं भी कहीं लाए-ले जाए जा सकते हैं। जिस गांव में तेनालीराम भेष बदलकर रहता था, वहां भी यह मुनादी सुनाई दी। गांव का मुखिया परेशान था। तेनालीराम समझ गए कि उसे खोजने के लिए ही महाराज ने यह चाल चली हैं। तेनालीराम ने मुखिया को बुलाकर कहा “मुखियाजी, आप चिंता न करें, आपने मुझे गांव में आश्रय दिया हैं, इसलिए आपके उपकार का बदला में चुकाऊंगा। मैं एक तरकीब बताता हूं आप आसपास के मुखियाओं को इकट्ठा करके राजधानी की ओर प्रस्थान करें”। सलाह के अनुसार सभी राजधानीकी ओर चल दिए। तेनालीराम भी उनके साथ थे।
राजधानी के बाहर पहुंचकर वे एक जगह पर रुक गए। एक आदमी को मुखिया का संदेश देकर राजदरबार में भेजा। वह आदमी दरबार में पहुंचा और तेनालीराम की राय के अनुसार बोला “महाराज! हमारे गांव के कुएं विवाह में शामिल होने के लिए राजधानी के बाहर डेरा डाले हैं। आप मेहरबानी करके राजकीय कुएं को उनकी अगवानी के लिए भेजें, ताकि हमारे गांव के कुएं ससम्मान दरबार के सामने हाजिर हो सकें।
राजा को उनकी बात समझते देर नहीं लगी कि ये तेनालीराम की तरकीब हैं। राजा ने पूछा सच-सच बताओ कि तुम्हें यहाक्ल किसने दी हैं? राजन! थोडे दिन पहले हमारे गांव में एक परदेशी आकर रुका था। उसी ने हमें यह तरकीब बताई हैं आगंतुक ने जवाब दिया। सारी बात सुनकर राजा स्वयं रथ पर बैठकर राजधानी से बाहर आए और ससम्मान तेनालीराम को दरबार में वापस लाए। गांव वालो को भी पुरस्कार देकर विदा किया।
कितने कौवे
महाराज कॄष्णदेव राय तेनालीराम का मखौल उडाने के लिए उल्टे-पुल्टे सवाल करते थे। तेनालीराम हर बार ऐसा उत्तर देते कि राजा की बोलती बन्द हो जाती। एक दिन राजा ने तेनालीराम से पूछा “तेनालीराम! क्या तुम बता सकते हो कि हमारी राजधानी में कुल कितने कौवे निवास करते है?” हां बता सकता हूं महाराज! तेनालीराम तपाक से बोले। महाराज बोले बिल्कुल सही गिनती बताना। जी हां महाराज, बिल्कुल सही बताऊंगा। तेनालीराम ने जवाब दिया। दरबारियों ने अंदाज लगा लिया कि आज तेनालीराम जरुर फंसेगा। भला परिंदो की गिनती संभव हैं? “तुम्हें दो दिन का समय देते हैं। तीसरे दिन तुम्हें बताना हैं कि हमारी राजधानी में कितने कौवे हैं।” महाराज ने आदेश की भाषा में कहा।
तीसरे दिन फिर दरबार जुडा। तेनालीराम अपने स्थान से उठकर बोला “महाराज, महाराज हमारी राजधानी में कुल एक लाख पचास हजार नौ सौ निन्यानवे कौवे हैं। महाराज कोई शक हो तो गिनती करा लो।
राजा ने कहा गिनती होने पर संख्या ज्यादा-कम निकली तो? महाराज ऐसा, नहीं होगा, बडे विश्वास से तेनालीराम ने कहा अगर गिनती गलत निकली तो इसका भी कारण होगा। राजा ने पूछा “क्या कारण हो सकता हैं?”
तेनालीराम ने जवाब दिया “यदि! राजधानी में कौवों की संख्या बढती हैं तो इसका मतलब हैं कि हमारी राजधानी में कौवों के कुछ रिश्तेदार और इष्ट मित्र उनसे मिलने आए हुए हैं। संख्या घट गई हैं तो इसका मतलब हैं कि हमारे कुछ कौवे राजधानी से बाहर अपने रिश्तेदारों से मिलने गए हैं। वरना कौवों की संख्या एक लाख पचास हजार नौ सौ निन्यानवे ही होगी तेनालीराम से जलने वाले दरबारी अंदर ही अंदर कुढ कर रह गए कि हमेशा की तरह यह चालबाज फिर अपनी चालाकी से पतली गली से बच निकला।
मूर्खों का साथ हमेशा दुखदायी
विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय जहाँ कहीं भी जाते, जब भी जाते, अपने साथ हमेशा तेनालीराम को जरूर ले जाते थे। इस बात से अन्य दरबारियों को बड़ी चिढ़ होती थी। एक दिन तीन-चार दरबारियों ने मिलकर एकांत में महाराज से प्रार्थना की, ‘महाराज, कभी अपने साथ किसी अन्य व्यक्ति को भी बाहर चलने का अवसर दें।’ राजा को यह बात उचित लगी। उन्होंने उन दरबारियों को विश्वास दिलाया कि वे भविष्य में अन्य दरबारियों को भी अपने साथ घूमने-फिरने का अवसर अवश्य देंगे। एक बार जब राजा कृष्णदेव राय वेष बदलकर कुछ गाँवों के भ्रमण को जाने लगे तो अपने साथ उन्होंने इस बार तेनालीराम को नहीं लिया बल्कि उसकी जगह दो अन्य दरबारियों को साथ ले लिया। घूमते-घूमते वे एक गाँव के खेतों में पहुँच गए। खेत से हटकर एक झोपड़ी थी, जहाँ कुछ किसान बैठे गपशप कर रहे थे। राजा और अन्य लोग उन किसानों के पास पहुँचे और उनसे पानी माँगकर पिया। फिर राजा ने किसानों से पूछा, ‘कहो भाई लोगों, तुम्हारे गाँव में कोई व्यक्ति कष्ट में तो नहीं है? अपने राजा से कोई असंतुष्ट तो नहीं है?’ इन प्रश्नों को सुनकर गाँववालों को लगा कि वे लोग अवश्य ही राज्य के कोई अधिकारीगण हैं। वे बोले, ‘महाशय, हमारे गाँव में खूब शांति है, चैन है। सब लोग सुखी हैं। दिन-भर कडी़ मेहनत करके अपना काम-काज करते हैं और रात को सुख की नींद सोते हैं। किसी को कोई दुख नहीं है। राजा कृष्णदेव राय अपनी प्रजा को अपनी संतान की तरह प्यार करते हैं, इसलिए राजा से असंतुष्ट होने का सवाल ही नहीं पैदा होता।
‘इस गाँव के लोग राजा को कैसा समझते हैं?’ राजा ने एक और प्रश्न किया। राजा के इस सवाल पर एक बूढ़ा किसान उठा और ईख के खेत में से एक मोटा-सा गन्ना तोड़ लाया। उस गन्ने को राजा को दिखाता हुआ वह बूढ़ा किसान बोला, ‘श्रीमान जी, हमारे राजा कृष्णदेव राय बिल्कुल इस गन्ने जैसे हैं।’ अपनी तुलना एक गन्ने से होती देख राजा कृष्णदेव राय सकपका गए। उनकी समझ में यह बात बिल्कुल भी न आई कि इस बूढ़े किसान की बात का अर्थ क्या है? उनकी यह भी समझ में न आया कि इस गाँव के रहने वाले अपने राजा के प्रति क्या विचार रखते हैं? राजा कृष्णदेव राय के साथ जो अन्य साथी थे, राजा ने उन साथियों से पूछा, ‘इस बूढ़े किसान के कहने का क्या अर्थ है?’ साथी राजा का यह सवाल सुनकर एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। फिर एक साथी ने हिम्मत की और बोला, ‘महाराज, इस बूढ़े किसान के कहने का साफ मतलब यही है कि हमारे राजा इस मोटे गन्ने की तरह कमजोर हैं। उसे जब भी कोई चाहे, एक झटके में उखाड़ सकता है। जैसे कि मैंने यह गन्ना उखाड़ लिया है।’ राजा ने अपने साथी की इस बात पर विचार किया तो राजा को यह बात सही मालूम हुई। वह गुस्से से भर गए और इस बूढ़े किसान से बोले, ‘तुम शायद मुझे नहीं जानते कि मैं कौन हूँ?’ राजा की क्रोध से भरी वाणी सुनकर वह बूढ़ा किसान डर के मारे थर-थर काँपने लगा। तभी झोंपड़ी में से एक अन्य बूढ़ा उठ खड़ा हुआ और बड़े नम्र स्वर में बोला-‘महाराज, हम आपको अच्छी तरह जान गए हैं, पहचान गए हैं, लेकिन हमें दुख इस बात का है कि आपके साथी ही आपके असली रूप को नहीं जानते। मेरे साथी किसान के कहने का मतलब यह है कि हमारे महाराज अपनी प्रजा के लिए तो गन्ने के समान कोमल और रसीले हैं किंतु दुष्टों और अपने दुश्मनों के लिए महानतम कठोर भी।’ उस बूढ़े ने एक कुत्ते पर गन्ने का प्रहार करते हुए अपनी बात पूरी की। इतना कहने के साथ ही उस बूढ़े ने अपना लबादा उतार फेंका और अपनी नकली दाढ़ी-मूँछें उतारने लगा। उसे देखते ही राजा चौंक पड़े। ‘तेनालीराम, तुमने यहाँ भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा।’ ‘तुम लोगों का पीछा कैसे छोड़ता भाई? अगर मैं पीछा न करता तो तुम इन सरल हृदय किसानों को मौत के घाट ही उतरवा देते। महाराज के दिल में क्रोध का ज्वार पैदा करते, सो अलग।’
‘तुम ठीक ही कह रहे हो, तेनालीराम। मूर्खों का साथ हमेशा दुखदायी होता है। भविष्य में मैं कभी तुम्हारे अलावा किसी और को साथ नहीं रखा करूँगा।’ उन सबकी आपस की बातचीत से गाँववालों को पता चल ही गया था कि उनकी झोंपड़ी पर स्वयं महाराज पधारे हैं और
भेष बदलकर पहले से उनके बीच बैठा हुआ आदमी ही तेनालीराम है तो वे उनके स्वागत के लिए दौड़ पड़े। कोई चारपाई उठवाकर लाया तो कोई गन्ने का ताजा रस निकालकर ले आया। गाँववालों ने बड़े ही मन से अपने मेहमानों का स्वागत किया। उनकी आवभगत की। राजा कृष्णदेव राय उन ग्रामवासियों का प्यार देखकर आत्मविभोर हो गए। तेनालीराम की चोट से आहत हुए दरबारी मुँह लटकाए हुए जमीन कुरेदते रहे और तेनालीराम मंद-मंद मुस्करा रहे थे।
जादुई कुएँ
एक बार राजा कॄष्णदेव राय ने अपने गॄहमंत्री को राज्य में अनेक कुएँ बनाने क आदेश दिया। गर्मियॉ पास आ रही थीं, इसलिए राजा चाहते थे कि कुएँ शीघ्र तैयार हो जाएँ, ताकि लोगो को गर्मियों में थोडी राहत मिल सके। गॄहमंत्री ने इस कार्य के लिए शाही कोष से बहुत-सा धन लिया। शीघ्र ही राजा के आदेशानुसार नगर में अनेक कुएँ तैयार हो गए। इसके बाद एक दिन राजा ने नगर भ्रमण किया और कुछ कुँओं का स्वयं निरीक्षण किया। अपने आदेश को पूरा होते देख वह संतुष्ट हो गए। गर्मियों में एक दिन नगर के बाहर से कुछ गॉव वाले तेनाली राम के पास् पहुँचे, वे सभी गॄहमंत्री के विरुध्द शिकायत लेकर आए थे। तेनाली राम ने उनकी शिकायत सुनी और् उन्हें न्याय प्राप्त करने का रास्ता बताया। तेनाली राम अगले दिन राजा से मिले और बोले, “महाराज! मुझे विजय नगर में कुछ चोरों के होने की सूचना मिली है। वे हमारे कुएँ चुरा रहे हैं।”
इस पर राजा बोले, “क्या बात करते हो, तेनाली! कोई चोर कुएँ को कैसे चुरा सकता है?” “महाराज! यह बात आश्चर्यजनक जरुर है, परन्तु सच है, वे चोर अब तक कई कुएँ चुरा चुके हैं।” तैनाली राम ने बहुत ही भोलेपन से कहा।
उसकी बात को सुनकर दरबार में उपस्थित सभी दरबारी हँसने लगे।
महाराज ने कहा’ “तेनाली राम, तुम्हारी तबियत तो ठीक है। आज कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो? तुम्हारी बातों पर कोई भी व्यक्ति विश्वास नहीं कर सकता।”
“महाराज! मैं जानता था कि आप मेरी बात पर विश्वास नही करंगे, इसलिए मैं कुछ गॉव वालों को साथ साथ लाया हूँ।वे सभी बाहर खडे हैं। यदि आपको मुझ पर विश्वास नहीं है, तो आप उन्हें दरबार में बुलाकर पूछ लीजिए। वह आपको सारी बात विस्तारपूर्वक बता दंगे।”
राजा ने बाहर खडे गॉव वालों को दरबार में बुलवाया। एक गॉव वाला बोला, “महाराज! गॄहमंत्री द्वारा बनाए गए सभी कुएँ समाप्त हो गए हैं। आप स्वयं देख सकते हैं।”
राजा ने उनकी बात मान ली और गॄहमंत्री, तेनाली राम, कुछ दरबारियों तथा गॉव वालो के साथ कुओं का निरीक्षण करने के लिए चल दिए। पूरे नगर का निरीक्षण करने के पश्चात उन्होंने पाया कि राजधानी के आस-पास के अन्य स्थानो तथा गॉवों में कोई कुऑ नहीं है। राजा को यह पता लगते देख गॄहमंत्री घबरा गया। वास्तव में उसने कुछ कुओ को ही बनाने का आदेश दिया था। बचा हुआ धन उसने अपनी सुख-सुविधओं पर व्यय कर दिया।
अब तक राजा भी तेनाली राम की बात का अर्थ समझ चुके थे। वे गॄहमंत्री पर क्रोधित होने लगे, तभी तेनाली राम बीच में बोल पडा “महाराज! इसमें इनका कोई दोष नहीं है। वास्तव में वे जादुई कुएँ थे, जो बनने के कुछ दिन बाद ही हवा में समाप्त हो गए।”
अपनी बात स्माप्त कर तेनाली राम गॄहमंत्री की ओर देखने लगा। गॄहमंत्री ने अपना सिर शर्म से झुका लिया। राजा ने गॄहमंत्री को बहुत डॉटा तथा उसे सौ और कुएँ बनवाने का आदेश दिया। इस कार्य की सारी जिम्मेदारी तेनाली राम को सौंपी गई।
अपराधी
एक दिन राजा कॄष्णदेव राय व उनके दरबारी, दरबार में बैठे थे। तेनाली राम भी वहीं थे । अचानक एक चरवाहा वहॉ आया और बोला, ” महाराज, मेरी सहायता कीजिए। मेरे साथ न्याय कीजिए।” “बताओ, तुम्हारे साथ क्या हुआ है?” राजा ने पूछा।
“महाराज, मेरे पडोस मे एक कंजूस आदमी रहता है। उसका घर बहुत पुराना हो गया है, परन्तु वह उसकी मरम्मत नहीं करवाता। कल उसके घर की एक दीवार गिर गई और मेरी बकरी उसके नीचे दबकर मर गई। कॄपया मेरे पडोसी से मेरी बकरी का हर्जाना दिलवाने में मेरी सहायता कीजिए।”
महाराज के कुछ कहने के पहले ही तेनाली राम अपने स्थान से उठा और बोला, “महाराज, मेरे विचार से दीवार टूटने के लिए केवल इसके पडोसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।”
“तो फिर तुम्हारे विचार में दोषी कौन है?” राजा ने पूछा।
“महाराज, यदि आप मुझे अभी थोडा समय दें, तो मैं इस बात की गहराई तक जाकर असली अपराधी को आपके सामने प्रस्तुत कर दूंगा।” तेनाली राम ने कहा।
राजा ने तेनाली राम के अनुरोध को मान कर उसे समय प्रदान कर दिया। तेनाली राम ने चरवाहे के पडोसी को बुलाया और उसे मरी बकरी का हर्जाना देने के लिए कहा। पडोसी बोला, “महोदय, इसके लिए मैं दोषी नहीं हूँ। यह दीवार तो मैंने मिस्त्री से बनवाई थी, अतः असली अपराधी तो वह मिस्त्री है, जिसने वह दीवार बनाई। उसने इसे मजबूती से नहीं बनाया। अतः वह गिर गई।”
तेनाली राम ने मिस्त्री को बुलवाया। मिस्त्री ने भी अपने को दोषी मानने से इनकार कर दिया और बोला, “अन्नदाता, मुझे व्यर्थ ही दोषी करार दिया जा रहा है जबकि मेरा इसमें कोई दोष नहीं है। असली दोष तो उन मजदूरों का है, जिन्होंने गारे में अधिक पानी मिलाकर मिश्रण को खराब बनाया, जिससे ईंटें अच्छी तरह से चिपक नहीं सकीं और दीवार गिर गई। आपको हर्जाने के लिए उन्हें बुलाना चाहिए।”
राजा ने मजदूरों को बुलाने के लिए अपने सैनिकों को भेजा। राजा के सामने आते ही मजदूर बोले, “महाराज, इसके लिए हमें दोषी तो वह पानी वाला व्यक्ति है, जिसने गारे चूने में अधिक पानी मिलाया।”
अब की बार गारे में पानी मिलाने वाले व्यक्ति को बुलाया गया। अपराध सुनते ही वह बोला, “इसमें मेरा कोई दोष नहीं है महाराज, वह बर्तन जिसमें पानी हुआ था, वह बहुत बडा था। जिस कारण उसमें आवश्यकता से अधिक पानी भर गया। अतः पानी मिलाते वक्त मिश्रण में पानी की मात्रा अधिक हो गई। मेरे विचार से आपको उस व्यक्ति को पकडना चाहिए, जिसने पानी भरने के लिए मुझे इतना बडा बर्तन दिया।
तेनाली राम के पूछने पर कि वह बडा बर्तन उसे कहॉ से मिला, उसने बताया कि पानी वाला बडा बर्तन उसे चरवाहे ने दिया था, जिसमें आवश्यकता से अधिक पानी भर गया था|
तब तेनाली राम ने चरवाहे से कहा, “देखो, यह सब तुम्हारा ही दोष है। तुम्हारी एक गलती ने तुम्हारी ही बकरी की जान ले ली।”
चरवाहा लज्जित होकर दरबार से चला गया। परन्तु सभी तेनाली राम के बुद्धिमतापूर्ण न्याय की भूरी-भूरी प्रशंसा कर रहे थे।
तेनालीराम की कला
विजय नगर के राजा अपने महल में चित्रकारी करवाना चाहते थे। इस काम के लिए उन्होंने एक चित्रकार को नियुक्त किया। चित्रों को जिसने देखा सबने बहुत सराहा। पर तेनालीराम को कुछ शंका थी। एक चित्र की पूष्ठभूमि में एक प्राकृतिक दृश्य था। उसके सामने खडे होकर बडे भोलेपन से पूछा,इसका दूसरा पक्ष कहां है? इसके दूसरे अंग कहां है? राजा ने हंसकर कहां कि तुम इतना भी नही समझते कि उनकी कल्पना करनी होती है। तेनाली ने मुहं बिचकाते हुये कहां अच्छा तो चित्र ऐसे बनते है! ठीक है मैं समझ गया। कुछ महीने बाद तेनालीराम ने राजा से कहां, मै कई महीनो से चित्रकारी सीख रहा हूं आपकी आज्ञा हो तो मै राजमहल की दीवारो पर चित्र बनाना चाहता हूं।
तेनालीराम ने पुराने चित्रो पर सफेदी पोती और उनकी जगह अपने चित्र बना दिए उसने अलग-अलग शरीर के अगों को अलग-अलग भागो में भर दिया और राजा को अपनी कला को देखने के लिये बुलाया पर दिवारो पर अलग-अलग शरीर के अंगो को देख कर राजा बहुत निराश हुआ और पूछा,यह तुमने क्या किया?तस्वीरे कहां है?
तेनालीराम ने कहा, चित्रो मे बाकि चीजो की कल्पना करनी होती है फिर उसने एक चित्र दिखाया राजा ने पूछा यह आडी-टेढी लकीरे क्या है? तेनाली बोला यह घास खाती गाय का चित्र है।
राजा ने पूछा-गाय कहां है? गाय घास खाकर बाडे में चली गई है ये कल्पना कर लीजिए हो गया न चित्र पूरा। राजा उसकी पूरी बात समझ गया कि तेनाली ने उस दिन की बात का जवाब दिया है।
टिक्कड चटनी का भोग
एक गांव में एक पंडित जी भागवत कथा सुनाने आए। पूरे सप्ताह कथा वाचन चला। पूर्णाहुति पर दान दक्षिणा की सामग्री इक्ट्ठा कर घोडे पर बैठकर पंडितजी रवाना होने लगे। गांव के धन्ना जाट ने उनके पांव पकड लिए। वह बोला- पंडितजी महाराज ! आपने कहा था कि जो ठाकुरजी की सेवा करता है उसका बेडा पार हो जाता है। आप तो जा रहे है। मेरे पास न तो ठाकुरजी है, न ही मैं उनकी सेवापूजा की विधि जानता हूं। इसलिए आप मुझे ठाकुरजी देकर पधारें। पंडित जी ने कहा- चौधरी, तुम्हीं ले आना। धन्ना जाट ने कहा - मैंने तो कभी ठाकुर जी देखे नहीं, लाऊंगा कैसे ? पंडित जी को घर जाने की जल्दी थी। उन्होंने पिण्ड छुडाने को अपना भंग घोटने का सिलबट्टा उसे दिय और बोले - ये ठाकुरजी है। इनकी सेवापूजा करना। धन्ना जाट ने कहा - महाराज में सेवापूजा का तरीका भी नहीं जानता। आप ही बताएं। पंडित जी ने कहा - पहले खुद नहाना फिर ठाकुर जी को नहलाना। इन्हें भोग चढाकर फिर खाना। इतना कहकर पंडित जी ने घोडे के एड लगाई व चल दिए। धन्ना सीधा एवं सरल आदमी था। पंडितजी के कहे अनुसार सिलबट्टे को बतौर ठाकुरजी अपने घर में स्थापित कर दिया। दूसरे दिन स्वयं स्नानकर सिलबट्टे रूप ठाकुरजी को नहलाया। विधवा मां का बेटा था। खेती भी ज्यादा नहीं थी। इसलिए भोग मैं अपने हिस्से का बाजरी का टिक्कड एवं मिर्च की चटनी रख दी। ठाकुरजी से धन्ना ने कहा-पहले आप भोग लगाओ फिर मैं खाऊंगा। जब ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो बोला-पंडित जी तो धनवान थे। खीर-पूडी एवं मोहन भोग लगाते थे। मैं तो जाट का बेटा हूं, इसलिए मेरी रोटी चटनी का भोग आप कैसे लगाएंगे ? पर साफ-साफ सुन लो मेरे पास तो यही भोग है। खीर पूडी मेरे बस की नहीं है। ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो धन्ना भी छह दिन भुखा रहा। इसी तरह वह रोज का एक बाजरे का ताजा टिक्कड एवं मिर्च की चटनी रख देता एवं भोग लगाने की अरजी करता। ठाकुरजी तो पसीज ही नहीं रहे थे। छठे दिन बोला-ठाकुरजी, चटनी रोटी खाते क्यों शर्माते हो ? आप कहो तो मैं आंखें मूंद लू फिर खा लो। ठाकुरजी ने फिर भी भोग नहीं लगाया तो नहीं लगाया। धन्ना भी भूखा प्यासा था। सातवें दिन धन्ना जट बुद्धि पर उतर आया। फूट-फूट कर रोने लगा एवं कहने लगा कि सुना था आप दीन-दयालु हो, पर आप भी गरीब की कहां सुनते हो, मेरा रखा यह टिककड एवं चटनी आकर नहीं खाते हो तो मत खाओ। अब मुझे भी नहीं जीना है, इतना कह उसने सिलबट्टा उठाया और सिर फोडने को तैयार हुआ, अचानक सिलबट्टे से एक प्रकाश पुंज प्रकट हुआ एवं धन्ना का हाथ पकड कहा- देख धन्ना मैं तेरा चटनी टिकडा खा रहा हूं। ठाकुरजी बाजरे का टिक्कड एवं मिर्च की चटनी मजे से खा रहे थे। जब आधा टिक्कड खा लिया तो धन्ना बोला-क्या ठाकुरजी मेरा पूरा टिक्कड खा जाओगे ? मैं भी छह दिन से भूखा प्यासा हूं। आधा टिक्कड तो मेरे लिए भी रखो। ठाकुरजी ने कहा - तुम्हारी चटनी रोटी बडी मीठी लग रही है तू दूसरी खा लेना। धन्ना ने कहा - प्रभु ! मां मुझे एक ही रोटी देती है। यदि मैं दूसरी लूंगा तो मां भूखी रह जाएगी। प्रभु ने कहा-फिर ज्यादा क्यों नहीं बनाता। धन्ना ने कहा - खेत छोटा सा है और मैं अकेला। ठाकुरजी ने कहा - नौकर रख ले। धन्ना बोला-प्रभु, मेरे पास बैल थोडे ही हैं मैं तो खुद जुतता हूं। ठाकुरजी ने कहा-और खेत जोत ले। धन्ना ने कहा-प्रभु, आप तो मेरी मजाक उडा रहे हो। नौकर रखने की हैसियत हो तो दो वक्त रोटी ही न खा लें मां-बेटे। इस पर ठाकुरजी ने कहा - चिन्ता मत कर मैं तेरी मदद करूंगा। कहते है तबसे ठाकुरजी ने धन्ना का साथी बनकर उसकी मदद करनी शुरू की। धन्ना के साथ खेत में कामकाज कर उसे अच्छी जमीन एवं बैलों की जोडी दिलवा दी। कुछे अर्से बाद घर में भैंस भी आ गई। मकान भी पक्का बन गया। सवारी के लिए घोडा आ गया। धन्ना एक अच्छा खासा जमींदार बन गया। कई साल बाद पंडितजी पुनः धन्ना के गांव भागवत कथा करने आए। धन्ना भी उनके दर्शन को गया। प्रणाम कर बोला-पंडितजी, आप जो ठाकुरजी देकर गए थे वे छह दिन तो भूखे प्यासे रहे एवं मुझे भी भूखा प्यासा रखा। सातवें दिन उन्होंने भूख के मारे परेशान होकर मुझ गरीब की रोटी खा ही ली। उनकी इतनी कृपा है कि खेत में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर काम में मदद करते है। अब तो घर में भैंस भी है। आफ सात दिन का घी-दूध का ‘सीधा‘ यानी बंदी का घी-दूध मैं ही भेजूंगा। पंडितजी ने सोचा मूर्ख आदमी है। मैं तो भांग घोटने का सिलबट्टा देकर गया था। गांव में पूछने पर लोगों ने बताया कि चमत्कार तो हुआ है। धन्ना अब वह गरीब नहीं रहा। जमींदार बन गया है। दूसरे दिन पंडितजी ने कहा-कल कथा में तेरे खेत में काम वाले साथी को साथ लाना। घर आकर प्रभु से निवेदन किया कि कथा में चलो तो प्रभु ने कहा - मैं नहीं चलता तुम जाओ। धन्ना बोला - तब क्या उन पंडितजी को आपसे मिलाने घर ले आऊ। प्रभु ने कहा - हरगिज नहीं। मैं झूठी कथा कहने वालों से नहीं मिलता। जो अपना काम मेरी पूजा समझ करता है मैं उसी के साथ रहता हूं।
सच्ची लगन
एक फकीर बगदाद शहर में इकतारा बजाते हुए घूम रहा थां अचानक उसके पांव में एक कील चुभ गई। कील चुभने से एक लंबी आह के साथ फकीर अपना पांव पकड कर रास्ते में ही बैठ गया। उसके पांव से लगातार खून बह रहा था। भक्तों की भीड फकीर के पास इक्ट्ठी हो गई। देखते ही देखते एक भक्त हकीम को बुला लाया। हकीम ने कील निकालने के लिए ज्योंही अपना हाथ बढाया, पांव छूते ही फकीर दर्द के मारे चीख पडा। हकीम कहने लगा - अभी तो मैंने कील के हाथ भी नहीं लगाया है। कील निकाले बिना मैं पट्टी करूंगा भी कैसे ? आप थोड-सा मन को मजबूत कर लीजिए। मैं अभी कील निकाल देता हूं। फकीर ने कहा- इस समय मन को मजबूत रखना मेरे वश की बात नहीं है। हकीम ने कहा - कील निकाले बिना कोई रास्ता भी नहीं है।
पास खडे एक भक्त ने हकीम से कहा - आप एक काम करें, चार बजे ये नमाज पढेंगे, उस समय कील निकाल देना। हकीम ने आश्चर्य से पूछा - जो आदमी हाथ नहीं लगाने दे रहा है वह नमाज भी पढ पाएगा या नहीं। भक्त ने कहा - मैं जानता हूं कि जब उस्ताद खुदा की इबादत में रहेंगे उस समय आप इनकी कील निकाल देना। वैसा ही किय गया। फकीर ने उफ तक नहीं किया। बस नमाज के बाद इतना सा पूछा- क्या कील निकल गई ? जो फकीर कील के छूने मात्र से चीख पडा था। उसे पता नहीं चला कि कील कब निकल गई। हकीम ने इसका राज जानना चाहा, फकीर ने कहा - पहले मैं अपने शरीर में था इसलिए मुझे दुखी कर रहा था। नमाज के वक्त मैं खुदा की इबादत में था। शरीर के बारे में मुझे कोई भान नहीं था। मेरी लगन तो नमाज में लगी थी। हकीम ने सलाम करते हुए कहा - सच्ची लगन से की गई प्रार्थना ही सच्ची प्रार्थना है।
तीर बने तुक्के
एक गांव में चार मूर्ख रहते थे। एक दिन चारों परदेस के लिए रवाना हुए। रास्ते में भुख लगी। एक वट वृक्ष के नीचे विश्राम किया। भोजन के लिए अलग-अलग काम बांटा गया। रोटियां तैयार हुई। घी लाने का काम किसी को नहीं सौंपा। परस्पर तनातनी बढी। घी कौन लाए ? आखिर फैसला हुआ कि जो पहले बोलेगा उसे घी लाना पडेगा। चारों पालथी मार बैठ गए। इतने में दो कुत्ते आए। सारी रोटियां खा गए। कोई भी नहीं बोला। रात हो गई। दो चोर चोरी करने आए। वृक्ष के नीचे अपने थैलों को ठीक करने लगे। इतने में ही चोरों को सिपाही दिख गए। चोर दौड गए पर धन के थैले छोड गए। सिपाहियों ने धन देख उनसे पूछा- क्या तुम चोर हो ? घी लाने के डर से चारों मौन रहे। चारों को हथकडया डाल राजदरबार लाया गया। राजा ने चारों को चोर समझकर जेल भेज दिया। इतने में ही छोटे मूर्ख से रहा नहीं गया और वह जोर से बोला - हम चोर नहीं है। यह सुनते ही तीनों हल्ला करने लगे - घी तुम्हें लाना है, घी तुम्हें लाना है।
जेल वाले दंग रह गए। यह क्या बला है ? वे राजदरबार में आए। उन्होंने राजा को अवगत कराया। राजा के आदेश से चारों ही मूर्ख राजदरबार में हाजिर हुए। उन चारों की शक्ल देखकर राजा ने सोचा - ये लोग होने तो मूर्ख चाहिए, किंतु है किस्मत वाले। राजा ने किस्मत की परीक्षा करने के लिए चारों से प्रश्न किया- बोलो भाई ! मेरी बंद मुट्ठी में क्या है ? पहले मूर्ख को राजा की बात ही समझ में नहीं आई इसलिए उसने तुक्का लगाया और कहा - सब गोलमाल है। दूसरे ने तुक्के का अर्थ अनारदाना समझते हुए कहा - रंग लाल-लाल है। तीसरे ने कहा - और दानेदार है। चौथा समझ गया कि ये किसी फल की बात कर रहे है इसलिए उसने तुक्का लगाया- खोल मुट्ठी राजा हाथ में अनार है। चारों के तुक्के सच्चे निकलें। राजा खुश हुआ और उसने कहा - तुमने यह सब अंदाज कैसे लगाया ? चारों ने कहा - हमने सोचा कि एक तुक्के से दूसरा तुक्का जोडते जाएंगे और जोडने के काम में कभी किसी को नुकसान नहीं हुआ है। तोडने वाले काम से नुकसान होता है। राजा ने कहा -भाई, तुम्हारें तुक्के तो तीर बनकर सीधे निशाने पर लगे है। राजा ने चारों को इनाम दिया और वे चारों इनाम राशि लेकर उसी वृक्ष के नीचे जा पहुंचे। रातभर विश्राम किया। राजा से भेंट में मिले रूपयों को वृक्ष की जड में खुले ही रखकर सो गए। थोडी देर में नींद आ गई।
इधर कोतवाल चलता फिरता वहां पहुंच गया। दो हजार रूपयों को देखकर उसका जी ललचाया। रूपयों को लेकर वह अपने घर आ गया। सुबह चारों उठे। रूपए नहीं मिलने से चारों राजा के पास वापस आए। राजा ने कहा- तुम ही तुक्के लगाकर बताओ कि रूपए किसने लिए है ?
पहला बोला- आयो फिरतो फिरतो। दूसरा बोला- आयो घोडा चढतो। तीसरा बोला- हाथ में तलवार और चौथा बोला - चोर कोतवाल। कोतवाल ही हमारे रूपयों का चोर है। कोतवाल को दरबार में बुलाया गया। राजा ने सब बात पूछी। चारों के तुक्के सच थे। राजा फिर चारों के सही तुक्कों पर बडा खुश था। कोतवाल को सजा मिली और राजा ने चारों को एक-एक हजार रूपये का इनाम दिया।
व्यापारी की पत्नी
एक नगर में एक व्यापारी रहता था। उसकी पत्नी बहुत संदर थी। एक दिन पति-पत्नी अपने रिश्तेदारों से मिलने दूसरे गांव जा रहे थे। सफर की दूरी कम होने से वे दोनों पैदल ही चल दिए। मार्ग में एक गाडीवान किसान ने व्यापारी की पत्नी को देखा। उसके मन में पास का सांप जग गया। वह व्यापारी से बोला - महाशय ! आप कहां जाएंगे ? व्यापारी ने गांव का नाम बता दिया।
किसान गांव का नाम सुनकर बोला - मैं भी उसी गांव में जा रहा हूं। आप अपनी पत्नी को मेरी गाडी में बिठाना चाहे तो बिठा दे। व्यापारी ने अपनी पत्नी को गाडी में बिठा दिया। खुद पैदल चल दिया। किसान ने गाडी में जुते बैलों को तेज-तेज दौडाना शुरू किया। व्यापारी गाडी के पीछे-पीछे भागने लगा। मार्ग में किसान ने उसकी पत्नी को अपनी बातों के जाल फंसाकर वश में कर लिया। जब वे उस गांव के निकट पहुंचे, तो व्यापारी ने किसान को आवाज दी - भाई ! ठहर जाओ, हमारा गांव आ गया है, पत्नी को उतार दो।
भाई! हमारा गांव तो आगे है और यह स्त्री मेरी पत्नी है। यह सुनकर व्यापारी दौडकर गाडीवान के पास पहुंचा और चिल्लाने लगा कि यह गाडी वाला मेरी पत्नी को नहीं उतार रहा है। व्यापारी की बात सुनकर आसपास के राहगीर खडे हो गए लेकिन कोई फैसला नहीं कर सका कि वह स्त्री किसकी पत्नी है। इसलिए वे दोनों राजा के दरबार में पहुंचे।
राजा ने उन दोनेां की बातें सुनकर मंत्री से इस बात का निर्णय करने के लिए कहा। मंत्री ने उस स्त्री को अपने पास बुलाया और उससे पूछा - क्या बात है ? औरत चुप रही, वह कुछ नहीं बोली। मंत्री उलझन में फंस गया। थोडी देर सोचने के बाद उसने उस औरत को स्याही की दवात देकर कहा-इसमें पानी डालकर ले आओ। मंत्री की यह बात सुनकर औरत खडी हुई और दवात में पानी डालकर ले आई। मंत्री ने दवात से स्याही लेकर एक कागज पर दो-चार शब्द लिखकर देखें। स्याही में पानी सही अनुपात में डाला गया था। मंत्री ने व्यापारी से कहा-तुम अपनी पत्नी को ले जाओ, यह स्त्री तुम्हारी है।
उसके बाद किसान को झूठ बोलने और गलत आचरण करने पर सजा दी। यह देखकर राजा ने मंत्री से पूछा-तुम्हें यह कैसे पता चला कि वह औरत व्यापारी की है ? मंत्री बोला - राजन् ! मैंने उस औरत से दवात में पानी डालने को कहा। उसने उतना ही पानी डाला, जितनी स्याही के लिए जरूरी था। इससे मुझे पता चल गया कि वह औरत किसान की नहीं है। व्यापारी स्याही में पानी अवश्य डलवाता होगा। उसे स्याही में पानी डालने की आदत थी, अतः स्याही में जितने पानी की जरूरत थी वह उतना ही पानी डालकर ही लाई। यदि वह किसान की स्त्री होती, तो अनाडीपन से कम या अधिक मात्रा में पानी भर लाती। राजा ने मंत्री की चतुराई की तारीफ की और सही सही न्याय करने के लिए उसे पुरस्कृत किया।
बीरबल की बुद्धिमानी
अकबर बादशाह का दरबार सजा हुआ था। बीरबल दरबार में अनुपस्थित थे। तभी एक दरबारी ने खडे होकर कहा- जहांपनाह् ! आप हर काम के लिए बीरबल की सहायता लेते है। इसलिए हमें अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देने का अवसर नहीं मिलता। वैसे भी बीरबल हमसे आयु में छोटे है। फिर भी आप उसे हमसे अधिक सम्मान देते है, जबकि उस सम्मान के हकदार हम है।
बादशाह बोले - तुम लोगों की सोच गलत है। बीरबल बहुत बुद्धिमान है, बुद्धिमत्ता में उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। इसी वजह से मैं हर बात उससे ही पूछता हूं। दरबारियों को बदशाह की यह बात अच्छी नहीं लगी, पर वे चुपचाप बैठ गए। सबको चुप बैठा देखकर बादशाह बोले - अगर तुम लोगों को इस बात का घमंड है कि तुम लोग ज्यादा चतुर हो, तो आज तुम सभी की चतुराई की परीक्षा होगी, जो पास हो जाएगा उसे बीरबल की जगह मिल जाएगी। अक्ल की परीक्षा के लिए बादशाह ने दो हाथ लंबी एक चादर मंगाई। बादशाह ने दरबारियों से कहा- देखों मैं लेट जाता हूं और तुम लोग बारी-बारी से इस चादर से मेरा जिस्म ढंकने की कोशिश करना। ध्यान रहे कि जिस्म का कोई भी हिस्सा खुला नहीं रहने पाए। यह काम जो कोई कर लेगा, उसे बीरबल का स्थान मिल जाएगा। बादशाह लेट गए। सभी दरबारी बारी-बारी से चादर ओढाने की कोशिश करने लगे। कोई भी दरबारी यह काम नहीं कर सका।
जब कोई भी दरबारी बादशाह को नहीं ढक सका तो वे उठ खडे हुए और बोले - अगर इस वक्त यहां बीरबल होते तो वह अवश्य ही अच्छी तरह से मेरा जिस्म ढंक देते। जब आप यह मामूली सा काम ही नहीं कर पाए, तो बडा काम कैसे कर पाएंगे ? अब बादशाह ने बीरबल को बुलाने का हुक्म दिया।
बीरबल आकर अपनी जगह पर अदब से बैठ गए। बादशाह ने उन्हें अपने पास बुलाया। चादर उनके हाथ में देकर सारी बात बताई। बादशाह लेट गए। बीरबल ने जब देखा कि चादर बहुत छोटी है, तो उसने बादशाह से कहा- समझदार आदमी वह है जो उतने ही पांव लंबे करता है जितनी लंबी चादर होती है। इसीलिए कहा गया है - तेते पांव पसारिए, जेती लांबी सोर। यानी उतने ही पैर फैलाएं जितनी बडी चादर हो। यह सुनकर बादशाह ने समझदार दिखने के लिए पांव समेट लिए। बीरबल ने बादशाह के पूरे शरीर को चादर से ढंक दिया। बादशाह ने दरबारियों से कहा-देखी आपने बीरबल की चतुराई, चुगलखोर दरबारियों का सिर शर्म से झुक गया।
और मनुष्य बुद्धिमान हो गए
बहुत पुरानी बात है। अफ्रीका के किसी गांव में अनानसी नाम का एक व्यक्ति रहता था। पूरी दुनिया में वही सबसे बुद्धिमान था। सभी लोग उससे सलाह और मदद मांगने आते थे।एक दिन अनानसी किसी बात पर दूसरे मनुष्यों से नाराज हो गया। उसने उन्हें दण्ड देने की सोची। उसने यह तय किया कि वह अपना सारा ज्ञान उनसे हमेशा के लिए छुपा देगा ताकि कोई और मनुष्य ज्ञानी न बन सक। उसी दिन से उसने अपना सारा ज्ञान बटोरना शुरू कर दिया। जब उसे लगा कि उसने सारा ज्ञान बंटोर लिया है तो मिट्टी के एक मटके में सारे ज्ञान को बंद कर दिया और अच्छी तरह से सीलबंद कर दिया। उसने यह निश्चय किया कि उस मटके को वह ऐसी जगह रखेगा जहां से कोई और मनुष्य उसे प्राप्त न कर सके।अनानसी के एक बेटा था जिसका नाम कवेकू था। कवेकू को धीरे-धीरे यह अनुभव होने लगा कि उसका पिता किसी संदिग्ध कार्य में लिप्त है इसलिए उसने अनानसी पर नजर रखनी शुरू कर दी। एक दिन उसने अपने पिता को एक मटका लेकर दबे पांव झोंपडी से बाहर जाते देखा। कवेकू ने अनानसी का पीछा किया। अनानसी गांव से बहुत दूर एक जंगल में गया और उसने मटके को सुरक्षित रखने के लिए एक बहुत ऊंचा पेड खोज लिया। अपना ज्ञान दूसरों में बंट जाने की आशंका से भयभीत अनानसी मटके को अपनी आंखों के सामने ही रखना चाहता था इसलिए वह अपनी छाती पर मटके को टांगकर पेड पर चढने लगा। उसने कई बार पेड पर चढने की कोशिश की लेकिन वह जरा सा भी नहीं चढ पाया। सामने की और मटका टंगा होने के कारण वह पेड को पकड नहीं पा रहा था। कुछ देर तक तो कवेकू अपने पिता को पेड पर चढने का अनथक प्रयास करते देखता रहा। उससे जब रहा न गया तो वह चिल्लाकर बोला-पिताजी, आप मटके को अपनी पीठ पर क्यों नहीं टांगते ? तब आप पेड पर आसानी से चढ जाएंगे। अनानसी मुडा और बोला-मुझे तो लगता था कि मैंने दुनिया सारा ज्ञान इस मटके में बंद कर लिया है। लेकिन तुम तो मुझसे भी ज्यादा ज्ञानी हो। मेरी सारी बुद्धि वह नहीं समझ पा रही थी जो तुम दूर बैठे ही जान रहे थे। उसे कवेकू पर बहुत गुस्सा आया और क्रोध में उसने मटका जमीन पर पटक दिया। जमीन पर गिरते ही मटका टूट गया और उसमें बंद सारा ज्ञान उसमें से निकलकर पूरी दुनिया में फैल गया और सारे मनुष्य बुद्धिमान हो गए।
बादशाह की ईमानदारी
बादशाह नासिरूद्दीन बहुत सच्चरित्र और ईमानदार था। उसन आजीवन राजकोष से एक भी पैसा नहीं लेकर अपनी हस्तलिखित पुस्तकों से जीवन निर्वाह किया। इतना बडा बादशाह होने पर भी उनके एक पत्नी थी। घरेलू कार्यों के अलावा रसोई में भी स्वयं बेगम ही काम करती थी। एक बार रसोई में काम करते समय बेगम का हाथ जल गया। बेगम ने बादशाह से कुछ दिनों के लिए रसोई के लिए एक नौकरानी रख देने की प्रार्थना की। बादशाह ने अस्वीकार करते हुए कहा-राजकोष पर मेरा कोई अधिकार नहीं है, वह तो प्रजा की ओर से मेरे पास धरोहर मात्र है और धरोहर से अपने कार्यों के लिए खर्च करना अमानत में खयानत है। बादशाह को ही नहीं हर नागरिक को स्वावलम्बी होना चाहिए। अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण के लिए स्वयं की कमाना चाहिए। जब बेगम की तबियत ज्यादा बिगड गई तो एक दिन बादशाह स्वयं रसोईखाने में भोजन बनाने लगे। बेगम रो पडी तो बादशाह बोले- जो राजा स्वावलम्बी नहीं होगा, उसकी प्रजा भी अकर्मण्य हो जाएगी, इसलिए मैं अपने हाथ से काम करना बुरा नहीं मानता। राजकोष से मैं एक पैसा भी नहीं ले सकता। इसीलिए तुम्ही बताओं कि अपने हाथ से काम करना पसंद है या हराम का खाना। बेगम भी अपने पति की ही तरह थी। उसे बात जंच गई और उसने फिर स्वस्थ होने के बाद नौकरानी रखने की जिद नहीं की।
सही नजरिया
एक गुरू ने बारह साल तक गुरूकुल में अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान की। दीक्षा के समय उनकी परीक्षा लेने के लिए गुरू ने निर्देश दिया कि आश्रम के आसपास जो पौधे है, इनमें से बेकार पौधों की सूची बनाकर लाओ। सभी शिष्य प्रसन्न मन से चले गए। सभी शिष्य अपने-अपने नजरिए से बेकार पौधों की सूची बना लाए। एक शिष्य ने खाली कागज गुरू के सामने रख दिया। गुरू ने पूछा-क्या बात है, तुमने बेकार और फालतू पौधों की सूची नहीं बनाई । शिष्य ने कहा - गुरूदेव ! हर पौधा किसी न किसी गुण से युक्त है। प्रकृति ने उसे यूं ही पैदा नहीं किया है। प्रकृति के हर उत्पाद का अपना महत्व है। जिस घास और चारे को हम फालतू समझते है वे भी पशुओं और वैद्य हकीमों के लिए महत्वपूर्ण है। अनजान और बेकार दिखाई देने वाली खरपतवार भी कई औषधीय गुण रखती है। गुरू ने अन्य शिष्यों से कहा - तुम्हारी शिक्षा अभी अधूरी है। दीक्षा केवल इसे ही प्रदान की जाएगी। क्योंकि इसका नजरिया सकारात्मक है। पौधों की तरह प्राणियों में भी अपने-अपने गुण-स्वभाव विद्यमान है। इसलिए हर चीज को नकारात्मक नजरिए से नहीं देखना चाहिए। गुरू ने सभी शिष्यों को यह नसीहत देते हुए उस एक शिष्य को दीक्षा के योग्य माना। सभी शिष्यों ने नकारात्मक सोच छोडकर सकारात्मक नजरिया अपनाने की प्रतिज्ञा की।
शाह की समझ
नादिरशाह ईरानक का बादशाह था। वह ईरान से अपनी सेवा सहित भारत आ पहुंचा। करनाल में नादिरशाह से हार कर दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह ने उससे संधि कर ली। संधि प्रस्ताव की बैठक में नादिरशाह को प्यास लगी। उसने पानी मांगा। मुहम्मद शाह ने अपने मंत्री को पानी लाने का इशारा किया। मंत्री ने पहले नगाडा बजवाया। कुछ ही पलों बाद सात-आठ सेवक एक झारे में जल लेकर आते दिखे। एक सेवक झारे को थामे हुए था। दूसरा उस पर छत्र ताने था। तीसरा मखमली कपडा ढक कर धीरे धीरे चल रहा था। चौथा चंवर ढुला रहा था। एक दासी सिंहासन के समीप खडी थी उसने जल के झारे को हाथ में लिया और नादिरशाह के सामने बाअदब पेश किया। नादिरशाह ने यह देखकर पूछा-यह क्या नाटक हो रहा है ? मुहम्मद शाह ने कहा- हजूरे आला आपने पानी की फरमाइश की है, वही लाया जा रहा है। नादिरशाह ने कहा-इस तरह से पानी पीता तो ईरान से भारत भी नहीं पहुंच पाता। लडाई जीतना तो बहुत दूर की बात है। यह कहकर उसने अपने भिश्ती को बुलाया और अपने लोहे के कनटोप में पानी भरकर भर पेट पानी पीया। सारे दरबारी देखते रहे। मुहम्मदशाह को समझ में आ गया कि विजेता वही होता है जो वक्त की कद्र करना जानाता है।
लम्बी जबान
अंग्रेजों ने हिन्दूस्तान पर सैकडों साल तक राज किया। हिन्दूस्तान स्वतंत्र हुआ। जब अंगेज हिन्दूस्तान से अपने देश इंग्लैण्ड की ओर प्रस्थान करने लगे तो किसी भारतीय ने अंग्रेज से पूछा- भैया ! आप लोग वर्षों तक भारत में रहे है, आप एक बात बताएं, भारत के लोगों के बारे में आपकी क्या राय है ? अंग्रेज ने कहा - भारत निश्चित रूप से महान है। इसमें सुई भर भी संशय की बात नहीं है। पर भारत के लोगों की जबान बहुत लम्बी है और हाथ-पांव एकदम छोटे। उस भारतीय ने कहा - कहां है हमारे हाथ-पांव एकदम छोटे। हमार तो जबान भी लम्बी नही है। समझाते हुए अंग्रेज ने कहा - आप लोग ज्ञान विज्ञान की बातें करते हुए कहते हैं कि सब कुछ हमारे शास्त्रों में लिखा है। यह सच भी है पर आप लोगों ने खोज के लि हाथ पांव नहीं चलाए इसलिए दुनिया के सभी आविष्कारों का श्रेय दूसरे लोग ले गए। भारतीय ने माना कि अब वह बातें कम और काम ज्यादा करेगा।
सूई-डोरे की बात
बगीचे के माली के हाथों पडकर सुई मन ही मन फूल उठी। बहुत उत्साहित होकर उसने सैकडों फूलों के दिल बींध दिए। अपनी इस जीत के घमंड में चूर होकर उसने यह भी नहीं देखा कि सैकडों फूलों के दिल बिंधने से बनी मालाओं से उसे कुछ भी नहीं मिला। माली ने सूई को अपनी पगडी के अंतिम सिरे में खोंस दिया। सूई अलग-थलग पड गई। अपनी उपेक्षा पर दुःखी सूई ने धागे को ललकारा- ‘दुष्ट ! इन सुन्दर फूलों पर मेरा अधिकार है। मैंने इनका शिकार किया है, तू क्यों इन्हें बटोरता है ?“डोरे ने उत्तर दिया - तू अपने घमंड की वजह से चूर होकर छली गई। जबकि मैं अपने लचीलेपन की वजह से फूलों के दिल में बैठा हूं। सूई समझ गई, उसने डोरे से कहा- भाई अब मैं कभी घमंड नहीं करूंगी। दूसरे दिन माली ने भी उसे पगडी के ऊपरी सिरे लगाना शुरू किया। डोरे ने सुई से कहा- तुम्हारे घमंड छोडते ही माली ने तुम्हें सिर पर बिठा लिया है।
बडा हुआ तो क्या हुआ
नानपोह का निवासी संत त्सुचि एक बार शाड पर्वत पर आराम कर रहे थे। सामने एक बडा वृक्ष दिखाई दिया। त्सुचि के मुख से आश्चर्य मिश्रित उद्गार निकल पडे कि इतना विशाल भी कोई वृक्ष हो सकता है, जिसकी छांह में राहगीर अपनी थकान मिटा सकते है। यह किस प्रजाति का पेड होगा ? त्सुचि सोचने लगे। निश्चय ही इसकी लकडी बहुत उम्दा होगी। जब उन्होंने वृक्ष का निरीक्षण करना शुरू किया तो उन्हें दिखा कि वृक्ष की शाखाएं इतनी टेढी मेढी हैं कि उससे एक जहाजी बेडा बनाया नहीं जा सकता । उसके तने में गांठे भी इतनी है उससे ताबूत के लिए तख्त बनाना भी संभव नहीं है। जब त्सुचि ने उसका एक पत्ता तोडकर चखा, तो उनकी जीभ और होंठ छिल गए। उन्होंने महसूस किया कि पत्तों में ऐसी तेज गंध है कि यदि इसे कोई भूल से भी खा लें, तो तीन दिन तक उसकी सुध-बुध जाती रहे। वे आप ही आप बोल उठे- ओह, अब पता चला कि यह वृक्ष इतना विशाल क्यों है ? बुद्धिमानों को इससे नसीहत लेनी चाहिए कि यदि वे किसी के काम नहीं आते है, तो उनके बडे होने का क्या लाभ ?
धनवान का जूता
जापान के एक नगर में धनी आदमी रहता था। एक दिन उसने अपने नौकर को जूता लेने के लिए बाजार भेजा। नौकर जूता खरीद कर वापस लौट रहा था कि रास्ते में वर्षा शुरू हो गई। बरसात में भीगकर जूते खराब नहीं हो जायें, इस विचार से उसने जूतों को कसकर बगल में दबा लिया। जोर से, दबाने की वजह से जूतों का आकार-प्रकार बिगड गया। सिकुडे जूते देखकर धनवान को आवेश आ गया और वह होश खो बैठा। नौकर से बिना कुछ पूछताछ किए उसने जूते से नौकर के सिर पर हमला कर दिया। सिर पर इतने जोर से जूते मारे कि बेचारा नौकर बेहोश होकर जमीन पर गिर पडा। जब होश आया तो देखा कि उसके सिवा कमरे मे कोई नहीं है। वह मनहूस जूता पास में पडा था। साधारण सी गलती पर इतने बडे दंड से नौकर के मन में धनवान के प्रति गुस्सा उभर आया। प्रतिशोध लेने का निश्चय करके वह वहां से भाग खडा हुआ। साथ में वह जूता भी ले गया। धनवान बुद्ध का उपासक था। वह प्रायः बौद्ध भिक्षुओं के पास जाता रहता था। इसलिए नौकर ने सोचा कि मैं भी बौद्ध भिक्षु बन जाऊं तो प्रतिशोध लेने का अवसर सहज ही मिल जाएगा। यह सोच वह बौद्ध भिक्षु बन गया। थोडे ही समय में वह विद्वान एवं श्रेष्ठ भिक्षु के रूप में प्रसिद्ध हो गया। उसे आचार्य पद पर भी प्रतिष्ठित कर दिया। धनवान ने अपनी ढलती उम्र में एक विशाल बौद्ध मंदिर का निर्माण किया। मंदिर की प्रतिष्ठा-विधि सम्पन्न करने के लिए धनवान ने उन सुप्रसिद्ध आचार्य को आमंत्रित किया। निमंत्रण पाकर आचार्य प्रसन्न थे। उन्हें लगा कि आज धनवान से प्रतिशोध लेने का अच्छा अवसर मिल जाएगा। रात्रि के समय धनवान सो रहा था। तब आचार्य के मन में बदला लेने की भावना जगी। आचार्य धनवान की हत्या करने के लिए उठे। तुरंत उनके मन में बुद्ध का उपदेश ज्योतिर्मय हो उठा कि वैर से वैर कभी समाप्त नहीं होता। खून का कपडा खून से नहीं शांति के पानी से साफ होगा। आचार्य ने तुरंत शस्त्र फेंके और सो गए। दूसरे दिन प्रवचन सभा में आचार्य आए तो उनके हाथ में जूता था। धनवान ने आचार्य के हाथ में जूता देखकर साश्चर्य पूछा -भंते! इस पावन-प्रसंग पर आफ हाथ में जूता ? आचार्य ने कहा - हां, यह जूता अपावन नहीं, परम पावन है। इस जूते ने ही मुझे भिक्षु एवं आचार्य तक की यात्रा कराई है। मेरी साधना का पथ प्रशस्त किया है। धनवान इस गूढ पहेली को समझ नहीं सका। वह जिज्ञासु भावे से आचार्य की ओर देखने लगा। आचार्य ने सभा में ही धनवान का नाम लिए बिना ही पुरानी घटना को सुना दिया। प्रवचन समाप्त होते ही सजल नेत्रों से भिक्षु के चरणों में गिरकर धनवान कहने लगा - भंते! वह दुष्ट अपराधी में ही हूं। आचार्य ने कहा कि आप ऐसा नहीं कहें। आप तो मेरे उपकारी है। एक जोडी जूतों ने मेरी जिन्दगी बदल दी। जीवन यात्रा का सही मार्ग दिखा दिया। पूरी सभा आचार्य की महानता से जय-जयकार कर उठी।
शराबी का सच
एक प्रसिद्ध सेठ दुनिया की निगाहों से छिपकर शराब पीता था। घरवाली के बार-बार मना करने पर भी वह शराब की लत नहीं छोड सका। एक दिन अपने मकान पर काम कराने के लिए उसने एक कारीगर को बुलाया। बातचीत होने के बाद कारीगर ने कहा - कल ठीक समय पर काम पर आ जाऊंगा। सेठ का काम बहुत जरूरी था, इसलिए उसने उसे दो-तीन बार जोर देकर आने के लिए कहा। सहज भाव से कारीगर ने कहा - सेठजी, मैं कोई शराबी नहीं हूं। मेरी एक बार कही हुई बात पक्की होती है, आप निश्चिंत रहे।
शराबी के बारे में कारीगर के मुंह से इस तरह की टिप्पणी सुनकर व्यापारी के मन में चोट लगी। उसने पूछा - कारीगर ! क्या शराबी हमेशा झूठ बोलते है ? कारीगर बोला - शराबी के विचार स्थिर नहीं होते है, इसलिए उसकी कही बात का उसे ध्यान नहीं रहता है। सेठ को इस बात से बडा धक्का लगा क्योंकि बाजार में सब लोग उसकी बात मानते थे। सेठ ने मन में सोचा - यदि मैं नशे में कभी बाजार चला गया तो मेरी इज्जत भी मिट्टी में मिल जाएगी। सेठ ने घर में छिपी सभी शराब की बोतलें निकालीं और शराब को मिट्टी में मिला दिया। कारीगर ने सेठ को महंगी शराब ढुलकाते हुए देखा तो कहा - सेठजी, आप अच्छा काम कर रहे हैं। आपने शराब को मिट्टी में मिला दिया वरना शराब आपको मिट्टी में मिला देती।
अग्निविद्या
लंका का राजा रावण दिग्विजय के लिए निकला। विशाल सेना साथ थी। मार्ग में कुबेर नामक राजा का राज्य आया। कुबेर की राजधानी अमरकंका पर रावण ने चढाई की, लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली। इसकी वजह यह थी कि बुकर असालिका नामक विद्या में पारंगत था। इस विद्या से उसने अपनी राजधानी के चारों ओर अग्नि का कोट बना दिया। इसके फलस्वरूप कोई भी उसकी राजधानी में प्रवेश नहीं कर सकता। जीतने का तो सवाल ही नहीं उठता। इस तरह उसका राज्य अजेय बना हुआ था। छह महीने तक रावण ने अमरकंका के बाहर पडाव डाले रखा। आखिर में वह निराश हो गया। एक दिन अचानक उसके पास कुबेर की दासी आई और बोली - महाराज ! आप इस राज्य पर कभी विजय हासिल नहीं कर सकंगे, क्योंकि हमारे राजा असालिका विद्या में पारंगत है। इसलिए उन्हें कोई हरा नहीं सकता। उन्हें हराने का एक ही उपाय है - रानी को अपनी ओर मिला लो। क्योंकि राजा ने यह विद्या उन्हें भी सिखाई है। रानी ने आपको महलों से देखा है। वह आप जैसे बलवान और विद्यावान राजा को चाहने लग गई है। रानी ने मेरे जरिए आफ पास प्रस्ताव भेजा है कि यदि आप उन्हें अपनाकर अपनी रानी बनाएं, तो वे आपको विजय दिला सकती है। रावण पहले नीतिवान और चरित्रवान भी था, उसने परस्त्री कहकर रानी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। दासी को निराशा की मुद्रा में देख विभीषण ने इसका कारण पूछा। दासी ने सारा हाल कह सुनाया। विभीषण ने दासी से कहा - जाओ, रानी से कहो कि विभीषण ने उन्हें अपनी भाभी बनाना चाहता है और वह अपने भाई रावण को इसके लिए राजी कर लेगा। यह बात रावण को मालूम हुई, तो वह बहुत नाराज हुआ और उसने विभीषण से स्पष्टीकरण मांगा। विभीषण बोला - आपको उसे रानी नहीं बनाना है। यह तो हमारी एक राजनीतिक चाल है। हमें इस विद्या को सीखकर विजय प्राप्त करनी है। विभीषण की यह बात रावण को जंच गई।भोली रानी ने गुप्त मार्ग से आकर रावण को विद्या गुर बता दिया। विद्या दान के बाद रानी ने प्रणय प्रस्ताव रखा।रावण ने कहा - ज्ञान और विद्या सिखाने वाला गुरू होता है। आप मेरी गुरू माता है। मैं आफ बारे में बुरा सोच भी नहीं सकता। रानी परेशान हो गई उसने सारी बात विभीषण को बताई। विभीषण बोला- आपको मैंने भी भाभी कहकर पुकारा है। मैं नहीं चाहता कि मेरी भाभी कोई निन्दनीय और गलत काम करें। आपको यदि मेरे भाई स्वीकार भी कर लेंगे, तो आप उनकी उपपत्नी ही कहलाएंगी और आपको उनके पास कुबेर जैसा सम्मान नहीं मिलेगा। यह बात रानी को जंच गई और वह चुपचाप गुप्त मार्ग से अपने महलों में चली गई। रावण ने अमरकंका जीत ली और अपना चरित्रबल भी बनाए रखा। इसके बाद जैसे ही रावण ने सीता हरण किया और बुरी सोच को अपनाया तो उसका सर्वनाश हो गया।
मतीरों का चोर
एक खेत में तूंबे की बेल पर मोटे-मोटे मतीरे लगे थे। एक चोर ने ललचाकर मतीरे चुराने का इरादा बनाया। उसने मौका देखकर मतीरे तोड लिए। एक गठरी में मतीरों को बांध भी लिया। अचानक खेत का मालिक किसान आ गया। चोर मतीरों का गट्ठर कंधों पर रखकर सरपट दौडा। चोर को पकडने के लिए किसान ने भी उसका पीछा किया। रास्ते में नदी आ गई। मतीरों का चोर नदी के पानी में कूद गया। उसने मतीरों को नदी में छिपाने का प्रयास किया वह जैसे जैसे अपने हाथ के दबाव से मतीरों को पानी में दबाता। वैसे वैसे मतीरे ऊपर आ जाते। इतने में किसान भी वहां पहुंच गया। पानी में तैरते मतीरे देखकर उसने पूछा - तुमने मेरे खेत से मतीरे चुराए है ? चोर ने कहा - तुम्हारे मतीरे बडे नालायक है। एक मतीरे को पानी में छिपाता हूं तो दबा हुआ दूसरा मतीरा ऊपर आ जाता है। तुमने मतीरों को अच्छा पाठ पढा रखा है। खेत के मालिक ने लट्ठ लगाते हुए कहा- मतीरे भले ही पानी में एक बार दबाए जा सकते है। पर गलत काम कभी भी छिपाया नहीं जा सकता । चोर ने मतीरों से सीख लेते हुए किसान से कहा - अब मैं भविष्य में कभी चोरी नहीं करूंगा। मतीरों के इस स्वभाव ने मुझे मेहनत की रोटी कमा खाने की प्रेरणा दी है। किसान ने भी चोर को चोरी नहीं करने की शर्त पर माफ कर दिया।
चूडे की चर्चा
एक गरीब औरत किसी सेठ के घर गई। कोई मंगल दिन था। शुभ अवसर पर सेठानी ने सफेद झक चूडा पहना। वह चूडा बहुत ही कीमती हाथी दांत का था। चूडे को देखकर आस-पास की महिलाऐं सेठानी को बधाइयां देने लगी। उस चूडे को देखने के लिए सैकडो महिलाओं का आना-जाना लगा रह। यह सब रौनक देखकर गरीब औरत भी सोचने लगी - मैं भी हाथी दांत का चूडा पहनूं और आस-पास की महिलाओं की बधाइयां प्राप्त करूं। मेरे चूडे को देखने के लिए बहुत से लोग आएंगे। वह अपने घर पहुंची। पति से निवेदन करती हुई बोली - पति देव ! मुझे हाथी दांत का चूडा चाहिए। कृपया बाजार से खरीद कर दीजिए। पति बोला - तुम्हारे में अक्ल नाम की चीज नहीं है। घर में खाने के लिए पूरी रोटी नहीं है। हाथी दांत का चूडा काफी महंगा है। इसलिए चूडा नहीं ला सकता। पत्नी आवेश में आकर जोर से बोली - सुन लीजिए मेरा निर्णय। यदि चूडा नहीं आएगा तो घर में चूल्हा भी नहीं जलेगा। पति ने मीठे स्वर में समझाते हुए कहा- देखो, महाभागा जिद करना अच्छा नहीं है। बहुत कहने पर भी पत्नी कहां मानने वाली थी। बेचारा पति बाजार में गया और किसी साहूकार से ब्याज पर कर्ज लेकर चूडा लाया। पत्नी ने बडे चाव से चूडा पहना, झोंपडी के दरवाजे पर आकर बैठ गई। हाथों को सामने लटकाए थी। काफी देर तक वहां बैठी रही किन्तु कोई भी व्यक्ति उसे देखने के लिए नहीं आया। चार-पांच दिन तक यही सिलसिला चला, किसी ने चूडे की कोई चर्चा नहीं की। पत्नी के मन में प्रदर्शन की भूख जगी थी। उसने आव देखा न ताव अपने ही हाथों से अपनी झोंपडी में आग लगा दी। देखते-देखते आग बढने लगी। चारों ओर से लोग दौडे। लोगों ने आग पर तो काबू किया किन्तु उसकी झोंपडी जलकर राख हो गई। लोगों ने संवेदना प्रकट करते हुए पूछा - भाभीजी ! आफ घर में कुछ बचा या नहीं।
वह बोली - और कुछ भी नहीं बचा। महज हाथ में एक चूडा बचा है। लोग बोले - कब पहन लिया इतना सुन्दर चूडा आपने ? वह बोली - यह बात आप लोग पहले ही पूछ लेते तो झोंपडी में आग क्यों लगती। लोग उसकी मूर्खतापूर्ण बात सुनकर हंसी उडाने लगे कि इसके कहते घर फूंक तमाशा देखना।
बडा परिवार
एक सुखी और शालीन परिवार था। परिवार के सभी सदस्यों में बहुत एकता थी। सारा परिवार आनंद के सागर में गोते लगा रहा था। आपस में कभी भी तनाव नहीं होता था। एक जिज्ञासु उस परिवार में आया। दरवाजे में प्रवेश करते ही उसकी भेंट एक युवक से हुई। जिज्ञासु ने कहा- बंधुवर ! मैं एक जानकारी के लिए आया हूं। आपका बडा परिवार एक साथ कैसे रहता है ? उसने कहा - आप अंदर जाएं, मेरे पिताजी से पूछ लें। समाधान मिल जाएगा। जिज्ञासु अंदर गया। प्रश्न प्रस्तुत करते हुए कहा - कृपया समाधान दीजिए।
पिता ने कहा- मेरे पिताजी ऊपर की मंजिल पर रहते है। आप वहां जाए। वहीं समाधान मिलेगा। जिज्ञासु ऊपरी मंजिल पर पहुंचा। आसन पर बैठे बाबा से निवेदन की भाषा में कहा - बाबाजी ! आपका इतना विशाल परिवार एक साथ रहता है। इसका क्या रहस्य है ? बाबाजी ने एक पत्र पर सौ बार नम्रता व सहनशीलता शब्द लिखकर दिए। जिज्ञासु ने पूछा - दो शब्दों को सौ बार आपने क्यों लिखा ?वृद्ध ने कहा - मेरे परिवार में सौ सदस्य है इसलिए इन शब्दों को सौ बार लिखा है। सबमें विनम्रता और सहिष्णुता के भाव है। आपने जब दरवाजे पर मेरे पौत्र से पूछा तो उसने कहा - पिताजी अंदर है, समाधान मिल जाएगा। उसके पिता ने भी सीधा आपको मेरे पास भेज दिया। मेरे परिवार में बडों के प्रति विनय है कि वे स्वयं किसी सवाल का जवाब नहीं देते। घर से जुडे किसी भी सवाल को बडों के सामने रखते हैं। छोटे-बडे सभी सवालों के समाधान घर के बडे बुजुर्ग करते हैं । घर के सभी सदस्य उसकी पालना करते हैं। नम्रता और सहनशीलता हमारे घर की एकजुटता और प्रेमभाव का रहस्य है।
गधे की कब्र
इजरायल में एक मशहूर यहूदी फकीर रहता था। वह बीमार हो गया। उसकी एक बंजारे ने खूब सेवा की। प्रसन्न होकर फकीर ने बंजारे को एक गधा भेंट किया। गधे को पाकर बंजारा बडा खुश हुआ। गधा बडा स्वामी भक्त था। वह बंजारे की सेवा करता और बंजारा उसकी। दोनों को एक दूसरे के प्रति बहुत लगाव हो गया।
फिर बंजारे का यह मानना था कि यह गधा फकीर की दी गई भेंट है तो विलक्षण गधा तो होगा ही। एक दिन बंजारा माल बेचने ेक लिए गधे पर बैठकर दूसरे गांव गया। दुर्भाग्य से गधा रास्ते में बीमार हो गया। उसके पेट में इतना तेज दर्द हुआ कि वह वहीं पर तडप कर मर गया। बंजारे को अत्यधिक शोक हुआ। उसके लिए वह गधा कमाऊ पूत और कमाकर देने वाला एक साझीदार था। उसने गधे की कब्र के पास बैठकर दुख के दो आंसु ढलकाए। इतने में ही उधर से राहगीर गुजरा। उसने यह नजारा देखकर सोचा कि अवश्य ही यहां कोई न कोई फकीर का निधन हुआ है। श्रद्धांजति अर्पित करने के लिए वह भी कब्र के पास आया और दो फूल तोडकर चढा दिए। तीसरे ने उसे फूल चढाते देखा तो वह भी आया और जेब से दो रूपए निकाले और कब्र पर चढा दिए। बंजारा चुपचाप देखता रहा। वह कुछ बोला नहंी, लेकिन मन ही मन हंसा।
दोनों राहगीर अगले गांव में गए और लोगों से कब्र का जिक्र किया। ग्रामीण लोग आए। उन्होंने भी फूल और पैसे चढाए। अब बंजारे ने आगे जाने का फैसला छोडा और कब्र के पास बैठ गया। वह सोचने लगा - गधा जब जिन्दा था तब उतना कमाकर नहीं देता था जितना की मरने के बाद दे रहा है।खूब भीड लगती। जितने दर्शनार्थी आते कब्र का उतना ही ज्यादा प्रचार हो रहा था। गधे की कब्र किसी पहुंचे हुए फकीर की कब्र बन गई।एक दिन वह फकीर भी उसी रास्ते गुजरा, जिसने बंजारे को गधा दिया था। उसने कब्र के बारे में लोगों से चर्चा सुनी तो वह भी कब्र पर झुका। लेकिन जैसे ही उसनें वहां अपने पुराने भक्त बंजारे को बैठे देखा तो उससे पूछा कि यह कब्र किसकी है ? बंजारे ने कहा कि अब आफ सामने सच को छिपाकर रखने की मेरे पास ताकत नहीं है। उसने सारी आपबीती फकीर को सुना दी। फकीर को बडी हंसी आई। बंजारे ने पूछा कि आपको हंसी क्यों आई ? फकीर बोला कि मैं जहां रहता हूं वहां पर भी एक कब्र है जिसे लोग बडी श्रद्धा से पूजते है। आज मैं तुम्हें बताता हूं कि वह कब्र भी इस गधे की मां की है। लोग नहीं जानते है इसलिए किसी को भी पूजने लग जाते है। समझदार वही है जो किसी अंधविश्वास में पडे बिना सच्चाई को समझकर किसी बात को मानता है।
अकबर और उनकी बेगम
बादशाह अकबर और उनकी बेगम का अक्सर छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा हो जाता था। एक दिन ऐसे ही दोनों आपस में झगड़ रहे थे तो बेगम बोली, ‘‘आपको सबूत देना होगा कि मुझे वास्तव में प्रेम करते हैं आप। इसके लिए जैसा मैं कहती हूं, वैसा ही करिए। बीरबल को उसके ओहदे से हटाकर मेरे भाई शेरखान को रखें।’’
बादशाह ने अपनी बेगम को समझाने की बहुतेरी कोशिश करी कि बीरबल को ऐसे ही अकारण नहीं हटाया जा सकता। लेकिन बेगम ने एक न सुनी। तब अकबर बोले, ‘‘तुम खुद ही बीरबल से बात कर लो।’’
बादशाह की यह बात सुन बेगम के दिमाग में एक योजना जन्मी।
बेगम खुश होते हुए बोली, ‘‘मेरे पास एक तरीका है। कल हम दोनों यूं ही आपस में झगड़ने लगेंगे। तब आप बीरबल से कहेंगे कि यदि बेगम ने आप से माफी नहीं मांगी तो उसे उसके पद से हटा दिया जाएगा। इस तरह आप पर कोई इल्जाम भी नहीं आएगा।’’
अगले दिन योजना के अनुसार बादशाह और उनकी बेगम आपस में झगड़ पड़े। इससे नाराज होकर नकली गुस्से से भरे अकबर दूसरे महल में जाकर रहने लगे।
बीरबल को भी इस झगड़े की खबर लगी।
जब बीरबल बादशाह से मिलने गया तो वह बोले, ‘‘बीरबल ! बेगम को मुझसे माफी मांगनी ही होगी। वरना तुम्हें अपनी कुर्सी से हाथ धोना होगा।’’
एकबारगी तो बीरबल यह समझ ही न पाया कि बेगम यदि माफी नहीं मांगती तो उसका क्या दोष है ?
बीरबल वहां से बाहर निकला और एक सैनिक को पास बुलाकर उसके कान में कुछ फुसफुसाया। फिर वह बेगम से बात करने जा पहुंचा। उसने ऐसा आभास दिया कि जैसे उनके झगड़े के बारे में कुछ जानता ही नहीं।
कुछ देर बाद बीरबल की योजनानुसार वह सैनिक भीतर प्रविष्ट होता हुआ बोला, ‘‘हुजूर ! बादशाह सलामत का कहना है कि सब कुछ आपकी योजनानुसार ही चल रहा है। बादशाह इस समय बेहद बेचैन हैं और चाहते हैं कि आप तुरंत उसे लेकर उनके पास पहुंचें।’’
सुनते ही बीरबल तुरंत जाने के लिए खड़ा हो गया।
तब बेगम ने पूछा, ‘‘बीरबल ! माजरा क्या है ? हमें भी तो कुछ पता चले।’’
‘‘माफी चाहूंगा बेगम साहिबा।’’ बीरबल बोला, ‘‘लेकिन मैं ‘उस’ व्यक्ति के बारे में आपको बता नहीं सकता।’’ कहकर वह चला गया।
अब तो बेगम बहुत ही बेचैन और परेशान हो गई। उनके मन में बुरे-बुरे विचार आने लगे। उन्हें लगा कि जरूर कुछ गलत होने जा रहा है। उन्होंने सोचा, ‘हो न हो जरूर वह कोई दूसरी औरत ही होगी। बादशाह शायद उससे शादी करने वाले हैं। या खुदा ! अपने भाई को वजीर बनाने की चाहत तो मेरा ही घर बर्बाद करने पर तुली है।’
वह तुरंत बादशाह के पास पहुंची और घुटनों के बल बैठ कर रोने लगी। बादशाह बोले, ‘‘क्या बात है ? तुम इस तरह रो क्यों रही हो ?’’
आंखों में आँसू भरकर बेगम बोली, ‘‘मुझे माफ कर दें। मैं गलती पर थी। लेकिन दोबारा शादी न करें।’’
बादशाह यह सुनकर हैरान रह गए। वह बोले, ‘‘तुमसे किसने कहा कि मैं दूसरी शादी करने जा रहा हूं ?’’
तब बेगम ने वह सब दोहरा दिया जो बीरबल ने कहा था। यह सुनकर अकबर जोर से ठहाका लगाकर हंसते हुए बोले, ‘‘बीरबल ने तुम्हें बुद्धू बनाया है। चतुराई में उसे हराना असंभव है-यह तो अब तुम अच्छी तरह समझ ही गई होगी।’’
‘हां’ कहती हुई बेगम मुस्करा दी।
शराब के तीन गुण
एक ठिकाने में ठाकुर साहब रहते थे। उनके एक ही कुंवर था पर वह बडा शराबी था। बीडी, सिगरेट, शराब उसके लिए रोटी-पानी थे। कुछ दिनों के बाद वह शराबखोरी में चलते बीमार पड गया। ठाकुद ने अपने पुत्र की बहुत चिकित्सा कराई, पर बीमारी का कोई अंत नहीं आया। सारी दवाइयां बेकार गई। ऐक दिन उस गांव में अनुभवी हकीम आया। उसने ठाकुर के लडके की चिकित्सा प्रारंभ की।
कुंवरजी ने पूछा- परहेज क्या रखना होगा? हकीम ने कहा-घबराओं मत, तुम्हें शराब नहीं छोडने पडेगी। यह सुनकर कुंवर बडा खुश हुआ। उसने कहा- पहले जितने भी हकीम आए, वे सभी अनाडी थे। उन्होंने दवाई के साथ शराब छोडने को कहा था, पर आप बहुत समझदार और अनुभवी है। कुंवर के मन में हकीम के प्रति गहरा विश्वास हो गया। थोडे दिन के बाद लडके ने हकीम से पूछा- आपने मुझे शराब-सेवन की अनुमति कैसे दी?‘ वैद्य बोला शास्त्रों में शराब के तीन गुण बताए हैं। जो मनुष्य शराबी होता है उसके घर में चोर नहीं आते, उसे पैंदल नही चलना पडता बुढापे का शिकार नही होना होता।
कुंवर ने आश्चर्य से पूछा-कैसे? हकीम बोला- नशेडी को खांसी हो जाने से रात्रि में नींद नहीं आती। वह रात भर खांसता रहता है। अतः चोरों को उसके घर पर जाने की हिम्मत नहीं होती। उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है जिससे पैदल नही चल सकता। इसलिए उसे सवारी का सहारा लेना पडता है। उसकी मृत्यु जवानी में ही हो जाती है, जिससे बुढापे का मुंह नही देखना पडता। हकीम की बातों को सुनकर कुंवर ने शराब सहित सारे व्यसन छोड दिए और धीरे-धीरे स्वस्थ हो गया।
सोने का मंदिर
महाराज विक्रमादित्य ने एक दरबारी कवि के मुंह से राजा वलाह की प्रशंसा सुनी तो वे चौंक उठे। कवि को राजकक्ष में बुलवाया। विक्रमादित्य ने पूछा- कविराज, आप जिसकी तारीफ कर रहे थे? राजा वलाह कौन है? कवि बोला- महाराज, हमारा तो धंधा है। राजाओं की तारीफें सुनाकर जनता से चार पैसे कमा लेता हूं। मुझे तो आज राजा वलाह से बढकर दानी कोई दूसरा नही दिखाई देता। अब आप ही बतलाइए कि वलाह के गुण न गाऊं? राजा विक्रमादित्य ने उसे तिरछी निगाहों से देखा। हाथ मूंछों पर पहूंच गया। कवि ने मौंका देखकर राजा को उकसाया और हम तो चाहते है कि हुजूर का यश इतना फैले कि लोग वलाह का नाम भी भुल जाएं। विक्रमादित्य ने पूछा- वलाह की खूबिया बताओं?
क्वि कहने लगा- वलाह के महल में रातो-शत सोने का मंदिर तैयार हो जाता है। सवेरे-सवेरे उस मंदिर का सोना याचकों में वितरण कर देते है। कोई याचक कभी भी वलाह के यहां से निराश नहीं लौटता। विस्मय से विक्रमादित्य की भौहें तन गई। राजा ने पूछा- सच में ऐसा होता है। कवि सहज भाव से बोला- ’महाराज, सोलह आने सच कहता हूं। यदि हुजूर को विश्वास न हो तो अपने जासूस भेजकर मालूम कर लें। विक्रमादित्य ने कहा- एक शर्त है। अब तुम्हें मेरे राज में रहना होगा। तुम्हारी बातें सच निकली तो हम तुमकों बहुत धन देकर विदा करेंगे। दरवारियों ने कवि के ठहरने की व्यवस्था कर दी। राजा अंतःपुर में गए, सोचने लगे- यह तो बडी विचित्र बात सुनाई है कवि ने, परन्तु विधाता को इनती बडी सृष्टि में सब कुछ संभव है। अच्छा हो कि यह कौतुक मैं अपनी आंखों से देख आऊं। राजा ने विद्धान कवि से राजा वलाह की राजधानी का रास्ता पूछा और घोड पर बैठकर रवाना हो गया।
खट्टा आम
मेवाड के महाराणा अपने एक नौकर को सदैव अपने साथ रखते थे। भले ही युद्ध के मैदान हो, चाहे भगवान का मंदिर। एक बार वे अपने इष्टदेव एकलिंगजी के दर्शन करने गए। उस नौकर को भी साथ ले लिया। दर्शन कर वे तालाब के किनारे घुमने गए। उन्हें एक पेड पर ढेद सारे फ आम लगे हुए दिखाई दिए। उन्होंने एक आम लिया और उसकी चार फांक बनाई। एक फांक नौकर को देते हुए कहा- ’बताओ, कैसा स्वाद है?‘ नौकर ने आम खाया और कहा बहुत मीठा है। पर महाराज एक और देने की कृपा करें।‘ महाराणा ने एक फांक और दे दी। नौकर ने कहा- ’पाह क्या स्वाद है! म्जा आ गया। मेहरबानी कर एक और दीजिए।‘
महाराणा ने तीसरी फांक भी दे दी। उसे खाते ही वह नौकर बोला- बिल्कुल अमृत फल है। यह भी दे दीजिए।‘ उसने अंतिम फांक भी मांग ली। महाराणा को गुस्सा आ गया। उन्होंने कहा- ’तुम्हें शर्म नही आती! तुम्हें नही दूंगा यह अंतिम फांक।‘ यह कहते हुए महाराणा ने वह फांक मुंह में रखते ही उस एकदम उगल दिया। वे बोले ’इतना खट्टा आप खाकर भी तुम यह कहते रहे कि यह मीठा है, अमृत तुल्य है। क्यों कहा ऐसे?‘ नौकर बोला- ’महाराज, जीवन भर आप मीठे आम देते रहे हैं। आज खट्टा आम आ गया तो कैसे कहूं कि यह खट्टा है। ऐसा कहना मेरी कृतध्नता नही होती!‘ महाराणा ने उसे अपने गले से लगा लिया और कृतज्ञता के लिए उसे पुरस्कृत किया।
डंडे का डर
एक राजा ने एक बकरा पाला। उसे चराई के लिए एक चरवाहे को सौंप दिया। बकरा काफी हट्टा-कट्टा था। चराई के बाद शाम को जब बकरा वापस आता तब राजा उसके सामने धास डालता। बकरा और घास चर लेता था। राजा ने सोचा बकरा भूखा रहता है। एक दिन राजा ने घोषणा की कि जो भी आदमी बकरे का पूरा पेट भर देगा, उसे ईनाम दिया जाएगा। राजा ने शर्त रखी कि वे स्वयं इस बात की जांरच करेंगे कि बकरे का पेट भरा है या नहीं। कई लोग आए। बकरे को चराने के लिए ज्रगल ले गए। जब शाम को बकरा लेकर जांच के लिए राज दरबार में आते, राजा उसके सामने हरा घास डालते और बकरा घास चर जाता। कोई भी आदमी बकरे को पूरी नरह तृप्त नहीं कर पाया था।
एक चतुर आदमी ने सोचा- इस काम में जरूर कोई न कोई राज है, तभी राजा ने कहा है। वह आदमी बकरे को चराने के लिए जंगल ले गया। उसे हरियाली के बीच छोड दिया। जैसे ही बकरा घास खाने लगता है, वह डण्डे से उसके मुंह पर चोट मारता। दिन भर यह सिलसिला चलता रहा। बकरा एक तिनका भी खाऊंगा तो मार पडेगी। उसने घास चरना ही छोड दिया। शाम होते ही वह आदमी बकरे को दरबार में ले गया। राजा ने घास डाली। बकरे ने डंडे के डर से घास नहीं खाई। राजा उस आदमी की चालाकी नहीं भांप सका और उसने खुश होकर उसे ईनाम दिया।
बोध कथा
कई मूर्ख एक साथ टोली में रहते थे। वे परस्पर एक-दूसरे की बात का विश्वास करते तथा साथ-साथ ही बाहर भ्रमण करने जाते थे। एक बार वे अपने स्थान से दूर किसी गांव को जा रहे थे कि रास्ते में एक नदी थी। उन्हें नदी पार करके दूसरी और जाना था, किन्तु उनमें से किसी को भी तैरना नहीं आता था। वे नदी के किनारे खडे हो गए और सोचने लगे कि अब क्या किया जाए? आश्चर्य! सबको एक ही साथ एक ही विचार आया।
उन्होंने सोचा कि यहां नदी के किनारे पानी बडा उथला है। जैसे-जैसे नदी में आगे बढेंगे, पानी घुटनों तक आएगा और बीच में पानी अवश्य ही गहरा होना चाहिए। यानी कि बीच में पानी हमारे सिर के ऊपर से बह रहा होगा। फिर आगे कम होता जाएगा। घुटनों तक हो जायेगा। दूसरे किनारे पर जल पुनः उथला होगा। विचार करने पर वे सभी इस परिणाम पर पहुंचे कि जल का औसत स्तर केवल घुटनों तक होगा।
प्रसन्नता से उन्होंने एक-दूसरे के हाथ पकडे और नदी में आगे बढे। और वे सब डूब गये।
नदी पार करते समय औसत किसी को भी नही निकालना चाहिए। कहने का तात्पय। यही है कि पतन की ओर ले जाने वाली समस्त बुराइयों का हमें विवके होना चाहिए और उनसे प्रतिक्षण बचते रहना
विधाता से शिकायत
एक बार कुछ खरगोश गर्मी के दिनों में झरबेरी की एक सूखी झाडी में इकट्ठे हुए।
खेतों में उन दिनों अनाज न होने से वे सब भुखे थे और सुबह और शाम गांव से बाहर घूमने वालों के साथ आने वाले कुत्ते भी उन्हें बहुत तंग करते थे। मैदान की झाडयां सूख गई थी। कुत्तों के दौडने पर खरगोशों को छिपने का स्थान बहुत परेशान होने पर मिलता था। इन सब दुःखों से वे बेचैन हो गए थे।¬
एक खरगोश ने कहा विधाता ने हमारी जाति के साथ बडा अन्याय किया है। हमको इतना छोटा और दुर्बल बनाया। हमें उन्होंने न तो हिरन-जैसे सींग दिए न बिल्ली-जैसे तेज पंजे। अपने शत्रुओंे से बचने का हमारे पास कोई उपाय नही। सबके सामने से हमें भागना पडता है। सब ओर से सारी विपति हम लोगों के सिंर पर ही विधाता ने डाल दी हैं।
दूसरे खरगोश ने कहा-मैं तो अब इस दुःख और आश्ंाका भरे जीवन से घबरा गया ह। मैंने तालाब में डूब मरने का निश्चय किया है।
तीसरा बोला-मैं भी मर जाना चहता हूं। अब और कष्ट मुझसे नहीं सहा जाता। मैं अभी तालाब में कूदने जाता हूं।
हमस ब तुम्हारे साथ चलते हैं। हमस ब साथ जीए हैं तो साथ ही मरेगें। सब खरगोश बोल उठे। खरंगोश एक साथ तलाब की ओर चल पडे।
तालाब के पानी से निकलकर बहुत-से मेंढक किनारे पर बैठे थे। जब खरगोश के आने की आहट उन्हें हुई तो वे छपाछप पानी में कूद पडे। मेढकों को डरकर पानी में कूदते देख खरगोश रूक गए। एक खरगोश बोला- भाइयो ! प्राण देने की आवश्यकता नहीं है आओ लौट चलें। जब विधाता की सृष्टि में हमसे भी छोटे और हमसे डरने वाले जीव बडे मजे से जीते हैं तब हम जीवन से क्यों निराश हों ?
उसकी बात सुनकर सभी खरगोशों ने आत्महत्या का विचार छोंड दिया और अपने घर लौट आए।
ना समझ काबुली
एक बार एक काबुली हिन्दुस्तान आया। यहां के किसी शहर में घूमते हुए उसने एक मिठाई की दुकान देखी। दुकान में तरह-तरह की मिठाइयां सजी थी। वह काबुली हिन्दी के दो चार शब्द ही जानता था। उसने एक खास किस्म की मिठाई की ओर इशारा किया। वह मिठाई दिखने में बहुत स्वादिष्ट थी। हलवाई ने समझा की वह उसका नाम पूछ रहा है उसने कहा, खाजा। खाजा का मतलब खा लो। भी होता है। काबुली यह दूसरा मतलब ही जानता था वह झट से मिठाई उठाकर खाने लगा। हलवाई ने पैसे मांगे पर काबुली के पल्ले कुछ नही पडा। वह खुश होकर चल पडा। हलवाई ने कोतवाल से शिकायत की। कोतवाल ने काबुली को गिरफतार कर लिया। काबुली की सफाचट खोपडी पर तारकोल पोत दिया गया। फिर उसे गधें पर बिठा दिया गया और ढोल-नगाडो के साथ शहर के बाहर कर दिया, ताकि सब जान सके कि कानून तोडने वालो के साथ यहां कैसा सुलूक किया जाता है। इस दंड को भी काबुली वाले ने कौतुक समझा। गधे की सवारी,ढोल-ढमाका और जुलूस से उसे बहुत मजा आया और गलियो में से उसे देखने को उमडी भीड से उसने अपना सम्मान समझा
बच्चा बना बीरबल
एक दिन बीरबल दरबार में देर से पहुंचा। जब बादशाह ने देरी का कारण पूछा तो वह बोला, ‘‘मैं क्या करता हुजूर ! मेरे बच्चे आज जोर-जोर से रोकर कहने लगे कि दरबार में न जाऊं। किसी तरह उन्हें बहुत मुश्किल से समझा पाया कि मेरा दरबार में हाजिर होना कितना जरूरी है। इसी में मुझे काफी समय लग गया और इसलिए मुझे आने में देर हो गई।’’
बादशाह को लगा कि बीरबल बहानेबाजी कर रहा है।
बीरबल के इस उत्तर से बादशाह को तसल्ली नहीं हुई। वे बोले, ‘‘मैं तुमसे सहमत नहीं हूं। किसी भी बच्चे को समझाना इतना मुश्किल नहीं जितना तुमने बताया। इसमें इतनी देर तो लग ही नहीं सकती।’’
बीरबल हंसता हुआ बोला, ‘‘हुजूर ! बच्चे को गुस्सा करना या डपटना तो बहुत सरल है। लेकिन किसी बात को विस्तार से समझा पाना बेहद कठिन।’’
अकबर बोले, ‘‘मूर्खों जैसी बात मत करो। मेरे पास कोई भी बच्चा लेकर आओ। मैं तुम्हें दिखाता हूं कि कितना आसान है यह काम।’’
‘‘ठीक है, जहांपनाह !’’ बीरबल बोला, ‘‘मैं खुद ही बच्चा बन जाता हूँ और वैसा ही व्यवहार करता हूं। तब आप एक पिता की भांति मुझे संतुष्ट करके दिखाएं।’’
फिर बीरबल ने छोटे बच्चे की तरह बर्ताव करना शुरू कर दिया। उसने तरह-तरह के मुंह बनाकर अकबर को चिढ़ाया और किसी छोटे बच्चे की तरह दरबार में यहां-वहां उछलने-कूदने लगा। उसने अपनी पगड़ी जमीन पर फेंक दी। फिर वह जाकर अकबर की गोद में बैठ गया और लगा उनकी मूछों से छेड़छाड़ करने।
बादशाह कहते ही रह गए, ‘‘नहीं...नहीं मेरे बच्चे ! ऐसा मत करो। तुम तो अच्छे बच्चे हो न।’’
सुनकर बीरबल ने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। तब अकबर ने कुछ मिठाइयां लाने का आदेश दिया, लेकिन बीरबल जोर-जोर से चिल्लाता ही रहा।
अब बादशाह परेशान हो गए, लेकिन उन्होंने धैर्य बनाए रखा। वह बोले, ‘‘बेटा ! खिलौनों से खेलोगे ? देखो कितने सुंदर खिलौने हैं।’’
बीरबल रोता हुआ बोला, ‘‘नहीं, मैं तो गन्ना खाऊंगा।’’
अकबर मुस्कराए और गन्ना लाने का आदेश दिया।
थोड़ी ही देर में एक सैनिक कुछ गन्ने लेकर आ गया। लेकिन बीरबल का रोना नहीं थमा। वह बोला, ‘‘मुझे बड़ा गन्ना नहीं चाहिए, छोटे-छोटे टुकड़े में कटा गन्ना दो।’’
अकबर ने एक सैनिक को बुलाकर कहा कि वह एक गन्ने के छोटे-छोटे टुकड़े कर दे। यह देखकर बीरबल और जोर से रोता हुआ बोला, ‘‘नहीं, सैनिक गन्ना नहीं काटेगा। आप खुद काटें इसे।’’
अब बादशाह का मिजाज बिगड़ गया। लेकिन उनके पास गन्ना काटने के अलावा और कोई चारा न था। और करते भी क्या ? खुद अपने ही बिछाए जाल में फंस गए थे वह।
गन्ने के टुकड़े करने के बाद उन्हें बीरबल के सामने रखते हुए बोले अकबर, ‘‘लो इसे खा लो बेटा।’’
अब बीरबल ने बच्चे की भांति मचलते हुए कहा, ‘‘नहीं मैं तो पूरा गन्ना ही खाऊंगा।’’
बादशाह ने एक साबुत गन्ना उठाया और बीरबल को देते हुए बोले, ‘‘लो पूरा गन्ना और रोना बंद करो।’’
लेकिन बीरबल रोता हुआ ही बोला, ‘‘नहीं, मुझे तो इन छोटे टुकड़ों से ही साबुत गन्ना बनाकर दो।’’
‘‘कैसी अजब बात करते हो तुम ! यह भला कैसे संभव है ?’’ बादशाह के स्वर में क्रोध भरा था।
लेकिन बीरबल रोता ही रहा। बादशाह का धैर्य चुक गया। बोले, ‘‘यदि तुमने रोना बन्द नहीं किया तो मार पड़ेगी तब।’’
अब बच्चे का अभिनय करता बीरबल उठ खड़ा हुआ और हंसता हुआ बोला, ‘‘नहीं...नहीं ! मुझे मत मारो हुजूर ! अब आपको पता चला कि बच्चे की बेतुकी जिदों को शांत करना कितना मुश्किल काम है ?’’
बीरबल की बात से सहमत थे अकबर, बोले, ‘‘हां ठीक कहते हो। रोते-चिल्लाते जिद पर अड़े बच्चे को समझाना बच्चों का खेल नहीं।’’
आज तेरी छुट्टी, ऐश कर
सामाजिक कल्याण एवं बाल विकास मुत्रालय की पहल पर घोषणा की गई कि 15 साल से कम उम्र के बच्चों से काम करवाने पर दुकान का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया जाएगा, वहीं आर्थिक दंड के अलावा जेल की हवा भी खानी पड सकती है। पूरे राज्य में मुहिम चल रही थी। आज अधिकारियों के दल ने शहर के इंदिरा मार्केट पर धावा बोला। सारे सेठ- दुकानदार गिडगिडा रहे थे- ’साहब! गलती हो गई, अब कम उम्र के लडको को नौकरी पर कभी नहीं रखेंगे। गलती हो गई साहब! ’बाबू सबका नाम-पता नोट करते जा रहे थे। तभी बडे साहब की नजर एक बडी दुकान पर पडी जहां एक 12-13 साल की उम्र का लडका चाय बना रहा था। साहब ने पूछा- ’ए लडके, तेरी उम्र क्या है?‘ 15 साल! लडके ने तपाक से कहा। ’तू 15 साल का है?‘ बडे साहब ने उसे डपटा। लडके ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा-’जी, साब! 15 साल का ही हूं।‘ दुकान मालिक हाथ जोडकर खडा हो गया। ’चलो, आगे बढो‘, बडे साहब ने अमले से कहा।
जब अमला आगे बढ गया, तो दुकान मालिन ने लडके को हाथ पकडकर अपनी ओर खींचा- ’शाबाश! बेटे, क्या भरोसे के साथ झूठ बोला, तू तो कमाल का चतुर निकला।‘ 50 रूपए लडके के हाथ पर रखते हुए दुकानदार ने कहा-जा, आज तेरी छुट्टी, ऐश कर।‘
चार आलसी
मिर्थिला में वीरेश्वर नाम के महामंत्री थे। वे स्वभाव से दानी और दयालु थे। वे स्वभाव से दानी और दयालु थे। वे आलसियों और भिखारियों को भोजन देते थे। भोजन पाने वालों में बहुत से ऐसे झूठे आलसी थे जो नकली भिखारी बने हुए थे, फिर भी उन्हें चना मिलता था। दुनिया में कई प्रकार के कम्रहीन मनूष्य होते हैं। उनमें आलसी का नाम सबसे ऊंचा है। भूख की आंच से अंतडयां ऐंठती रहती हैं तो भी वह हाथ-पैर हिलाना नहीं चाहता। मेहनत-मशक्कत का, कोई झमेला नहीं। मीठी नींद पेट की आग को काबू में रहती है। महामंत्री के यहां पेटुओं की भीड प्रतिदिन बढने गली। अहदियों की मौज देखकर, बहुत-सारे चालाक आदमी अपना झूठ-मूठ का आलस्य दिखला कर वहां आने लगे। उन्हें भी भर-पेट खाना मिलने लगा। कुछ ही दिनों में अनाथालय अहदी लोगों से भर गया। आलसियों के पीछे बहुत ज्यादा धन खर्च होने लगा। अनाथालय के अधिकारियों का माथ ठनका। उन्होंने सोचा, मालिक ने अहदियों को अपंग जानकर उनके लिए खाने-पीने की मुफ्त व्यवस्था करवाई। अब जो आलसी नहीं हैं वे भी आलसी बनकर भोजन पाने लगे है। यह हमारी भूल है कि हम उन्हे नहीं हटाते। मालिक का यह नुकसान नाहक हो रहा है। हमें सच्चे अहदियों की जांच करनी चाहिए। झूठ-मूठ के मुफ्तखोरों को निकाल बाहर करना है। सर्दी का मौसम था। रात को अहनाथलय के सभी अहदी सो चुके थे। अधिकारयिों ने उन कुटीरों में आग लगवा दी। जलने के छर से फुर्तीले लोग भाग पूरे आलसी नहीं थे। बस चार आदमी नहीं भागे। वे रजाई ओढकर लेटे थे। शोर-गुल सुनकर उनमें से एक जरा-सा सुगबुगाया। वह रजाई के अंदर से ही बोला- ’यह कैसा हल्ला सुनाई दे रहा हैं? क्या हुआ?‘ मुंह उघाड कर दूसरे ने कहा- ’लगता है, इसी मकान में आग लगी है।‘ तीसरा बोला- ’ओह, आग तो बढती ही जाएगी। अगर भीगे कपडे या चटाई से कोई हम लोगों का ढंक जाता!‘ चौथे ने कहा- ’क्या बक-बक मचा रखी है? चुपचाप पडे क्यों नहीं रहते?‘ ’अहदी-भवन‘ के अधिकारियों को इन चारों के बारे मे बतलाया गया। उनके आदेश से चारों अहदियों को खींच-पकडकर बाहर लाया गया। इस प्रकार उनके प्राणों की रक्षा की गई। आलसियों को महामंत्री के सामने हाजिर किया गया। महामंत्री जी का हुक्म हुआ- ’इनचारों को अब पहले से भी अधिक खाद्य वस्तुएं दी जाएं। शेष नकली आलसियों को बाहर कर दिया गया।
असमी मेहमान
एक बार बतायो संत घूमते-फिरते किसी अमीर आदमी की दावत में जा पहुंचे। दावत में आसपास के गांवों के कई बडे रईस लोग शरीफ हुए। मेजदान अमीर आदमी ने अपने यहां बतायो संत को फटेहाल देखा तो मन ही मन और सोचा कि इस आदमी को यहां देखकर आने वाले लोग क्या कहेंगे? अमीर मेजदान लाल-पीला हो गया और उसने वतायो संत को वतायो संत ने अपने चचेरे भाई शेख अली के कीमती कपडे पहने और वे भाई की घोडीं पर सवार होकर उसी दावत में शामिल होने के लिए फिर चल दिए।
इस बार बतायो संत का बडा आदर-सत्कार हुआ। अमीर आदमी ने सोचा-एक और बडे आदमी ने उसकी दावत कबूल की है। फिर क्या था। चिलमची में वतायो के हाथ धुलाए गए। उनके आगे बिरयानी खाने की बजाय, चम्मचें भर-भरकर अपनी कमीज और पजामे पर डालते गए। दावत उडा रहे लोग आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगे। वे बहुमूल्य वस्त्रों को संबोधित करते हुए बोले-तुम खाओ। मेहमानी तुम्हारी हो रही है। खूब खाओ। मुझे तो इन्होंने यहां से धकेल कर बाहर निकाल दिया था। सारी बात जब लोगों के समझ में आई तो सभी ने संत से माफी मांगी।
मंत्र का प्रभाव
एक गांव में सास और बहू रहती थी। उन दोनों के बीच अक्सर लडाई-झगडा होता रहता था। सास बहू को खूब खरी-खोटी सुनाती थी। पलटकर बहू भी सास को एक सवाल के सात जवाब देती थी। एक दिन गांव में एक संत आए। बहू ने संत से निवेदन किया-गुरूदेव, मुझे ऐसा मंत्र दीजिए या ऐसा उपाय बताइए कि मेरी सास की बोलती बंद हो जाए। जवाब में संत ने कहा बेटी, यह मंत्र ले जाओ। जब तुम्हारी सास तुमसे गाली-गलौच करे, तो इस मंत्र को एक कागज पर लिखना और दांतो के बीच कसकर भींच लेना। दूसरे दिन जब सास ने बहू के साथ गाली-गलौच किया, तो बहू ने संत के कहे अनुसार मंत्र लिखे कागज को दांतों के बीच भींच लिया। ऐसी स्थिति में बहू ने सास की बात को कोई जवाब नहीं दिया। यह सिलसिला दो-तीन दिन चलता रहा। एक दिन सास के बडे प्रेमपूर्वक बहू से कहा-अब मैं तुमसे कभी नहीं लडूंगी क्योंकि अब तुमने मेरी गाली के बदले गाली देना बंद कर दिया। बहू ने सोचा- मंत्र का असर हो गया है और सासूजी ने हथियार डाल दिए है। दूसरी दिन बहू ने जाकर संत से निवेदन किया-गुरूजी आपका मंत्र काम कर गया। संत ने कहा यह मंत्र का असर नही, मौन का असर है।
सियार और तीतर
कुछ दूर उडने पर तीतर कुतें के बिलकुल नजदीक जा पहुंचा। कुता तीतर को देखकर उसकी ओर लपका। तीतर बचकर एक ओर हो गया। कुत्ते ने उसका पीछा किया। तीतर फुदक-फुदक कर अंत में कुत्ते को लेकर उस झाडी के पास आ पहुंचा, जहां सियार पर पड गई। वह तीतर को छोडकर सियार पर जा धमका। कुत्ते को अपनी ओर झपटता देख कर सियार वहां से सिर पर पैर रखकर भाग खडा हुआ। अब क्या था। कुत्ते ने सियार का पीछा करना शुरू कर दिया। सियार किसी तरह जान बचाकर फिर कुत्ते की नजर से ओझल होकर एक झाडी में जा छिपा।
तीतर सियार को देख रहा था। वह फुदक-फुदक कर फिर कुत्ते के आगे गया। कुत्ता उसे देखकर उस पर झपटा। वह फुदक-फुदक कर फिर आगे निकल गया। कुत्ता उसका पीछा करने लगा। तीतर इस तरह फुदक-फुदक करता हुआ कुत्ते को फिर उसी झाडी के पास ले आया, जहां सियार डरकर छिपा थां सियार को देखकर कुत्ता फिर तीतर को छोडकर उस पर झपटा। सियार फिर जान बचाकर भाग। अब कुत्ता उसका पीछा करने लगा। सियार एक झाडी में दुबक गया। कुत्ता उसकी घात लगाकर बैठ गया। तभी तीतर फुदक-फुदक कर कुत्ते के पास आया। तीतर को देख कर कुत्ते उस पर झपटा। तीतर उडता हुआ उस झाडी के पास पहुंचा, जहां सियार छिपा था। कुत्ते ने सियार को छठी का दूध याद आ गया। साक्षात मौत को देख कर रोते-रोते उसे नानी याद आ गई।
कुछ देर तक तीतर ने सियार को इसी तरह रूलाया, तो हार मान कर उसने तीतर से प्रार्थना की कि कुत्ते से उसकी रक्षा करे। रोते हुए सियार को देखकर तीतर को तरस आ गया। वह फुदक-फुदक करता हुआ फिर कुत्ते के सामने आया। कुत्ता उस पर झपटा। वह बच निकलां इस बार वह कुत्ते को इसी तरह बहुत दूर ले गया। फिर वह उड कर वापिस सियार के पास आ गया। तीतर को अपने पास देखकर सियार की जान में जान आ गई। उस दिन से सियार ने कभी भी तीतर को सताने और नीचा दिखाने की कोशिश नहीं की।
धैर्य की परीक्षा
दक्षिण के महान् संत तिरूवल्लुवर क्रोध को जीत चुके थे और सभी के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करते थे। उन दिनों जब वे अपनी आजीविका चलाने के लिए कपडे की दुकान करते थे तो उद्द्ण्ड स्वभाव के एक युवक ने उन्हें परेशान करने की सोची और निश्चय किया कि वह उन्हें क्रोधित करके ही छोडेगा। एक दिन वह युवक तिरूवल्लुवर की दूकान पर गया ओर एक धोती अपने हाथ में लेकर पूछने लगा, इसका मूल्य क्या है? तिरूवल्लूवर ने कहा, पांच रूपए। उस युवक ने उसी क्षण धोती को फाडकर उसके दो टुकडे कर दिए और फिर पूछा, बताओं, इसका मुल्य क्या हैं?
तिरूवल्लूवर ने शांत भाव से कहा, इसका दाम ढाई रूपए। उस युवक ने धोती के टुकडे को फाडकर फिर उसके दो टुकडे कर दिए पूछा, और इसके दाम? तिरूवल्लुवर ने उसी शांत मुद्रा में उतर दिया, सवा रूपया। वह युवक धोती के एक के बाद एक टुकडे करता गया और तिरूवल्लुवर से उसके दाम पूछता रहा। अंत मैं उसने धोती के धागे-धागे कर दिए और तिरूवल्लूवर के सामने ऐंठकर पांच रूपए फके। रूपए फेंककर जाने लगा तो उन्होंने रूपए लौटाते हुए कहा, देखो भाई, यदि तुम्ह धोती की आवश्यकता हो तो दूसरी धोती ले जाओ और यदि उसकी आवश्यकता नहीं हो, तो फिर ये रूपए अपने पास रखो। व्यर्थ में रूपए देने से तुम्हारे पिताजी रूष्ट होंगे। वे कहेंगे, घर में सामान नहीं आया तो तुमने रूपए कहां खो दिए! यह सुनकर युवक संत तिरूवल्लूवर के चरणों में गिर पडा।
सपने का भोज
तीनों भाइयों ने उसे गौर से देखा और यकीन होने पर हि चौधरी को नींद आ गई है वे भी बिस्तर लगाकर से गए। उनके सोते ही चौधरी दबे पांव उठा और सारी खीर चट कर गया। फिर वह अपने बिस्तर पर आया और चादर तानकर सो गया। अधिक खाने से उसके अंग-अंग में आलस आ रहा था। पलकें भारी हो रही थी। लेटते ही उसे नींदस आ गई। सुबह तीनों भाई उठे और बातें करने लगे। चौधरी अभी गाढी नींद में सोया था। उठकर वह करता भी क्या। वे एक-दूसरे से पूछने लगे तुम्हें कैसा सपना आया? एक भाई बोला- मुझे सपना आया कि मैं अजमेर में हूं। मै वहां के राजा दरबार में भी गया। दरबार कितना सुंदर थां फिर उसने दूसरे से अपना-अपना सुनाने को कहा। दूसरा भाई कहने लगा- मैं जयपुर के दरबार में गया। वहां मैंने राजा को भी देखा। इस बीच चौधरी जाग गया था और उनकी बातें सुन रहा था। तीसरा भाई बोला- अब मैं क्या कहूं। मैं चलते-चलते दिल्ली पहुंच गया। वहां मैंने बादशाह को देखा। तीनों भाई अपने सपने सुना चुके तो चौधरी कराहने लगा- आह! ऊह! आह! हर आह ऊह के साथ वह कभी इस करवट होता, कभी उस करवट, मानो कोई सपना देख रहा हो। ओ चौधरी, तू उठता है कि नहीं? मुझे परेशान मत करो! डसने कराहते हुए कहा। बता तुमने क्या सपना देखा? भाइयो, कुछ मत पूछो! एक लंबा-तगडा आदमी मेरे पास आया। उसने मुझे बहुत मारा। अभी भी मेरा जोड-जोड दर्द कर रहा है- उसने मुझसे कहा-यह खीर खा! च्ल शुरू हो जा! पीछे कुछ नही बचना चाहिए। मैं पूरी खीर खा गया तो उसने मुझे फिर मारा। मार-मार के भुरता बना दिया। उल्लू,हम तेरे पास ही सो रहे थे, तूने हमें जगाया क्यों नहीं? हम तुझे बचा लेते। तीनों भाइयों ने एक राय होकर कहा। चौधरी ने कहा-भाइयों, मैं तुम्हें कैसे जगाता! एक अजमेर गया हुआ था, दूसरा जयपुर ओर तीसरा बादशाह को देखने ठेठ दिल्ली। मैं बहुत चिल्लाया, बहुत आवाजें दी, पर तुम कैसे सुनते! तुम यहां थे भी तो नही!
आम का पेड
एक नगर में एक सुंदर बगीचा था। एक फकीर लंबी पदयात्रा करते हुए वहां पहुंचा। एक आम के पेड के नीचे खूंटी तानकर अलमस्त फकीर सो गया। थकान से उसे गहरी नींद आ गई। बगीचे में दो-तीन बच्चे भी खेल रहे थे। खेलते-खेलते वे आम के पेड पर पत्थर मारकर आम तोडने लगे। एक पत्थर उछल कर सोए हुए फकीर पर जा गिरा। फकीर के कपाल में चोट आई। खून की धार बहने लगी। बच्चे मारे डर के चिल्लाने लगे कि अब फकीर डंडा लेकर उनकी खैर खबर लेगा। बच्चे बगीचे के कोने में दुबक गए। फकीर सहमे हुए बच्चों के पास गया और बच्ची के चरण पकड कर क्षमा याचना करने लगा। एक बच्चे ने आगे बढकर कहा-गुरूजी, क्षमा तो हमें मांगनी चाहिए आप व्यर्थ में क्यों दुखी हो रहे हो। फकीर ने विनम्रता से कहा-तुमने आम पर पत्थर फेके तो आम के पेड ने तुम्हें रसीले आम दिए। मैं तुम्हें डर के सिवाय कुछ नहीं दे पाया। काश! आज मैं भी कोई फलवाला पेड होता तो तुम्हें डराने की बजाय मीठे आम देता। बस इसी पीडा से परेशान होकर मैं तुमसे क्षमा मांग रहा हूं। बच्चे फकीर की क्ष्माशीलता से प्रसन्न हुए और उन्होंने अनजाने में हुए अपराध की क्षमा मांगी। फकीर ने रसीले आम तोडकर बच्चों को दिए और उन्हे प्रसन्नापूर्वक विदा किया।
चाणक्य की कुटिया
पाटलिपुत्र के अमात्य आचार्य चाणक्य बहुत विद्वान न्यायप्रिय होने के साथ एक सीधे सादे ईमानदार सज्जन व्यक्ति भी थे। वे इतने बडे साम्राज्य के महामंत्री होनेके बावजूद छपपर से ढकी कुटिया में रहते थे। एक आम आदमी की तरह उनका रहन-सहन था। एक बार यूनान का राजदूत उनसे मिलने राज दरबार में पहुंचा राजनीति और कूटनय में दक्ष चाणक्य की चर्चा सुनकर राजदूत मंत्रमुग्ध हो गया। राजदूत ने शाम को चाणक्य से मिलने का समय मांगा।
आचार्य ने कहा-आप रात को मेरे घर आ सकते हैं। राजदूत चाणक्य के व्यवहार से प्रसन्न हुआ। शाम को जब वह राजमहल परिसर में ’आमात्य निवास‘ के बारे में पूछने लगा। राज प्रहरी ने बताया- आचार्य चाणक्य तो नगर के बाहर रहते हैं। राजदूत ने साचा शायद महामंत्री का नगर के बाहर सरोवर पर बना सुंदर महल होगा। राजदूत नगर के बाहर पहूंचा। एक नागरिक से पूछा कि चाणक्य कहा रहते है। एक कुटिया की ओर इशारा करते हुए नागरिक ने कहा-देखिए, वह सामने महामंत्री की कुटिया है। राजदूत आश्चर्य चकित रह गया। उसने कुटिया में पहुंचकर चाणक्य के पांव छुए और शिकायत की-आप जैसा चतुर महामंत्री एक कुटिया में रहता है। चाणक्य ने कहा-अगर म जनता की कडी मेहनत और पसीने की कमाई से बने महलों से रहूंगा तो मेरे देश के नागरिक को कुटिया भी नसीब नहीं होगी। चाणक्य की ईमानदारी पर यूनान का राजदूत नतमस्तक हो गया।
दो दामाद
एक गांव में एक बहुत चतुर महिला रहती थी। उसके दो दामाद थे। बडा दामाद धनवान था जबकि छोटे दामाद के पास खाने के दाने भी नहीं थे। एक बार त्योहार के मौके पर दोनों दामाद ससुराल में इकट्ठे हुए। भोजन के समय दोनों के लिए थाल परोसे गए। अमीर दामाद के थाल में छपपन भोग सजे थे जबकि गरीब दामाद की थाली में दलिया परोसी गई। ये भेद देखकर गरीब दामाद ने अमीर दामाद से कहा- के तो सासू दूसरी, के परोसता भूली। थाने परस्या लाडूआ माने परसी थूल्ली। सास ने यह बात सुनी तो उसने गरीब दामाद की मजाक उडाते हुए बोली-
न तो सासू दूसरी, न परोसता भूली। मुंह देख कर तिलक लगाया, खाओ गटागट थूल्ली। बेचारे गरीब दामाद ने दुनिया की हकीकत समझते हुए थूल्ली खाने में ही अपनी भलाई समझी।
मूल और फूल
एक सुंदर बगीचा था। बगीचे में रंग-बिरंगें फूल खिल रहे थे। बगीचे का सिंचन और संरक्षण करते जब मां बूढी हो गई तो उसके पूत्र ने कहा यह काम आप मेरे पर छोड दो। मैं सारे बगीचे का पानी पिलाउंगा और पूरी सार संभाल करूंगा।
एक महीने बाद जब बगीचे में मां गई तो मां ने देखा कि सारे फूल सूख रहे है। मां ने कहा-बेटे! क्या तुमने उपवन का बिल्कुल ध्यान ही नहीं रखा? सारे पौधे सूख गए हैं, फूल कुम्हला गए है। मां का उलाहना सुनकर पुत्र पश्चाताप करने लगा। उसने कहा-मैंने एक-एक फूल को प्राणों से ज्यादा प्यार किया है, सबकी अलग-अलग सार-संभाल की हैं। सबको अच्छी तरह से पानी पिलाया है, फिर भी सारे फूल सूख गए और मरझाा गए, इसका मुझे बहुत ही अफसोस है। मां ने कहा-भोले बेटे! पौधों को प्राण फूल में नहीं, मूल में रहता है। इन्हें जीवन देने के लिए जडों को सींचना आवश्यक होता है। किंतु तुम फूलों पर ही पानी डालते रहते हो, इसी भूल के कारण हरा-भरा बगीचा सूख गया है। फूलों की शोभा विलीन हो गई है। अब बेटे को समझ में आया कि मूल को सींचने से ही फूल सुरक्षित होते हैं।
गंधर्वसेन
एक दिन नवाब के दरबार में वजीर जोर-जोर से रोता हुआ आया। नवाब ने उससे वजब पूछी। वजीर बोला, गंधर्वसेन मर गया, जहांपनाह! सुनकर नवाब भी रो पडा। आह, गंधर्वसेन मर गया! मरहूम के लिए इकतालीस दिन का मातम मनाने का फरमान जारी हुआ। नवाब हरम में गया तब भी उसके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। बेगमों ने रोने की वजह पूछी। नवाब ने रूंधे गले से बताया कि गंधर्वसेन मर गया। बेगमें छाती पीट-पीट मर मातम मनाने लगीं। पूरे जनाने में मातम का आलम था। बडी बेगम की नौकरानी को ये गुलगपाडा समझ में नहीं आया। उसने बडी बेगम से पूछा, मोहतरमा सब रो क्यों रहे है? बेगम ने कहा, बेचारा गंधर्वसेन मर गया। कौन गंधर्वसेन? क्या वह नवाब साहब का बहुत नजदीकी रिश्तेदार था? अरे, यह तो पता नहीं बेगम भागी-भागी नवाब के पास गई। उसनेनवाब से पूछा कि यह गंधर्वसेन कौन था। जिसकी मौत पर सब रो-रोकर मातम मना रहे है। नवाब भागा-भागा दरबार में गया और वजीर को पूछा, यह गंधर्वसेन कौन था, जिसकी मौत पर दुखी हो रहे है? वजीर ने कहा, माफ करें हुजूर, मैं भी नहीं जानता कि वह कौन था। मैंने कोतवाल को रोते देखा कि हाय, गंधर्वसेन मर गया, तो उसका साथ देने के लिए मैं भी रोने लगा। नवाब बरस-पडा, जाओ, पता करो कि गंधर्वसेन कौन था। वजीर तेजी से भागता हुआ कोतवाल के पास गया। उसने कोतवाल से पूछा कि गंधर्वसेन कौन था। कोतवाल ने बताया कि वह भी नहीं जानता कि गंधर्वसेन कौन था? उसने जमादार को रोते सुना कि गंधर्वसेन मर गया, तो वह भी रोने लगा। मैंने वजीर को सूचना दे दी। वजीर और कोतवाल दोनों ने जमादार को पकडा और कोतवाल दोनों ने जमादार को पकडा और उससे पूछा कि वह किसके लिए रो रहा था? जमादार ने जवाब दिया, हुजूर, मैं क्या जानूं कि वह कौन था! मैंने अपनी बीवी को गंधर्वसेन की मौत पर रोते देखा तो उसके दुख से मेरा दिल पसीज गया। किसी को हंसते या रोते देखकर हमें भी उसकी छूत लग जाती है और हम भी हंसने या रोने लगते है। मैं भी बीवी को रते देख रोने लगा। तीनों मिलकर जमादारनी के पास गए। वह भी गंधर्वसेन से अनजान थी। उसने तो तालाब पर कपडे धोने वाली को फूट-फूटकर रोते और कहते सुना कि उसका गंधर्वसेन मर गया।
अब चारों उसके घर गए और उससे पूछा कि वह सुबह क्यों रों रही थी और गंधर्वसेन उसका क्या लगता था? यह सुनकर कपडे धोने वाली फिर रो पडी, मेरा कलेजा फटा जा रहा है। गंधर्वसेन हमारा पालतू गधा था। उसे मैं बेटे से भी ज्यादा चाहती थी। कहते-कहते वह दहाड मारकर रोने लगी। चारों बहुत शर्मिदा हुए और तेजी से चले गए। वजीर महल में गया और नवाब के पैर पकडकर हकीकत बताई कि गंधर्वसेन पालतू गधा था। जब यह खबर हरम में पहुंची, तो नवाब और दरबारियों के काम काज के तरीके पर सभी खूब हंसे।
राजंहस
एक किसान था दुर्गादास। वह धनी किसान होते हुए भी बहुत आलसी था। वह न अपने खेत देखने जाता था, न खलिहान। सब काम वह नौकरों पर छोड देता था। उसके आलस से उसके घर की व्यवस्था बिगड गई। उसको खेती में हानि होने लगी। गायों के दूध-घी से भी उसे कोई अच्छा लाभ नह होता था। एक दिन दुर्गादास का मित्र उसके घर आया। मित्र ने दुर्गादास के घर का हाल देखा। उसने यह समझ लिया कि अपने मित्र की भलाई करने के लिए उससे कहा-मित्र! तुम्हारी विपति देखकर मुझे बडा दुःख हो रहा है। तुम्हारी दरिद्रता को दूर करने का एक सरल उपाय मैं जानता हूं। दुर्गादास ने कहा-वह उपाय तुम मूझे बता दो। मैं उसे अवश्य करूंगा।
मित्र ने कहा-सब पक्षियों के जांगने से पहले ही मानसरोवर पर रहने वाला एक सफेद राजहंस पृथ्वी पर आता है। वह दोपहर दिन चढे लौट जाता है। यह तो पता नहीं कि वह कब कहां आएगा। पर जो आदमी उस सफेद हंस के दर्शन कर लेता है, उसको कभी किसी बात की कमी नहीं होती है। आलसी दुर्गादास बोला-कुछ भी हो, मै। उस हंस के दर्शन अवश्य करूंगा। मित्र चला गया। दुर्गादास दूसरे दिन बडे सबेरे उठा। वह घर से बाहर निकला और हंस की खोज में खलिहान में गया। वहां उसने देखा कि एक आदमी उसके ढेर से गेहूं अपनें ढेर में डालने के लिए चुरा रहा है। दुर्गादास को देखकर वह लज्जित हो गया और क्षमा मांगने लगा। खलिहान गाय का दूध दुहकर अपनी पत्नी के लोटे में डाल रहा था। दुर्गादास ने उसे डांटा। घर पर जलपान करके हंस की खोज में वह फिर निकला और खेत पर गया। उसने देखा कि खेत पर अब तक मजदूर आए ही नहीं थे। वह वहां रूक गया। जब मजदूर आए तो उन्हें देर से आने का उसने उलाहना दिया। इस प्रकार वह जहां गया, वहीं उसकी कोई-न-कोई नुकसान होते रूक गया।
सफेद हंस की खोज में दुर्गादास प्रतिदिन सबेरे उठने और घूमने लगा। अब उसके नौकर ठीक काम करने लगे। उसके यहां चोरी होना बंद हो गया। बहले वह रोगी था। अब प्रातः भ्रमण से उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो गया। जिस खेत से उसे दस मन अनाज मिलता था, उससे अब पचींस मन मिलने लगा। गोशाला से दूध बहुत अधिक आने लगा। एक दिन फिर दुर्गादास मित्र उसके घर आया। दुर्गादास ने कहा-मित्र! सफेद हंस तो मुझे अब तक नहीं मिला, किंतु उसकी खोज में लगने से मुझे बहुत लाभ हुआ है। मित्र हंस पडा और बोला-परिश्रम ही वह सफेद हंस है। परिश्रम के पंख सदा उजले होते है। जो परिश्रम न करके अपना काम नौकरों पर छोड देता है, वह हानि उठाता हैं और जो स्वयं परिश्रम करता है तथा जो स्वयं अपने काम की देखभाल करता है, वह सम्पति और सम्मान पाता है।
कुदरत का कानून
एक संत अपने शिष्यों के साथ स्थान-स्थान पर भ्रमण कर रहे थे। एक दिन वह एक गांव में जा पहुंचे। वे एक लुहार की दुकान पर पुंचे और रात बिताने की जगह मांगी। लुहार ने उनका बडा आदर-सत्कार किया। संत बोले- बेटा, हम तेरी सेवा से बडे प्रसन्न हैं और तुम्हें तीन वरदान देते है। जो चाहे, सो मांग लो। पहले तो लुहार सकुचाया, फिर बोला-महात्मा जी, यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे सौ वर्ष की आयु का वरदान दीजिए।‘ ’तथास्तु! संत बोले- ’दूसरा पर मांगो।‘ लुहार को अपने काम की बडी चिंता थी। उसने दूसरे वर में मांगा कि उसे जीवन भर काम की कोई कमी न रहे।
संत ने वह वर भी दिया और तीसरा वर मांगने को कहा। लुहार को एकाएक कुछ न सूझा, फिर एकदम वह बोला-आप मेरी जिस कुर्सी पर बैंठे है, उस पर जब भी कोई दूसरा बैठे तो मेरी मर्जी के बिना उठ ने सके। संत कुर्सी से उठे और तथासतु कहकर अपने शिष्यों के साथ वहां से चले गए। जैसा संत ने कहा था, ठीक वैसा ही हुआ। लुहार के सभी संगी साथी, एक-एक करके समय आने पर मरण का वरण कर गए। पर लुहार वैसे का वैसाप हट्टा-कट्टा बना रहा। उसकी दुकान पर काम की कोई कमी नहीं थी, वह दिन भर गाने गाते हुए और लोहा पीटता था। एक न एक दिन तो सभी का समय समाप्त होता है। वरदान के सौ वर्ष पूरे होते ही यमराज ने उसे साथ चलने को कहा। लुहार अपना समय पूरा होते देख पहले तो घबराया पर फिर संभलकर बोला-’आइए यमराज जी, मैं जरा अपने औजार संभाल कर रख दूं। तब तब आप इस कुर्सी पर विराजिए। यमराज कुर्सी पर बैठे ही थे की लुहार ठहाका मारकर हंसा और बोला-’अब आप यहां से मेरी मर्जी के बिना नहीं उठ सकते। यमराज ने बडी कोशिश की, पर उस कुर्सी से उठ ही न सके। लुहार उन्हें बी बैठा छोड कर खिलखिलाता हुआ निकल गया। यमराज को अब अपनी कैद में आकर लुहार को अपनी मृत्यु का कोई डर नहीं रहा। इसी खुशी में उसका दावत उडाने का मन हुआ। उसने एक मुर्गे को दडबे से निकालकर हलाल करने की सोची। मगर जैसी ही उसने मुर्गे की गर्दन पर चाकू चलाया, वह फिर से जुड गई। मुर्गा फडफडाता हुआ भाग निकला।
लुहार मुर्गे के पीछे दौडा पर उसे कपड न पाया। तब उसने एक बकरे पर हाथ डाला, पर घोर आश्चर्य, बकरा भी पुनः जीवित होकर उसके हाथ से निकल भागा। लुहार को तुरंत ही यह रहस्य समझ में आ गया और वह अपने मांथे पर हाथ मारकर बोला-मैं भी कैसा मुर्ख हूं। जब यमराज ही मेरी कैद में है तो किसी की मृत्यु कैसे हो सकती है? चलो अच्छा है, किसी को किसी के मरने का दुख नहीं होगा। मैं तो दलिये और खिचडी से ही गुजारा कर लूंगा, सभी की जान तो सलामत रहेगी, उसने सोचा। अगला साल आते-आते उसकी ही नहीं, पूरी दुनिया की मुसीबतें बढने लगी। किसी के भी न मरने के कारण जीव-जंतुओं की संख्या बढने लगी। अनगिनत मच्छर-मक्खियां, कीडे-मकौडे, चूहे और मेंढक पैदा हुए मगर मरा एक भी नहीं। चूहों ने खेतों और खलिहानों में रखी सारी फसलें व आनाज चट कर डाले।
पेडो का एक-एक फल पक्षियों और कीडों ने कुतर दिया। नदियां और समुद्र मछलियों, मेंढकों और अन्य पानी के जीवों से इतने भर गए कि उनमें से बदबू आने लगी और उनका पानी पीने लायक नही रहा। आकाश टिड्ड और मच्छरों से भरा रहने के कारण काला दिखाई पडने लगा। धरती पर भयानक सांप और वन्य जीव-जंतु विचरने लगे। प्रकृति का संतुलन बिगड गया। लोग अत्यधिक दुखी हो उठे। यह सब विनाश देखकर लुहार को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसे अब जाकर पता चला कि विनाश के बिना सारा विकास अधूरा है। प्रकृति के संतुलन के लिए मृत्यु अनिवार्य है। लुहार दौडता हुआ अपने घर पहुंचा और यमराज को मुक्त कर दिया। यमराज ने उसकी गर्दन में फंदा डाला और उसे यमलोक ले गया। उसके बाद धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया।
मूर्खाधिराज
एक बार बादशाह अकबर अपने राजमहल में गए। बादशाह को सबसे बडी बेगम उस समय अपनी किसी खास सहेली से बातें कर रही थी। बादशाह अचानक बीच में जाकर खडे हो गए। बेबम हंसती हुई बोली आइए मूर्खाधिराज!
बादशाह को बहुत बुरा लगा, लेकिन बेगम ने इससे पहले कभी बादशाह का अपमान नहीं किया था। बादशाह जानते थे कि बेगम चतुर है। वह बिना किसी मतलब के ऐसी बात नही कह सकती। फिर भी बादशाह यह नहीं जान सके कि बेगम ने आखिर उन्हें मूर्खाधिराज कहा तो क्यों कहा। बेगम से जवाब तलब करना बादशाह को अच्छा नहीं लगाा। थोडी देर वहां रूककर वे अपने कमरे में चल आए।
बादशाह उदास बैठे थे। उसी समय बीरबल उनके पास आए। बीरबल को देखते ही बादशाह ने कहा- आइए मूर्खाधिराज!
बीरबल हंसेर बोले-जी, मूर्खाधिराज! बादशाह ने आंख तरेर कर कहा- बीरबल! तुम मुझे मूर्खाधिराज क्यों कहते हो? बीरबल ने कहा आपने मुझे मुर्ख कहा तो आप हमारे राजा होने से मूर्खाधिराज नहीं तो और क्या हुए। अकबर ने बडी बेगम के साथ हुई बातचीत का ब्यौरा दिया तो बीरबल ने कहा-जहांपनाह, आदमी पांच प्रकार से मूर्खाधिराज कहलाता है। पहला तो वह जो दो व्यक्ति अकेले में बातें कर रहे हो और वहां बिना बुलाए जा खडा हो। दूसरा वह जो दो व्यक्ति बातचीत कर रहे हो और उसमें तीसरा व्यक्ति बीच में पडकर उनकी बात पूरी हुए बिना बोलने लगे। तीसरा जो कोई किसी को पूरी बात सुने बिना बीच में बोलने लगे। चौथा वह जो बिना किसी गलती के दूसरों को गाली दे और दोष लगाए। पांचवां मूर्खाधिराज वह है जो मूर्ख के पास जाए और मूर्खो की संगत करे। बादशाह बीरबल के उतर से बहुत प्रसन्न हुए। अब उन्हें समझ में आया कि बेगम ने उन्हें मूर्खाधिराज क्यों कहा।
छः दिशाएं
पुराने जमाने की बात है। एक आदमी सब दिशाओं में प्रणाम कर रहा था। साधना की मुद्रा मानी जाती है प्रणामी मुद्रा। उसने छहों दिशाओं केा प्रणाम किया।एक जिज्ञासु साधक ने उससे पूछा-यह क्या कर रहे हो। मैं सब दिशाओं को नमस्कार कर रहा हूं। उसने जवाब दिया। यह हमारे धर्म का विधान है। किसलिए करते हो जिज्ञासु ने पूछा। यह तो मुझे पता नही हैं। जिज्ञासु ने बात को आगे बढाया-तुम अपने पडोसियों के साथ कैंसा व्यवहार करते हो? कुछ लोग अपने नौकरों के साथ बहुत क्रूरतापूर्ण व्यवहार करते है। तुम उनके साथ कूद व्यवहार तो नही करते? कभी अच्छा व्यवहार करता हूं और कभी क्रूर व्यवहार भी कर लेता हूं। प्रणाम करने वाले आदमी ने कहा। अपने गुरूजनों का सम्मान करते हो? कभी करता हूं और कभी नहीं करता। मित्रों के साथ लडाई करते हो? कभी-कभी लडाई भी कर लेता हूं। कोरा दिशाओं को नमस्कार से क्या होगा? दिशाओं को नमस्कार करने का रहस्य क्या है? पहले इसे समझों जिज्ञासु ने जवाब दिया।
आप कृपाकर मुझे भी इसका रहस्य को जानते है? हां। क्या आप कृपाकर मुझे भी इसका रहस्य बताएंगे? कहा-पूर्व दिशा को नमस्कार करने का अर्थ हैं- अपने पूर्वजों का सम्मान करना। पश्चिम दिशा को नमस्कार करने का अर्थ है- अपने अनुगामियों का सम्मान करना। दक्षिण दिशा को नमस्कार करने का अर्थ है- अपने गुरू के आदेशों की पालन करना। गुरू को दक्षिण बनाना यानी अपने अनुकूल बनाना। उतर दिशा को नमस्कार करने का अर्थ है- अपने मित्रों के साथ सद्व्यवहार करना। उंची दिशा को नमस्कार करने का अर्थ है-अपने धर्मगुरूओं, आचार्यो का सम्मान करनां नीची दिशा को नमस्कार करने का अर्थ है- अपने नौकर-चाकरों का सम्मान करना। जिज्ञासु की बात सुनकर दिशाओं को प्रणाम करने वाले ने कहा-अब मैं इन सभी को दिशाएं मानकर इन सभी का सम्मान करूंगा।
अमृत का गंगाजल
एक संत थे। उन्होंने अपने चार शिष्यों को बुलाकर कहा देश की पवित्र नदियों का जल लेकर आओ। चारों शिष्य अलग-अलग दिशाओं में नदियों का जल लेने के लिए चल दिए। थोडे दिनों बाद लौटकर शिष्यों ने गुरूजी के सामने अलग-अलग नदियों का जल रखा। पहले शिष्य ने कहा यह यमुना का जल है। दूसरे शिष्य ने कहा यह गोदावरी नदी का जल है। तीसरे शिष्य ने कहा यह कावेरी का जल है। सभी की बात सुनकर गुरूजी ने कहा तुम चारों में से कोई गंगा नदी का जल तो लाया ही नहीं? एक प्रतिभावना शिष्य ने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया गुरूजी, आने तो पवित्र नदियों का जल मंगाया। गंगाजल तो अमृत हैं। यदि आप अमृत मंगाने के लिए कहते, तो मैं गंगाजल लातां शिष्य की बात सुनकर गुरूजी गदगद हो गए।
कंजूस का न्यौता
पंडिताइन सौदागर के घर आई और बोली जरूर तुमने इन्हें खाने में कुछ दिया है। बचा हुआ खाना दो, मैं उसे देखूंगी। खाना बचा नहीं था, तो सौदागर देता क्या? पंडिताइन बोली मैं इन्हें नहीं ले जाउंगी। मैं भी यहीं अपने प्राण दे दूंगी और तुम्हें ब्रह्रा हत्या और नारी हत्या करने का पाप लगेगा। सौदागर ने अपनी पत्नी से सलाह की। दोनों पंडिताइन को समझाने लगे-पंडितजी तो चल बसे अब वह लौटकर नहीं आएंगे। तुम अपने प्राण क्यों दे रहीं हो? जो भी मांगोगी, हम देने को तैयार है। पंडिताइन बोली- सौ लोगों का ब्रह्रा भोज करा, नहीं तो पांच हजार रूपए दो। सौदागर बोला-एक पंडित को खिलाने में जब यह गति हुई है, तो सौ को खिलाने में क्या दुर्गति होगी? साहूकार बोला- तुम पांच हजार रूपए ले लो।
सौदागर को पांच हजार रूपए निकाल कर देना अपना कलेजा निकाल कर देने जैंसा लग रहा था। पर मरता क्या करता? उसने रूपए पंडिताइन को दे दिए। पंडिताइन रूपए और पंडितजी को उठाकर अपने घर ले आई। पंडितजी घर में आते ही उठकर बैठ गए। दूसरे दिन सौदागर उनके घर के सामने से निकला, तो उसने देखा कि पंडितजी बैठे है। साहूकार को देखकर पंडितजी बोले- बद्ये, तुम जुग-जुग जियो। पंडितजी और पंडिताइन की चाल सौदागर समझ गया और बोला जुग-जुग तो तुम जियोगे । हम तो बिना मारें ही मर गए है।
चीते के बेटे-बहू
किसी गांव में गरीब पति-पत्नी रहते थे। उनके कोई संतान नहीं थी। उनके पास एक इंच भी जमीन नहीं थी। वे रोज वन में जाते, कंदमूल खाते और अपनी कुटिया में सो जाते। जंगल ही उनके जीने का सहारा था। कुछ दिनों बाद पत्नी के पांव भारी हो गए। जंगल में कंदमूल खोदते हुए उसने बच्चे को जन्म दिया। पत्नी ने पति को आवाज दी, ’सुनते हो बेटा जन्मा है। अब हम क्या करें?‘
गरीब ने कहा, ’घर में एक दाना भी नही है। न कपडे-लते हैं न और कुछ। हम इसे पालेंगे कैसे?‘ पत्नी ने कहा, ’ठीक है, इसे जंगल में छोड देते है। उसके भाग्य में जो लिखा होगा, वही होगा, वे दोनों बच्चे की वही छोडकर घर चले गए। बच्चे के रोने की आवाज सुनकर एक चीता वहां आया और उसे अपनी मांद में ले गया। वह उसका अपने बच्चे की तरह पालन-पोषण करने लगा।
वह बच्चा बडा हुआ तो चीते को उसके ब्याह की चिंता हुई। एक दिन चीते ने लडके से पूछा, ’तुम्हारे लिए एक लडकी ने आउं?‘ सकुचाते हुए लडके ने कहा, ’जो आपकी मरजी! अगर आप मेरी शादी करना चाहते है, तो कोई लडकी ले आइए पिताजी।‘ चीता किसी लडकी के उधर से गुजरने के इंतजार में था। एक लडकी आई। चीता उसे उठाकर मांद की तरफ चल दिया। रास्ते में वह अपने पर काबू न रख सका और उसका आधा कान खा गया। वह उसे लेकर घर पहुंचा और कहा, ’बेटे, मैं तुम्हारे लिए एक लडकी लाया हूं। जाओ, पसंद कर लो।‘ लडके ने बाहर देखा, ’अरे, इसका तो एक कान आधा गायब है। ’वह वापस चीते के पास गया और कहस-पिताजी! मुझे आधे कान वाली लडकी पसंद नहीं है।‘ एक-एक कर चीता कई लडकियां लाया। पर मांसाहार की आदत के चलने किसी का वह हाथ खा जाता, किसी का नाक तो किसी का कान। आ,ार एक दिन लडके ने कहा, ’पिताजी, मेरे लिए कोई अच्छी लडकी जाइए। पूरे सुंदर शरीर वाली हो जिसे सर्वाग सुंदरी कहते है।‘
इस बार चीता ऐसे घर में गया जहां ब्याह हो रहा था। फेरों के बीच में ही मंडप से दुल्हन को चीता उठा लाया। चीते को देखकर घराती-बराती सब भाग छूटे। इस बार चीते ने पूरी सावचेती बरती। दुल्हन को सही सलामत घर लाया। बेटे से उसका ब्याह कर दिया। चीता और बेटे-बहू बहुत सुख चैन के साथ रह रहे थे। एक रोज सब्ती काटते हुए बहू की अंगुली कट गई। रिसते खून को उसने पतियों से पोंछ दिया। खून की गंध बाकर चीता उन पतियों के पास गया और उन्हें चाटा। उसने सोचा, ’जिसके खून का स्पाद इतना अच्छा है तो उसका मांस कितना अच्छा होगा।‘ चीते की आंखों की रंगत ने बेटे बहू से चुगली खाई। पति-पत्नी समझ गए कि चीते की नीचत में खोट है। वह उन्हें खाएगा।
उसी रात को वे दोनों वहां से रफूचक्कर हो गए। सुबह चीते ने देखा दोनों का कहीं अता-पता नहीं था। उनके पांवो के निशानों के सहारे वह उनके पीछे गया। वे दोनों कहीं नहीं मिले। वे दोनों अब जंगल छोडकर नगर में बस गए। सुख शांति से रहने लगे। चीता अपनी बुरी हिंसक आदत के कारण हमेशा के लिए अपने बहू बेटे से दूर हो गया। अब वह अकेले पडे-पडे पछता रहा था।
चमत्कारी कटोरे
गांव के लोग ज्यों ही कोई पकवान पूरा करते दर्जनों नए पकवान हाजिर हो जाते अतिथियों ने रूच-रूच भोग लगाया। घर-घर चमत्कारी कटोरे की बात फैल गई। उस गांव में एक अमीर आदमी रहता था। वह अपने सामने किसी को कुछ नहीं गिनता था। उसने कटोरों के स्वामी किसान और उसकी पत्नी को उसने कई उपहार दिए और जादुई कटोरे मिलने का रहस्य जान लिया। घमंडी अमीर ने सोचा, इसमें क्या मुश्किल है! यह तो बाएं हाथ का खेल है। वह तेजी से घर गया और रसोइए को भांति-भांति के राजसी व्यंजन बनाने का आदेश दिया। अगले दिन सुबह वह पालकी में बैठा और कहारों को भगाते हुए तिराहे वाले बरगद के नीचे पहुंचा। वहां एक बडी टोकरी में महंगे से महंगे पकवान सजा और टोकरी को बरगर के नीचे रख दिया। कहारों को उसने शाम को वापस आने को कहकर लौटा दिया और खुद नींद का बहाना करके लेट गया। पर नींद तो उसने कोसों दूर थी। वह यह देखने के लिए बहुत व्यग्र था कि वनदेवियां कब आती है और क्या करती है। वह देर तक लेटा रहा। आंखिर उस पर नींद हावी हो गई। घडी भर बाद उसकी आंख खुली तो वह हडबडाकर उठ बैठा और इधर-उधर देखा। उसके पास चार अजीब-से कटोरे पडे थे और टोकरी खानी थी। आखिर वह सफल हुआ। वैसे अपनी सफलता पर उसे कभी संदेह नहीं हुआ था वनदेवियों के लिए वह मानवी व्यंजनों में से सबसे स्वादिष्ट और सबसे महंगे राजसी व्यंजन जो लाया था। उसकी इच्छा वे कैसे पूरी नही करती! और देखो, जादुई कटोरे उसे मिल गए। कहारों को पहले से भी तेज भगाते हुए वह घर पहुंचा। उसने घरवालों को आदेश दिया कि वे दौडकर जाएं और गांव के घर में यह खबर पहुंचा दें और भोज का निमंत्रण दे दें।
गांव वाले चारों दिशाओं से उसके भोजनकक्ष की ओर उमड पडे। कुछ ही दिन पहले हुए भोज की याद से उनके मुंह में पानी भर आया। आज फिर भोज, और वह भी साहूकार के यहा! कइयों ने दिन भर कुछ नहीं खाया। ताकि मेजबान की दरियादिली का आनंद उठाया जा सके। जरीदार पगडी, कुंडली और हीरे की अंगूठी डाले हुए नौकरों का मुखिया कटोरों के सामने खडा हुआ। उपस्थित अतिथियों को दिव्य व्यंजन परोसने का आदेश दिया। उसकी आवाज की गूंज अभी विलीन भी नही हुई थी कि कटोरों में से बीसियों आदमी निकले। वे पहलवानों सरीखे लगते थे। उनकी बांहों की मछलियां फडक रही थी। कटोरों से निकलते ही वे मेजबान और भूखे मेहमानों पर झपटे। उन्होंने सबको बारी-बारी से पकडा-झटके से चमचमाते उस्तरे निकाले और बडी तत्परता से उनके सर मूंडने लगे। एक-एक सर की उन्होंने ऐसी जोरदार घूटाई की कि वे तांबे की देगची के पेंदे की तरह चमकने लगे। पहलवानों ने कहा-जो चोरी और चालाकी करके इन कटोरों को पाने की कोशिश करता है उसका यही हाल होता है।
चोरों का दोस्त राजा
महल पहूंच कर राजा विक्रम भी नहाए-धोए। राजसी वस्त्रों और आभूषणों से सज्जित हो सिंहासन पर बैठे। नगर कोतवाल को तलब किया गया। राजा ने कोतवाल को डांटा- ’सारी रात क्या सोकर ही गुजारते हो? नगर के अंदर कहां क्या चोरी-चकारी होती है, तुम्हें कुछ पता नही चलता। जाओ कलाल के दारू खाने में चारा चोर शराब ढाल रहे हैं, उन्हें बांध-बूंधकर फौरन ले आओ..‘
कोतवाल चोरों को रस्सी से बांधकर ले आया। उन्हें दरबार में हाजिर किया गया। राजा ने चोरों से पूछा- ’मित्रो, मुझे पहचानते हो?‘
’महाराज‘- चोरों का सरदार हाथ जोडकर बोला ’मैंने तो आपको उसी पल पहचान लिया था, किंतु मेरे साथी गाफिल हैं, इन्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं था। गीदड ने तो ठीक ही कहा था। वह भला क्यों झूठ कहेगा। मेरे ही साथियों की अकल घास चरने चली गई थी। मुझ पर बुद्धूपन का भूत सवार था, सरकार।‘ राजा विक्रमादित्य को इस पर हंसी आ गई। वह बोले- ’दूष्टों, सीधे-सीधे तुम लोग अपना कसूर क्यों नहीं कबूल करते हो? नाहक ही बातों में क्यों उलझा रह हो? अपनी नीयत का खोट नही दिखाई देता?‘
चोर बोले- ’इसमें हमारी नीयत का क्या खोट है, महाराज?‘ राजा ने कहा- ’देखो, तुम हट्टे-फट्ठें हो, बहादुर भी हो, फिर भी चोरी का पेशा अपना रखा हैं तुमने। पकडे जाने पर कैसा बुरा हाल होता है?‘ चोर बोले- ’हां महाराज, इस नीयत ही है।‘ ’तो फिर इस धंधे को तुम छोड क्यों नहीं देते?‘- राजा ने पूछा तो जवाब मिला- ’इसकी जड है गरीबी। यही हमसे ऐसा गंदा काम करवाती है। सारे पापों की उत्पति दरिद्रता से होती है, महाराज! यही लोगों को बुरे काम करने के लिए उकसाती है।‘ दरबार बरखास्त हुआ। रईस का माल रईस को वापस भिजवा दिया गया। चोरों को छुटकारा मिला। चोरों के मुखिया खिसकू को एक गांव की जागीरदारी मिली। बाकी तीनों भी राजा की कृपा से मालदार हो गए। धूमधाम से उनकी विदाई हुई। कुछ वर्ष बीत जानें पर राजा विक्रमादित्य ने सोचाः चोरों के जिस सरदार को मैंने जागीरदार बनाया वह कैसे अपना काम कर रहा है? खोटी नीयत वाला आदमी शासन नहीं चला सकता। जिसकी हाजमा खराब हो वह तर माल नहीं पचाा सकता। सारी बात जानने के लिए राजा ने अपना जासूस भेजा। जासूस हाल-चाल मालूम करके लौट आया।
’कहो!‘ राजा ने पूछा। ’क्या बतलाउं आपसे, महाराज? आपको शायद अच्छा न लगे।‘
’नहीं, नहीं, तुम बतलाओं‘ राजा ने कहा। ’गलत-सलत बतलाए तो जासूस कैसा! सुनिए श्रीमान, आपने तो उस चोर को राजद्दी दे दी, वह तो उसका वैसा का वैसा ही है।
क्या नहीं होता है गांव में? शराबी, जुआरी, उचक्के, बस यही लोग है जिनकी तूती बोल रही है। ’अब क्या करना चाहिए?‘ राजा ने चिंता के साथ पूछा। भेष बदल कर राजा चोर के गांव में पहूंचे। जासूस की सारी बातें सच थी। चोरों का सरदार कुपात्र साबित हुआ। राजा विक्रमादित्य ने उसे देश से निकाल देकर गांव की प्रजा का कष्ट दूर कर दिया।
भाग्यवान किसान
किसान को परेशान हाल देखकर पत्नी के चेहरे पर हवाइयां उडने लगीं। वह मूर्ख पति की बुद्धिमान पत्नी थी। वह घबराई नहीं। तुरन्त गांव के वैद्य ने किसान की हालत देख कर उसे उल्टी होने की दवा दी। कुछ देर बाद उसे उल्टियां होने लगी। उल्टी में कई लोबिये निकलने लगे। यह देखकर सब किसान मूर्खता पर हंसने लगे। स्वस्थ होने पर किसान ने सबसे छोटी लडकी के यहां जाने का विचार बनाया।
अगले दिन वह गिद्ध दामाद के यहां यल पडा। गिद्ध का घर एक पहाडी पर था। बेटी और दामाद किसान को देखकर बेहद प्रसन्न हुए। गिद्ध ने अपनी पत्नी से कहा कि ससुर जी की हम क्या सेवा कर सकते है? पत्नी ने बताया कि पिताजी ने अपने गांव से बाहर बहुत ही कम दुनिया देखी है। इसलिए उनको सैर करवानी चाहिए। पत्नी का सुझाव गिद्ध को जंच गया। ससुर को अपने पंखों में बैठा कर उडने लगा। अजीबोगरीब दुनिया देखकर किसान के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसे लगा कि वह जीते जी स्वर्ग पहुंच गया है। गिद्ध रोज ससुर को सैर कराने लगा। किसान ने घर वापस लौटने की इच्छा व्यक्त की, तो गिद्ध ने तुरन्त उसे अपने पंखों में बैठाया और कुछ ही समय में उसे उसके गांव के पास छोडकर वापस चला आया। घर पहुंच कर पत्नी से डींगे हांकने लगा। जैसा उसने देखा था, वह सब पत्नी को कह सुनाया। यह कह कर उसने पत्नी से कहा कि यदि वह भी वैसी दुनिया देखना चाहती है, तो तैयार हो जाए। पत्नी की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने नहा धोकर नए-नए कपडे पहने और जल्दी ही बन-ठन कर तैयार हो गई। किसान ने अपने साथ दो सूप और मजबूत-सी दो रस्सियां ली और पत्नी को साथ लेकर पहाड की चोटी की ओर चल पडा। चोटी पर पहुंच कर किसान ने दानों सूपों को अपनी दोनों बगलों में कसकर बांधा। फिर पत्नी से अपनी पीठ पर चढने के लिए कहा। पत्नी ने वैसा ही किया। पीठ पर पत्नी के बैठते ही किसान ने नीचे छलांग लगा दी। अगले ही क्षण वह पत्नी समेत नीचे गड्ढे में जा गिरा। संयोग से उसी समय गिद्ध उडता हुआ उधर आया। उसकी नजर उन पर पडी। वह अपने सास-ससुर को पहचान गया। उसने तुरन्त बंदर और रीछ को खबर दी। वे दानों भी वहां आ पहुंचे। बंदर कहीं से एक जडी खोद लाया। उन दोनों की सांस चल रही थी। बंदर ने उनको जडी सुंघायी। जडी सूंघते ही दोनों होश में आ गए। फिर रीछ ने एक और जडी ढूंढ निकाली। उसको पानी में घिसकर उनके सारे बदन पर लगाया। कुछ समय में दोनों स्वस्थ हो गए। इस बीच बंदर, रीछ और गिद्ध के शाप की अपधि समाप्त हो गई। तीनों के तीनों खूबसूरत नवयुवकों में बदल गए। वे तीनों भाई एक राजा के लडके तीनों अपने राज्य की ओर चल पडे।
फकीर की खांसी
एक फकीर यात्रा करते हुए कही जा रहा था। घने जंगल से गुजरते हुए उसे कई दिनों तक कोई बस्ती नहीं मिली। बस्ती के बिना जंगली फल-फूल खाकर फकीर ने कई दिन बिताए। एक दिन फकीर ने सोचा। क हीं कुछ खाने को मिल जाए तो बेहतर होगा। फकीर को भरोसा था ईश्वर सबका ध्यान रखता है। इसलिए उसने ईश्वर को कहा-हे प्रभु तुम्हीं पालनहार हो। कई दिनों से रोटी नहीं मिली तुम्हीं कहीं से इसका जुगाड करो। आखिर चोच दी है तो चना भी खाने को दो। ये कहते हुए वह एक पेड पर चढ बैठा। दोपहर का वक्त था। एक नवाब अपने लोगों के साथ वन भ्रमण करते हुए उधर से गुजरां उसके साथ वजीर और दो सिपाही थे। वे सब उसी वृक्ष के नीचे आकर बैंठे। घनी छाया में आराम फरमाते हुए नवाब ने कहा-चलो आज खाना यहीं बनाया जाए। दानों सिपाहियों ने नवाब और वजीर समेत चार-पँाच लोगों का खाना बना लिया। नवाब के सामने गरमागरम- नरमानरम चकाचक छप्पन भोग परोसे गए। नवाब ने हाथ जोडकर ईश्वर से कामना की-हे प्रभु! रोज मैं महल में किसी फकीर को भोजन देकर भोजन करता हूं। आज इस घनघोर जंगल में किसी दरवेश के दर्शन करा दे तो मैं भोजन करू नवाब की प्रार्थना सुनते ही पेड पर बैठे फकीर ने खंकारा किया। नवाब ने उपर देखा और बोला- धन्यवाद परवरदीगार आखिर तूनें मेरी दुआ कबूल कर ली घर बैठे गंगा भेज दी। नवाब ने फकीर को प्रेमपूर्वक नीचे आकर भोजन करने को कहा। फकीर ने भोजन करने को कहा। फकीर ने भोजन कर नवाब के सामने ईश्वर को धन्यवाद दिया-हे प्रभु अरन महरल है। कीडी को कण और हाथी को मण आप ही देतें है। देने वाला तो खुदा ही है, बंदे को तो बस खांसना पडता है। ये कहते हुए फकीर ने अपना इकतारा बजाया और आगे के सुर के लिए चल पडा।
गधा और बैल
दो विद्वान पंडित वर्षो तक काशी में साथ-साथ शास्त्र पाठ पूरा कर अपने गांव जा रहे थे। पुराना जमाना था। उस समय ज्यादा वाहन नहीं थे। लेबी पदयात्राओं में कई स्थानों पर रात्रि विश्राम करना पडता था। दोनों विद्वानों ने मार्ग में एक धनवान सेठ के घर विश्राम किया। सेठ ने दोंनो के लिए उचित ठहरने और विश्राम की व्यवस्था कर दी तथा उनके लिए भोजन तैयार करने का सेवकों को आदेश दिया। इसी बीच सेठ ने दोनों का परिचय लेने की सोची। वह उनके पास गया। दानों से अध्ययन के संबंध में कई प्रकार के प्रश्न किए। दोनों ने अहंकार की भाषा में सेंठ को अपने अपने उतर दिए। सेठ बुद्धिमान और अनुभवी था। विद्वनों की आडबर और प्रदर्शनप्रियता का उसके मन पर अच्छा प्रभाव नहीं हुआ।
आप दोनों में अधिक अध्ययन किसने किया है? सेठ ने अलग-अलग दोनों से यह पूछा। इस प्रश्न पर दोनों विद्वानों के उतर बहुत ही निराशाजनक थे। दोनों ने केवल अपने को ही बडा बता दिया। सेठ विद्वानो के उतर बहुत ही निराशाजनक थे। दोनों ने केवल अपने को ही बडा बता दिया। सेठ विद्वानों के उतर से बहुत दुःखी था। जब भोजन का समय हुआ तब उसने व्यंजनों के स्थान पर एक की थाली में भूसा और एक की थाली में चारा परोसा। दोनों विद्वान यह देखकर आग-बबूला हो गए। उन्होंने कहा-’क्या आपने हमें जानवर समझ रखा है? लक्ष्मी के हाथों सरस्वती का ऐसा अपमान होगा, यह हमने कभी सोचा तक नही था!‘ सेठ ने कहा-’इसमें मेरा क्या दोष है? आप दोनों में से पहले ने बताया था कि एक निरा बैल हैं। दूसरे ने पहले को गधा बताया। गधें के लिए भूसा है और बैल के लिए चारा। अपने साथी का जा परिचय आपने मुझे दिया, मैंने उसी के अनुसार आपको भोजन परोसा है।‘ दोनों को अपनी भूल का अहसास हुआ। भविष्य में इस प्रकार की गलती नही करने का उन्होंने संकल्प किया। सेठ ने भी उन्हें हंलुआ-पूडी का भोजन कराया और दान-दक्षिणा देकर विदा किया।
दानवीर दारा
दाराशिकोह, मुगल बादशाह शाहजहां का समसे बडा बेटा था। दारा शिकोह बहुत दानी प्रवृति का व्यक्ति था। वह जब भी चांदनी चौक से आता-जाता तो फकीरों को कुछ न कुछ देता जाता था। जब दाराशिकोह औरंगजेब से लडाई में हार गया तो उसे बंदी बनाकर एक हाथी पर बैठाया गया और दिल्ली में घुमाया गयां चांदनी चौक से गुजरते वक्त एक फकीर ने तुज कसते हुए कहा-ओ दारा, आज मुझे तू क्या देगा? दारा की आंखे छलछला उठीं। फिर उसने अपना पशमीना उतार कर फकीर को देना चाहा, पर साथ चल रहे बहादुर खां ने उससे पशमीना छीनकर कहा-एक कैदी किसी को कुछ भी नहीं दे सकता है? तब दाराशिकोह ने रोकर फकीर से कहा-अफसोस, आज मैं तुम्हें सिर्फ अपने आंसू ही दे सकता हूं।
टेढा सवाल
एक दिन अकबर और बीरबल वन-विहार के लिए गए। एक टेढे पेड की ओर इशारा करके अकबर ने बीरबर से पूछा-यह दरख्त टेढा क्यों हैं? बीरबल ने जवाब दिया यह इसलिए टेढा है क्योंकि यह जंगल के तमाम दरख्तों का साला है। बादशाह ने पूछो-तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? बीरबल ने कहा-दुनिया में ये बात मशहूर है कि कुत्ते की दुम और साले हमेशा टेढे होते हैं। अकबर ने पूछा-क्या मेरा साला भी टेढ है? बीरबल ने फौरन कहा-बेशक जहंापनाह! अकबर ने कहा फिर मेरे टेढे साले को फांसी चढ दो!
एक दिन बीरबल ने फांसी लगाने की तीन तख्ते बनवाए-एक सोने का, एक चांदी का और एक लोहे का। उन्हें देखकर अकबर ने पूछा-तीन तख्ते किसलिए? बीरबल ने कहा गरीबनवाज, सोने का आफ के लिए, चांदी का मेरे लिए और लोहे का तख्ता सरकारी साले साहब के लिए। अकबर ने किसलिए? बीरबल ने कहा-क्यों नहीं साले है। बादशाह अकबर हंस पडे, सरकारी साले साहब ने जान में जान आई। वह बाइज्जत बरी हो गया।
निंदा के बहाने प्रशंसा
राजा भोज के दरबार में दूर-दूर से कवि, साहित्यकार और कलाकार आते रहते थे। वे राजा के सम्मुख अपनी कला का प्रदर्शन करते और सम्मान, प्रशंसा तथा इनाम पाते थे। एक बार उनके दरबार में शेखर और सुमन नाम के दो कवि काशी से पधारे। दोनों भाई थे। राजा ने दोनों से कहा-महाकवि, यहां रोज ही कोई न कोई कवि अथवा पंडित आता रहता है। जो भी आता है, मुझे प्रसन्न करने के लिए मेरी झूठी प्रशंसा करता है। मैं भी हाड-मांस से निर्मित एक मानव हूं। मुझमें भी अनेक त्रुटियों होगी। लेकिन हर आने वाला मेरी बंडाई के पुल बांधता है। इसलिए आप दोनों मेरी बडाई न करके मेरी निंदा करें। जो भी सुदंर ढंग से मेरी निंदा करेगा, वह उतम पुरस्कार का अधिकारी होगा।
राजा की बात सुनकर दरबार में मौन छा गया। राजा के सामने राजा की निंदा करना कोई साधारण बात नहीं थी। किसी पर कोई आरोप लगाकर उसे सिद्ध करना भी आवश्यक होता है। यदि राजा निंदा से कुद्धहों जाए, तो लेने के देने पड सकते है। फिर राजा भोज जैसा व्यक्ति जिसे दोषों से मुक्त माना जाता है, उनकी निंदा करना तो टेढी खीर थी।
दोनों भाइयों ने राजा की बात को सुना। एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराए। शेखर ने राजा से कहा-महाराज, मेरी ओर से एक कविता प्रस्तुत है। यह आफ गुणों से मेल नहीं खाती। सभी दरबारी शांत होकर कविता सुनने को उत्सुक होकर बैठ गए। शेखर ने संस्कृत में एक श्लोक पढा जिसका भावार्थ था- ’हे राजन्! आपको सभी लोग सर्वज्ञ मानते है। लेकिन वास्तव में यह सत्य नहीं है। आपको तों पूरी तरह से भाषा का ज्ञान भी नहीं है क्योंकि आफ मुख से याचकों के सम्मुख कभी भी दो अक्षरों का शब्द ’नहीं है‘ निकला ही नहीं, इन अक्षरों को न जानने वाला अपना पांडित्य भला कैसे सिद्ध कर सकता है?
दूसरे भाहै सुमन ने जो श्लोक पढा उसका अर्थ था हे राजन्! सब लोक दाता कहकर आपकी खूब बडाई करते है, लेकिन आप दाता की श्रेणी में नही आते क्योंकि अभी भी आप कुछ वस्तुएं नही दे पाते। उदाहरण के लिए आपने शत्रु को कभी पीठ नहीं दिखाई, पर नारियों को आपने अपना ह्रदय नहीं दिया। फिर आप पूर्ण दाता कैसे हो सकते है? दानों कवियों के श्लोक सुनकर राज दरबार तालियों से गूंज उठा। राजा भोज ने हंसकर कहा-आप लोगों ने निंदा तो अवश्य की, परन्तु उसका अर्थ तो प्रशंसा जैसा ही है। दोनों कवि भाइयों ने हाथ जोडकर कहा-राजन्! इससे अधिक आपकी निंदा करना तो हमारे वश में भी नहीं है। राजा भोज ने प्रसन्नतापूर्वक उनका सत्कार कर उन्हें पुरस्कृत किया।
कंधे पर सवारी
एक बार संत वतायो किसी यात्रा पर निकले थे। राह कच्ची थी, उपर से धूल उड रही थी। सूरज की तपिस जोरों पर थी। चलते-चलते उन्हें बडी थकान महसूस हूई। वे ईश्वर से बोले-अब तो कोई सवारी दिलाओ, तो यह शेष यात्रा अराम से कट जाए। यह कहकर वतायों संत अभी थोडा आगे चले ही थे कि उन्हें रियासत के हाकिम का एक सिपाही दिखाई दिया। सिपाही की घोडी ने रास्ते में ही बच्चा जना था। सिपाही ने तुनककर आवाज दी-अरे, यहां आओ! इस घोडी के बच्चे को लादकर ले चलो।
वतायो संत ने आना-कानी की, तो सिपाही ने उन्हें चाबुक दे मारा। विवश होकर वतायो संत ने घोडी के बच्चे को कंधे पर लाद लिया। सिपाही के आगे कंधों पर बोझ से सिर झुकाए हुए वे बंढ रहे थे और उनके पीछे-पीछे
घोडी पर सवार झूठी शान से सिर उंचा किए हुए सिपाही चल रहा था। जब वतायो संत सिपाही की चौकी पर कंधे से घोडी के बच्चे को उतार कर बाहर आए, तो उन्होंने ईश्वर को उलाहना देते हुए कहा-हे ईश्वर, मैंने आपसे कहा था कि मुझे सपारी के लिए घोडा दिलाओ पर आपने तो मुझ पर घोडा सवार करा दिया। हे ईश्वर, आप सुनते तो हो, पर भक्त की बात को समझते नहीं हो। यह कहते-कहते संत की आंखो से आंसू निकल पडे।
बडे घर की बेटी
एक सेठ के परिवार में नई बहूरानी आई। थोडे दिनों बाद एक दिन सास ने चटनी पीसने का पत्थर मंगाया। बहूरानी ने कहा-माताजी! मैं बडे घर की बेटी हूं। आज तक मैंने पत्थर को हाथ से छुआ तक है। इतने बडे पत्थर का भार मैं नहीं उठा सकती। भविष्य में इस प्रकार का काम मुझे कभी मत बताना।
सेठानी सास समझदार थी। उसने अपने हाथ से पत्थर लेकर चटनी पीस ली। जब पुत्र घर आया तो मौका देख कर मां ने उसे सारी जानकारी दी मुझे इ समस्या का समाधान करना चाहिए। अन्यथा मेरा सारा घर नरक बन जाएगा।
उसने पुराने जमाने के फैशन के अनुसार एक वजन दार सोने का आभूषण एक वजनदार सोने का आभूषण बनाया। उसने गहना अपनी पत्नी को दिखाया। पत्नी भारी कर्णफूल देखकर बडी प्रसन्न हुई। उसने तत्काल कहा-यह आभूषण बडा सुंदर है। इसे मैं अपने कानों में पहनूंगी। पति ने कहा यह बहुत भारी है, इतना भार तुम नहीं उठा सकोगी। यह सुनकर पत्नी ने कहा मैं इससे दस गुणा वजन भी उठा सकती हूं। इतना भार तो छोटा बच्चा भी उठा सकता है।
पति ने कहा जब मेरी मां ने चटनी के लिए पत्थर मंगाया तब तुमने कहां मैं बडे घर की बेटी हूं। मेरे से पत्थर नहीं उठ सकता। फिर कानों से दस गुणा भार कैंसे उठा सकती हो? बहू चतुर थी। पति के मुंह से यह बात सुनकर वह समझ गई कि इस आभूषण की रचना मुझे शिक्षा देने के लिए की गई है। बहू ने अपनी गलती मंजूर की। साथ ही प्रतिज्ञा भी की कि भविष्य में मेरी सास किसी भी काम के लिए कहेगी तो इंकार नहीं करूंगी। पति ने खुश होकर वह सुंदर कर्णफूल अपनी पत्नी को भेंट कर दिया।
पेड की पीडा
संत नामदेव जब बालक नामू थे, मां ने दरख्त की छाल उतार कर लाने होगी? परीक्षा की अपनी ही जांघ पर कुल्हाडी चलाई। गहरा घाव हुआं खून की धारा बहने लगी। नामू को लगा-धारदार हथियार के प्रहार से जब मुझे पीडा होती है तो वृक्ष को क्यों नही होगी? आखिर मेरे भीतर तो प्राण का प्रवाह है, जो सुख-दुःख का संवेदन है, वह वृक्ष में भी तो है। नामू बिना छाल लिए घर आ गया। खून से लथपथ उसका आधोवस्त्र देख मां स्तब्द्य रह गई। पूछने पर सारा रहस्य खुला। नामू की करूणां और संवेदनशीलता ने उसे संत नामदेव बना दिया।
जीभ और दांत
चीन के प्रसिद्व दार्शनिक चेगंचुंग बहुत बीमार थें । उनके बचने की आशा नही थी । उस समय शिष्य माओत्से ने उन्हे कहा-मुझे कुछ ज्ञान देने की कृपा करे ।
चेंगचुंग ने अपना मुंह खोला और कहा - क्या मेरे दांत हैं ?
नही । माओत्से ने जबाब दिया ।
और जीभ ? दार्शनिक ने पूछा ।
हां ।
दांत गिर गए पर जीभ मौजूद हैं क्या
तुम इसका मतलब जानते हो ?
नही ।
दांत कठोर हैं, और जीभ कोमल हैं । चेंगचुंग ने इसका अर्थ समझाते हुए कहा जो आदमी अपने जीवन में कोमल और नम्र रहता हैं वह सदा सफल होता हैं ।
मिट्टी की सास
एक गांव मे एक आज्ञाकारी सीधी-सादी बहू रहती थी। वह अपनी सास से बहुत कम बोलती थी। वह इशारों-इशारों से ही काम चला लेती थी। हर रोज बहू सास से पूछती कि आज कितना चावल फगा। सास कुछ देर विचार करती और फिर धीरे से एक अंगुली ऊपर उठाती। कभी दो अंगुलियां दिखाती कभी तीन-जैसी उसकी मरजी। एक दिन सास दुनिया से चल बसी। बहू रो-रो कर हलकान हो गई। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अपनी गृहस्थी वह बिना सासू मां के कैसे चलाए। वह किससे पूछे कि आज कितना चावल बनेगा? इस सवाल से पति कुछ ही दिनों में आजिज आ गया। रोज ब रोज के झंझट से छुटकारा पाने के लिए पति ने एक तरकीब सोची वह कुम्हार के पास गया और उससे अपनी मां की मिट्टी मूर्ति बनाने को कहा। कुम्हार ने दो मूर्तियों बना दी। कुछ ही दिनों में मूर्तियों को रंग पोत दिया। नए नकोर कपडे पहना दिए गए। मूर्तियों को घर लाया गया और उसे ऐसे स्थान पर रखा जहां से वह पत्नी को दिखती रहे। सास को वापस पाकर बहू फूली न समाई। जब भी उसे चावल की मात्रा के बारे में पूछना वह रसोई से बाहर देखती और आदेश ले लेती।
दो अंगुलियों वाला हाथ पहले दिखता तो वह दो कटोरी चावल पकाती और तीन अंगुलियों वाले हाथ की झलक दिखती तो तो तीन कटोरी। बहू मिट्टी की सास पाकर खुश थी और पति पत्नी को खुश देखकर खुश था। यह खुशी ज्यादा दिन नहीं चली। एक रोज पति को पता चला कि चावल की बोरी कुछ ही हफ्तों में खत्म हो गई। खाने वाले तो पति-पत्नी दो ही थे। उसने पत्नी से पूछा तो उसने बताया कि वह सास के आदेश का पालन करती है। पति ने पूछा आज कितना चावल बना। बहू ने कहा-तीन कटोरी। पति के आग लग गई, दो जनों के लिए तीन कटोरी चावल? तुम्हारी अक्ल घास चरने गई है? हम इतना चावल नहीं खा सकते। जब मां जिंदा थी तब भी तुम दो कटोरी चावल पकाती थी और वह भी हमसे खाया नहीं जाता था। पत्नी ने हौले से जवाब दिया, हम दो नहीं, तीन है। अपनी मां को क्यों भूल रहे हो। मैं अब भी उन्हें भोग लगाकर ही खाती ह। अक्सर तो मेरे लिए थोडा ही बचता है। बुरा मत मानो, मां की खुराक पहले से बढ गई है। पति को अपने कानों पर भरोसा नहीं था। कैसे मिट्टी की सास कई बोरी चावल चट कर गई। पति ने मिट्टी की सास और सच्ची बहू दोनों को घर से निकाल दिया।
दरअसल होता यह कि वह दोनों वक्त सास के आगे थाली रखती और एक-एक कर वह सब परोसतीं जो घर में बना होता। खाना परोस कर जैसे ही वह रसोई में जाती। पडोासन दीवार में बने सूराख से दबे पांव आती और थाली का खाना लेकर उसी रास्ते से वापस चली जाती। बेचारी बहू सोचती कि उसकी सास पहले की तरह अब भी खाना खाती है। इस छोटी सी नादानी ने उसे घर से बेघर कर दिया।
राजा का भाग्य
एक दिन राजा विक्रमादित्य के दरबार में एक पंडित आया। उसने यह घोषणा की कि यदि राजा उसके कहने पर एक महल का निर्माण करेगा तो उसका यश चारो ओर फैलेगा राजा ने पंडित से शुभ मुहूर्त पूछा पंडित ने कहा कि तुला लग्न में यह महल तैयार हो जाना चाहिए। तुला लग्न मे बने महल का कोष कभी खत्म नही होगा वहंा से लक्ष्मी कभी नही जाएगी यह सुनकर राजा ने तुरंत महामंत्री को बुलाकर महल को तुला लग्न तक तैयार होने का समय दिया। शुभ लग्न में महल की नींव रखी गई तथा बडे से बडा कारीगर महल बनवाने के लिये बुलाया गया। महल में जगह-जगह चांदी,सोने,हीरे,नीलम की जडाई हुई।एक दिन तुला लग्न पर महल बनकर तैयार हो गया। राजा पंडित के साथ महल देखने पहुंचे महल ऐसा कि किसी ने ना सुना ना देखा। पंडित के तो अचंभे का कोई ठिकाना नही रहा वह दबी आवाज में बोला यदि यह महल मुझे मिल जाए तो मै तो इन्द्र जैसा भाग्यवान बन जाऊं। पंडित जी की ऐसी अभिलाषा सुनकर महारानी व राजा कैसे उसे ठुकरा सकते थे। उन्होने उसी समय वह महल दान मे पंडित जी को दे दिया।
महल पाकर पंडितजी की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। मानो कि उन्हें इन्द्रासन मिल गया। वे परिवार समेत महल मे आ गये। एक पहर बीत जाने पर लक्ष्मी पंडित के सामने उपस्थित हुई और बोली-बेटा आज्ञा दो मै तेरा घर-बार और भंडार भर दू। अचानक घटी घटना से पंडित इतना घबरा गया कि उससे बोलते ना बना। नतीजा यह हुआ कि लक्ष्मी लौट गई। दो पहर बीत जाने पर लक्ष्मी फिर प्रकट हुई और बोली कि तुम्हें क्या चाहिए अब पंडित और डर गया उसका सारा सपना हिरन हो गया और किसी तरह रात बिताई। सुबह होते ही उसने डरते हुए महाराज से कहा कि दान में मिले इस महल मे पता नही कि भूत है या पिशाच। सारी रात उसने सोने ना दिया म तो बीवी बच्चो समेत बच गया मुझे क्षमा करे मै इस महल मे ना रहूंगा मैं तो बीवी बच्चो सहित भिक्षा मांगकर रह लूंगा मुझसे इस महल मे ना रहा जाएगा।
राजा को भोले पंडित की बातो पर दया आ गई। उसने पंडित को महल की जो कीमत थी वह देकर उसे विदा किया। और शुभ मुहूर्त निकलवाकर महल मे प्रवेश किया।
रात को राजा पलंग पर लेटे हुए कुछ सोच रहे थे कि अचानक लक्ष्मी प्रकट हुई और बोली राजा आप धन्य है आपका धर्म भी धन्य है यह कहकर लक्ष्मी अंतर्धान हो गई। पहर रात बीत जाने पर वह फिर प्रकट हुई और बोली - मै कहंा बरसू? राजा ने कहा यदि बरसना है मेरे पलंग को छोडकर कही भी बरसो उस रात राजा के रातधानी मे सोने की ईंटे बरसी। राजा ने यह मुनादी करवा दी कि जिसके घर जितना सोना है वह उसी का है और किसी को सोना उठाने से मना नही करेगा इस तरह वह नादान पंडित जो अपने ही मुहूर्त को समझ ना पाया वह भी खुशी से सोना समेटने लगौ
गंधर्वसेन
एक दिन नवाब के दरबार मे वजीर जोर-जोर से रोता हुआ आया। नवाब ने उससे वजह पूछी। वजीर बोला, गंधर्वसेन मर गया यह सुनकर नवाब भी रोने लगे। ओह, गंधर्वसेन मर गया!मरहूम के लिये इकतालीस दिन का फरमान जारी हुआ। नवाब हरम मे गया तो उसके आंसू थमने का नाम नही ले रहे थे। बेगमों ने रोने की वजह पूछी। नवाब ने रोते हुए बताया कि गंधर्वसेन मर गया। बेगमें छाती पिटने लगी और रो-रो कर मातम मनाने लगी। पूरे जनाने मे मातम का आलम था।
बडी बेगम की नौकरानी को यह गुलगपाडा समझ ना आया। उसने बडी बेगम से पूछ गंधर्वसेन कौन था? सब उसके लिये क्यो रो रहे है? क्या वह नवाब का कोई रिश्तेदार है? अरे यह तो पता नही बेगम भागी - भागी नवाब के पास गई वह नवाब से बोली-गंधर्वसेन कौन था जिसकी मौत पर हम सब रो रहे है? नवाब भागा -भागा दरबार मे गया और वजीर से पूछा यह गंधर्वसेन कौन था जिसकी मौत का हम मातम मना रहे है। वजीर बोला माफ करे हुजूर,यह तो मै भी नही जानता। मैने तो कोतवाल को रोते देखा तो उसका साथ देने के लिये मै भी रोने लगा। नवाब बरस पडा जाओ पताकर लाओ कि गंधर्वसेन कौन था। वजीर तेजी से भागता हुआ कोतवाल के पास गया और उससे पूछा कि यह गंधर्वसेन कौन था। कोतवाल ने बताया कि वह भी नही जानता कि गंधर्वसेन कौन था। कोतवाल ने बताया कि मै तो जमादार को रोते देखकर रोने लगा। वजीर और कोतवाल दोनो ही जमादार से पूछा कि तुम क्यो रो रहे थे? जमादार बोला कि हुजूर मै क्या जानू कि गंधर्वसेन कौन था मैने अपनी बीवी को गंधर्वसेन की मौत पर रोते देखा तो उसके दुख से मेरा दिल पसीज गया किसी को हंसते और रोते देखकर हमें भी छूत लग जाती है। हम भी हंसते या रोने लगते है। मै भी बीवी को रोते देख रोने लगा। सब मिलकर जमादारनी के पास गये और कहने लगे कि वह क्यो रो रही थी? वह बोली मैने तो तालाब पर धोबिन को रोते देखा इसलिये रोने लगी। वह सब धोबिन के पास गये और बोले कि तुम सुबह क्यो रो रही थी? गंधर्वसेन तुम्हारा क्या लगता था? यह सुनकर धोबिन फिर रो पडी और बोली कि मेरा तो कलेजा फटा जा रहा है। गंधर्वसेन तो मेरा पालतू गधा था। उसे मै अपने बेटे से भी ज्यादा चाहती थी। और फिर वह फूट-फूट कर रोने लगी। चारो बहुत शर्मिदा हुए और नवाब को हकीकत बताई सब यह सुनकर खूब हंसे।
फुलकुमारी
एक थी राजकुमारी उसका नाम था फूलकुमारी वह बहुत सुंदर थी जब वह हंसती तो सभी फूल,पौधे,पशु-पक्षी सब हंसते एक बार जब वह हंस रही थी तो राजा वहंा से निकले और बोले बेटी तुम इतना हंसती क्यों हो यह सुनकर फूलकुमारी रोने लगी अब वह ना तो बोलती ना हंसती राजा ने उसे खूब समझाया पर वह ना मानी उसे ऐसा देख राजा-रानी भी उदास रहने लगे। एक दिन एक आदमी राजा के पास आया और कहने लगा कि राजा सभी पौधे मुरझा गये है थोडी देर में एक आदमी और आया कि राजा सभी पशु-पक्षी उदास हो गये है। राजा ने सोचा कि इसी तरह यदि फूलकुमारी नही हंसी तो प्रजा मे अकाल पड जाएगा। राजा ने यह घोषणा करवा दी कि जो कोई राजकुमारी को हंसायेगा उसे खूब सारा इनाम दिया जाएगा। अब तो लोगो की भीड लग गई। एक भालू वाला आया वह भालू को नचाने लगा भालू ठुमक-ठुमक कर नाचने लगा सभी उसे देखकर हंसने लगे पर फुलकुमारी नही हंसी। फिर एक मदारी आया वह बंदर को नचाने लगा वह बंदर कभी नाचता कभी अपनी रूठी बंदरिया को मनाता उसे देखकर भी सब हंसे पर राजकुमारी ना हंसी। इस तरह कई लोग आये पर फुलकुमारी ना हंसी। एक दिन बडा सुंदर नौजवान राजा के पास आया उसके पास एक बकरा था। वह नकली दाढी-मूंछ लगाकर आया वह अपने करतब दिखाने लगा वह बकरे पर बैठ गया जैसे ही वह बकरे पर बैठा उसकी नकली दाढी गिर पडी जैसे ही उसने दाढी उठाई उसकी टोपी गिर गई, टोपी उठाई तो उसकी मूंछ गिर गई जैसे ही मूंछ उठाने लगा तो उसका बडा सा पेट गिर गया यह देखकर फुलकुमारी तेज-तेज हंसने लगी। उसे देख सब पशु-पौधे सब हंसने लगे। राजा भी खूब खुश हुआ उसने उस नौजवान को गले लगाया और राजकुमारी का विवाह उसी के साथ करवा कर सारा राजपाट उसी को सौप दिया और खुशी-खुशी सब रहने लगे।
दो पत्नियां
एक अधेड आदमी अपनी पत्नी से खूश नही था इसलिए वह एक और औरत ले आया। दोनो पत्नियां एक-दूसरे को फूटी आंख नही देख सकती थी। ये हमेशा झगडती रहती थी। इससे परेशान होकर उनके पति ने शहर के अलग-अलग मोहल्लो में दो शानदार मकान बनवाए।
बडी तकरार के बाद दोनो पत्नियां इस बात पर राजी हुई कि पति बारी-बारी से एक-एक दिन उनके साथ रहेगा। जब पति छोटी पत्नी के साथ रहता तो वह पति के सर से जुंए निकालने के बहाने उसके सारे सफेद बाल उखाड देती। वह चाहती थी कि उसका पति जवान दिखे और उसके सर पर एक भी सफेद बाल न हो। वह आदमी अपनी बडी उम्रदराज पत्नी के पास रूकता तो वह उसके काले-बाल उखाड देती। बडी पत्नी को यह अच्छा नही लगता था कि उसका पति उससे छोटा दिखे। नतीजा यह हुआ कि कुछ समय बाद उस आदमी के सर पर एक भी बाल नही बचा। वह गंजा था। लोग उसके लिए कहने लगे- दो पत्नियो का भरतार बिन मारे मरता करतार।
कर भला हो भला
एक बच्चा तीन दिन से भूखा शहर की गलियो में घूम रहा था पर कोई भी उस पर रहम नही कर रहा था। तभी उसने एक घर का दरवाजा खटखटाया एक औरत ने दरवाजा खोला उस बच्चे ने शर्म के मारे सिर्फ पानी ही मांग लिया वह औरत अंदर गई और गर्म दूध का गिलास लेकर आई और प्यार से उस बच्चे को दूध पिलाया । दूध पीकर बच्चा खुश होकर वहॅा से चला गया । कुछ सालो बाद उस औरत को स्तन कैसर हो गया सभी डाक्टरों सें उस को निराशा हाथ लगी। फिर वह एक सबसे जाने माने डॉक्टर के पास गई उस डॉक्टर ने तुरंत उसे भर्ती कर लिया तथा सभी आवश्यक टेस्ट कर लिये और कुछ दिनो में उसका ऑपरेशन कर दिया तथा अच्छे से उसकी दवा पानी की तथा उसके पूरी तरह से स्वस्थ होने पर उसे एक अच्छे से रूम में रखा। इतने दिन तक तो वह औरत कुछ ना बोली पर एक दिन उसने हिचकते हुए कहा कि डॅाक्टर साहब आपने इतने दिन ना तो कोई फीस ली ना ही कुछ कहा आपका बिल कितना हुआ। डॉक्टर बोला- आपको क्या वह दूध का गिलास याद है तब आपने क्या मुझसे उस दूध की गिलास का कोई मूल्य लिया था? तो मै आपसे क्या कोई मूल्य ले सकता ह?
दो बैलो की कथा
हीरा और मोती दो बैल थे। वे देखने में बहुत सुंदर और ताकतवर थे। उनका मालिक जिसका नाम गया था। उनसे बहुत प्यार करता था। वह उन्हें प्यार से नहलाता तथा प्यार से खाना खिलाता था। वे दोनो भी मालिक से बहुत प्यार करते थे। एक दिन गया का साला बिरजू गया के पास आया और कहने लगा कि भाई मैने भी खेती करनी शुरू कर दी है अगर तुम थोडे दिन के लिये अपने बैल मुझे दे दो तो मैं तुम्हारा एहसान मानूगां। गया नें अपनी पत्नी से विचार विमर्श कर उसे बैल दे दिये। हीरा और मोती दोनो ही मालिक को छोडना नही चाहते थे पर मालिक ने उनको समझा बुझा कर भेज दिया। रास्ते में दोनो बहुत थक गये पर बिरजू ने उन्हें ना तो चारा खिलाया ना ही कही आराम करने दिया। दोनो बैलो को बहुत गुस्सा आया वह कभी इधर भागते तो कभी उधर दोनो ने उसे खूब थकाया। बिरजू को गुस्सा आ गया उसने घर आकर दोनो को मोटे-मोटे रस्से से बांध दिया और उनके सामने रूखा सूखा चारा डाल दिया। दोनो को यह देखकर बहुत दुख हुआ वह अपने मालिक को याद करने लगा। उन्होने उस दिन कुछ भी ना खाया। रात को जब उन्हे कुछ ना खाने दिया तो वह जोर जोर से अपनी रस्सी खींचने लगे और शोर करने लगे बिरजू ने आकर उन्हें डंडे से खूब पीटा। दोनो के आंखो से आसूं आने लगे। थोडी देर बाद बिरजू की छोटी बेटी उनके पास आई और उन पर हाथ फेरने लगी। फिर उसने उनको छुपकर रोटी खिलाई। ऐसा कुछ दिन चलता रहा एक दिन बिरजू ने अपनी बेटी को देख लिया उसने अपनी बेटी को खूब मारा। यह देखकर हीरा मोती को बहुत दुख हुआ। अब उन्होने खाना पीना छोड दिया। बिरजू उन दोनो से खूब काम करवाता और खाने को रूखा सूखा डाल देता पर वह कुछ ना खाते। अब वह बहुत दुर्बल हो गये। एक दिन वह मौका पाकर वहां से दौड पडे वह खूब खुश हुए वह भागकर एक खेत में घुस गये और खूब मस्ती की उन्हें यह भी पता ना चला कि पीछे से खेत का मालिक आ गया। उसने हीरा और मोती को खूब पीटा और कांजीहाऊस मे बंद करवा दिया। वहां और भी जानवर बंद थे। अब हीरा और मोती परेशान हो गये। वहां सभी जानवरो की हालत बहुत खराब थी। तीन दिन बीत गये ना तो कोई उन्हें लेने आया ना ही किसी ने खाना दिया। अचानक हीरा और मोती को कहां से इतनी ताकत आई कि उन्होंने दरवाजे पर जोर जोर से सींग मारने लगे। उन्हें देख अन्य जानवरो को भी ताकत आ गई और वह भी दरवाजा तोडने लगे। दरवाजा अचानक खुल गया सब भागने लगे हीरा मोती भी भागने लगे अचानक उन्हें यह रास्ता जाना पहचाना लगा। वह पहुचते-२ अपने मालिक के पास पहुच गये। गया ने भी दौड कर उन्हें गले लगा लिया। वह रोने लगे। गया ने कहा अब वह इन्हें जाने ना देगा। दोनो बहुत खुश हुए।
शेर और चूहा
एक दिन एक जगंल में एक शेर सो रहा था। वह बहुत गहरी नींद में सो रहा था। तभी एक छोटा सा चूहा वहां से निकला। वह शेर की मुंछो से खेलने लगा। अचानक शेर की नींद टूट गई वह गुस्से से लाल पीला होने लगा। वह जोर से दहाडकर बोला कौन है जिसने मेरी नींद खराब की? मैं उसका खून पी जाऊंगा। चूहा बहुत डर गया वह हाथ जोडकर कहने लगा - सरकार माफ करे मैं गलती से आपकी मुछो से उलझ गया। मुझे माफ करे। शेर ने कहा नही अब तो मै तुम्हे सजा दूगां तुम्हे खा जाऊगां। चूहा बोला हुजूर नही यदि आप मुझे माफ कर दे तो मैं वही करूगां जो आप कहेगे। शेर बोला तुम मेरे क्या काम आओगे। पर मैं तुम्हें छोडता हूं अब यदि तुम कही दिखाई दोगे तो मैं तुम्हें छोडूंगा नही। चूहा वहंा से भाग खडा हुआ।
एक दिन उस जंगल में एक बहेलिया आ गया और उसने उस शेर को पकड लिया और एक जाल में पकड कर बांध दिया। शेर जोर जोर से मदद के लिये दहाडने लगा। पर किसी ने उसकी मदद ना की। तभी वह चूहा दौड कर उसके पास आया और तेजी से जाल कुतरने लगा। उसने सारा जाल कुतर दिया और शेर आजाद हो गया। आजाद होते ही शेर ने उसे अपने हाथ मे लेकर धन्यवाद कहने लगा। वह बोला कि यदि आज तुम ना होते तो मै मारा जाता पर तुमने मेरी जान बचाई मै गलत था तुम छोटे नही बहुत बडे हो। अब तुम मेरी मुंछो से खेल सकते हो। शेर और चूहा अब खेलने लगे।
बस पॉच मिनट
गोपी दस वर्ष का बालक था वह पांचवी कक्षा मे पढता था। वह बहुत आलसी था। वह हर काम में कहता बस अभी पॉच मिनट मे करता हूं भूल जाता जब उसकी मंा कहती गोपी सात बज गये उठ जाओ तो गोपी कहता अभी पांच मिनट में उठता हूं और फिर सो जाता मां कहती गोपी नाश्ता कर लो तो उस समय वह पाठ पढता। वह रोज स्कूल लेट पहुंचता तो अध्यापिका उसे डांटती पर उसे कोई फर्क ना पडता। एक बार स्कूल में अध्यापिका ने सब बच्चो से कहा कि कल स्कूल मे जादू का खेल दिखाया जाएगा सब बच्चे कल समय पर स्कूल पहुंच जाना। गोपी ने कभी जादू का खेल ना देखा था इसलिये वह बहुत खुश हुआ। अगले दिन उसकी मां ने गोपी को उठाया कि बेटा उठ जाओ स्कूल जाना है गोपी ने कहा कि अभी पांच मिनट में उठता हूं जब वह उठा तो स्कूल जाने का समय हो गया अचानक उसे जादू की याद आई वह जल्दी से हाथ मुंह धोकर बिना नाश्ते किये भागा-भागा स्कूल गया पर जब तक जादू का खेल समाप्त हो गया था। सब बच्चे जादू की ही बात कर रहे थे सब बच्चे बहुत खुश थे पर गोपी बहुत दुखी था।
रूपा
रूपा कक्षा में आई नई छात्रा थी। वह दिखने मे बहुत सुंदर थी। पर वह संकोची स्वभाव की थी वह किसी से बात नही करती थी। जब कोई उससे बाते करता तो वह केवल हां-हूं में सवाल जवाब करती। कक्षा में सब उससे अप्रसन्न रहते सब उसे घमंडी समझते अतः कोई उससे बात न करता न ही कोई उसे अपने साथ खिलाता। कुछ दिन बाद कक्षा में अध्यापिका ने घोषणा की कि कल सब को पिकनिक पर ले जाया जायेगा। सब बच्चे बहुत खुश हुए दूसरे दिन सब बच्चे बस मे पिकनिक के लिये रवाना हो गये। सब हंसी ठिठोली कर रहे थे पर रूपा इन सबसे अलग चुपचाप बैठी थी। बस एक सुंदर बगीचे के सामने रूकी वहां खूब हरे हरे पौधे व रंग रंगीले फूल थे। सब बच्चे अपनी अलग अलग टोलिया बनाकर खेलने लगे। रूपा भी एक पेंड के नीचे बैठ कर इन सबको देखने लगी। अचानक छपाक की आवाज आने पर रूपा तेजी से उस दिशा की ओर दौडी जिधर से आवाज आ रही थी उसने देखा कि उसकी ही कक्षा की सहपाठी मीरा दलदल वाले तालाब में गिर पडी है। उसने जल्दी से वहां पडी लताओ की रस्सी बनाई और मीरा से उसको पकडने के लिये कहने लगी मीरा ने वह रस्सी पकड ली और साथ साथ चिल्लाने भी लगी उनका शोर सुनकर सब दौडे दौडे आये जब तक मीरा काफी ऊपर तक आ गई इधर रूपा ने अपनी सारी ताकत लगी दी थी उसके कपडे जगह जगह से फट गये थे तथा हाथ जगह जगह से छिल गये थे। सब ने जोर लगाकर मीरा को खींच लिया मीरा ने रूपा को धन्यवाद किया तथा अध्यापिका ने भी रूपा की तारीफ की उन्होने कहा यदि आज रूपा ना होती तो मीरा का बच पाना मुश्किल था सब के सब रूपा की तारीफ कर रहे थे अब रूपा सब की सहेली बन गई थी।
अवसर
एक बार एक कलाकार ने अपने चित्रो की प्रदर्शनी लगाई । उसे देखने के लिए नगर ंके सैकडो धनवान व्यक्ति भी पहुंचे। एक लडकी भी इस प्रदर्शनी को देखने आई। उसने देखा, सब चित्रो के अंत में एक ऐसे मनुष्य का भी चित्र टंगा हैं, जिसके मुंह को बालो से ढंक दिया हैं और जिसके पैरो पर पंख लगे थे । चित्र के नीचे बडे अक्षरो में लिखा था- ’अवसर।‘
चित्र कुछ भद्दा सा था, इसलिए लोग उस पर उपेक्षित दृष्टि डालते और आगे बढ जाते । लडकी का ध्यान प्रारंभ से ही इस चित्र की ओर था। जब वह उसके पास पहुंची, तो उसने पूछ ही लिया - ’श्रीमानजी।‘ यह चित्र किसका हैं?‘
’अवसर का‘ -
कलाकार ने संक्षिप्त सा उतर दिया । ’आपने इसका मुंह क्यों ढक दिया हैं ?‘ लडकी ने दोबारा प्रश्न किया। इस बार कलाकार ने विस्तार से बताया - ’बच्ची ! प्रदर्शनी की तरह अवसर हर मनुष्य ंके जीवन में आता हैं और उसे आगे बढने की प्रेरणा देता हैं, किंतु साधारण मनुष्य उसे पहचानते तक नही, इसलिए वे जहां थे वही पडे रह जाते हैं, पर जो अवसर को पहचान लेता हैं, वही जीवन में कछ काम कर जाता हैं।‘
’और इसके पैरो में पखो का क्या रहस्य हैं?‘ लडकी ने उत्सुकता से पूछा । कलाकार बोला- ’यह जो अवसर आज चला गया, वह फिर कल कभी नही आता?‘ लडकी इस मर्म को समझ गई और उसी क्षण से अपनी उन्नति के लिए जुट गई।
पहचान
बस स्टॉप पर खडे वे बुजुर्ग बडी जल्दी में थे। उनकी उम्र 70 वर्ष से ज्यादा ही लग रही थी। उनकी एक बस छूट चुकी थी और दूसरी का वे बडी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। सुबह का वक्त था। बस स्टॉप पर ज्यादा भीड भी नही थी, इसलिए लोगो की निगाहे बरबस ही उस बेचैन बुजुर्ग की ओर उठ जाती।
आखिर एक नौजवान ने पूछ ही लिया कि दादा, आप बहुत जल्दी मे दिख रहे हो। क्या कोई बहुत जरूरी काम हैं। उस नौजवान का उतर सुनकर वृद्व ने ठंडी सांस ली और कहां, ’हां, मुझे नौ बजे तक अस्पताल पहुंचना हैं । वहां मेरी पत्नी भर्ती हैं । मुझे उसके साथ नाश्ता करना हैं। मैं रोज उसी ंके साथ नाश्ता करता हूं।‘
स्वाभाविक रूप से नौजवान का अगला प्रश्न यही था कि उन्हे क्या हो गया हैं। बुजुर्ग ने बताया,’उन्हे अलजाइमर्स हैं। यह एक ऐसी बीमारी होती हैं, जिसमें धीरे धीरे व्यक्ति की याददाश्त चली जाती है।‘
बीमारी ंके बारे में युवक ने अफसोस जताते हुए कहा कि, ’ओह! तब तो आपको जल्द से जल्द अस्पताल पहुंचना चाहिए, वरना उन्हे फिक्र होगी।‘
बुजुर्ग बोले, ’नही, उसे कोई चिंता नही होगी। उसकी याददाश्त जा चुकी हैं और यहां तक कि पिछले पांच साल से वह मुझे भी नही पहचान रही हैं।‘
यह सुनकर युवक हैरानी से बोला, ’और फिर आप हर सुबह उनसे मिलने जाते हैं, उनके साथ नाश्ता करते हैं।‘
वृद्व ने एक मीठी मुस्कान के साथ गंभीर स्वर में जबाब दिया,’बेटे, भले ही वह मुझे नही पहचान पाती हैं, पर मैं तो उसे उब भी पहचान पाता हूं।‘
सच्चा वारिस
एक गांव में एक जमींदार था। आपार धन-दौलत और हजारों एकड भूमि उसके पास थी। उसके तीन पुत्र थे। एक दिन जब सुबह उठकर उसने शीशे में अपना चेहरा देखा, तो सफेद बाल देख कर चिंता में पड गया। उसे चिंता सताने लगी कि उसके बाद वह अपनी दौलत का वारिस किसे बनाए। उसने पत्नी से अपनी बात कही। उसकी पत्नी बहुत चतुर थी।
उसने कहा,’आज से छह महीने बाद वह यह बताएगी कि उसका सच्चा वारिस कौन है ?‘
जमींदार निश्चित होकर व्यापार के लिए शहर चला गया। अगले दिन जमींदार का पत्नी ने अपने तीनों बेटों को बुलाकर कहा-’देखो, मैं कुछ दिन के लिए तुम्हारे नाना के घर जा रही हूं। तुम्हारे पिता व्यापार के लिए शहर गए है। उन्हें भी आने में कुछ दिन लगेगें, तब तक तुम्हें मेरी एक चीज संभालकर रखनी होगी।‘
’कहिए, माताजी ! हमारे लिए क्या आज्ञा है। हमें कौन-सी वस्तु संभालकर रखनी है।‘
उसने हर एक पुत्र को दो-दो सेर बीज संभालकर रखने को देते हुए कहा-’बेटा, ये बीज ह। इन्हें संभालकर रखना।‘
तीनों ने अपनी मां से उन्हें सुरक्षित रखने की बात कही। मां निश्चिंत होकर अपनी मां के घर चली गई।
बडे भाई ने बीजों को बेशकीमती समझकर तिजोरी में रख दिया और आश्वस्त हो गया
मझले ने सोचा यदि बीज अलमारी में रखे, तो सड जाएंगे अतः उसने बाजार में बेच दिए। सोचा मां के आने पर पुनः खरीद कर दे दूंगा।
सबसे छोटा भाई बुद्धिमान था। उसने सोचा छह महीने में तो इन्हें बोकर नई फसल, नए बीज प्राप्त किए जा सकते है अतः उसने हल चलवाया और खेतों में बो दिया।
छह महीने बाद जमींदार की पत्नी लौटी और उसने तीनों से अपने द्वारा दिए बीज वापस मांगे। बडा तुरंत गया और तिजोरी खोली। सडे बीजो की दुर्गध से उसका सिर चकरा गया। वह निराश सिर झुकाए मां के पास आकर बोला- ’मां, मैं बहुत शर्मिदा हूं, वे बीज तो सड गए है।‘
मझला भाई बाजार गया और तीन सेर बीज लेकर आया और बोला ’लीजिए माताजी, आपने दो सेर बीज दिए थे, मैं तीन सेर वापस दे रहा हूं।‘
’और तुम्हें जा बीज दिए थे, वे कहां है ?‘ मां ने तीसरे बेटे से पूछा।
उसने नम्रता भरे स्वर में कहा- ’मां, उसके लिए तो आपको खेतो में चलना होगा। मैंने उन्हें खेतों म बो दिया है। फसल खेत में लहलहा रही है। कुछ ही दिनों बाद पककर अनाज तैयार होगा और में आफ बीज लौटा पांऊगा।‘ मां के चेहरे पर मुस्कान आ गई।
अगले दिन जमींदार भी काफी धन कमाकर लौट आया। उसकी पत्नी ने उससे कहा, ’आपने मुझसे अपना सच्चा वारिस ढूंढने के लिए कहा था।‘
’तो क्या तुम्हें वारिस मिला।‘
’हां।‘
’कौन है वह?‘
’वह है आपका छोटा बेटा।‘ और उसने पूरी कथा सेना दी। जमींदार बहुत खुश हुआ और बोला, ’परिश्रम, बुद्धि तथा दूरदृष्टि ही सम्पति को बढाती है। अपने पुश्तैनी कारोबार को सच्चा वारिस ही बढाता है।‘ और उसने अपने छोटे बेटे को सारे व्यापार का भार सौंप दिया और स्वयं अपनी पत्नी के साथ पर्यटन पर निकल गया।
खामोशी
कहते है कभी पशु-पक्षी भी बोलते थे। मनुष्य की जबान में बातें करते थे। अपने सुख-दुःख भी बांटते थे। उन्हीं दिनों का एक किस्सा है।
एक था किसान। वह बडा मेहनतकश था। परिवार में पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चे थे। किसान-परिवार आराम से अपने दिन बिता रहा था। पशु-पक्षी भी उसके परिवार का हिस्सा थे। इस परिवार के सदस्य थे- कुत्ता, तोता, गाय और दो बैल। शाम को किसान चौपाल पर गांव के अन्य बच्चों के साथ धमाचौकडी मचाते। पत्नी अन्य स्त्रियों के साथ बैठकर गप-शप करती। और किसान के ये पालतू जीव भी बैठकर बतियाते थे। उनकी बातचीत थे। उनकी बातचीत का मुख्य मुद्धा पा्रयः किसान ही रहता। वे सभी उसकी प्रशंसा में ही बातें करते। ’भई, बडा भला है हमारा मालिक।‘ ’हमारा बडा खयाल रखता है। प्यार से रखता है हमें।‘ तोता कहता। गाय कहती। कुत्ता भी मालिक की प्रशंसा में दुम हिलाता। बैल कहते, ’सबको ऐसा ही मालिक देना भोले शंकर !‘
किसान सामाजिक प्राणी भी था। इधर खेत में बहुत काम बाकी था उधर उसे दूसरे गांव में अपने बीमार चाचा को देखने जाना था। सो उसने तय किया दो दिन का काम एक ही दिन में निपट जाए तो अच्छा। सुबह हुई। किसान ने बैल खोले और चल दिया खेत पर, जोत दिया उन्हें। बेल खुशी-खुशी खेत जोतने लगे।
उस दिन दोपहर का सूरज भी पता नहीं किस बात पर गुस्से में था। उसने आग बरसाना शुरू कर दिया। बैलों का हलब सूख गया। एक बैल बोला,’मालिक, प्यास लगी है। दूसरे ने समर्थन किया,’हां मालिक, पानी पिला दो।‘
’बस थोडी देर में। एक हलाई पूरी हो जाए।‘ किसान ने प्यार से जवाब दिया।
बैल मान गए। वे अपने काम में लगे रहे। काफी देर हो गई। उन्होंने फिर अनुनय की, ’मालिक पानी पिला दो। बहुत तेज प्यास लगी है।‘
’हां हां, बस जरा देर की ही बात है। फिर पी लेना।‘ बेल चुप हो गा। थोडा समय और बीता।
एक बैल ने कहा, ’भाई, आज मालिक को भी क्या सूझी है, जो सुबह से हमें जोत रखा है।‘
’मैं भी समझ नहीं पा रहा हूं।‘ दूसरे ने कहा, ’एक बार और कहते है।‘ इस बार दोनों एक साथ बोले, ’मालिक, हमें बहुत तेज प्यास लगी है। पानी पिला दो फिर चाहे देर शाम तक काम में जोते रखना।‘
उस दिन शायद किसान भी जिद ठाने हुए था। बोला, ’देखो, अब जरा देर और रूक जाओ। फिर हम तीनों पानी पिएंगे, भोजन भी करेंगे और आराम भी।‘
बैल फिर चुपचाप काम में लग गए। प्यास की मार और सूरज देवता का क्रोध सहते रहे। और फिर जब उनका प्यास से बुरा हाल हो गया तो बोले। लेकिन इस बार पानी और प्यास का जिक्र तक नहीं किया। बस यही कहा, ’लो मालिक, अब हम खामोश हो जाते है।
हम तुम्हारे सेवक है। हमें तुम्हारी सेवा ही करनी है। और जो सेवक होता है, वह खुद अपनी इच्छा नहीं बता पाता। उसका काम है मालिक की आज्ञा का पालन करना। और वह हम आखिरी सांस तक करते रहेंगे।‘
कहते है, बैल तभी से चुप है। आज भी खामोशी से मेहनत करते है। मालिक की इच्छा हो तेा पानी मिले। मालिक का रहम हो तो भोजन मिले। मालिक की दया-दृष्टि हो तो थोडा विश्राम मिले। वरना जुते रहो। जुटे रहो। जुटे रहो यही उनके जीवन का मूलमंत्र है।
एक था मेघा
यह किस्सा ५०० वर्ष पहले का हैं। मेघा ढोर चराया करता था। पशुओ के साथ मेघा कोसो तक फैले सपाट रेगिस्तान मे भोर में ही निकल लेता। मेघा दिनभर का पानी अपने साथ एक कुपडी, मिटटी की चपटी सुराही में ले जाता। शाम वापस लौटता। एक दिन कुपडी में थोडा सा पानी बच गया। मेघा को न जाने क्या सूझी कि उसने एक छोटा सा गढढा किया, उसमें कुपडी का पानी डाला और आक के पतों से अच्छी तरह ढक दिया। चराई का काम। आज यहां, कल कही ओर। मेघा दो दिन तक उस जगह पर नही जा सका और फिर वहां तीसरे दिन पहुंच पाया। उत्सुक हाथो ने आक के पते धीरे से हटाएं। गडढे में पानी तो नही था पर ठंडी हवा आई। मेघा के मुंह से शब्द निकला- ‘भाप’। मेघा ने सोचा इतनी गर्मी में थोडे से पानी की नमी बची रह सकती हैं, तो फिर यहां तालाब भी बन सकता है।
मेघा ने अकेले ही तालाब बनाना शुरू कर दिया। अब वह रोज अपने साथ कुदाल-तगाडी भी लाता। दिनभर अकेले मिटटी खोदता और पाल पर डालता। गाएं भी वही आसपास चरती रहती थी। भीम जैसी शक्ति नही थी, लेकिन भीम की शक्ति जैसा संकल्प था मेघा के पास। दो वर्ष तक वह अकेले ही लगा रहा। सपाट रेगिस्तान मे पाल का विशाल घेरा अब दूर से ही हर दिखने लगा था । पाल की खबर गांव को भी लगी।
अब रोज सुबह गांव से बच्चे और दूसरे लोग भी उसके साथ आने लगे। सब मिलकर काम करते। १२ साल हो गए थे,अब भी विशाल तालाब पर काम चल रहा था । लेकिन मेघा की उमर पूरी हो गई। पत्नी सती नही हुई और अब तो तालाब पर मेघा के बदले वह काम करने जाने लगी और फिर छह महीने में तालाब का काम पूरा हो गया। तालाब भाप के कारण शुरू हुआ था, इसलिए उस जगह का नाम भाप पडा जो बाद में बिगडकर ’बाप‘ हो गया। चरवाहे मेघा को समाज ने मेघोजी के नाम से याद रखा और तालाब की पाल पर ही इनकी सुंदर छतरी और उनकी पत्नी की स्मृति में एक देवली बना दी गई। यह जगह अब बीकानेर-जैसलमेर के रास्ते में पडने वाला छोटा से कस्बे बाप के नाम से जाना जाता है।
चार औरते, चार आदमी
एक आदमी जंगल में जा रहा था । उसे चार स्त्रियां मिली । उसने पहली से पूछा - बहन तुम्हारा नाम क्या हैं ?
उसने कहा बुद्वि कहां रहती हो? मनुष्य के दिमाग में।
दूसरी स्त्री से पूछा - बहन तुम्हारा नाम क्या हैं ? लज्जा ।
तुम कहां रहती हो ? आंख में
तीसरी से पूछा - तुम्हारा क्या नाम हैं ? हिम्मत कहां रहती हैं ? दिल में ।
चौथी से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ? तंदुरूस्ती
कहां रहती हैं ? पेट में। वह आदमी थोडा आगे बढा। उसे चार पुरूष मिले।
उसने पहले पुरूष से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ? क्रोध
कहां रहतें हो ? दिमाग में, दिमाग में तो बुद्वि रहती हैं, तुम कैसे रहते हो? जब मैं वहां रहात हुं तो हूं बुद्वि वहां से विदा हो जाती हैं। दूसरे पुरूष से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ? उसने कहां - लोभ कहां रहते हो? आंख में। आंख में तो लज्जा रहती हैं तुम कैसे रहते हो। जब मैं आता हूं तो लज्जा वहां से प्रस्थान कर जाती हैं ।
तीसरें से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ? जबाब मिला भय। कहां रहते हो? दिल में तो हिम्मत रहती हैं तुम कैसे रहते हो?
जब मैं आता हूं तो हिम्मत वहां से नौ दो ग्यारह हो जाती हैं।
चौथे से पूछा - तुम्हारा नाम क्या हैं ? उसने कहा - रोग। कहां रहतें हो? पेट में। पेट में तो तंदरूस्ती रहती हैं, तुम कैसे रहते हो। जब मैं आता हूं तो तंदरूस्ती वहां से रवाना हो जाती हैं।
नया लुक
अपने रिटायरमेंट के पैसों से उसने शहर में तीन कमरो का एक छोटा सा मकान बनवाया था। दो कमरों में उसके बेटे बहू रहते थे। एक छोटा सा कमरा उसके पास था। उसे किताबे पढने का शौक था, इसलिए एक छोटी लाइब्रेरी भी कमरे में बना ली। पिछले चार महीने से वह अपने बेटे बहू के बुरे व्यवहार के कारण गांव के पुश्तैनी मकान में रह रहा था। इस दौरान उसके पास बेटे बहू के कई पत्र आ चुके थे। उनमें एक ही बात बार बार लिखी थी वह शहर का अपना कमरा अब अपने पोते को दे देवें। उसे पोते से प्यार था। वह अब कॉलेज में पढ रहा था। उसने भी लिख दिया था कि वह कमरा उसके पोते के लिए ही हैं।
आज वह शहर के मकान में आया तो स्तब्ध रह गया । उसका कमरा खाली किया जा रहा था। बेटे और बहू ने उसके आने का इंतजार भी नही किया था। सामान बिखरा पडा था। फर्श पर किताबे बिखरी थी। उन पर चिडिया के घोसले के तिनके और धूल जमा थी। उसकी पत्नी को चिडियो से बहुत प्यार था। उसके कमरे में दो घोंसले थे। जब चिडिया के अंडे देने का समय आता तो पत्नी एक जच्चा की तरह उसकी देखभाल करती थी। पत्नी की मृत्यु के बाद उसने भी पत्नी की याद में उन घोंसलों को हटाया नही था, लेकिन आज दोनो घोंसलें जमीन पर पडे थे। एक बिखरा हुआ, दूसरा साबुत। चिडिया चींचीं करती व्याकुल होकर कमरे के चक्कर काट रही थी ।
उसने साबुत घोसलें को उठाया और बाहर लॉन में एक पेड की टहनियो के कोटर में उसे ले जाकर रख दिया। फिर वह किताबों पर बिखरी धूल और तिनकों को साफ कर किताबों का गठ्ठर बनाने लगा। सामने दीवार पर लगे उसकी पत्नी के फोटो को हटाकर एक कने में डाल दिया था। उसके स्थान पर एक अभिनेत्री का अर्धनग्न फोटो लगा था। उससे रहा नही गया। उसने बहू से कहा, ’यह फोटो तुम्हे दीवार पर क्या तकलीफ दे रहा था?‘ बहू ने कहा-’बाबूजी हम कमरे को न्यू लुक देना चाहते हैं। मम्मी का फोटो ओल्ड कॉस्ट्यूम में हैं, मैच नही करता।‘ आगे बात करना व्यर्थ था। अंत में उसने अपनी पत्नी का फोटो को उठाया और चलने को हुआ तो बहू ने कहा ’बाबूजी देख लीजिए। आपका कुछ और तो नही बचा?‘ उसने भरी आंखो से कहा ’नही बहू अब मेरा यहां कुछ भी नही बचा।‘ इतना कहकर वह तेजी से कमरे से बाहर निकल गया।
लॉन में उसने एक दृष्टि पेड पर डाली । घोंसला वहां सुरक्षित था। उसके पास ही चिडिया शांति से बैठी थी। उसने मन ही मन कहा ’मेंरा घोंसला तो उजड गया लेकिन मुझे खुशी हैं कि समय पर आकर मैने तुम्हारा घोंसला बचा दिया।‘ टहनी पर बैठी चिडिया टुकुर टुकुर उसे जाते हुए निहारती रही।
इंद्रलोक की यात्रा
किसी जुलाहे ंके खेत में हर रात देवराज इंद्र का हाथी ऐरावत आता था। वह आसमान से धरती पर उतरता और रात भर उसके खेत मे चरता। अपने खेत की हालत देखकर जुलाहे ंके कलेजे पर सांप लोट जाता। उसने समझदारों से पूछा कि उसके खेत को कौन बरबाद करता है। लोगों ने कहा यह गांव की चक्कियों की करतूत हो सकती है। उसके पाट रात को तुम्हारे खेत में आते जाते होंगे। जुलाहे ने यह सुन गांव की तमाम चक्कियों ंके पाट सांकज से बांध दिए। फिर भी उसके खेत की बरबादी नहीं रूकी। उसने घर बिरादरी वालों से सलाह ली। सभी ने कहा- यह धान कूटने की ओखलियों का काम हो सकता है। गांव वालों ंके सो जाने ंके बाद गांव की ओखलियां चुपक से तुम्हारे खेत मे चरने जाती होंगी। उसने गांव की सारी ओखलियों को रस्सी से बांध दिया। पर वही ढाक ंके तीन पात!
एक रात वह अपने खेत में जाकर सो गया और इंतजार करने लगा। वह देखता है कि एक हाथी उडता हुआ आया और फसल चरने लगा। जब हाथी वापस उडने लगा तो उसने पूंछ पकड ली। जुलाहा उसके साथ स्वर्ग चला गया। वहां इंद्र का दरबार लगा था। अप्सराएं नाच-गा रही थी। किसी ने जुलाहे की ओर ध्यान नहीं दिया। भूख लगने पर वह देवताओं की रेसोई में गया और जमकर दिव्य भोग जीमे। अगली रात जब ऐरावत पृथ्वी पर जाने लगा, तो उसकी पूंछ से लटक कर जुलाहा वापस गांव आ गया।
जुलाहे ने घर-गांवों वालों और मित्रों को अपनी रोमांचक यात्रा ंके बारे में बताया। वह बोला-मृत्युलोक जगह पर रहने से क्या फायदा! च्लो, सब इंद्रलोक चले! स्ब राजी हो गए। फसल चट करके ऐरावत वापस उडने लगा। जुलाहे ने फिर उसकी पूंछ पकड ली औश्र उसकी पत्नी ने पति ंके पांव पकड लिए। इसी तरह बाकी लोग भी एक-दूसरे ंके पांव पकड कर लटक गए। ऐरावत ने इस मानव श्रृंखला पर कोई ध्यान नहीं दिया। ऊपर उड गया। सभी काफी ऊपर आ गए। जुलाहे ने सोचा मैं भी कैसा मूर्ख ह! टपना करधा लाना ही भूल गया।
यह सोचते हुए उसने अफसोस से अपने हाथ मले। इस बीच हाथी की पूंछ उसके हाथों से छूट गई और सब वापस धरती पर धम्म से आ गिरे।
जंगल राज
एक जंगल के जलकुंड पर एक मेमना पानी पी रहा था। अभी उसने पानी भी नही पिया था कि एक चीता उधर आया। मेमने को देखकर चीते के मुंह मे पानी आ गया उसने सोचा कैसे न कैसे इस मेमने को खाया जाए। चीता मेमने के पास आया मेमने ने चीते से राम-राम की।
चीते ने गुस्से मे कहा- आज तो तुम मुझसे बच नही पाओगे। मै तो तुम्हें खाऊंगा। मेमने ने कातर स्वर मे कहा-जंगल के राजा मेरा क्या कसूर है जरा बताने की कृपा करे। तुमने १ साल पहले मुझे गाली दी थी चीते ने कहा। पर मै तो ६ महीने का ह मेमने ने कहा।
चीते ने कहा तब तो तुम्हारे बाप ने गाली दी होगी। पर मेरा बाप तो मेरे जन्म के पहले ही लकडबग्गे के हाथो मारा गया।
चीते ने पलटकर कहा- तब तो तुम्हारी मॉ ने गाली दी होगी।
पर मेरी मॉ तो कभी इस जंगल मे आई ही नही वह तो बाडे में बंधी रहती हैं।
चीते ने पलटवार किया फिर भी तुम नही बच सकते क्यो कि मुझे गाली एक भेड ने दी थी तुम भेड के जाए बच्चे हो, इसलिये तुम्हारे जाति भाई की सजा तुम्हे मिलेगी यही जगंलराज का कानून है। मेमना मिमयाता रह गया और चीते ने उसे अपना भोजन बना लिया।
लोभ की लत बहुत बुरी
राजा नल की कहानी बहुत पुरानी हैं। इस कहानी के जरिए इस बात को कहने की कोशिश की गई है कि जब मनुष्य के मन में लोभ या लालच बढ जाता हैं तो उसकी बुद्धि का नाश होने लगता हैं। वह अपने लोभ पर अंकुश नहीं लगा पाता और राजा नल की तरह बर्बाद हो जाता हैं। लालच की भावना प्रत्येक व्यक्ति के मन में बैठी होती हैं।
राजा नल बडे प्रतापी राजा थे। वे सर्वगुण सम्पन्न, सदाचारी और प्रजा पालक थे। उनकी कृति की गाथा हर दिशा में गाई जाती थी। पता नहीं एक दिन क्या हुआ कि राजा असावधानीवश शौचादि के बाद बिना पवित्र हुए ही संध्या वंदन करने लगे। राजा जैसे ही अपने नियमों के प्रति सुस्त हुए उनकी बुद्धि मंद हो गई। बुद्धि मंद हुई तो उनके निर्णय प्रभावित होने लगें। एक दिन वे अपने भाई और मित्र राजा पुष्कर के साथ बातों-बातों में जुआ खेलनें बैठ गए। वे हारने लगे इौर हारते ही चले गए। हारने के लिए अपनी पत्नी दमयंती के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचा। अपनी पत्नी दमयंती को भी दांव पर लगाने ही वाले थे कि अच्छे विचारों ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया। उन्हें याद आ गया कि यह वहीं दमयंती है जो उनकी धर्मपत्नी हैं। जब उसके साथ विवाह हुआ था तो आशीर्वाद देने के लिए इन्द्र आदि देवताओं को भी आना पडा था। लेकिन जब तक उनके मन में अच्छे विचार आते, तब तक तो वे अपना सर्वस्व खो चुके थें। जुए में सब हारने के बाद अपना भरा-पूरा राजपाट छोड कर दमयंती के साथ महल से बाहर निकल गए।
प्रजा ने उनको जुआ खेलने से बहुत रोका था। लेकिन उन्होंने किसी की बात नहीं मानी। पर अब पछताने के अलावा कोई रास्ता नही था। प्रजा भी प्रिय राजा को दयनीय हालत में देख कर काफी दुखी थे। एक गलत निर्णय ने राजा को बर्बाद कर दिया था। इधर राजा पुष्कर ने अपने नगर में घोषणा कर दी थी कि ’जो कोई राजा नल या उनकी पत्नी दमयंती की किसी भी प्रकार मदद करेगा तो उसे फांसी की सजा दे दी जाएगी।‘ इसलिए राजा नल की चाह कर भी उनकी प्रजा ने कोई मदद नहीं की। तीन दिनों तक अपने नगर में भूखे-प्यासें भटकने के बाद वे जंगल की ओर चल पडे।
एक दिन राजा नल ने कुछ खूबसूरत सुनहरे पंखों वाली चिडया का एक झुंड देखा। उन्हें लगा कि वे सभी सोने के पंखों वाली चिडया हैं जिन्हें पकड कर और उनके पंखों को बेच कर धन कमाया जा सकता हैं। लेकिन बिना जाल के पकडना संभव नहीं था। लेकिन लोभ में राजा ने फौरन अपने वस्त्रों को शरीर से उतारा और उसका जाल बना कर चिडया की तरफ फेंका। वे उनको पकड पाते इसके पहले ही वे जाल के साथ आसमान में उड गई। राजा नग्न अवस्था में रह गए। उन्हें अपने ऊपर काफी शर्म आ रही थी। एक प्रतापी राजा की ऐसी मति भ्रष्ट हुई कि वह नग्न हो गया था। उनके पास तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं थे। राजा पश्चाताप करने लगें।
बिटिया
एक राजा के सात रानियां थी। संतान न होने के कारण राजा बहुत दुःखी रहता था। आवेश में उसने सभी रानियों को बुलवा भेजा। राजा ने कहा,’तुम सातों में से एक-न-एक को एक वर्ष के अंदर मां बनना होगा। ऐसा ना हुआ तो मैं तुम सातों को महल से बाहर निकाल दूंगा। सभी रानियां एक दूसरे का मुंह ताकने लगी।
कुछ ही दिनों बाद रानियों को एक उपाय सुझा। सभी ने मिलकर निर्णय लिया कि राजा को खबर कर देते है कि छोटी रानी के बच्चा होने वाला हैं। बडी रानी ने राजा को यह समाचार भिजवा दिया। महल में खुशियां मनाई जाने लगी। किन्तु छोटी रानी परेशान हो उठी। प्रसव का समय हो गया। बडी रानी ने एक तरकीब ढूंढ निकाली। वह एक बिल्ली के बच्चे को ले आई और एक दासी को कुछ पैसे दिए, ताकि वह राजा से कहे लडकी पैदा हुई हैं। दूसरी बात यह तय की गई कि एक पंडित को पैसे दे कर पटाया जाए और उसके द्वारा राजा को यह कहलवाया जाए कि बारह वर्ष तक लडकी पर पिता का साया नहीं पडना चाहिए।
सभी को दोनो सुझाव जंच गए। अगले दिन दासी के हाथ राजा को खबर भेज दी गई कि कन्या हुई हैं। राजा सुनकर खुश हुआ। जब राजा ने कहा कि वह रानी और अपनी बेटी को देखने जा रहा है तो बडी रानी ने कहा, ’महाराज! जाने से पहले पंडितजी से सलाह अवश्य कर लें। पता नहीं, बच्ची के ग्रह कैसे हैं? पंडित ने राजा से वहीं कहा जो पहले से तय किया गया था। वह बोला,’राजन! आफ ग्रह इस बच्ची से टकराते हैं। अच्छा होगा यदि आप बारह वर्ष तक अपनी पुत्री से न मिलें।‘ राजा ने कहा,’भाई! मैं तो उसकी सलामती के लिए सब कुछ ही दिन बाकी थे तो राजा ने बडी रानी को बुलवाया और उससे कहा, ’रानी! अब बारह वर्ष बीतने में कुछ दिन ही बाकी हैं। इतनी लंबी अवधि मैनें बहुत मुश्किल से गुजारी हैं। पंडितजी से बात करती हूं‘ इतना कह कर चली गई। बडी रानियों ने सभी रानियों को बुलाया। सभी एक साथ मिलकर सोचने लगी। छोटी रानी को उपाय सुझा, उसने कहा कि पंडितजी से यह कहा जाए कि बारह वर्ष से पहले-पहले शादी कर देनी जरूरी हैं।
राजा ने मंत्रियों को अच्छे वर की तलाश करवाई। विवाह की तिथि निश्चित कर दी गईं। विवाह से कुछ दिन पहले अपने होने वाले दामाद को बडी रानी ने अपने पास बुलाया ओर सारी कहानी सुनाते हुए बोली, ’बेटा, हम बडी मुसीबत में फंस गए हैं। तुम चाहो ंतो हमारी मदद कर सकते हों‘ ’तुम राजा से यह कह दो कि वह दामाद का मुंह देख सकते हों, किन्तु लडकी का मुंह तीन वर्ष तक यह देख सकते। तुम्हारी मां को भी पंडित द्वारा यह कहलवा दिया जाएगा कि वह तीन वर्ष तक बहू का मुंह नहीं देख सकती, क्योंकि ऐसा करना उसके घर के लिए अशुभ होगा। इस प्रकार तुम हम सातों रानियों को मुसीबत से बचा सकतें हों।‘
लडका बडा नेक ओर दयालु था। उसे मुसीबत में फंसी रानियों पर दया आई। उसेन बडी रानी को वचन दिया कि वह वहीं करेगा जो रानी चाहती हैं। शादी बडी धूमधाम ये की गईं। डोली मे बिल्ली के बच्चें को विदा कर दिया गया। लडके ने मां से कह दिया कि बहू के लिए अलग चबूतरा बनवाया जाए, क्योंकि कोई भी तीन वर्ष तक उसका चेहरा नहीं देख सकता।
एक दिन त्यौहार पर लडके की मां ने दुखी होकर अपने बेटे से कहा, ’लोगों के घर बहू आने से रौनक आ जाती है, सास को सुख मिलता हैं। लेकिन मैं अभागिन ऐसी हूं, जिसे न तो बहू का स्पर्स देखने को मिला और न ही उसका कोई सुख।‘ बिल्ली चुपचाप सुन रही थी। अगले दिन जब उसकी सास बाहर गई तो पीछे से बिल्ली ने सारे घर को बुहार डाला, फिर पूंछ पर पोंछन बांधकर सारे घर में पोंछन लगा डाली। इतना करके वह अपने चबूतरें पर वापस लौटी तो घर भर को साफ-सुथरा देख कर राजकुमार की मॉ आश्चर्यचकित हो गईं। सोचने लगी, आखिर झाडू-बुहारी कौन कर गया?
एक दिन जब बिल्ली घर की सफाई कर रही थी तो शिवजी और पार्वती उधर स निकले। पार्वती ने बिल्ली को सफाई करते देखा तो रूक गई। पार्वती ने बिल्ली से ऐसा करने का कारण पूछा। पार्वती के पूछने पर बिल्ली बोली, ’राजा की संतान न होने के कारण रानियों की जान खतरे में थी। मेरे पति ने बडी कुर्बानी की हैं। मुझसे विवाह कर मुझे अपने घर ले आए। पार्वती को दोनो पर दया आई। उन्होंने नारियल तेल में भस्म मिला कर बिल्ली को देते हुए कहा,’इसे अपने बछन पर चार दिन मलने से सभी दुःख दूर हो जाएंगें। बिल्ली ने ऐसा ही किया। वह सुन्दर लडकी बन गईं। उसने अपनी एक टांग को छोडकर सारे शरीर में चार दिन तक तेल मला। चौथे दिन शाम को जब लडका लौटा तो बिल्ली के स्थान पर एक सुंदरी को देखकर आश्चर्यचकित हुआ। इस पर सुंदरी ने कहा, ’मैं। ही आपकी पत्नी बिल्ली हूं। शिव-पार्वती ने मुझे दर्शन दिए। उनसे मैंने अपनी सारी राम कहानी कही। अब मैं बिल्ली से स्त्री बन गई हूं। जब लडके को सुंदरी की इस बात पर विश्वास न हुआ तो सुंदरी ने अपनी वह टांग दिखाई जिस पर उसने तेल नहीं मला था। बिल्ली बोली,’यह अंग मैनें आपकी तसल्ली के लिए ही छोडा हैं। लडका बडा ही खुश हुआ। दूसरे दिन वह राजमहल पहुंचा। उसने सातों माओं को सारी कथा सुनाई। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। इसके बाद राजा को कन्या का मुंह दिखाने का निर्णय ले लिया गया। राजा अपनी रानियों सहित दामाद के घर पहुंचा। वहां अपनी रूपवती कन्या को देखकर वे सब फूले न समाए।
पोटली में क्या
किसान सुखराम कई खेतों का मालिक था। उनमें स्वयं काम करता था। पूरे परिवार का गुजारा उन्हीं खेतों से होता था। पर जैसे-जैसे वह बूढा होने लगा, उसे चिंता सताने लगी कि उसके दोनो बेटों में से कौन उसका काम सही ढंग से संभाल पाएगा। बडा बेटा ’राम‘ या छोटा बेटा ’श्याम।‘ ऐसा ख्याल आते ही उसे एक उपाय सूझा। क्यों न दोनों बेटों की परीक्षा ली जाय। दोनों में से कौन ज्यादा योग्य और ईमानदार हैं?
सुखराम ने एक दिन दोनों बेटों को पास बुलाया और दोनों को अलग-अलग एक पोटली दी। फिर बोला-’बेटा राम! तुम यह पोटली खेत में ले जाओं और पूर्व दिशा में जो आम का पेड लगा है उसके नीचे गड्ढा खोदकर दबा देना। और श्याम तुम अपनी पोटली को पश्चिम में लगे आम के पेड के नीचे गड्ढा खोदकर दबा देना। हां एक बात का ध्यान रहे कि पोटली खोलकर मत देखना कि इसमे क्या हैं ?‘
’जी पिताजी!‘ कहकर दोनों अपनी-अपनी पोटली उठाकर चल पडे। रास्ते में राम अपनी एक ही धुन में मस्त था कि उसे पिताजी के कहे अनुसार पोटली को पूर्व दिशा में लगे आम के पेड के नीचे गाडना हैं। पर श्याम के मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे कि पिताजी ने पोटली खोलनें से मना क्यों किया हैं। ? उसने राम से पूछा -’भइया इसमें क्या होगा ?‘
’मुझे क्या पता, लौटकर पिताजी से ही पूछ लेना।‘ राम बोला।
’क्या इसमे सोना होगा जो हमें छिपाकर रखना हैं ?‘
’पता नहीं तुम तो चुपचाप वो करो पिताजी ने कहा है।‘
श्याम की बात अनसुनी कर वह फिर बोला-’नहीं सोना नही होगा, क्योंकि यह हल्की हैं। क्या इसमे पिताजी की सम्पति के कागजात होंगे ?‘
’मुझे नहीं मालूम।‘
’भइया जरा अपनी पोटली तो दिखाओ वह हल्की है या भारी?‘
’नहीं मैं नहीं दिखाऊंगा।‘ राम थोडा तेज आवाज में बोला।
’कही ऐसा तो नहीं कि तुम्हारी पोटली में सोना हो और मेरी पोटली में कागजात!‘ श्याम उत्सुकता से बोला।
’पिताजी ने जैसा कहा है वैसा करों यह मत सोचों कि कहां क्या हैं? अब की बार राम थोडा नाराज होकर बोला। श्याम की बकबक से तंग आकर राम जल्दी-जल्दी चलने लगा। श्याम को अच्छा मौका मिल गया। उसने सोचा, भइया तो आगे बढ गए है, मैं चुफ से पोटली खोलकर देखता हूं कि उसमें क्या हैं ?
राम तो आगे बढकर पिताजी के बताए स्थान खोदने लगा और श्याम रास्ते में ही बैठकर पोटली खोलनें लगा। उसमे कुछ कागज के टुकडे और रूई थी। यह देखकर श्याम को गुस्सा आया। वो पिताजी की बात भूल उल्टे पैर घर की तरफ लौट पडा और घर पहुंचते ही गुस्से से बोला-’पिताजी,पिताजी!‘
दो पीपे फारसी
एक छोटे गाँव में सीधें-साधें ग्रामीण रहते थे। पजांब में तब दुर्रानियों का राजपाट था। दुर्रानी फारसी बोलते थे।वे पजांबी नही जानते थे। ग्रामीण बडी मुश्किल में पड गये। हाकिम लगान उगाने आते तो किसान उन्हें अपना नफा नुकसान समझा नही पाते। वे अपना सारा समान हाकिमो के पास रख देते और अपना पीछा छुडाते थे।
एक दिन गांव वालो ने सभा की। दो लोगो को जो अक्लमंद थे उनको काबुल भेजना तय किया ताकि वे वहां से फारसी भाषा ला सके।इस काम के लिये दो सफेद दाढी वाले अनुभवी लोगो को चुना गया। दोनो बुढे पैदल ही लंबी यात्रा के लिये निकल गये। वे हर गॉव में बडी उत्सुकता से पूछते-यहां कोई फारसी बेचने वाला है? गॉव वाले उन पर हसंते। आखिर वे जलालाबाद शहर पहुंचे। शहर के दरवाजे पर उन्हें एक शैतान किस्म का आदमी मिला। ग्रामीणों ने उससे पूछा कि हमारे गाांव के लिये थोडी फारसी चाहिये। वह आदमी तुरंत समझ गया कि ये महामूर्ख है। इन्हें उल्लू बनाकर पैसा ऐठना काफी आसान है। तो वह बोला -क्यों नही! अगर तुम पैसा चुकाने के लिये तैयार हो तो मेरे पास २ पीपो में बहुत बढया फारसी भरी है। वह उन्हें अपने घर ले गया और उन्हें भोजन खिला कर सुला दिया। बदमाश आदमी ने देखा कि उसके घर के आगे कुछ ततैयें रोज घोंसला बनाते हैं। शतान आदमी ने दो पीपो में कुछ मिठाई रखी और उसमें ततैयों के बच्चों समेत मिट्टी के घरदे भर दिये। फिर उनके ऊपर ढक्कन लगाकर ग्रामीणों के हवाले कर दिये। वह बोला - रास्ते में पीपा खोलना मत,नही तो फारसी भाग जाएगी। सभांल के रखना इसमे ठसाठस फारसी भरी हैं। गांव पहुंच कर जिन-जिन लोगो को फारसी चाहिये उन्हें अन्धरे कमरे में इकट्रठा करना। कमरे के दरवाजे - खिडकियां बंद करना और उन्हें अपने - अपने कपडे उतारने के लिये कह देना। फिर पीपे खोले । सबको अपना हिस्सा मिल जायेगा। वह ग्रामीण जल्दी-जल्दी गांव पहुंचे और सभी पडोसियों को पीपा दिखाया और एक पल भी गंवाए बिना वे एक अन्धेरे कमरे में गये और अपने - अपने कपडे उतारकर पीपे को खोल दिया। बंद ततैये उडे और उन पर टट पडे वे दरवाजा तोडकर भागे और चिल्लाने लगे। उनके मुहं सूज गये। इसके बाद गांव वालो ने तय किया कि फिर कभी फारसी में टांग नही अडायेगे। हम अच्छे हमारी भाषा अच्छी।
बहादुर राजकुमारी
एक राज्य में दो खूबसूरत राजकुमारियां आराम से रहती थी। उनके राज्य में चारों तरफ शान्ति और प्रेम का वातावरण था। बडी राजकुमारी का नाम अन्निका और छोटी का नाम ब्रिटीका था। एक दुष्ट राक्षस ब्रिटीका को जबरदस्ती उठाकर ले जाता हैं और अपने शक्तिशाली मायाजाल में बंद कर देता हैं। उसके माता-पिता अपनी बेटी के लिए दुःखी होते हैं, लेकिन वे दुष्ट राक्षस का मुकाबला नहीं कर पाते। लेकिन उसकी बहिन अन्निका शक्तिशाली थी। वह अपने जादुई घोडे पर बैठकर आकाश में रहने वाले दुष्ट राक्षस से अपनी बहिन को बचाने के लिए चली गई। वहां राक्षस के सैनिकों ने उस पर आक्रमण कर दिया। राजकुमारी ने अपनी अद्भुत शक्तियों के दम पर जल्द ही उन सबको मार डाला। फिर वह राक्षस को ढूंढने लगी। वहां उसे एक गोल आग का दरवाजा दिखाई दिया। वह अपने घोडे सहित उस आग के घेरे में घुस गई और राक्षस को तलाश करने लगी। वहां पहुंचकर राजकुमारी की आंखे आश्चर्य से फैल गई। वहां एक शानदार महल था। वह उसे देखती जा रही थी। अचानक पीछे से उसे अपनी बहिन ब्रिटीका की आवाज आई। उसने चारों तरफ देखा लेकिन उसे कोई दिखाई नहीं दिया। फिर ब्रिटीका ने उससे कहा,’अन्निका दुष्ट राक्षस के जादू के कारण तुम मुझे देख नहीं सकते लेकिन मैं तुम्हें आसानी से देख सकती हूं।‘ तुम्हारें पीछे जो दरवाजा है उसे अगर तुम खोल दोगी तो मैं उस राक्षस के मायाजाल से मुक्त हो जाऊंगी। अन्निका दरवाजे को खोलने की कोशिश करने लगी। लेकिन दरवाजा नहीं खुला। इतने में ही अट्टहास करता हुआ राक्षस वहां आ गया। उसने अन्निका से कहा, ’इस दरवाजे की चाबी मेरे पास हैं और मैं तुम्हें चाबी दूंगा नही।‘ फिर उन दोनों में भयंकर लडाई शुरू हो गई। अन्निका ने जल्द ही अपनी शक्तियों से उस राक्षस का अंत कर दिया। राक्षस के मरते ही उसका मायाजाल समाप्त हो गया और राजकुमारी ब्रिटीका भी उसके मायाजाल से मुक्त हो गयी। अन्निका अपनी बहिन को लेकर वापस अपने महल पहुंच गई और वे खुशी-खुशी रहने लगे।
घर का न घाट का
एक चरवाहा था, नन्दू। उसके पास बहुत सी बकरीयां थी। वह बडी सावधानी से उनकी देखभाल करता था।
एक बार उस इलाके में भयंकर अकाल पडा। पशुओं के लिए चारा मिलना दुर्लभ हो गया। आखिर चन्दू बकरियों के साथ चारें की खोज में गांव से निकल पडा।
चलते-चलते नन्दू एक घाटी में जा पहुंचा। वहां चारों ओर हरियाली फैली हुई थी। नन्दू ने वही रहने का फैसला किया। वहां एक पुरानी झोपडी भी थी। नन्दू ने मरम्मत करके उसे अपने रहने लायक बना लिया। बकरियों के लिए भी उसने एक बाडा बना दिया।
एक-दो दिन बारिश हुई। घास-पात में खूब मच्छर हो गए। नन्दू ने एक उपाय सोचा,’लकडया एकत्रित करके जगह-जगह आग जला दी।‘ खूब धुंआ हुआ। धुंए से मच्छर भाग गए। अब तो वह रोज यही करने लगा। आसपास के गड्ढो को भी भर दिया। इस तरह धीरे-धीरे मच्छर खत्म हो गए। अब बकरिय को कोई तकलीफ न थी।
एक दिन नन्दू फल-फूल की तलाश में जंगल में गया। वहां सुनहरी रंग के हिरण एक समूह में आने लगे। हिरणों को देखकर नन्दू के मन में लोभ आ गया। सोचने लगा-क्यों न इन्हें पकड कर राजा को उपहार में दिया जाए। ऐसे खूबसूरत हिरण पाकर राजा बहुत खुश होंगे। हो सकता है, मुझे बढया ंइनाम भी मिल जाए। राजा धन देंगे, तो मेरी मौज हो जाएगी। अब नन्दू को अपनी बकरियों की परवाह न रही। वह नित्य हिरणों को आकर्षित करने के तरीके सोचता रहता। उसने वहीं नई झोंपडी बना ली। वह अपनी बकरियों को लगभग भूल ही गया। देख-रेख के बिना बकरियों कमजोर और बीमार रहने लगी। उनमें से कुछ चरते-चरते राह भूलकर भटक गई। कुछ मर गई। धीरे-धीरे मौसम बदलने लगा। बारिश और ठंड के बाद गर्मी आ गई। हिरण वहां से घने जंगल में भाग चले गए। नन्दू हिरणों की खोज में फिरने लगा। लेकिन हिरण कहां मिलतें।
अंत में वह समझ गया, अब हिरण नहीं आएंगे। तब उसे बकरियों की याद आई। वह भारी मन से अपनी पुरानी झोपडी में लौट आया। लेकिन उसे बाडे में एक भी बकरी दिखाई नहीं दी। नन्दू ने पछता कर अपना सिर पीट लिया। लालच के कारण वह घर का रहा, न घाट का।
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